Wednesday, March 23, 2011

विवाद में संबंध

विवाद में संबंध




अरविन्द जैन
(वरिष्ठ अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट)
स्त्री और पुरुष के रिश्ते को केवल दांपत्य में सीमित रखना और इसके बाहर निकलते ही शादी के दायरे से अलग होना, अब तक परिभाषित नहीं किया जा सका है। हमेशा से बहस का मुद्दा रहे इन रिश्तों में गुजारा-भत्ता को लेकर विवाद होते रहे हैं। आर्थिक मदद और टेम्प्रेरी दैहिक रिश्तों को लेकर देश की सबसे बड़ी अदालत ने बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है
ताज्जुब की बात है कि एक ही मसले पर पंद्रह दिनों के भीतर सुप्रीम कोर्ट की दो पीठों ने अलग-अलग फैसले सुनाये। मामला यह था कि यदि महिला लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रही है तो आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1973 की धारा- 125 के तहत उसे मैंटेनेंस (गुजारा-भत्ता) मिलना चाहिए? 7 अक्टूबर, 2010 को एक पीठ ने इस मामले को बड़ी पीठ के पास भेजने का निर्णय लिया, जबकि दूसरी पीठ ने 21 अक्टूबर, 2010 को उसे बंद करना उचित समझा। तभी यह कानूनी विशेषज्ञों सहित मीडिया के हलकों में गरमागरम बहस का मुद्दा बन गया। लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रही महिलाओं को गुजारा-भत्ता दिए जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मार्कडेय काटजू और न्यायाधीश टी. एस. ठाकुर ने डी. वेलुसामी बनाम डी.पटचाईम्मल (2011 सीआरएल. एल. जे 320) मामले में 21 अक्टूबर, 2010 को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-125 के तहत विरोधाभासी फैसला सुना दिया कि हमारेमुताबिक, लिव-इन-रिलेशनशिप वाले सभी लोगों को शादी के समान दायरे में आने वाले घरेलू उत्पीड़न कानून-2005 के तहत लाभ नहीं मिल सकता। ऐसे लाभ के लिए कानून द्वारा निश्चित की गयी शर्त पूरी होनी चाहिए और उसे सबूत के जरिये से सिद्ध भी करना होगा। यदि कोई पुरुष किसी को बतौर रखैल रखता है, जिसे वह आर्थिक मदद भी करता है और शारीरिक रिश्तों के लिए उसका इस्तेमाल करता है और/या वह नौकर हो, तो हमारे विचार से, यह रिलेशनशिप शादी के दायरे में नहीं आएगी। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया, जबकि अलग समवर्ती विवाह अदालत एवं मद्रास हाई कोर्ट ने हटकर आदेश पारित किया और डी. पटचाईम्मल को पांच सौ रुपए गुजारा- भत्ता देने का आदेश दिया। उन्होंने दावा किया था कि उसने याचिकाकर्ता डी. वेलुसामी से शादी की है। हालांकि, न्यायाधीश काटजू और न्यायाधीश ठाकुर एक ओर यह कहकर सहानुभूति जताते हैं कि 'इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस मामले का हम जिक्र कर रहे हैं, उसमें 2005 के कानून के तहत कई महिलाएं आती ही नहीं हैं, लेकिन कोर्ट का काम कानून बनाना या उसमें संशोधन करना नहीं है। संसद ने 'रिलेशनशिप इन द नेचर ऑफ मैरिज' शब्द का प्रयोग किया है न कि 'लिव-इन रिलेशनशिप' का। व्याख्या करने के लिए अदालत लैंग्वेज ऑफ स्टेटय़ूट को नहीं बदल सकती।'
लेकिन, अगले पैरे में देश की आधी आबादी को ध्यान में रखते हुए याद दिलाया गया- 'सामंती समाज में शादी से इतर किसी दूसरे पुरुष और स्त्री के शारीरिक रिश्ते की मनाही है और उसे घृणित माना गया है। जैसा लिओ टॉलस्टॉय अपने उपन्यास 'अन्ना करेनिना', गुस्ताव फ्लाउबर्ट के उपन्यास 'मैडम बावेरी' और महान बंगाली लेखक शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास में वर्णित है। डी. ए. एक्ट-2005 को तैयार करने वाले और अब एडिशनल सॉलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह ने न्यायाधीशों की आलोचना की और अदालत से गुजारिश की कि निर्णय सुनाते वक्त लिंग से जुड़े संजीदा शब्दों के इस्तेमाल से दूरी बनाये रखी जाए। न्यायाधीश काटजू और न्यायाधीश ठाकुर की पीठ के समक्ष उन्होंने कहा कि वह फैसले में प्रयुक्त शब्द 'रखैल' के इस्तेमाल के लिए आवेदन करेंगी। उन्होंने सवाल किया कि 21वीं सदी में सुप्रीम कोर्ट 'कीप' (रखैल) और 'एक रात की बात' जैसे शब्द का इस्तेमाल कैसे कर सकती है ? हालांकि, न्यायाधीश ठाकुर ने घाव पर नमक छिड़कते हुए इंदिरा जयसिंह से पलटकर सवाल किया कि 'क्या 'रखैल' की तुलना में 'उपपत्नी' शब्द का इस्तेमाल करना ठीक रहेगा?'
