Wednesday, March 23, 2011

विवाद में संबंध

विवाद में संबंध




अरविन्द जैन
(वरिष्ठ अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट)
स्त्री और पुरुष के रिश्ते को केवल दांपत्य में सीमित रखना और इसके बाहर निकलते ही शादी के दायरे से अलग होना, अब तक परिभाषित नहीं किया जा सका है। हमेशा से बहस का मुद्दा रहे इन रिश्तों में गुजारा-भत्ता को लेकर विवाद होते रहे हैं। आर्थिक मदद और टेम्प्रेरी दैहिक रिश्तों को लेकर देश की सबसे बड़ी अदालत ने बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है
ताज्जुब की बात है कि एक ही मसले पर पंद्रह दिनों के भीतर सुप्रीम कोर्ट की दो पीठों ने अलग-अलग फैसले सुनाये। मामला यह था कि यदि महिला लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रही है तो आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1973 की धारा- 125 के तहत उसे मैंटेनेंस (गुजारा-भत्ता) मिलना चाहिए? 7 अक्टूबर, 2010 को एक पीठ ने इस मामले को बड़ी पीठ के पास भेजने का निर्णय लिया, जबकि दूसरी पीठ ने 21 अक्टूबर, 2010 को उसे बंद करना उचित समझा। तभी यह कानूनी विशेषज्ञों सहित मीडिया के हलकों में गरमागरम बहस का मुद्दा बन गया। लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रही महिलाओं को गुजारा-भत्ता दिए जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मार्कडेय काटजू और न्यायाधीश टी. एस. ठाकुर ने डी. वेलुसामी बनाम डी.पटचाईम्मल (2011 सीआरएल. एल. जे 320) मामले में 21 अक्टूबर, 2010 को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-125 के तहत विरोधाभासी फैसला सुना दिया कि हमारेमुताबिक, लिव-इन-रिलेशनशिप वाले सभी लोगों को शादी के समान दायरे में आने वाले घरेलू उत्पीड़न कानून-2005 के तहत लाभ नहीं मिल सकता। ऐसे लाभ के लिए कानून द्वारा निश्चित की गयी शर्त पूरी होनी चाहिए और उसे सबूत के जरिये से सिद्ध भी करना होगा। यदि कोई पुरुष किसी को बतौर रखैल रखता है, जिसे वह आर्थिक मदद भी करता है और शारीरिक रिश्तों के लिए उसका इस्तेमाल करता है और/या वह नौकर हो, तो हमारे विचार से, यह रिलेशनशिप शादी के दायरे में नहीं आएगी। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया, जबकि अलग समवर्ती विवाह अदालत एवं मद्रास हाई कोर्ट ने हटकर आदेश पारित किया और डी. पटचाईम्मल को पांच सौ रुपए गुजारा- भत्ता देने का आदेश दिया। उन्होंने दावा किया था कि उसने याचिकाकर्ता डी. वेलुसामी से शादी की है। हालांकि, न्यायाधीश काटजू और न्यायाधीश ठाकुर एक ओर यह कहकर सहानुभूति जताते हैं कि 'इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस मामले का हम जिक्र कर रहे हैं, उसमें 2005 के कानून के तहत कई महिलाएं आती ही नहीं हैं, लेकिन कोर्ट का काम कानून बनाना या उसमें संशोधन करना नहीं है। संसद ने 'रिलेशनशिप इन द नेचर ऑफ मैरिज' शब्द का प्रयोग किया है न कि 'लिव-इन रिलेशनशिप' का। व्याख्या करने के लिए अदालत लैंग्वेज ऑफ स्टेटय़ूट को नहीं बदल सकती।'
लेकिन, अगले पैरे में देश की आधी आबादी को ध्यान में रखते हुए याद दिलाया गया- 'सामंती समाज में शादी से इतर किसी दूसरे पुरुष और स्त्री के शारीरिक रिश्ते की मनाही है और उसे घृणित माना गया है। जैसा लिओ टॉलस्टॉय अपने उपन्यास 'अन्ना करेनिना', गुस्ताव फ्लाउबर्ट के उपन्यास 'मैडम बावेरी' और महान बंगाली लेखक शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास में वर्णित है। डी. ए. एक्ट-2005 को तैयार करने वाले और अब एडिशनल सॉलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह ने न्यायाधीशों की आलोचना की और अदालत से गुजारिश की कि निर्णय सुनाते वक्त लिंग से जुड़े संजीदा शब्दों के इस्तेमाल से दूरी बनाये रखी जाए। न्यायाधीश काटजू और न्यायाधीश ठाकुर की पीठ के समक्ष उन्होंने कहा कि वह फैसले में प्रयुक्त शब्द 'रखैल' के इस्तेमाल के लिए आवेदन करेंगी। उन्होंने सवाल किया कि 21वीं सदी में सुप्रीम कोर्ट 'कीप' (रखैल) और 'एक रात की बात' जैसे शब्द का इस्तेमाल कैसे कर सकती है ? हालांकि, न्यायाधीश ठाकुर ने घाव पर नमक छिड़कते हुए इंदिरा जयसिंह से पलटकर सवाल किया कि 'क्या 'रखैल' की तुलना में 'उपपत्नी' शब्द का इस्तेमाल करना ठीक रहेगा?'
निस्संदेह, इस तरह की अभिव्यक्ति अपमानजनक है और यह महिलाओं को बहुत ही बुरे ढंग से चित्रित करती है। यह तो नैतिक निर्णय की बात है और लेकिन सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीशों को ऐसे शब्दों के इस्तेमाल से बचना चाहिए। यह लिंग समानता के राष्ट्रीय संकल्प के नजरिये से भी ठीक नहीं है और इसमें वैवाहिक स्तर को लेकर भी भेदभाव झलकता है। मार्च, 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने 'महिला दक्षता समिति' की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें 21 अक्टूबर, 2010 के निर्णय की समीक्षा की मांग की गई थी, जिसमें यदि महिला पुरुष के साथ रहती है तो उसे 'रखैल' कह दिया जाता है। समीक्षा याचिका को खारिज करते हुए न्यायाधीश मार्कडेय काटजू और न्यायाधीश टी. एस. ठाकुर ने कहा- 'समीक्षा याचिका पर सावधानीपूर्वक ध्यान दिया गया है। साथ ही, हमें उससे संबंधित कागजों पर विचार करने में कोई वजह नहीं दिख रही कि 'महिला दक्षता समिति' की समीक्षा याचिका पर ध्यान दिया जाए।'
21 अक्टूबर, 2010 में जब फैसला सुनाया जा रहा था, तब भी हमें अजीब महसूस हो रहा था। यूं कहें कि धक्का लग रहा था क्योंकि न्यायाधीश मार्कडेय काटजू और न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर ने न्यायाधीश जी. एस. सिंघवी और न्यायाधीश ए. के. गांगुली के फैसले पर ध्यान नहीं दिया, जो उन्होंने 7 अक्टूबर, 2010 को चिन्मुनिया बनाम वीरेंद्र कुमार सिंह और अन्य (2011 सीआरएल. एल.जे. 96) मामले में दिया था और इसी मसले पर अब बड़ी पीठ ने फैसला सुनाया। न्यायाधीश गांगुली ने लिखा- 'सामाजिक सरोकारों के मद्देनजर 1973 की संहिता की धारा-125 के तहत हम 'पत्नी' की परिभाषा पर व्यापक नजरिया रखते हैं। हालांकि दो न्यायाधीशों की पीठ में हम ऐसा फैसला नहीं सुना सकते थे। हमें आशंका थी कि उपयरुक्त दोनों मामलों में व्यक्त विचारों को लेकर विरोधाभासी सोच सामने न आ जाए।'
पीठ ने माननीय मुख्य न्यायाधीश से आग्रह किया कि इसे अन्य लोगों के बीच बड़ी पीठ तय करे कि यदि एक पुरुष और महिला कुछ खास वक्त में बतौर पति-पत्नी रह रहे हैं तो उसे वैध शादी जैसा माना जा सकता है और इस तरह सीआरपीसी की धारा-125 के अंतर्गत महिला गुजारे-भत्ता की हकदार है। यदि घरेलू हिंसा कानून-2005 के प्रावधानों के मुताबिक, सीआरपीसी की धारा-125 के अंतर्गत गुजारे-भत्ते की दावेदारी की जाती है तो शादी के प्रमाणपत्र को अनिवार्य रूप से प्रस्तुत करना होगा। यदि परंपरागत संस्कारों और अनुष्ठानों के तहत शादी हुई है, लेकिन हिन्दू विवाह कानून-1955 की धारा-7(1) या दूसरे पर्सनल लॉ के तहत सभी अर्हताएं पूरी भी न होती हों, तो भी महिला को सीआरपीसी की धारा-125 के तहत गुजारा-भत्ता देना होगा। (बाकी पेज दो पर) यह संबं ध
पीठ ने माननीय मुख्य न्यायाधीश से दरख्वास्त की कि इसे अन्य लोगों के बीच, साथ ही इस मसले पर बड़ी पीठ तय करे कि यदि एक पुरुष और महिला कुछ खास अवधि में बतौर पति- पत्नी रह रहे हैं तो उसे वैध शादी जैसा माना जा सकता है और इस तरह सीआरपीसी की धारा- 125 के अंतर्गत महिला गुजारे-भत्ता की हकदार होगी। यदि घरेलू हिंसा कानून-2005 के प्रावधानों के मुताबिक, सीआरपीसी की धारा- 125 के अंतर्गत गुजारे- भत्ते की दावेदारी की जाती है तो शादी के प्रमाणपत्र को अनिवार्य रूप से जमा करना होगा। यदि परंपरागत संस्कारों और अनुष्ठानों के तहत शादी हुई है, लेकिन हिन्दू विवाह कानून-1955 की धारा-7(1) या दूसरे पर्सनल लॉ के तहत सभी अर्हताएं पूरी नहीं होतीं, तो भी औरत को सीआरपीसी की धारा- 125 के तहत गुजारा- भत्ता देना होगा।
माननीय न्यायाधीश जी. एस. सिंघवी और न्यायाधीश ए. के. गांगुली ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा, 'हमारी राय है कि 'पत्नी' शब्द की व्यापक व्याख्या होनी चाहिए। उन मामलों में भी, जब एक पुरुष और एक महिला एक साथ बतौर पति-पत्नी काफी लंबे अरसे से रह रहे हैं सीआरपीसी की धारा-125 के तहत गुजारे-भत्ते के लिए शादी से पहले के सबूत नहीं देने होंगे, जिससे इस धारा के तहत लाभ-संबंधी प्रावधानों की सम्यक भावना और सारतत्व को अमल में लाया जा सकता है। हमें भरोसा है कि इस तरह की व्याख्या हमारे संविधान की प्रस्तावना में व्यक्त सिद्धांतों के अनुरूप सामाजिक न्याय और किसी की व्यक्तिगत गरिमा के दायरे में होगा।'
यह न्यायिक अनुशासन और औचित्य का तकाजा है कि न्यायाधीश काटजू और न्यायाधीश ठाकुर मामले पर ध्यान दें, जिसमें कानून के भीतर इसी मसले पर सर्वोच्च न्यायालय की दूसरी पीठ ने फैसले दिए। सीनियर एडवोकेट श्री जयंत भूषण का यह पेशेवर कर्तव्य और दायित्व है कि वह पीठ को एमिकस क्यूरी के रूप में कानून से संबंधित ऐसे मसले 7 अक्टूबर, 2010 को बड़ी पीठ के पास भेजें। ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले बार और पीठ के जरिये अपडेट होने आसान नहीं हैं। वजह यह है कि कम्प्यूटरीकरण के बावजूद इस मामले में कोई पण्राली ही नहीं खोजी गयी है। अगर व्यापक सुधारों के लिहाज से देखें, तो यह काफी गंभीर मसला है। इससे तो न्यायिक प्रक्रिया की साख प्रभावित हो सकती है। वर्तमान ढांचे के तहत तो एक पीठ दूसरी पीठ के सुनाये फैसले से पूरी तरह अनजान बनी हुई है। इस तरह सामान्य याचिकाकर्तागण एक ही नाव में यात्रा करते हुए अलग-अलग दिशाओं में भटक सकते हैं। (राष्ट्रीय सहारा, आधी दुनिया, २३.३.२०११)

