Thursday, December 16, 2010

औरत दूसरी होने की सजा

RASHTRIYE SAHARA, UMANG, 15-12-2010

औरत दूसरी होने की सजा

(अरविन्द जैन)

सिर्फ यह तथ्य कि कोई स्त्री-पुरुष पति-पत्‍नी की तरह रहते है , किसी भी कीमत पर उन्हें पति-पत्‍नी का स्थान नहीं दे देता, भले ही वे समाज के सामने पति-पत्‍नी के रूप में पेश आते हों और समाज भी स्वीकार करता हो

दूसरी अपने समाज में पुरुषों के दूसरी शादी करने को उतनी घृणित नजर से देखने का रिवाज नहीं है, जैसे किसी शादीशुदा मर्द की दूसरी बीवी बनने वाली औरत को उपेक्षित किया जाता है, कानून में भी औरतों के इस संबंध को अधिकारहीन बनाये रखा है, शीर्ष स्त्रीवादी विचारक और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अर¨वद जैन-

भारतीय दंड संहिता की धारा-494 में प्रावधान है कि पति या पत्‍नी के जीवित रहते दूसरा विवाह दंडनीय अपराध है और प्रमाणित होने पर अधिकतम सात साल कैद और जुर्माना हो सकता है, परन्तु आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 उपयरुक्त अपराध को सं™ोय अपराध नहीं मानती, लिहाजा अपराध जमानत योग्य भी है