निस्संदेह, इस तरह की अभिव्यक्ति अपमानजनक है और यह महिलाओं को बहुत ही बुरे ढंग से चित्रित करती है। यह तो नैतिक निर्णय की बात है और लेकिन सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीशों को ऐसे शब्दों के इस्तेमाल से बचना चाहिए। यह लिंग समानता के राष्ट्रीय संकल्प के नजरिये से भी ठीक नहीं है और इसमें वैवाहिक स्तर को लेकर भी भेदभाव झलकता है। मार्च, 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने 'महिला दक्षता समिति' की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें 21 अक्टूबर, 2010 के निर्णय की समीक्षा की मांग की गई थी, जिसमें यदि महिला पुरुष के साथ रहती है तो उसे 'रखैल' कह दिया जाता है। समीक्षा याचिका को खारिज करते हुए न्यायाधीश मार्कडेय काटजू और न्यायाधीश टी. एस. ठाकुर ने कहा- 'समीक्षा याचिका पर सावधानीपूर्वक ध्यान दिया गया है। साथ ही, हमें उससे संबंधित कागजों पर विचार करने में कोई वजह नहीं दिख रही कि 'महिला दक्षता समिति' की समीक्षा याचिका पर ध्यान दिया जाए।'
21 अक्टूबर, 2010 में जब फैसला सुनाया जा रहा था, तब भी हमें अजीब महसूस हो रहा था। यूं कहें कि धक्का लग रहा था क्योंकि न्यायाधीश मार्कडेय काटजू और न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर ने न्यायाधीश जी. एस. सिंघवी और न्यायाधीश ए. के. गांगुली के फैसले पर ध्यान नहीं दिया, जो उन्होंने 7 अक्टूबर, 2010 को चिन्मुनिया बनाम वीरेंद्र कुमार सिंह और अन्य (2011 सीआरएल. एल.जे. 96) मामले में दिया था और इसी मसले पर अब बड़ी पीठ ने फैसला सुनाया। न्यायाधीश गांगुली ने लिखा- 'सामाजिक सरोकारों के मद्देनजर 1973 की संहिता की धारा-125 के तहत हम 'पत्नी' की परिभाषा पर व्यापक नजरिया रखते हैं। हालांकि दो न्यायाधीशों की पीठ में हम ऐसा फैसला नहीं सुना सकते थे। हमें आशंका थी कि उपयरुक्त दोनों मामलों में व्यक्त विचारों को लेकर विरोधाभासी सोच सामने न आ जाए।'
पीठ ने माननीय मुख्य न्यायाधीश से आग्रह किया कि इसे अन्य लोगों के बीच बड़ी पीठ तय करे कि यदि एक पुरुष और महिला कुछ खास वक्त में बतौर पति-पत्नी रह रहे हैं तो उसे वैध शादी जैसा माना जा सकता है और इस तरह सीआरपीसी की धारा-125 के अंतर्गत महिला गुजारे-भत्ता की हकदार है। यदि घरेलू हिंसा कानून-2005 के प्रावधानों के मुताबिक, सीआरपीसी की धारा-125 के अंतर्गत गुजारे-भत्ते की दावेदारी की जाती है तो शादी के प्रमाणपत्र को अनिवार्य रूप से प्रस्तुत करना होगा। यदि परंपरागत संस्कारों और अनुष्ठानों के तहत शादी हुई है, लेकिन हिन्दू विवाह कानून-1955 की धारा-7(1) या दूसरे पर्सनल लॉ के तहत सभी अर्हताएं पूरी भी न होती हों, तो भी महिला को सीआरपीसी की धारा-125 के तहत गुजारा-भत्ता देना होगा। (बाकी पेज दो पर) यह संबं ध