Thursday, March 3, 2011

अपने ही घर में खतरों से घिरी बेटियां

राष्ट्रीय सहारा, आधी दुनिया, २.३.२०११
अपने ही घर में खतरों से घिरी बेटियां


अरविन्द जैन
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)
बेटी से बलात्कार से खतरनाक कुछ नहीं हो सकता लेकिन ऐसे खुलासे लगातार बढ़ते जा रहे हैं। डरा-धमका कर उनका जीना मुश्किल करने वाला और कोई नहीं, उनको जन्म देने वाला बाप ही होता है। फैसलों में होने वाली दे री और महंगी कानूनी जंग किसी अबोध कन्या को कितना लाचार करती है, समझा ही जा सकता है। मानसिक रूप से दीवालिया ऐसे खौफनाक पिताओं के आतंक से मुक्ति पाने की लड़ाई की भारी कीमत चुकानी होती हैना
नाबालिग बेटियों-सौतेली बेटियों के साथ पिता द्वारा बलात्कार और यौन शोषण के मामले भारतीय समाज में भी लगातार बढ़ते जा रहे हैं, जो बेहद चिंताजनक और शर्मनाक है। किशोरियों के विरुद्ध लगातार बढ़ रहे यौन हिंसा के कारणों की विस्तार से खोजबीन अनिवार्य है। एक तरफ मीडिया में बढ़ते यौन चित्रण, पारिवारिक विखंडन, लचर कानून और न्याय व्यवस्था, ज्यादातर अपराधियों का बाइज्जत बरी हो जाना अपराधियों को बेखौफ बनाती है, मगर फैसले होने में बरसों की देरी और महंगी कानूनी सेवा, चुप रहने को मजबूर पीड़ित युवा स्त्री विरोध-प्रतिरोध कर सकती है, इसलिए भी अबोध बच्चियों पर हिंसा बढ़ रही है, नाबालिग लड़कियां अपने ही पिता या संबंधियों के खिलाफ न्याय की लड़ाई लड़ने की हिम्मत भी करें तो आखिर किसके सहारे? रिश्तों की किसी भी छत के नीचे स्त्री, अपने आपको सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रही। कुछ ही दिन पहले अखबारों में समाचार छपा था कि ‘राजधानी दिल्ली के मंगोलपुरी इलाके में 14 वर्षीय सौतेली बेटी से बलात्कार करने के आरोप में, राजेश कुमार नाम के व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया है। वह छह महीने से सौतेली बेटी का यौन उत्पीड़न कर रहा था।‘ खबर रेखांकित करती है कि वह उसकी अपनी नहीं, ‘सौतेली बेटी‘ थी। ‘सौतेली बेटी‘ से बलात्कार, क्या बलात्कार नहीं है? या ‘सौतेली बेटी‘ से बलात्कार, अपनी ही बेटी से बलात्कार से कमतर घिनौना अपराध है? अक्सर सौतेली बेटियां ही बलात्कार की अधिक शिकार होती हैं। उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर के कटरा इलाके में एक पिता ने अपनी बेटी को हवस का शिकार बना लिया और राज तब खुला, जब वह गर्भवती हो गयी। अमृतसर की एक कॉलेज छात्रा ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के स्थानीय नेता व अपने पिता के खिलाफ पिछले आठ बरसों से बलात्कार करने का आरोप लगाया। पुलिस के अनुसार, 20 वर्षीय कॉलेज छात्रा के अपने पिता पर पिछले आठ बरसों से यौन शोषण का आरोप लगाने के बाद अजनाला भाजपा इकाई के महासचिव अशोक तनेजा को पिछले बुधवार रात गिरफ्तार किया गया, मगर हृदय की परेशानी और असामान्य महसूस करने के कारण तनेजा को बृहस्पतिवार को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। रिश्तों को कलुषित और कलंकित करने का यह पहला और अंतिम मामला नहीं है। फिल्लौर-जालंधर में रक्त-संबंधों की तमाम मर्या दाओं को धूल में मिला अपनी ही 13 वर्षीय बेटी के साथ बलात्कार करने वाले, एनआरआई पिता (दुबई में कार्यरत) को पंजाब पुलिस ने गिरफ्तार किया, मगर आरोपी पिता सुरिंदर सिंह का कहना है- ‘वह बिल्कुल निर्दोष है और उसे पैसे के मामले में विवाद होने के कारण कुछ लोगों ने साजिश के तहत फंसाया है।‘ हरियाणा के सोनीपत जिले के नीलोखेड़ी गांव से समाचार है कि एक व्यक्ति ने पिता-पुत्री के रिश्ते की पवित्रता को खंडित करते हुए, अपनी ही 14 वर्षीय नाबालिग बेटी के साथ डेढ़ साल तक बलात्कार और यौन उत्पीड़न करता रहा। ऊपर से धमकी यह कि अगर किसी से भी शिकायत की तो, उसे जान से मार डालेगा। किसी तरह लड़की घर से भाग निकली और अपने ताऊ के पास जाकर अपनी ‘आपबीती‘ सुनाई तो ताऊ ने पुलिस थाने में जाकर मुकदमा दर्ज करवाया। लड़की की मां का कई साल पहले देहांत हो चुका है, एक भाई और एक बहन अनाथालय में रहते हैं। वह भी पहले अनाथालय में रहती थी, लेकिन डेढ़ साल पहले उसके पिता उसे वहां से ले आये और तब से आए दिन वह अपने पिता की हवस का शिकार होती रही। आरोपी पिता फरार है..। पीड़िता को मेडिकल चेकअप के लिए भेज दिया गया है और पुलिस बलात्कारी पिता की तलाश में इधर-उधर घूम रही है। लक्सर क्षेत्र के गांव केहड़ा में रहने वाले इंद्रेश (गुज्जर) का अपनी ही हमउम्र रितु (हरिजन) से प्रेम का सिलसिला पिछले दो वर्षो से चला आ रहा था। परिजनों को यह रिश्ता मंजूर न हुआ, सो एक दूसरे से मिलने पर पाबंदी लगा दी गयी। प्रेमी युगल ने बुलंदशहर जाकर कोर्ट मैरिज की और गाजियाबाद में नया जीवन जीना शुरू कर दिया। मगर समाज के तथाकथित ठेकेदारों ने पंचायत बुलाकर इंद्रेश के परिवार को गांव-बदर कर दिया और उनकी सारी संपत्ति पर कब्जा जमा लिया। रितु की मां की मौजूदगी में ही पहले उसकी बेटी के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और उसके बाद उसकी बेरहमी से हत्या कर शव उत्तराखंड-यूपी की सीमा से सटे खेत में फेंक दिया गया। थाना न्यू आगरा क्षेत्र में एक पिता पर अपनी 11 वर्षीय बेटी के साथ बलात्कार करने का आरोप है, मगर पिता घटना के बाद से फरार है और बेटी की मां डीआईजी ऑफिस के चक्कर काट रही है। 2008 में उड़ीसा के मलकानगिरी के कुडुमुलुगुमा गांव में रहने वाले 37 वर्षीय भागबान दाकु को अपनी 14 वर्षीय पुत्री के साथ बलात्कार करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। जब ग्रामीणों ने उसकी बड़ी लड़की को गर्भवती अवस्था में पाया तो भागबान की जमकर पिटाई की और उसे पुलिस के हवाले कर दिया। रांची से सौ किलोमीटर दूर हजारीबाग जिले में पुलिस ने अपनी किशोरी बेटी (साइंस की इंटर की छात्रा) से कई वर्षो से कथित रूप से बलात्कार कर रहे पिता (सरकारी डॉक्टर) को गिरफ्तार किया। पिता उसे बचपन से ही ब्लू फिल्में दिखाकर अपने साथ सेक्स करने के लिए उकसाता रहा, मगर इस बात की शिकायत करने पर मां ने भी मामले में चुप रहने की सलाह दी। पिता के कथित यौन उत्पीड़न से हालत गंभीर होने पर एक बार उसे रांची के अपोलो अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था, लेकिन वहां से घर वापस आने पर पिता उसके साथ बलात्कार करता रहा। गिरफ्तारी के बाद पिता ने कहा कि बेटी मानसिक रूप से बीमार है। इससे पूर्व मुंबई ट्रैफिक कांस्टेबल गणोश तुकाराम पर अपने ही सहयोगी पु लिसकर्मी की नाबालिग बेटी के साथ बलात्कार का आरोप लगा था। वह नवीं कक्षा में पढ़ने वाली लड़की को घुमाने के बहाने गणोश विरार के पाटिल रिसॉर्ट ले गया था। पुलिस ही बलात्कारी हो जाए और औरतों की अस्मत से खिलवाड़ करने लगे तो आम जनता की बहू-बेटियों की सुरक्षा कौन करेगा? मार्च 2009 में ऑस्ट्रिया के सांक्ट पोएल्टेन शहर की अदालत ने फ्रीत्ज्ल को अपनी बेटी को सेक्स गुलाम बनाने और 24 साल तक अपने घर के तहखाने में कैद कर उसके साथ व्यभिचार करने के अपराध में उम्रकैद और बाकी उम्र किसी पागलखाने में गुजारने की सजा सुनाई थी, क्योंकि मानसिक रोग विशेषज्ञ के अनुसार ‘73 साल का फ्रीत्ज्ल महसूस करता है कि उसका जन्म बलात्कार करने के लिए ही हुआ है।‘ मार्च में ही मुंबई पुलिस ने 60 साल के व्यापारी को ‘अपनी ही दो बेटियों के साथ बलात्कार‘ के आरोप में गिरफ्तार किया। इस कुकृत्य में बाप ही नहीं, लड़कियों की मां भी शामिल थी और दोनों पति-पत्नी ऐसा इसलिए कर रहे थे क्योंकि तांत्रिक ने कहा था- ‘ऐसा करने से उनके घर की उन्नति होगी।‘ व्यापारी ने पहले अपनी बड़ी बेटी के साथ 11 साल की उम्र से ही बलात्कार करना शुरू किया और कुछ महीने पहले 15 साल की बेटी को भी अपनी हवस का शिकार बना डाला। ऑस्ट्रिया के जोसफ फ्रिट्जल के समान ही 2004 में एक मामला भोपाल में भी सामने आया था, जहां 13 साल की बेटी के साथ उसका पिता बलात्कार करता था। अप्रैल-2005 में ऐसा ही अपराध हैदराबाद में भी हुआ, जहां 14 साल की बेटी पिता द्वारा बलात्कार के कारण गर्भवती हो गई थी। अक्टूबर-2006 में 25 साल की एक महिला ने भी अपने पिता (कानपुर में एसडीएम) पर आरोप लगाया था कि वह करीब एक साल से ज्यादा समय से उसके साथ बलात्कार कर रहा था। जून-2010 में यह खबर छपी थी कि मेरठ में ‘अपनी ही बेटी‘ से बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार, एक पिता (सूरज कुमार, उम्र 40 साल) ने हवालात में रोशनदान की खिड़की से अपनी कमीज बांध फांसी लगाकर खुदखुशी कर ली। यहां आत्महत्या ‘अपनी ही बेटी‘ से बलात्कार के अपराध-बोध का परिणाम है या उम्रकैद की सजा और समाज में बदनामी का भय?