मौजूदा भारतीय समाज में सभी धर्म-वर्ग (मुस्लिम के अलावा) के लोगों के लिए, एकल विवाह की ही कानूनी व्यवस्था है। पति या पत्‍नी के जीवित रहते (बिना तलाक) दूसरा विवाह अवैध ही नहीं, दंडनीय अपराध भी है, बशत्रे कि कानूनी रूप से मान्य शत्रे पूरी हों। मसलन ’सप्तपदी‘ वगैरह। लेकिन ऐसे विवाह के परिणामस्वरूप हुए बच्चे, वैधानिक दृष्टि से वैध ही नहीं, बल्कि अपने मां-बाप की संपत्ति में भी बराबर के हकदार होंगे। हालांकि उन्हें ’संयुक्त परिवार की संपत्ति बंटवाने का कोई अधिकार नहीं होगा।‘ आश्चर्यजनक है कि दूसरी पत्‍नी को पति से गुजारा-भत्ता तक नहीं मिल सकता। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा-5 में विवाह के लिए तय पांच शर्तो में से सर्वप्रथम शर्त यह है कि किसी भी पक्ष (वर-वधू) का पति या पत्‍नी (विवाह के समय) जीवित नहीं होना चाहिए, वरना धारा- 11 के अनुसार विवाह पूर्णतया रद्द माना जाएगा और धारा- 17 के अनुसार ऐसा विवाह रद्द ही नहीं बल्कि भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494-495 के तहत दंडनीय अपराध भी होगा। धारा-5 की शर्त है कि विवाह के समय वर-वधू, दोनों में से किसी का भी पति या पत्‍नी जीवित नहीं होना चाहिए और धारा-17 कहती है कि दोनों में से किसी एक का भी पति या पत्‍नी जीवित है, तो दूसरा विवाह अवैध और दंडनीय अपराध होगा। अगर दोनों में से किसी एक का पति या पत्‍नी जीवित है, तो दूसरा पक्ष पता लगने पर (अगर चाहे) विवाह को रद्द तो घोषित करवा सकता है, मगर दंड नहीं दिलवा सकता/सकती। लेकिन अगर दोनों के ही पति-पत्‍नी जीवित हों, तो कौन-किसके विरुद्ध दावा दायर करेगा? जाहिर है, दोनों चुप रहेंगे। भारतीय दंड संहिता की धारा-494 में प्रावधान है कि पति या पत्‍नी के जीवित रहते दूसरा विवाह दंडनीय अपराध है और प्रमाणित होने पर अधिकतम सात साल कैद और जुर्माना हो सकता है, परन्तु आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 उपरोक्त अपराध को सं™ोय अपराध नहीं मानती, लिहाजा अपराध जमानत योग्य भी है। मतलब यह कि पुलिस या अदालत पीड़ित पक्ष द्वारा शिकायत (प्रमाण सहित) के बिना कानूनी कार्यवाही नहीं कर सकती और शिकायत पर कोई कार्यवाही होगी, तो अभियुक्त को जमानत पर छोड़ना ही पड़ेगा। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-198 के अनुसार शिकायत का अधिकार सिर्फ पहले पति या पत्‍नी को ही उपलब्ध है, न कि दूसरे पति या पत्‍नी को। वे चाहें तो किसी भी कारणवश खामोश रह, दूसरे विवाह को ’वैधता‘ प्रदान कर सकते है। हिन्दू विवाह अधिनियम लागू होने (18 मई, 1955) से पहले एकल विवाह का नियम सिर्फ स्त्रियों पर लागू होता था। पुरुष चाहे जितनी मर्जी, प}ियां रख सकता था। पुरुषों के लिए भी एकल विवाह का कानूनी प्रावधान बनाया गया। लेकिन कानून की अदालती व्याख्याओं ने सम्भावित सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में गतिरोधक की भूमिका ही निभाई। भाऊराव शंकर लोखंडे बनाम महाराष्ट्र (एआईआर 1965 सुप्रीम कोर्ट 1564) के मामले में माननीय न्यायमूर्तियों ने धारा-494 की व्याख्या करते हुए स्थापना दी कि ’हू एवर मैरीज‘ का मतलब है ’हू एवर मैरीज वैलिडली।‘ उन्होंने आगे कहा, ’सिर्फ यह तथ्य कि कोई स्त्री-पुरुष पति-पत्‍नी की तरह रहते है, किसी भी कीमत पर उन्हें पति-पत्‍नी का स्थान नहीं दे देता, भले ही वे बाहर समाज के सामने पति-पत्‍नी के रूप में पेश करते है और समाज भी स्वीकार करता हो।‘ न्यायमूर्तियों ने बहुत स्पष्ट रूप से लिखा है कि दूसरा विवाह भी विधिवत होना परम अनिवार्य है, वरन दंडनीय अपराध नहीं। इस निर्णय के पदचिन्हों पर ही चलते हुए अनेक निर्णय आते चले गए। (एआईआर 1966, सुप्रीम कोर्ट-614 और एआईआर 1971, सुप्रीम कोर्ट-1153 एआईआर 1979, सुप्रीम कोर्ट 713, 848) पुनर्विवाह के आपराधिक मामलों में भी सार्वजनिक और न्यायिक सहानुभूति इतनी पारदर्शी है कि किसी अतिरिक्त टिप्पणी की आवश्यकता नहीं। इस संदर्भ में अनेक उच्च न्यायालयों के बहुत से निर्णय बताएगिनाए जा सकते है। सर्वोच्च न्यायालय का ही एक और फैसला, शान्ति देव वर्मा बनाम कंचन पर्वा देवी (1991 क्रिमिनल लॉ जरनल 660) विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अपीलार्थी ने 1962 में पहला विवाह किया और बिना तलाक लिये 1969 में दूसरा। पहली पत्‍नी की शिकायत पर मजिस्ट्रेट ने पति व अन्य व्यक्तियों को डेढ़ वर्ष कारावास की सजा सुनाई, मगर अपील में सत्र न्यायाधीश ने सबको बाइज्जत बरी कर दिया। उच्च न्यायालय ने सिर्फ पति को दोषी माना और बाकी सबको रिहा कर दिया। 1979 में पति ने सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका दायर की, जिसका फैसला (10 अक्टूबर, 1990) सुनाते हुए न्यायमूर्ति रतनावेल पांडियन और के. जयचन्दा रेड्डी ने कहा, ’उच्च न्यायालय के निर्णय को बहुत ध्यान से देखने के बाद हमारा विचार है कि विवाह में सप्तपदी के संदर्भ में विश्वसनीय साक्ष्यों के बिना, उच्च न्यायालय द्वारा (पत्रों के आधार पर) अर्थ निकालना उचित नहीं।‘ उपरोक्त निर्णय के ठीक एक साल बाद बम्बई उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एम. एफ. सलदाना ने इन्दू भाग्य नातेकर बनाम भाग्य पांडुरंग नातेकर व अन्य (1992 क्रिमिनल लॉ जरनल 601) के अपील में कहा कि शिकायतकर्ता के लिए यह जरूरी नहीं है कि विवाह-संबंधी सभी रीति-रिवाज और कर्मकांडों को प्रमाणित करे। विश्वसनीय साक्ष्यों (विवाह प्रमाणपत्र) के आधार पर भी आरोप सिद्ध किया जा सकता है। न्यायमूर्ति सलदाना ने अपील में उठे प्रश्नों को ’बेहद महत्वपूर्ण समाजशास्त्री सवाल‘ मानते हुए निर्णय में लिखा, ’दूसरा विवाह करने संबंधी अपराध, विवाह की सामाजिक संस्था की जड़ों पर आघात करता है और भारतीय दंड संहिता बनाने वालों ने इसे गंभीर अपराध के रूप में वर्गीकृत किया है, क्योंकि यह मौजूदा विवाह संस्था को नष्ट करता है। इस अपराध के प्राय: आरोप लगाए जाते है लेकिन दुलर्भ मामलों में ही अदालतों के समक्ष प्रमाणित हुआ है या भारतीय समाज के अपने नियम है कि जो व्यक्ति से व्यक्ति, जाति से जाति, धर्म से धर्म और लिंग से लिंग के लिए फर्क है। ये नियम अपनी सुविधा के लिए जब चाहे, बना लिये जाते है और जो इनके विरोध में खड़ा होता है, उसको ’रेबेल‘ यानी परम्परा भंजक कहा जाता। समाज के नियम, कानून और संविधान से हमेशा इतर होते है क्योंकि कानू न और संविधान में एक से नियम होते है, सबके लिए। क्यों हम सब कानून और संविधान की बात न करके हमेशा वेद-पुराण,