पीठ ने माननीय मुख्य न्यायाधीश से दरख्वास्त की कि इसे अन्य लोगों के बीच, साथ ही इस मसले पर बड़ी पीठ तय करे कि यदि एक पुरुष और महिला कुछ खास अवधि में बतौर पति- पत्नी रह रहे हैं तो उसे वैध शादी जैसा माना जा सकता है और इस तरह सीआरपीसी की धारा- 125 के अंतर्गत महिला गुजारे-भत्ता की हकदार होगी। यदि घरेलू हिंसा कानून-2005 के प्रावधानों के मुताबिक, सीआरपीसी की धारा- 125 के अंतर्गत गुजारे- भत्ते की दावेदारी की जाती है तो शादी के प्रमाणपत्र को अनिवार्य रूप से जमा करना होगा। यदि परंपरागत संस्कारों और अनुष्ठानों के तहत शादी हुई है, लेकिन हिन्दू विवाह कानून-1955 की धारा-7(1) या दूसरे पर्सनल लॉ के तहत सभी अर्हताएं पूरी नहीं होतीं, तो भी औरत को सीआरपीसी की धारा- 125 के तहत गुजारा- भत्ता देना होगा।
माननीय न्यायाधीश जी. एस. सिंघवी और न्यायाधीश ए. के. गांगुली ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा, 'हमारी राय है कि 'पत्नी' शब्द की व्यापक व्याख्या होनी चाहिए। उन मामलों में भी, जब एक पुरुष और एक महिला एक साथ बतौर पति-पत्नी काफी लंबे अरसे से रह रहे हैं सीआरपीसी की धारा-125 के तहत गुजारे-भत्ते के लिए शादी से पहले के सबूत नहीं देने होंगे, जिससे इस धारा के तहत लाभ-संबंधी प्रावधानों की सम्यक भावना और सारतत्व को अमल में लाया जा सकता है। हमें भरोसा है कि इस तरह की व्याख्या हमारे संविधान की प्रस्तावना में व्यक्त सिद्धांतों के अनुरूप सामाजिक न्याय और किसी की व्यक्तिगत गरिमा के दायरे में होगा।'
यह न्यायिक अनुशासन और औचित्य का तकाजा है कि न्यायाधीश काटजू और न्यायाधीश ठाकुर मामले पर ध्यान दें, जिसमें कानून के भीतर इसी मसले पर सर्वोच्च न्यायालय की दूसरी पीठ ने फैसले दिए। सीनियर एडवोकेट श्री जयंत भूषण का यह पेशेवर कर्तव्य और दायित्व है कि वह पीठ को एमिकस क्यूरी के रूप में कानून से संबंधित ऐसे मसले 7 अक्टूबर, 2010 को बड़ी पीठ के पास भेजें। ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले बार और पीठ के जरिये अपडेट होने आसान नहीं हैं। वजह यह है कि कम्प्यूटरीकरण के बावजूद इस मामले में कोई पण्राली ही नहीं खोजी गयी है। अगर व्यापक सुधारों के लिहाज से देखें, तो यह काफी गंभीर मसला है। इससे तो न्यायिक प्रक्रिया की साख प्रभावित हो सकती है। वर्तमान ढांचे के तहत तो एक पीठ दूसरी पीठ के सुनाये फैसले से पूरी तरह अनजान बनी हुई है। इस तरह सामान्य याचिकाकर्तागण एक ही नाव में यात्रा करते हुए अलग-अलग दिशाओं में भटक सकते हैं। (राष्ट्रीय सहारा, आधी दुनिया, २३.३.२०११)

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