अक्टूबर-2009 में ‘अपनी नाबालिग बेटी‘ से बलात्कार के दोषी एक व्यक्ति को मुंबई की अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनायी, मगर अपराध में मदद करने और उकसाने की आरोपी उसकी पत्नी को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया। सत्र न्यायाधीश पी. ए वाघेला ने भरत राठौड़ को उम्रकैद की सजा सुनाते हुए कहा- ‘यह जघन्य और शर्मनाक घटना है और दोषी अधिकतम सजा पाने का हकदार है।‘ दरअसल, पिता से तो अपने बच्चों की सुरक्षा करने की उम्मीद की जाती है, परंतु वह ही शिकारी बन जाए, तो बच्चों की हिफाजत कौन करेगा? नवम्बर, 2010 में अम्बाला के सैशन जज बी एम बेदी ने आठ वर्षीय बच्ची से दुष्कर्म और हत्या के मामले में फांसी की सजा सुनाई थी। आरोपी बच्ची को टॉफी देने का लालच देकर अपने साथ ले गए थे और बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर दी थी। जनवरी, 2011 में मेरठ के अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश श्याम विनोद ने एक पिता को ‘अपनी सात वर्षीय बेटी से बलात्कार‘ करने और बाद में हत्या कर देने के जुर्म में, मौत की सजा सुनाई। ऐसे ‘जघन्य‘
अपराधों में अभियुक्त के साथ किसी भी तरह की ‘सहानुभूति‘ समाज के लिए बेहद खतरनाक ही साबित होगी। फरवरी, 2011 को गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायाधीश आरएस विर्क ने सात वर्षीय बच्ची से दुष्कर्म और हत्या के मामले में 25 वर्षीय रामनारायण को 14 साल की सजा व 50 हजार रुपए जुर्माना तथा हत्या के मामले में फांसी की सजा सुनाई। किराये के मकान में रहने वाले रामनारायण ने नवम्बर, 2009 में अपनी पड़ोसी सात वर्षीय बच्ची को बहला कर उठा ले गया और बाद में खाली प्लॉट में बच्ची का शव मिला। ‘उम्र कैद‘ या ‘सजा-ए-मौत‘ के फैसले, अपीलों में अदालती सहानुभूति या कानूनी बारीकियों का फायदा उठाकर, सजा कम करवाने या छूट जाने में भी बदल सकते हैं छोटी बच्चियों से बलात्कार और हत्या के अनेक फैसले गवाह हैं। सो, गिनाने की जरूरत नहीं। अबोध-निर्दोष बच्चियों की (घर-बाहर-स्कूल-अस्पताल) सुरक्षा के लिए, नए सिरे से सोचना बहुत जरूरी है। सरकार, राष्ट्रीय महिला आयोग और महिला संगठन ही नहीं, बल्कि सं पूर्ण समाज को इस विषय पर गंभीरतापूर्वक ठोस कदम उठाने होंगे। हालांकि अब भी काफी देर हो चुकी है।

Saturday, February 26, 2011

तथाकथित (चोर) लेखक डॉक्टर वीरेंदर सिंह यादव

"शब्दकार" ब्लॉग के तथाकथित (चोर) लेखक डॉक्टर वीरेंदर सिंह यादव ने बलात्कार सम्बन्धी एक लेख ब्लॉग पर डाला है. मैंने पहले भी उनसे निवेदन किया था आज फिर करते हुए उनके ब्लॉग पर कमेन्ट लिखा है "मैं आखरी बार आपसे आग्रह कर रहा हूँ की इस लेख को आप यहाँ से हटा लें. यह पूर लेख आपने मेरी किताब 'बचपन से बलात्कार' से चुराया है. अगर आपने फ़ौरन नहीं हटाया, तो मजबूरन मुझे आपके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करनी पड़ेगी".