बाइबिल, कुरआन, गुरु ग्रंथ साहिब की बात करते है। किसने कहा, ये सब ग्रंथ कुछ नहीं सिखाते, पर क्या आप वाकई इन ग्रंथों में लिखी हर बात मानते है या केवल कुछ बातें जो आपको सुविधाजनक लगती है, उनको मान कर अपना लेते है और बार-बार उनको हर जगह दोहराते रहते है। जितनी शिद्दत से आपने ये धर्म ग्रंथ पढ़े है, क्या उतनी शिद्दत से आपने अपने संविधान को कभी पढ़ने और समझने की कोशिश की है? भारत का संविधान सबको बराबर मानता है, हर धर्म को, हर जाति को और हर लिंग को। फिर क्यों ये समाज किसी को बड़ा और छोटा मानता है और क्यों यह समाज नारी को हमेशा दोयम का दर्जा देता है? नारी के नाम को बदलना शादी के बाद, -नारी को ’देवी‘ कह कर पूजना पर उसको समान अधिकार न देना, यहां तक कि पैदा होने का भी (कन्या घूणहत्या), -नारी का बलात्कार, अगर वह किसी की बात का प्रतिकार करे (लड़की को छेड़ा गया, प्रतिकार करने पर गाड़ी में खींचकर बलात्कार किया गया) -नारी को जाति आधरित बातों पर मारना (लड़की को गैर जाति युवक से प्यार करने की सजा उसको नग्न अवस्था में घुमाया जाना, पूरे गांव के सामने कोड़े से मारना) न जाने कितनी खबरें थीं अखबार में। इसलिए आग्रह है कि धर्मग्रंथों और सामाजिक नियमांे से उठकर कानून और संविधान की जानकारी लें। उसको पढ़ें और बांचें, ताकि समाज में फैली असमानता को दूर किया जा सके। धर्मग्रंथ, समाज के नियम, कानून और संविधान, चुनाव सही करें।

RASHTRIYE SAHARA, UMANG, 15-12-2010

Thursday, October 7, 2010

CHILD SEXUAL ABUSE: LAW & COURTS.

Sahara Time 􀂋 October 9, 2010 17 www.saharatime.com
Tepid lawmakers and somnolent authority
WHEN IT comes to inhuman trafficking and child abuse, there is a huge trust deficit. Right from a father to a teacher – several offenders have emerged from respectable categories. A less than-alert media has also encouraged the perpetrators of crime against minors. A legislation against child abuse is gathering dust in the Law ministry for long.

Lawmakers were officially informed that in the years 2005-2006 and 2007, there were 4,026, 4,721 and 5,045 cases of child abuse respectively. Last year, maximum number of cases (1,043) was reported from Madhya Pradesh, followed by Maharashtra (406), UP (471), Rajasthan (406), Chhattisgarh (368) and Andhra Pradesh (363), whereas in Arunachal Pradesh, number of such cases was as low as one. In Nagaland, Andaman Nicobar, Dadra and Nagar Haveli and Puducherry, number of such cases are 2 and 3 each respectively. Manipur recorded only one such case. Moreover, records of 2008 to 2010 are expected to be certainly on the higher side. The national capital is also not safe for children.

In a rare judgment, a division bench comprising justices B D Ahmed and V K Jain of Delhi high court came to the rescue of minors who had got married and minor boys who lure girls into marriage, kidnaps or rapes them, calling it 'valid.' And rules out lodging of an FIR regarding such cases as according to Hindu Marriage Act husband is the natural caretaker of his wife, so in case of minor wife, he should also bear this responsibility. This is not the first and last judgment…
there are several such cases piled up in high courts to Supreme
Court.

In fact, women and child safety is nowhere to be seen as a priority of the
government. Be it Parliament or society, everyone is a mute spectator to such grave issues. Ranging from making laws on child rights to its execution, making foolproof policies or setting up of such organisations, everything needs deep thinking. Without creating the necessary platform, it is impossible to eliminate child sexual abuse. 􀂋
(Arvind Jain is a lawyer with the Supreme Court; views
expressed here are personal)

Tuesday, October 5, 2010

some important links of articles

लेख "उत्तराधिकार बनाम पुत्त्राधिकार"- अरविन्द जैन

Ekkisavin Sadi Ki Ore
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वसुधा विशेषांक "स्त्री मुक्ति का सपना"- सम्पादक अरविन्द जैन , लीलाधर मंडलोई

Stree: Mukti
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लेख "अछूत की शिकायत कौन सुनेगा" - अरविन्द जैन

Bharatiya Dalit Sahitya: Pariprekshya
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लेख "यौन हिंसा और न्याय की भाषा" - अरविन्द जैन

Ateet Hoti Sadi Aur Stree Ka Bhavishya
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Nyayakshetre-Anyayakshetre
Arvind Jain - 2009 - 275 pages - Preview
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Aurat Hone Ki Saza
Arvind Jain - 2006 - 275 pages - Preview
औरत होने......
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Friday, October 1, 2010