Saturday, February 19, 2011

यौन हिंसा की शिकार दलित स्त्री

राष्ट्रीय सहारा आधी दुनिया १६.२.२०११

यौन हिंसा की शिकार दलित स्त्री

अरविन्द जैन

दैहिक शोषण की शिकार महिलाओं की संख्या में गिरावट की बजाय, दुर्भाग्य से उसमें इजाफा ही हो रहा है। यहां तक कि खास वर्ग की महिलाओं और लड़कियों के साथ बलात्कार की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। नाबालिग लड़कियों के साथ रेप आये दिनों की बात हो चुकी है, सामूहिक बलात्कार भी सुर्खियों में हैं। गांव ही नहीं, छोटे-बड़े शहरों की गलियों से लेकर खेतों तक में लड़कियां शिकार बनायी जा रही हैं

अपने सूबे का सरदार कौ न है, रसूखवाले इस बात की परवाह नहीं करते। अगर करते होते, तो अब तक उत्तर प्रदेश में दलित लड़कियों के साथ दबंगई की इफरात वारदातें हो चुकी हैं और नई-नई सिर उठा रही हैं

दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाली मुख्यमंत्री (बहन मायावती) के राज (उत्तर प्रदेश) में दलित महिलाएं ही सुरक्षित नहीं हैं, सुनकर थोड़ा अजीब लगता है। राज्य में शायद ऐसा कोई गांव-शहर नहीं बचा है, जहां यौन हिंसा की शिकार लड़कियां, न्याय और कानून-व्यवस्था पर सवाल नहीं उठा रही हों, ऐसी घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, दलितों पर अत्याचार (हत्या, हिंसा,यौन-हिंसा) में उत्तर प्रदेश पूरे भारत में सबसे आगे है। हालांकि महिला मुख्यमंत्री, शीला दीक्षित की दिल्ली में भी यौन हिंसा के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। सवाल है कि दलित महिला मुख्यमंत्री के राज में भी दलितों (लड़के और लड़कियों) के साथ ही अत्याचार- अन्याय क्यों हो रहा है? पुलिस क्यों नहीं सुनती? पुलिस दलितों को क्यों डराती-धमकाती है? मुकदमा दर्ज करने की बजाय, समझौता करने का दबाव क्यों डालती है? दलितों पर अत्याचार के आरोपियों को सजा क्यों नहीं मिलती? दलित लड़कियों से बलात्कार या बलात्कार के बाद हत्या के अनेक मामला सामने हैं। फतेहपुर में तीन लो गों ने दलित कन्या को बलात्कार का शिकार बनाने की कोशिश की और विरोध करने पर लड़की के हाथ, पांव और कान काट डाले। पीड़ित कानपुर के अस्पताल में मौत से जूझ रही है। जैसाकि अमूमन होता है, पारिवारिक झगड़े और रंजिश का बदला मासूम-निर्दोष लड़की की अस्मत से लिया गया। बांदा बलात्कार मामले में आरोपी विधायक पुरुषोत्तम नरेश द्विवेदी ने तो दलित नाबालिग लड़की को मामूली चोरी के इल्जाम में जेल ही भिजवा दिया था। बांदा बलात्कार मामला अभी सुलझा भी नहीं था कि लखनऊ के चिनहट इलाके में ईट-भट्ठे के पीछे एक और दलित लड़की की लाश पड़ी मिली। लड़की की बलात्कार के बाद, उसी के दुपट्टे से गला घोंटकर हत्या कर दी गई। शिवराजपुर गांव की सोलह वर्षीय नाबालिग दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार का मामला भी प्रकाश में आया है। बिराज्मार गांव की 8 साल की दलित बालिका की दरिंदों ने बलात्कार के बाद हत्या की परंतु महीनों कोतवाल ने कोई कार्रवाई तक नहीं की, उल्टे घरवालों को ही डराना-धमकाना और गुमराह करना जारी रहा। कन्नौज जिले के सौरिख क्षेत्र में बीस वर्षीय दलित लड़की गांव से बाहर खेत में गई थी, जहां तीन युवकों ने उसके साथ बलात्कार किया। बाराबंकी में नौंवी क्लास की नाबालिग लड़की से बलात्कार किया गया ले किन पुलिस ने सिर्फ छेड़छाड़ का मामला दर्ज किया। सुल्तानपुर के दोस्तपुर इलाके में एक महिला को जिंदा जलाने की कोशिश की गई, जिसका अस्पताल में इलाज चल रहा है। मुरादाबाद और झांसी में बलात्कार की शिकार हुई लड़कियों ने खुद को आग लगा ली। कानपुर और लखनऊ में भी बलात्कार की शिकार दो नाबालिग लड़कियां मौत की नींद सो गई। ठेकमा (आजमगढ़) कस्बे में सोमवार की रात करीब 12 बजे चार बहशी दरिंदों ने दलित के घर में घुसकर वहां सो रही 28 वर्षीया मंद-बुद्धि युवती की इज्जत लूट ली। ठाकुरद्वारा (मुरादाबाद) के गांव कंकरखेड़ा में दो युवकों ने तमंचों के बल पर दलित युवती से बलात्कार किया। सलेमपुर (देवरिया) में दलित युवती के साथ तीन दरिंदों ने दुपट्टे से हाथ- पैर बांध कर सामूहिक दुष्कर्म किया, पर पुलिस एक सप्ताह तक मामले पर पर्दा डालती रही। मैनपुरी के ग्राम नगला देवी में कामांध युवक ने दलित नाबालिग युवती, जो अपने घर से गांव स्थित परचून की दुकान से कपड़ा धोने का साबुन लेने गयी थी, से बलात्कार किया और एटा के बागवाला क्षेत्र में कुछ युवकों ने तमंचे के बल पर महिला की अस्मत लूट ली। यह सिर्फ संक्षेप में कुछ ही दुर्घटनाएं हैं..विस्तृत आंकड़ों में जाने की जरूरत नहीं। सैकड़ों मामले तो ऐसे भी हैं, जिनमें सामूहिक बलात्कार की शिकार दलित या आदिवासी लड़कियों को डरा-धमका कर (या 1000-2000 रुपए देकर) हमेशा के लिए चुप करा दिया गया। मां-बाप को गांव से बाहर करने और जेल भिजवाने की धमकी देकर, पुलिस और गुंडों ने सारा मामला ही दफना दिया। अखबारों में छपी तमाम खबरें झूठी साबित हुई..पत्रकारों पर मानहानि के मुकदमें दायर किये गए, गवाहों को खरीद लिया गया और न्याय- व्यवस्था की आंखों में धूल झोंक कर अपराधी साफ बच निकले। ‘माथुर’ से लेकर ‘भंवरी बाई’ केस के शर्मनाक फैसले अदालतों से समाज तक बिखरे पड़े हैं। सत्ता में लगातार बढ़ रहे दलित वर्चस्व के कारण, आहत और अपमानित कुलीन वर्ग के हमले, दलित स्त्रियों के साथ हिंसा या यौन हिंसा के रूप में बढ़ रहे हैं। समाज और नौकरशाही में अब भी कुलीन वर्ग का बोलबाला है। राजनीति में अपनी हार का बदला, दलितों पर अत्याचार के माध्यम से निकाला जा रहा है। दोहरा अभिशाप झेलती दलित स्त्रियां इसलिए भी बेबस और लाचार हैं, क्योंकि उनके अपने नेता, सत्ता-लोलुप अंधेरे और भ्रष्टाचार के वट- वृक्षों के मायाजाल में उलझ गए हैं। ऐसे दहशतजदा माहौल में, आखिर दलित स्त्रियों की शिकायत कौन सुनेगा और कैसे होगा इंसाफ? (लेखक स्त्रीवादी और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील हैं)

Thursday, January 27, 2011

अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (संयुक्त राष्ट्र) की एक रिपोर्ट के अनुसार "दुनिया की ९८ प्रतिशत पूँजी पर पुरुषों का कब्जा है. पुरुषों के बराबर आर्थिक और राजनीतिक सत्ता पाने में औरतों को अभी हज़ार वर्ष और लगेंगे." पितृसत्तात्मक समाजों के अब तक यह पूँजी पीढ़ी-दर-पीढ़ी पुरुषों को पुत्राधिकार में मिलती रही है, आगे भी मिलती रहेगी. आश्चर्यजनक है कि श्रम के अतिरिक्त मूल्य को ही पूँजी माना जाता है, मगर श्रम की परिभाषा मे घरेलू श्रम या कृषि श्रम शामिल नहीं किया जाता. परिणामस्वरूप आधी दुनिया के श्रम का अतिरिक्त मूल्य यानी पूँजी को बिना हिसाब-किताब के ही परिवार का मुखिया या पुरुष हड़प कर जाते हैं. सारी दुनिया की धरती और (स्त्री) देह यानी उत्पादन और उत्पत्ति के सभी साधनों पर पुरुषों का ’सर्वाधिकार सुरक्षि” है. उत्पादन के साधनों पर कब्जे के लिये उत्तराधिकार कानून और उत्पत्ति यानी स्त्री देह पर स्वामित्व के लिये विवाह संस्था की स्थापना (षड्‌यन्त्र) बहुत सोच-समझकर की गयी है.
उत्तराधिकार के लिए वैध संतान (पुत्र) और वैध संतान के लिए वैध विवाह होना अनिवार्य है. विवाह संस्था की स्थापना से बाहर पैदा हुए बच्चे ‘नाजायज’, ‘अवैध’, ‘हरामी’ और ‘बास्टर्ड’ कहे-माने जाते हैं. इसलिए पिता की संपत्ति के कानूनी वारिस नहीं हो सकते. हाँ, माँ की सम्पत्ति (अगर हो तो) में बराबर के हकदार होंगे. न्याय की नज़र में वैध संतान सिर्फ पुरुष की और ‘अवैध’ स्त्री की होती है. ‘वैध-अवैध’ बच्चों के बीच यही कानूनी भेदभाव (सुरक्षा कवच)ही तो है, जो विवाह संस्था को विश्व-भर में अभी तक बनाए-बचाए हुए है. वैध संतान की सुनिश्चितता के लिए यौन-शुचिता, सतीत्व, नैतिकता, मर्यादा और इसके लिए स्त्री देह पर पूर्ण स्वामित्व तथा नियंत्रण बनाए रखना पुरुष का ‘परम धर्म’ है. उत्तराधिकार में तमाम पूँजी सिर्फ पुत्रों को ही मिलती है सों बेटियाँ भ्रूण हत्या की शिकार होंगी ही.
विवाह संस्था में (धर्म) पत्नी, पति की सम्पत्ति भी है और घरेलू गुलाम भी. एकल विवाह सिर्फ स्त्री के लिए. पति के अलावा किसी भी दूसरे व्यक्ति से सम्बन्ध रखना ‘व्यभिचार’. पति किसी भी बालिग़ अविवाहित, तलाकशुदा या विधवा महिला से बिना कोई अपराध किये यौन सम्बन्ध रख सकता है, चाहे ऐसी महिला उसकी अपनी ही माँ, बहन, बेटी से लेकर भतीजी और भानजी क्यों न हो ! व्यभिचार के ऐसे कानूनी प्रावधानों के कारण ही समाज में व्यापक स्तर पर वेश्यावृत्ति और कालगर्ल व्यापार फल-फूल रहा है. मतलब विवाह संस्था में स्त्री पुरुष की ‘सम्पत्ति’ है और विवाह संस्था से बाहर ‘वस्तु’.
उत्तराधिकार कानूनों के माध्यम से पूँजी और पूँजी के आधार पर राजसत्ता, संसद, समाज, सम्पत्ति, शिक्षा और क़ानून-व्यवस्था- सब पर मर्दों का कब्जा है. नियम, कायदे-क़ानून, परम्परा, नैतिकता-आदर्श और न्याय सिद्धांत- सब पुरुषों ने ही बनाए हैं और वे ही उन्हें समय-समय पर परिभाषित और परिवर्तित करते रहते हैं. हमेशा अपने वर्ग-हितों की रक्षा करते हुए. ‘भ्रूण हत्या’ से लेकर ‘सती’ बनाए जाने तक प्रायः सभी क़ानून, महिला कल्याण के नाम पर सिर्फ उदारवादी-सुधारवादी ‘मेकअप’ ही दिखाई देता है. मौजूदा विधान-संविधान-क़ानून महिलाओं को कानूनी सुरक्षा कम देते हैं, आतंकित, भयभीत और पीड़ित अधिक करते हैं. निःसंदेह औरत को उत्पीडित करने की सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया में पूँजीवादी समाज क़ानून को हथियार की तरह इस्तेमाल करता रहा है. इसलिए ‘लॉ’ का असली अर्थ ही है-‘लॉ अगेंस्ट वूमैन’. समता की परिभाषा (बकौल सुप्रीम कोर्ट) है- सामान लोगों में समानता. नारी सम्बन्धी अधिकांश फैसलों के लिए आधारभूमि तो धर्मशास्त्र ही हैं जो मर्दों के लिए ‘अफीम’ मगर औरतों के लिए ज़हर से भी अधिक खतरनाक सिद्ध हुए हैं. तमाम न्यायाशास्त्रों के सिद्धांत पुरुष हितों को ही ध्यान में रखकर गढ़े-गढ़ाए गए हैं.

(पुस्तक गूगल बुक्स पर उपलब्ध है-- http://books.google.co.in/books?id=09tJkQH_4-AC&dq=aurat+hone+ki+saza&source=gbs_navlinks_s )

Aurat Hone Ki Saza
books.google.co.in

संविधान, समाज और स्त्री: अरविन्द जैन



राष्ट्रीय सहारा, आधी दुनिया, (२६ जनवरी २०११)

‘समानता का अर्थ है समान लोगों में समानता’ (संविधान के अनुच्छेद-14 पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय)

हमने स्त्री को पूजनीय माना लेकिन उसके सामाजिक सरोकार की हर रोज जानबूझकर धज्जियां भी उड़ाई। उसके अधिकारों की हिजाफत को लेकर कई कानून हैं। गणतंत्र के साये में उन्हें कमतर समझने की गलती हम अब भी कर रहे हैं

हमारे देश का पूरा न्यायिक ढांचा, सारे कानून और कानूनी-प्रक्रिया 1947 में स्वतंत्रता- प्राप्ति के समय वही थी जो अंग्रेजों के शासनकाल में थी। लेकिन 26 जनवरी, 1950 को हमारा अपना संविधान बना। लिहाजा, उन हिस्सों को हमने अपने कानून के दायरे से बाहर निकाल दिया, जो कहीं न कहीं हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की भावना के प्रतिकूल थे, अन्यथा तमाम कानून पूर्ववत रहे, चाहे भारतीय दंड संहिता हो, आपराधिक प्रक्रिया संहिता हो, साक्ष्य अधिनियम हो या दूसरे कानून हों। 1950 में अपना संविधान बनने के बाद पहली बार मौलिक अधिकार, समानता का अधिकार, अभिव्यक्ति और संपत्ति का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार.. न्याय और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों की बात हुई। इसके बाद 1955-56 में कुछ नए कानून बने और कुछ कानूनों में संशोधन हुआ। हिन्दू विवाह अधिनियम, उत्तराधिकार अधिनियम, भरण-पोषण अधिनियम, दत्तक ग्रहण जैसे कानून अस्तित्व में आए। नए कानून, नए अधिकार और नई न्याय- व्यवस्था का एक विश्वास भारतीय जनमानस में पैदा हुआ। न्याय-व्यवस्था पर समग्र रूप से गहन चिंतन करने की आवश्यकता है। ब्रिटिश काल के दौरान बने कानून अपने आप में पूर्ण हो सकते हैं। मसलन, भारतीय दंड संहिता जिसमें अब तक बहुत कम संशोधन हुए हैं मगर, आजादी के बाद भारतीय संसद ने जो कानून बनाए, उनमें पूर्णता का अभाव दिखाई देता है। कोई भी कानून जब तक पूर्ण दस्तावेज बनकर समाज के सामने नहीं आता, तब तक उस कानून से कोई लाभान्वित नहीं होता। अगर कानून अपने में पूर्णता लिये हुए नहीं है और उससे बच निकलने के रास्ते मौजूद हों तो उसे लागू करना अर्थहीन हो जाता है। 1860 के कानूनों से 2000 के भारतीय समाज को न्याय दे पाना असंभव लगता है और ‘संविधान के मूल ढांचे में संशोधन नहीं किया जा सकता’ (सुप्रीम कोर्ट)। भारत के जिन लोगों के नाम पर संविधान के कायदे-कानून, नियम और अधिनियम बनाए गए हैं, उनमें से ज्यादातर लोग अनपढ़, अंगूठा टेक हैं, लेकिन कानून की अज्ञानता उनके लिए भी कोई बहाना नहीं हो सकती। हालांकि अच्छे- खासे, पढ़े-लिखे लोग तो दूर, कानून-विशेषज्ञों, वकीलों और न्यायाधीशों में से शायद ही कोई ऐसा मिले, जिसे देश के सभी कानूनों की पूरी जानकारी हो। सच है कि समय और समाज बदलने के साथ-साथ नए कानून भी बनाने पड़े और अपने संविधान में भी संशोधन करने पड़े। श्रम कानून, सामाजिक कानून, दहेज कानून, सती कानून, विदेशी मुद्रा कानून और अनेक नए कानून बने। लेकिन कानून का सहारा लेकर जिस तरह अंग्रेज दमन करते थे, उसी तरह हमारे यहां व्यवस्था द्वारा दमन हुआ। प्रभुता-संपन्न वर्ग कानून को हमेशा अपने अस्तित्व को बचाने या बनाए रखने के लिए बनाता है।