अयोध्या विवाद और अदालती समाधान

अरविन्द जैन ज्वलंत प्रश्न यह धार्मिक आस्थाओं और सांस्कृतिक विरासत से जुड़ा भावनात्मक मसला भी है। पू रा फैसला पढ़ने के बाद कानूनी पेंच निकालने और आगे की रणनीति बनने-बनाने में सभी पक्ष समुचित समय लेंगे। फिलहाल कौन क्या, कब, क्यूं, और कैसे फैसला लेगा कहना मुश्किल है। फैसले की मूलभावना को देखेंे तो कहा जा सकता है कि सभी वादियों- प्रतिवादियों को विवादित स्थल पर बराबर का मालिकाना हक देकर यह सन्देश स्पष्ट रूप से दिया गया है कि अब इस मामले को और आगे न बढ़ाया जाये तो बेहतर होगा
इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ के न्यायमूर्ति एस. यू. खान, सुधीर अग्रवाल और धरम वीर शर्मा ने साठ साल पुराने राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर आखिर अपना फैसला सुना ही दिया। फैसले में सभी पक्षों अर्थात मुसलमान, हिंदुओं और निर्मोही अखाड़े को संपत्ति का संयुक्त धारक घोषित किया है। सभी तीन पार्टियों के लिए एक तिहाई हिस्सा घोषित किया है। यह सिर्फ प्रारंभिक डिक्री है। अंतिम डिक्री बाद में बनेगी। केंद्रीय गुंबद के नीचे वाले हिस्से जहां वर्तमान में मूर्ति स्थापित है, हिंदुओं को और निर्मोही अखाड़े को राम चबूतरा और सीता रसोई आवंटित की जाएगी। शेष हिस्सा मुसलमानों को मिलेगा। वास्तविक विभाजन के लिए सभी पार्टियां अपने सुझाव तीन महीने के भीतर दाखिल कर सकती हैं। तब तक यथा स्थिति बरकरार रहेगी। ऊपरी तौर पर देखने से लगता है कि विवादित स्थल पर सभी को बराबर मालिकाना हक मिल गया है और विवाद यहीं समाप्त हो जाएगा लेकिन मेरे विचार से अंतिम फैसला सुप्रीम कोर्ट में ही हो पाएगा। क्योंकि बहुत से सवालों पर सहमति असंभव लगती है। साठ सालों में 14,036 पृष्ठों पर 89 गवाहों के बयान और वरिष्ठ वकील सिद्धार्थ शंकर राय, रवि शंकर प्रसाद, जफरयाब जिलानी, अब्दुल मन्नान, मदन मोहन पाण्डेय, वीरेवर द्विवेदी, रणजीत लाल वर्मा, डॉ. सुब्रामण्यम स्वामी, कृष्णामणि के. एन. भट्ट, हरिशंकर जैन, अजय पाण्डेय, जी. राजगोपालन, राकेश पाण्डेय और ए. पी. श्रीवास्तव समेत करीब 40 अधिवक्ताओं की बहस के बाद यह निर्णय आ पाया है। अगर मामला सुप्रीम कोर्ट जाता है तो कहना मुस्किल है कि कितना समय और लगेगा। निर्णय के अनुसार इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिला कि बाबरी मस्जिद का निर्माण 1528 में बाबर ने करवाया था। इस ऐतिहासिक तथ्य पर ही सालों बहस कि जा सकती है, इसलिए मुमकिन है कि कुछ लोग इस बात को सिद्ध करने के लिए ही सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाएंगे। विवाद के लिए और भी तथ्य ऐसे है जो इस मामले को यहीं समाप्त नहीं होने देंगे। निर्णय में स्वीकार किया गया है कि 22 दिसम्बर 1949 को विवादित ढांचे के तीन गुम्बदों में से बीच वाले में रामलला की मूर्ति स्थापित की गयी थी और रामलला की पूजा-अर्चना विधिवत चलने के लिए 16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद की जिला अदालत का दरवाजा खटखटाया था। यह तथ्य भी आगे की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। मौजूदा फैसले का मुख्य उद्देश्य है कि ’यथास्थिति बनाए रखे जाने में ही सबकी भलाई है। उल्लेखनीय है कि सन् 1885 में महंत रघुवीर दास ने फैजाबाद के सब जज की अदालत में आवेदन किया कि बाबरी मस्जिद के सामने वाली जमीन यानी राम चबूतरा (भगवान राम की जन्म स्थली) पर उनका मालिकाना हक है। इसलिए राम मंदिर के निर्माण की उन्हें अनुमति दी जाए है। सब जज पंडित हरिकिशन ने उक्त आवेदन को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि मस्जिद के इतने करीब राम मंदिर बनाने से इस क्षेत्र की शांति भंग हो सकती है। महंत रघुवीर दास ने फैजाबाद के ही डिस्ट्रिक्ट जज कर्नल जे.ई.ए. चेम्बियार की अदालत में अपील की थी। इस ब््िराटिश जज ने उस क्षेत्र का निरीक्षण किया और फैसला दिया कि हिंदू जिस स्थान को पवित्र मानते है, वहां पर मस्जिद का बनाया जाना बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। चूंकि यह घटना 365 वर्ष पहले हो चुकी है, इसलिए इस मामले में कुछ नहीं किया जा सकता। इस मामले को यथास्थिति में रखे जाने में ही सबकी भलाई है। 1886 से लेकर 1949 तक यह विवाद खामोश ही रहा और मस्जिद में सरकारी ताला लगा दिया गया था। 1961 में अयोध्या निवासी मोहम्मद हाशिम ने मुसलमानों को वापस करने के लिए आवेदन फैजाबाद की अदालत में किया। 1983 तक कोई सुनवाई नहीं हुई। 1983 में रामजन्मभूमि की मुक्ति के लिए आंदोलन तेज हुआ। अयोध्या के वकील यू.सी. पांडे ने फैजाबाद की जिला अदालत में आवेदन किया कि रामजन्मभूमि पर लगा ताला खोल दिया जाए। इस पर 1986 की पहली फरवरी को ताला खोल देने का आदेश दिया गया। उत्तर प्रदेश के सुन्नी वक्फ बोर्ड और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने इस फैसले के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील की। हाईकोर्ट ने इससे संबंधित सारे मामलों को लखनऊ की बेंच में चलाने का आदेश दिया। 6 दिसम्बर 1992 को दुर्भाग्यपूर्ण घटना में बाबरी मस्जिद के ढांचे को ही गिरा दिया गया। तब से अब तक इस फैसले का इंतजार सभी को रहा है। अब 60 वर्ष बाद इस विवादास्पद मामले का जो फैसला हुआ है उसे देखते हुए तमाम राजनीतिक और धार्मिक संगठन इस फैसले का राजनीतिक लाभ उठाने और अपने आंदोलन को तेज करने की तैयारियां भी कर सकते है। देखना यह है कि आगे आने वाले समय में क्या हालात बनते है और उनसे कैसे निपटा जाए। मै समझता हूं कि यह सिर्फ कानूनी मामला भर नहीं है। यह धार्मिक आस्थाओं और सांस्कृतिक विरासत से जुड़ा भावनात्मक मसला भी है। पूरा फैसला पढ़ने के बाद कानूनी पेंच निकालने और आगे की रणनीति बनने-बनाने में सभी पक्ष समुचित समय लेंगे। फिलहाल कौन क्या, कब, क्यूं, और कैसे फैसला लेगा कहना मुश्किल है। फैसले की मूलभावना को देखेंे तो कहा जा सकता है कि सभी वादियों- प्रतिवादियों को विवादित स्थल पर बराबर का मालिकाना हक देकर यह सन्देश स्पष्ट रूप से दिया गया है कि अब इस मामले को और आगे न बढ़ाया जाये तो बेहतर होगा। साथ-साथ सभी संगठनों को भी विवेकपूर्ण ढंग से व्यापक राष्ट्रीयहित में सोचना-समझना होगा। ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी है कि वह इस फैसले के अनुसार सभी पार्टियों को समुचित हक के अलावा अन्य सभी आर्थिक और वैधानिक सुविधाएं प्रदान करवाकर मंदिर-मस्जिद के बीच की दीवार समाप्त करवा दे। मंदिर-मस्जिद पूजा-पाठ, अर्चना-आस्था के शांति स्थल बने जहां सब सुख शांति से रह सकें और राष्ट्र निर्माण में योगदान कर सकें। (राष्ट्रीय सहारा १.१०.२०१० पेज १०)