उसकी व्याख्याएं लोकतांत्रिक देशों में न्यायपालिका द्वारा अपने ढंग से की जाती हैं लेकिन मूलत: यह सारा अधिकार संसद के पास है। इतने वर्षो का इतिहास देखें तो कुछ समय को छोड़कर देश पर एक दल ने ही शासन किया और उसने पूरे अधिकार के साथ जो चाहे, वे कानून बनाए। कुछ कानून, जो ऐसा लगता भी है कि सामाजिक संदभरे में औरतों के लिए, बच्चों के लिए, मजदूरों के लिए बनाए गए, वे भी इतने आधे-अधूरे बनाए गए कि उनका पूरा लाभ इन वगरे को नहीं मिल पाया। अपराध, बलात्कार, औरतों के प्रति अत्याचार, दहेज के कारण होने वाली मौ तें, कहीं भी किसी जगह कोई कमी नहीं आई। साठ से ज्यादा बरसों में कानून का सामाजिक न्याय के साथ जो रिश्ता बना, वह यह है कि अपराध करने वाले 98 प्रतिशत लोग छूट जाते हैं। कानून की अपनी बारीकियां हो सकती हैं लेकिन मूलत: कानून का जो ढांचा हमारे पास है, उसमें जो भी कानूनी सुविधाएं हैं ये साधन-सम्पन्न लोगों के लिए अधिक हैं। गरीब आदमी आज भी पुलिस, कोर्ट-कचेहरी और कानून से डरता है। शायद उतना ही डरता है जितना अं ग्रेजों के शासनकाल में डरता था क्योंकि कानून आज भी उसकी पहुंच से बाहर है। जिस व्यक्ति के पास पैसा है, वह अच्छा वकील करने की स्थिति में है, वर्षो मुकदमा लड़ सकता है। लेकिन गरीब आदमी की स्थिति यह है कि वह न वकीलों की फीस देने की स्थिति में है और न सबेरे से शाम तक कोर्ट-कचेहरी में बैठने की स्थिति में। बड़ी मुश्किल से कहीं से पैसा जुटाकर कनिष्ठ वकील कर भी लिया तो वह वरिष्ठ वकील के मुकाबले कहीं खड़ा नहीं हो पाता। संविधान के एक-एक अनुच्छेद और कानून की एक-एक धारा के बारे में विभिन्न मत हैं। देश की सबसे बड़ी न्यायिक संस्था ‘उच्चतम न्यायालय’ अपने ही फैसलों को कितनी बार रद्द किया है। अधिनियम, नियम, अधिसूचनाएं और निर्णयों की बहुतायतता हो गई है।

वकीलों को ही समझ नहीं आता तो आम लोगों को क्या समझ में आएगा? लोग किसी निर्णय को सुनकर खुश होते हैं। अरे! यह तो मेरे पक्ष में है, अगले दिन सुनने में आएगा कि इस निर्णय को तो उच्च न्यायालय ने खारिज (ओवर रूल) कर दिया। उच्च न्यायालय के निर्णय को अगले साल उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया और उच्चतम न्यायालय का निर्णय है तो उसने उसे स्वयं खारिज कर दिया। तो आप पता लगाते रहिए कि कौन-से निर्णय वैध हैं और किन्हें खारिज कर दिया गया है। इसकी वजह से एक भयंकर जटिल स्थिति बनती जा रही है । कुल मिलाकर, वर्तमान भारतीय कानू न- व्यवस्था ऐसा घना-अंधेरा जंगल हो गया है जिसे पार करना बेहद जोखिमभरा काम है और शायद इसीलिए आम आदमी कोर्ट-कचेहरी के नाम तक से आतंकित रहता है। कानून, पुलिस, अदालतों और वकीलों का भय छोड़, कर्ज लेकर खर्च करने के बाद भी बरसों तक अगर किसी मुकदमे (दीवानी या फौजदारी) का निर्णय ही न हो तो वह क्या करे? न्याय मिलने में विलम्ब का अर्थ हैन् याय का न मिलना। तो फिर क्या उसके साथ न्याय हो रहा है? या ऐसे में न्याय हो भी सकता है या नहीं? अगर न्याय सस्ता और शीघ्र सुलभ हो ही नहीं सकता, तब क्या जरूरी नहीं है कि पूरी कानून और न्याय-व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन हो, ताकि हर नागरिक के साथ न्याय हो सके? न्याय की नींव का नया पत्थर कब रखा जाएगा? कहना अभी बहुत मुश्किल है। यही वजह है कि आज दे श में बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा और अकाल जैसे समस्याएं हैं। बाल मजदूरी के खिलाफ कानून बना, बाल विवाह के खिलाफ कानून बना, क्या इनमें से कोई भी समस्याा हल हो पाई ? जाहिर है- नहीं। और ऐसा नहीं है कि इन कानूनों का पालन ठीक से न हो पाने के कारण यह समस्या जैसी की तैसी मौजूद है।

अगर इन कानूनों को पूरी ईमानदारी से लागू किया जाए, तब भी इनमें से कोई समस्या खत्म नहीं होनेवाली, क्योंकि हमने जो कानून बनाए उनका अगर बारीकी से अध्ययन करें तो पता चलेगा कि ये इतने आधे- अधूरे हैं कि इनके लागू करने से भी कुछ नहीं होगा। अब तक सैकड़ों नए कानून बने, सै कड़ों बार उनमें संशोधन हुआ लेकिन कानून के मूल ढांचे में कोई खास परिवर्तन नहीं होने वाला। भारतीय दंड संहिता, साक्ष्य अधिनियम, आपराधिक प्रक्रिया संहिता, व्यक्तिगत कानून आदि में कहीं कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं किया गया या जो नए कानून बने भी, उनमें इतने छिद्र हैं कि उनको पास करने से भी कुछ नहीं हुआ। सवाल है, ऐसी क्या खामियां रह गई हैं कि आम समाज और न्याय के बीच की दूरी कम होने की बजाय बढ़ती चली गई? इस मामले में सबसे पहले हमें कानून को अपने समाज के स्तर पर देखना चाहिए था, संसद के स्तर पर देखना चाहिए था और क्रियान्वयन के स्तर पर देखना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। न्यायपालिका में जो लोग बैठे हैं उनका आम आदमी से जो सरोकार होना चाहिए था, वह नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि न्याय पण्राली में सुधारवादी आंदोलन न चले हों। न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती से लेकर न्यायिक सक्रियता के इस दौर तक अनेक ऐसे आंदोलन चले और उनका कुछ-न- कुछ लाभ भी समाज को हुआ होगा लेकिन स्वतंत्रता के इन वर्षो में हम न्यायपालिका की तटस्थ आलोचना की परंपरा भी विकसित नहीं कर पाए। हमारे यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात आती है लेकिन कोई पत्रकार न्यायपालिका पर कोई टीका-टिप्पणी करना चाहे तो उसके सामने हमेशा अदालत की अवमानना की तलवार लटकती रहती है। न्यायपालिका का यह डर भी इतने वर्षो में नहीं निकल पाया। (बाकी पेज दो पर)

सारी जनहित याचिकाओं के बावजूद और सारी न्यायिक सक्रियता के ‘छाया युद्ध’ के बावजूद क्या हम बलात्कार की शिकार महिलाओं को कोई राहत दे पाए? क्या हम गरीब आदमी.. निचले तबके के आदमी को कोई राहत दे पाए?

भारत के जिन लोगों के नाम पर संविधान के कायदे- कानून, नियम और अधिनियम बनाए गए हैं उनमें से ज्यादातर लोग अनपढ़, अंगूठा टेक हैं। लेकिन कानून की अज्ञानता उनके लिए भी कोई बहाना नहीं हो सकती.

1978 में हिन्दू विवाह अधिनियम और बालिववाह अधिनियम में संशोधन किया गया। संशोधित कानून के तहत लड़की की उम्र शादी के वक्त 15 से बढ़ाकर 18 साल और लड़के की उम्र 18 से बढ़कर 21 साल कर दी गई।

सारी जनहित याचिकाओं के बावजूद और सारी न्यायिक सक्रियता के ‘छाया युद्ध’ के बावजूद क्या हम बलात्कार की शिकार महिलाओं को कोई राहत दे पाए? क्या हम गरीब आदमी.. निचले तबके के आदमी को कोई राहत दे पाए? पर्यावरण प्रदूषण पर अदालतों के अनेक आदेश आए। अब हजारों फैक्ट्रियों को बन्द करने की बात चल रही है। झुग्गी-झोंपड़ियों को हटाने का भी मसला चलता रहता है लेकिन सवाल यह है कि यदि आप इन सब निर्णयों को उच्च वर्ग की दृष्टि से दिखेंगे तो यह सब निर्णय समाजोपयोगी नजर आएंगे लेकिन मजदूरों की दृष्टि से, झुग्गी-झोंपड़ीवासियों की दृष्टि से देखेंगे तो ये निर्णय संभवत: समाजोपयोगी न लगें, बल्कि जनविरोधी सिद्ध हों। न्यायपालिका में क्या सुधार हो, इतने वर्षो में यह हमारी प्राथमिकता कभी नहीं रही। यही वजह है कि पिछले पचास वर्षो में कानून-व्यवस्था में आम आदमी की आस्था हम पैदा नहीं कर पाए। आस्था हो भी तो कैसे? देश की अदालतों में लाखों मुकदमे बरसों से विचाराधीन पड़े हैं और हर रोज इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। न्यायाधीशों की संख्या में अगर तीन गुना वृद्धि है तो मुकदमों की संख्या में बीस गुना। आखिर मुकदमों का फैसला कैसे हो? दीवानी मुकदमों में ‘स्टे’ (स्थगन आदेश) और फौजदारी मुकदमों में ‘बेल’

(जमानत) के बाद तो बस अगली तारीखें ही पड़ती रहती हैं। कारण यह नहीं, अनेक हैं। कभी जवाब तैयार नहीं, कभी वकील साहब बीमार, कभी इसका वकील नहीं आया, तो कभी उसका वकील गायब, कभी किसी राजनेता की मृत्यु के कारण अदालत बन्द, तो कभी किसी न्यायमूर्ति का निधन, कभी गवाह हाजिर नहीं है तो कभी सरकारी वकील। सबकुछ हो जाने के बाद भी फैसला सुरक्षित और आप महीनों क्या, बरसों फैसला सुनाए जाने वाले दिन का इंतजार करते रहिए। इस बीच, अगर जज साहब रिटायर हो गए या.. तो मुकदमे की सुनवाई फिर से होगी। मान लो फैसला हो भी गया तो क्या जरूरी है कि दूसरा पक्ष हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर नहीं करेगा? करेगा तो फिर अपील में बरसों लगेंगे। अपील नहीं तो विशेष याचिका दायर होगी या आपको करनी पड़ेगी। समाज में एक खास तरह का भ्रम फैलाया जा रहा है कि बहुत से उदारवादी-सुधारवादी कानून बनाए गए हैं। बाल-विवाह के खिलाफ, दहेज-हत्या के खिलाफ वगैरह-वगैरह, लेकिन उनको सही ढंग से लागू किया जाता। ये बातें कोरी लफ्फाजी हैं। अगर ईमानदारी से इन बातों की जांच-पड़ताल की जाए तो कुछ और ही तथ्य सामने आते हैं। 1978 में हिन्दू विवाह अधिनियम औ र बालिववाह अधिनियम में संशोधन किया गया। संशोधित कानून के तहत लड़की की उम्र शादी के वक्त 15 से बढ़ाकर 18 साल और लड़के की उम्र 18 से बढ़कर 21 साल कर दी गई। लेकिन दूसरी ओर इससे संबंधित जो जरूरी व्यवस्थाएं अन्य कानूनों में हैं, उन्हें यूं ही छोड़ दिया गया। मसलन हिन्दू विवाह अधिनियम और बाल-विवाह अधिनियम में तो लड़की की शादी की उम्र 18 साल कर दी गई, लेकिन भारतीय दंड संहिता को संशोधित नहीं किया गया, जिसकी धारा-375 में पति-पत्नी के रिश्ते की उम्र 15 साल है। इसी तरह धारा- 376 में उल्लिखित है कि 12 साल से ज्यादा और 15 साल से कम उम्र की विवाहित युवती से शारीरिक संबंध रखने वाला पति बलात्कार का आरोपी होगा और उसे दो साल की कैद या जुर्माना हो सकता है, जबकि दूसरी ओर साधारण बलात्कार के मुकदमों में अधिकतम सजा आजीवन कारावास और न्यूनतम 7 साल की कैद का प्रावधान है। इस तरह परस्पर विरोधी बातें स्पष्ट दिखाई देती हैं। हिन्दू विवाह अधिनियम में एक और विसंगति है- 18 साल से कम उम्र की लड़की के साथ विवाह वर्जित है और ऐसा करने वाले व्यक्ति को 15 दिन की कैद या सजा या 100 रुपए का जुर्माना हो सकता है। लेकिन जो मुकदमे आज तक निर्णीत हुए हैं, उनमें देखा गया है कि इस तरह के विवाह भले ही दंडनीय अपराध हैं लेकिन अवैध नहीं हैं। सवाल उठता है

कि जब विवाह अवैध नहीं है, तो सजा क्यों? इतना ही नहीं, हिन्दू विवाह अधिनियम और बाल-विवाह अधिनियम की और भी विसंगतियां हैं। प्रावधान यह है कि अगर किसी लड़की का 15 साल से पहले विवाह रचा दिया गया तो वह लड़की 15 साल की होने के बाद मगर 18 वर्ष से पहले इस विवाह को अस्वीकृ त कर सकती है। यानी कानून खुद मान रहा है कि 15 साल से कम उम्र की लड़की की शादी उसके घरवाले कर सकते हैं। अमीना प्रकरण को ही लें तो 15 साल की होने के बाद वह तलाक ले सकती है। पहले तो वह 15 साल की होने का इंतजार करे, उसके बाद अदालतों के चक्कर लगाए। सवाल उठता है कि इतनी उम्र में लड़की के पास मुकदमे के खर्च के लिए पैसा कहां से आएगा? यह भी उस स्थिति में जब उसके घरवाले उसके विरुद्ध थे और घरवाले चाहते हैं कि यह शादी कायम रहे। अब वह अपने बलबूते पर तलाक लेना चाहती है तो कैसे ले? इस तरह के सैकड़ों विरोधाभास हमारे कानूनों में हैं। जब हमारी विधायिका ही इस तरह के कानून बनाती है तो न्यायपालिका भी क्या करेगी? उसकी अपनी सीमाएं भी तो हैं जिन्हें लांघना मुमकिन नहीं। बहुचर्चित सुधा गोयल हत्याकांड के अपराधी, अगर दिल्ली में रहकर सजा के बावजूद जेल से बच सकते हैं तो फिर अचर्चित दूरदराज के इलाकों में तो कुछ भी हो सकता है। (एआईआर-1986 सुप्रीम कोर्ट 250) और क्या ऐसा सिर्फ इसी मामले में हुआ होगा? हो सकता है और बहुत से मामलों में अपराधी फाइलें गायब करवा जेल से बाहर हों? दहेज हत्याओं के मामले में अभी तक एक भी सजा-ए-मौत नहीं, क्यों? मथुरा से लेकर भंवरी बाई और सुधा गोयल से लेकर रूप कंवर सती कांड तक की न्याय- यात्रा में हजारों-हजार ऐसे मुकदमे, आंकड़े, तर्क-कुतर्क, जाल-जंजाल और सुलगते सवाल समाज के सामने आज भी मुंह बाए खड़े हैं। अन्याय, शोषण और हिंसा की शिकार स्त्रियों के लिए घर-परिवार की दहलीज से अदालत के दरवाजे के बीच बहुत लम्बी-चौड़ी गहरी खाई है, जिसे पार कर पाना बेहद दुसाध्य काम है। स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के शोर में ‘बेबस औरतों और भूखे बच्चों की चीख कौन सुनेगा? कात्यायनी के शब्दों में- ‘हमें तो डर है/कहीं लोग हमारी मदद के बिना ही/ न्याय पा लेने की/कोशिश न करने लगें।’ अदालत के बाहर अंधेरे में खड़ी आधी दुनिया के साथ न्याय का फैसला कब तक सुरक्षित रहेगा या रखा जाएगा? कब, कौन, कहां, कैसे सुनेगा इनके ददरे की दलील और न्याय की अपील?

Thursday, December 16, 2010

औरत दूसरी होने की सजा

RASHTRIYE SAHARA, UMANG, 15-12-2010

औरत दूसरी होने की सजा

(अरविन्द जैन)

सिर्फ यह तथ्य कि कोई स्त्री-पुरुष पति-पत्‍नी की तरह रहते है , किसी भी कीमत पर उन्हें पति-पत्‍नी का स्थान नहीं दे देता, भले ही वे समाज के सामने पति-पत्‍नी के रूप में पेश आते हों और समाज भी स्वीकार करता हो

दूसरी अपने समाज में पुरुषों के दूसरी शादी करने को उतनी घृणित नजर से देखने का रिवाज नहीं है, जैसे किसी शादीशुदा मर्द की दूसरी बीवी बनने वाली औरत को उपेक्षित किया जाता है, कानून में भी औरतों के इस संबंध को अधिकारहीन बनाये रखा है, शीर्ष स्त्रीवादी विचारक और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अर¨वद जैन-

भारतीय दंड संहिता की धारा-494 में प्रावधान है कि पति या पत्‍नी के जीवित रहते दूसरा विवाह दंडनीय अपराध है और प्रमाणित होने पर अधिकतम सात साल कैद और जुर्माना हो सकता है, परन्तु आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 उपयरुक्त अपराध को सं™ोय अपराध नहीं मानती, लिहाजा अपराध जमानत योग्य भी है