Wednesday, September 29, 2010

बचपन से बलात्कार

“बच्चे राष्ट्र कि बहुमूल्य संपत्ति हैं, देश का भविष्य हैं, समाज के कर्णधार हैं”.........मगर. भारत में पिछले कुछ सालों से बच्चों के साथ दुष्कर्म, यौन शोषण और अमानवीय उत्पीड़न के मामलों में लगातार वृद्धि हुई (हो रही) है. जब परिवार के भीतर ही यौन शोषण की खतरनाक मानसिकता फल-फूल रही हो तो बाहर क्या उम्मीद की जा सकती है? बच्चे संबंधों (पिता से लेकर गुरु तक) की किसी भी विश्वास योग्य छत के नीचे सुरक्षित नहीं रह गए हैं. मीडिया में लगातार बढ़ते सेक्स और अश्लीलता ने समाज के बीमार दिमागों की यौन कुंठाओं को, निर्धन और अबोध बच्चों के यौन शोषण की ओर अग्रसर किया है. भारत में अभी तक बाल यौन शोषण के लिए सैंद्धांतिक रूप में कोई विशेष कानून नहीं है और जो प्रावधान हैं- वो नाकाफी हैं. ‘बाल यौन शोषण सम्बंधी’ विधेयक, विधि मंत्रालय में ना जाने कब से धुल चाट रहा है.
महिला एवं बाल कल्याण मंत्री कृष्णा तीरथ ने पिछले सत्र में लोकसभा में बताया था कि वर्ष में 2005-2006 और 2007 में बच्चों के साथ दुष्कर्म के मामलों की संख्या क्रमश: 4026, 4721 और 5045 रही। पिछले साल मध्य प्रदेश में सर्वाधिक 1043 मामले दर्ज किये गये। इसके बाद महाराष्ट्र में 615, उत्तर प्रदेश में 471, राजस्थान में 406, में 398, छत्तीसगढ़ में 368 और आंध्र प्रदेश में 363 ऐसे मामले दर्ज किये गये, जबकि अरुणाचल प्रदेश में एक, नगालैंड में दो, अंडमान निकोबार, दादरा नागर हवेली एवं पुडुचेरी में तीन-तीन और मणिपुर में चार मामले पंजीकृत किए गए। २००८ से २०१० तक के आंकड़े इससे बेहतर नहीं बल्कि निराशाजनक ही सिद्ध होंगे.