मौजूदा भारतीय समाज में सभी धर्म-वर्ग (मुस्लिम के अलावा) के लोगों के लिए, एकल विवाह की ही कानूनी व्यवस्था है। पति या पत्‍नी के जीवित रहते (बिना तलाक) दूसरा विवाह अवैध ही नहीं, दंडनीय अपराध भी है, बशत्रे कि कानूनी रूप से मान्य शत्रे पूरी हों। मसलन ’सप्तपदी‘ वगैरह। लेकिन ऐसे विवाह के परिणामस्वरूप हुए बच्चे, वैधानिक दृष्टि से वैध ही नहीं, बल्कि अपने मां-बाप की संपत्ति में भी बराबर के हकदार होंगे। हालांकि उन्हें ’संयुक्त परिवार की संपत्ति बंटवाने का कोई अधिकार नहीं होगा।‘ आश्चर्यजनक है कि दूसरी पत्‍नी को पति से गुजारा-भत्ता तक नहीं मिल सकता। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा-5 में विवाह के लिए तय पांच शर्तो में से सर्वप्रथम शर्त यह है कि किसी भी पक्ष (वर-वधू) का पति या पत्‍नी (विवाह के समय) जीवित नहीं होना चाहिए, वरना धारा- 11 के अनुसार विवाह पूर्णतया रद्द माना जाएगा और धारा- 17 के अनुसार ऐसा विवाह रद्द ही नहीं बल्कि भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494-495 के तहत दंडनीय अपराध भी होगा। धारा-5 की शर्त है कि विवाह के समय वर-वधू, दोनों में से किसी का भी पति या पत्‍नी जीवित नहीं होना चाहिए और धारा-17 कहती है कि दोनों में से किसी एक का भी पति या पत्‍नी जीवित है, तो दूसरा विवाह अवैध और दंडनीय अपराध होगा। अगर दोनों में से किसी एक का पति या पत्‍नी जीवित है, तो दूसरा पक्ष पता लगने पर (अगर चाहे) विवाह को रद्द तो घोषित करवा सकता है, मगर दंड नहीं दिलवा सकता/सकती। लेकिन अगर दोनों के ही पति-पत्‍नी जीवित हों, तो कौन-किसके विरुद्ध दावा दायर करेगा? जाहिर है, दोनों चुप रहेंगे। भारतीय दंड संहिता की धारा-494 में प्रावधान है कि पति या पत्‍नी के जीवित रहते दूसरा विवाह दंडनीय अपराध है और प्रमाणित होने पर अधिकतम सात साल कैद और जुर्माना हो सकता है, परन्तु आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 उपरोक्त अपराध को सं™ोय अपराध नहीं मानती, लिहाजा अपराध जमानत योग्य भी है। मतलब यह कि पुलिस या अदालत पीड़ित पक्ष द्वारा शिकायत (प्रमाण सहित) के बिना कानूनी कार्यवाही नहीं कर सकती और शिकायत पर कोई कार्यवाही होगी, तो अभियुक्त को जमानत पर छोड़ना ही पड़ेगा। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-198 के अनुसार शिकायत का अधिकार सिर्फ पहले पति या पत्‍नी को ही उपलब्ध है, न कि दूसरे पति या पत्‍नी को। वे चाहें तो किसी भी कारणवश खामोश रह, दूसरे विवाह को ’वैधता‘ प्रदान कर सकते है। हिन्दू विवाह अधिनियम लागू होने (18 मई, 1955) से पहले एकल विवाह का नियम सिर्फ स्त्रियों पर लागू होता था। पुरुष चाहे जितनी मर्जी, प}ियां रख सकता था। पुरुषों के लिए भी एकल विवाह का कानूनी प्रावधान बनाया गया। लेकिन कानून की अदालती व्याख्याओं ने सम्भावित सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में गतिरोधक की भूमिका ही निभाई। भाऊराव शंकर लोखंडे बनाम महाराष्ट्र (एआईआर 1965 सुप्रीम कोर्ट 1564) के मामले में माननीय न्यायमूर्तियों ने धारा-494 की व्याख्या करते हुए स्थापना दी कि ’हू एवर मैरीज‘ का मतलब है ’हू एवर मैरीज वैलिडली।‘ उन्होंने आगे कहा, ’सिर्फ यह तथ्य कि कोई स्त्री-पुरुष पति-पत्‍नी की तरह रहते है, किसी भी कीमत पर उन्हें पति-पत्‍नी का स्थान नहीं दे देता, भले ही वे बाहर समाज के सामने पति-पत्‍नी के रूप में पेश करते है और समाज भी स्वीकार करता हो।‘ न्यायमूर्तियों ने बहुत स्पष्ट रूप से लिखा है कि दूसरा विवाह भी विधिवत होना परम अनिवार्य है, वरन दंडनीय अपराध नहीं। इस निर्णय के पदचिन्हों पर ही चलते हुए अनेक निर्णय आते चले गए। (एआईआर 1966, सुप्रीम कोर्ट-614 और एआईआर 1971, सुप्रीम कोर्ट-1153 एआईआर 1979, सुप्रीम कोर्ट 713, 848) पुनर्विवाह के आपराधिक मामलों में भी सार्वजनिक और न्यायिक सहानुभूति इतनी पारदर्शी है कि किसी अतिरिक्त टिप्पणी की आवश्यकता नहीं। इस संदर्भ में अनेक उच्च न्यायालयों के बहुत से निर्णय बताएगिनाए जा सकते है। सर्वोच्च न्यायालय का ही एक और फैसला, शान्ति देव वर्मा बनाम कंचन पर्वा देवी (1991 क्रिमिनल लॉ जरनल 660) विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अपीलार्थी ने 1962 में पहला विवाह किया और बिना तलाक लिये 1969 में दूसरा। पहली पत्‍नी की शिकायत पर मजिस्ट्रेट ने पति व अन्य व्यक्तियों को डेढ़ वर्ष कारावास की सजा सुनाई, मगर अपील में सत्र न्यायाधीश ने सबको बाइज्जत बरी कर दिया। उच्च न्यायालय ने सिर्फ पति को दोषी माना और बाकी सबको रिहा कर दिया। 1979 में पति ने सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका दायर की, जिसका फैसला (10 अक्टूबर, 1990) सुनाते हुए न्यायमूर्ति रतनावेल पांडियन और के. जयचन्दा रेड्डी ने कहा, ’उच्च न्यायालय के निर्णय को बहुत ध्यान से देखने के बाद हमारा विचार है कि विवाह में सप्तपदी के संदर्भ में विश्वसनीय साक्ष्यों के बिना, उच्च न्यायालय द्वारा (पत्रों के आधार पर) अर्थ निकालना उचित नहीं।‘ उपरोक्त निर्णय के ठीक एक साल बाद बम्बई उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एम. एफ. सलदाना ने इन्दू भाग्य नातेकर बनाम भाग्य पांडुरंग नातेकर व अन्य (1992 क्रिमिनल लॉ जरनल 601) के अपील में कहा कि शिकायतकर्ता के लिए यह जरूरी नहीं है कि विवाह-संबंधी सभी रीति-रिवाज और कर्मकांडों को प्रमाणित करे। विश्वसनीय साक्ष्यों (विवाह प्रमाणपत्र) के आधार पर भी आरोप सिद्ध किया जा सकता है। न्यायमूर्ति सलदाना ने अपील में उठे प्रश्नों को ’बेहद महत्वपूर्ण समाजशास्त्री सवाल‘ मानते हुए निर्णय में लिखा, ’दूसरा विवाह करने संबंधी अपराध, विवाह की सामाजिक संस्था की जड़ों पर आघात करता है और भारतीय दंड संहिता बनाने वालों ने इसे गंभीर अपराध के रूप में वर्गीकृत किया है, क्योंकि यह मौजूदा विवाह संस्था को नष्ट करता है। इस अपराध के प्राय: आरोप लगाए जाते है लेकिन दुलर्भ मामलों में ही अदालतों के समक्ष प्रमाणित हुआ है या भारतीय समाज के अपने नियम है कि जो व्यक्ति से व्यक्ति, जाति से जाति, धर्म से धर्म और लिंग से लिंग के लिए फर्क है। ये नियम अपनी सुविधा के लिए जब चाहे, बना लिये जाते है और जो इनके विरोध में खड़ा होता है, उसको ’रेबेल‘ यानी परम्परा भंजक कहा जाता। समाज के नियम, कानून और संविधान से हमेशा इतर होते है क्योंकि कानू न और संविधान में एक से नियम होते है, सबके लिए। क्यों हम सब कानून और संविधान की बात न करके हमेशा वेद-पुराण,

बाइबिल, कुरआन, गुरु ग्रंथ साहिब की बात करते है। किसने कहा, ये सब ग्रंथ कुछ नहीं सिखाते, पर क्या आप वाकई इन ग्रंथों में लिखी हर बात मानते है या केवल कुछ बातें जो आपको सुविधाजनक लगती है, उनको मान कर अपना लेते है और बार-बार उनको हर जगह दोहराते रहते है। जितनी शिद्दत से आपने ये धर्म ग्रंथ पढ़े है, क्या उतनी शिद्दत से आपने अपने संविधान को कभी पढ़ने और समझने की कोशिश की है? भारत का संविधान सबको बराबर मानता है, हर धर्म को, हर जाति को और हर लिंग को। फिर क्यों ये समाज किसी को बड़ा और छोटा मानता है और क्यों यह समाज नारी को हमेशा दोयम का दर्जा देता है? नारी के नाम को बदलना शादी के बाद, -नारी को ’देवी‘ कह कर पूजना पर उसको समान अधिकार न देना, यहां तक कि पैदा होने का भी (कन्या घूणहत्या), -नारी का बलात्कार, अगर वह किसी की बात का प्रतिकार करे (लड़की को छेड़ा गया, प्रतिकार करने पर गाड़ी में खींचकर बलात्कार किया गया) -नारी को जाति आधरित बातों पर मारना (लड़की को गैर जाति युवक से प्यार करने की सजा उसको नग्न अवस्था में घुमाया जाना, पूरे गांव के सामने कोड़े से मारना) न जाने कितनी खबरें थीं अखबार में। इसलिए आग्रह है कि धर्मग्रंथों और सामाजिक नियमांे से उठकर कानून और संविधान की जानकारी लें। उसको पढ़ें और बांचें, ताकि समाज में फैली असमानता को दूर किया जा सके। धर्मग्रंथ, समाज के नियम, कानून और संविधान, चुनाव सही करें।

RASHTRIYE SAHARA, UMANG, 15-12-2010