आश्चर्येजनक है की हर साल मध्य प्रदेश बच्चों के साथ दुष्कर्म के मामलों में सर्वप्रथम रहता है. देश की राजधानी दिल्ली भी बच्चों के लिए सुरक्षित नहीं. बच्चों के यौन शोषण में बढ़ोतरी का (लगभग १२% अधिक) एक मुख्य कारण यह भी है की वे प्रतिरोध नहीं कर पाते. इधर किशोरों द्वारा भी बच्चों के विरुद्ध यौन अपराध के मामले बढ़ रहे हैं जो सचमुच चिंताजनक हैं.
इक्का दुक्के मामलों को छोड़ कर, बच्चियों से बलात्कार और हत्या के संगीन अपराधों में भी, सजाए मौत की बजाये उम्र कैद या दस साल तक कैद की ही सजा सुनाई गयी है. अधिकाँश अपराधी तो संदेह का लाभ पाकर बाइज्जत बरी हो या कर दिए जाते हैं. पुलिस से लेकर अदालत तक पूरी न्याय व्यवस्था अपराधियों के बचाव में ही खड़ी दिखाई देती है. सालों कोर्ट कचहरी करने के बाद पता चलता है की अभियुक्त को इस आधार पर या उस आधार पर छोड़ दिया गया है.कुछ मामलों में तो शाम तक कोर्ट में खड़ा रहने की सजा तक सुनाई गयी है.
नाबालिग लड़के द्वारा लड़की को बहला फुसला कर विवाह (अपहरण और बलात्कार) करने के एक मामले में पिछले दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति बी.डी. अहमद और वी. के. जैन ने फैसला सुनाया है कि बाल विवाह गैर कानूनी नहीं है, अपहरण और बलात्कार कि एफ. आई. आर रद्द कि जाती है और लड़का भले ही नाबालिग है मगर हिन्दू कानून के अनुसार अपनी पत्नी का प्राक्रतिक संरक्षक है सो नाबालिग पत्नी के संरक्षण का भार उसे ही दिया जाना चाहिए. यह ऐसा पहला और अंतिम निर्णय नहीं है. इससे पहले के केसों कि लम्बी-चोडी लिस्ट मौजूद है. हाई कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक.
दरअसल स्त्रियों और बच्चों की सुरक्षा सरकार की प्राथमिकता में कहीं दिखाई नहीं दे रही.समाज से संसद तक इन गंभीर मुद्दों पर चुप्पी का षड्यन्त्र पसरा हुआ हैं। बाल अधिकारों पर समुचित कानून बनाने से लेकर उनके क्रियान्वन तक कि फूलप्रूफ नीतियाँ और संस्थान स्थापित करने पर गंभीरता से विचार करना होगा. शिक्षा के संवैधानिक अधिकारों के नीचे पुख्ता जमीन तैयार किये बिना बाल यौन शोषण रोकना असंभव है. समय कि मांग है कि संसद शिघ्र ही भ्रूण हत्या से बाल विवाह कानून तक में आमूल-चूल संशोधन करे, इस से पहले कि बहुत देर हो जाये.

Friday, September 24, 2010

असहमति के अधिकार का हनन

प्रख्यात समाजशास्त्री और लेखक आशीष नंदी ने 8 जनवरी, 2008 को अंग्रेजी के एक राष्ट्रीय अखबार में गुजरात पर एक लेख लिखा। गुजरात की एक स्वयंसेवी संस्था ने उस लेख को आधार बनाकर आशीष नंदी के खिलाफ यह शिकायत दर्ज कराई कि उन्होंने गुजरात की गलत छवि पेश की है। इस शिकायत के आधार पर गुजरात सरकार ने आशीष नंदी के खिलाफ धारा 153 (ए) और 153 (बी) के तहत मुकदमा दायर कर दिया। लेकिन तब सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को आशीष नंदी को गिरफ्तार न करने का आदेश दिया। अब 1 सितंबर को दिल्ली हाईकोर्ट ने आशीष नंदी की गुजरात सरकार के उक्त मुकदमे को रोकने संबंधी याचिका खारिज कर दी है। प्रस्तुत है इस मसले और अभिव्यक्ति की आजादी पर एक टिप्पणी :

आजादी के पहले इस किस्म के मुकदमे गांधी, नेहरू, तिलक आदि नेताओं के खिलाफ भी हुए। ब्रिटिश हुकूमत अपनी राजसत्ता को बचाए रखने के लिए यह गुनाह कर रही थी। दुर्भाग्यवश आज भी हमारे देश में यह कानून है। किसी राजसत्ता से किसी के असहमति जताने का यह मतलब नहीं कि वह देशद्रोही है। लोकतंत्र में यदि असहमति को मान्यता नहीं मिलेगी तो फिर लोकतंत्र का क्या मतलब, जबकि देश में अलग-अलग मत, सिद्धांत, विचारधाराएं, नीतियां, रीति-रिवाज हैं।

संसद में, सरकार या किसी दल की नीतियों के विरोध को क्या अपराध कहा जाएगा? सार्वजनिक जीवन में रहकर कोई यह सोचे कि उसके खिलाफ कोई असहमति या विरोध ही न हो, ऐसा संभव नहीं है। लोकतंत्र की बुनियाद है असहमति। यदि आप असहमति का गला घोंट रहे हैं तो आप लोकतंत्र का भी गला घोंट रहे हैं। लोकतांत्रिक सरकार को विवेक से काम लेना चाहिए। जो सरकार अपने लेखकों, विद्वानों, कलाकारों का सम्मान नहीं करती, वह अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारती है। दरअसल यह सारा मामला राजसत्ता के विरोध में खड़े बुद्धिजीवियों की आवाज को कुचलने का है और यह काम भाजपा, कांग्रेस, वामपंथी, लालू, मुलायम, मायावती सभी सरकारों ने किया है।

आज किसी भी सरकार में अपनी आलोचना सुनने की हिम्मत नहीं है। इसीलिए आज राजसत्ता के विरोध का मतलब है तसलीमा को देशनिकाला, एमएफ हुसैन पर मुकदमेबाजी ताकि वे देश छोड़ने पर मजबूर हो जाएं और आशीष नंदी पर सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का मुकदमा चलाकर जेल में बंद कर दो। यह आज आशीष नंदी के साथ हुआ है, कल मेधा पाटकर, महाश्वेता देवी आदि के साथ हो सकता है। डॉ. नंदी सारी उम्र अनेक विषयों पर जिस किस्म का लेखन करते रहे हैं, उन्हें पढ़ने के बाद यह सपने में भी नहीं सोचा जा सकता है कि लिखने के पीछे उनकी नीयत समाज में घृणा पैदा करना, दंगा-फसाद करवाना आदि होगा। यह हो ही नहीं सकता। सारा जीवन जिन्होंने समाज के लिए सामाजिक कल्याण के लिए न्योछावर कर दिया हो, उस पर इस किस्म का लांछन दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा।

हमारे सामने उनका जो विवादित लेख है, उस लेख को पूरा पढ़ा जाना चाहिए और उसकी पूरी पृष्ठभूमि के साथ पढ़ा जाना चाहिए। साथ ही उसमें जिन राजनीतिक स्थितियों का मूल्यांकन किया गया है, उसे भी समझने की जरूरत है। किसी लेख से दो लाइनें निकालकर उसके लेखक के खिलाफ मुकदमा दायर करना सही नहीं कहा जा सकता। भारतीय न्यायालयों के सामने इस तरह के बहुत सारे मामले पहले भी आए हैं (गुलाम सरवर, 1965, पटना हाईकोर्ट, ईश्वरी प्रसाद शर्मा, 1927, लाहौर हाईकोर्ट, ललाई सिंह यादव, 1971, इलाहाबाद हाईकोर्ट) जिनमें न्यायालय ने कहा है कि पूरे लेख या पूरी पुस्तक को पढ़कर ही निर्णय दिया जाना चाहिए।

यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने, अभिव्यक्ति का गला घोंटने और बुद्धिजीवियों को चुप कराने की कोशिश है। कानून को एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना गलत है। यह नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि जब हम अपनी सत्ता को बचाने के लिए कानून या राजसत्ता या अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हैं तो वह अपने आप में एक गैर-कानूनी और असंवैधानिक काम है।

मेरे हिसाब से यह कहना भी गड़बड़झाला है कि किसी लेखक को कह दिया जाए कि उसका लेख घृणा फैलाने वाला है और उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करवा दिया जाए। फिर न्यायिक व्यवस्था के तहत उसकी पुलिस जांच, गिरफ्तारी, कोर्ट-कचहरी की भागदौड़ आदि में सालों तक उलझा रहे लेखक। इतना ही नहीं, कानून की अपनी जअिलताएं हैं, जैसे कहां अपराध हुआ, कहां एफआईआर होगा, वगैरह। जिस राष्ट्रीय अखबार में लेख छपा, वह देश में दर्जनों जगहों से छपता है। देश में जहां-जहां भी वह पढ़ा गया, कानून के हिसाब से वहां-वहां एफआईआर होना चाहिए। अब लेखक एक ही लेख पर देश के हजारों शहरों में मुकदमे लड़ता रहे या फिर सुप्रीम कोर्ट में उन सारे मुकदमों को ट्रांसफर करवाए।

एक एनजीओ जब किसी लेखक के खिलाफ एफआईआर दर्ज करता है, तब उस पर जांच का आदेश देने से पहले सरकार का फर्ज नहीं बनता कि वह इस मामले की तहकीकात करे कि यह आपराधिक मामला बनता भी है या नहीं? काफी सोच-विचार के बाद ऐसा फैसला लिया जाना चाहिए। आशीष नंदी के इस लेख पर मुकदमा चलने की इजाजत देने से पहले क्या गुजरात सरकार ने किसी लीगल एक्सपर्ट से राय ली थी? मुकदमा चलाने के पहले उस लेख के पूरे आशय को पढ़ने की जरूरत थी।

अगर यह एफआईआर गलत दर्ज हुई है, कोई अपराध बनता है या नहीं, यह तो अदालत तय करेगी, लेकिन कानूनी प्रक्रिया से तो गुजरना ही पड़ेगा, जो बेहद तकलीफदेह हो सकती है। इसीलिए इस कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग के खिलाफ प्रेस और बुद्धिजीवियों को लड़ना पड़ेगा। इस लड़ाई का अंतिम फैसला सुप्रीम कोर्ट में होगा। हालांकि लेखकों को भी राजनीतिक टिप्पणियां करते समय भाषा का संयम बनाए रखना चाहिए ताकि कानूनी झमेला ना खड़ा हो। मैं समझता हूं कि आशीष नंदी के संपूर्ण लेखकीय योगदान और सामाजिक कार्यकलापों को देखते हुए इस मामले को उनकी पृष्ठभूमि, पूरे संदर्भ और खुली निगाह के साथ देखने की जरूरत है।(शनिवार,04 सितंबर, 2010 DAINIK BHASKAR)

Thursday, September 23, 2010

महिलाएं विवाह से बाहर निकलना चाहती हैं

महिलाएं विवाह से बाहर निकलना चाहती हैं
बदलते समय ने रिश्तों के मायने बदल कर रख दिए हैं। क्योंकि लोगों में हर स्तर पर जागरूकता बढ़ी है, इसलिए समाज में रिश्तों को लेकर भी नज़रिये में बदलाव साफ देखा गया है। आज की युवा पीढ़ी समाज के परंपरागत बंधनों को तोड़ रही है। क्योंकि जुडिशरी भी समाज का ही एक हिस्सा है इसलिए उसका निर्णय भी समाज से प्रभावित होता है।

हमारा समाज हमेशा से ही पुरुष प्रधान समाज रहा है और उसकी हर व्यवस्था पुरुष का ही समर्थन करती रही है। आज स्त्री समाज के बंधन तोड़ रही है और नई व्यवस्था का दामन थाम रही है। लड़कियां विवाह संस्था से बाहर निकलना चाहती हैं। स्त्रियां जैसे-जैसे शिक्षित होंगी वैसे-वैसे विवाह संस्था से दूर होती जाएंगी।

दरअसल महिला की देह पर कब्ज़े के लिए विवाह संस्था का गठन हुआ। पिछले दिनों माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हर बच्चा अपने पिता की जात से जाना जाएगा और वहीं दूसरे फैसले में कहा गया कि जात-पात को खत्म कर दिया जाए। न्यायपालिका में एक ही बात को लेकर विभिन्न मत हैं। दरअसल कानून की जटिल प्रक्रिया स्त्रियों की नई-नई समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार है। कानून ने स्त्रियों के साथ कोई बहुत अच्छा सुलूक नहीं किया है। बल्कि उनका मज़ाक ही बनाया है। कानूनों की बेहूदगी देखिए - 1975 में टर्मिनंसी ऑफ प्रेगनंन्सी ऐक्ट बना जिसमें कहा गया कि महिला पति की सहमति के बिना अपनी मर्जी से अबॉर्शन करा सकती है।

वहीं हिंदू मैरिज ऐक्ट मे कहा गया कि अगर पत्नी ऐसा करती है तो यह मेंटल क्रूअल्टि है और अगर पत्नी बिना बताए फैसला ले ले तो पति पत्नी को इस आधार पर तलाक दे सकता है। इस पर किसी कानूनविद ने बहस की ज़हमत तक नहीं उठाई कि इसकी आड़ में पति, पत्नी पर क्या क्या ज़ुल्म ढा सकता है।

इंडियन पीनल कोर्ट की धारा 497 में व्याभिचार के बारे में कानून है, जिसमें कहा गया है कि किसी दूसरे की पत्नी के साथ बिना उसके पति के सहमति से संबंध बनाना नाजायज़ है क्योंकि वह पति की संपत्ति है। वहीं दूसरी ओर लिखा गया है कि अगर विवाहित पुरुष किसी अविवाहिता या तलाकशुदा महिला से संबंध बनाता है तो वह सही है। अगर बात विवाह संबंधी कानूनों की करें तो 16 साल की लड़की अपनी मर्ज़ी से संबंध बना सकती है। अगर पत्नी 15 साल की है तो पति का उससे संबंध बनाना रेप नहीं माना जाएगा और अगर पत्नी 12 से 15 साल की है तो उससे संबंध बनाना बलात्कार माना जाएगा, जिसमें दो साल की सज़ा का प्रावधान है।

और वहीं किसी सामान्य लड़की के साथ रेप करने पर सज़ा का प्रावधान 7 साल रखा गया है, यानी एक ही जुर्म के लिए विवाह संस्था के तहत सज़ा का प्रावधान कम है।

विवाह संस्था के बने रहने से महिलाओं के खिलाफ अनेक अत्याचार हुए हैं। इसीलिए महिलाओं की रुचि विवाह संस्था में कम होती जा रही है। विवाह संस्था के टूटने का एक कारण यह है कि इसके तहत महिलाओं के खिलाफ हिंसा करने में पुरुषों को आसानी रहती है। क्योंकि घर की सारी ज़िम्मेदारियां महिलाओं के ज़िम्मे ही रहती हैं। लेकिन अब समीकरण बदल रहे है। महिलाओं ने अपने अधिकार मांगने शुरू कर दिए हैं। यही वजह है कि अब वह सामाजिक बंधनों का खुलकर विरोध कर रही हैं। और यहीं से एक नए समाज के गठन का रास्ता साफ होता है। यहीं से सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संरचना बदलेगी और पूंजी के समीकरण भी बदलेंगे और यह बदलाव ऐतिहासिक होगा। कानून को बदलते सामाजिक संदर्भ को ध्यान में रखकर खुली सोच से काम करने की ज़रूरत है।
बातचीत : शैलेन्द्र सिंह नेगी
(6 Jul 2008, 0000 hrs IST,नवभारत टाइम्स)