Monday, February 25, 2013

दाम्पत्य में 'बलात्कार का लाइलेंस' असंवैधानिक है

अरविन्द जैन नवभारत टाइम्स (13 फरवरी 2013) में प्रकाशित मीनाक्षी लेखी का लेख "बेतुकी है दांपत्य में बलात्कार पर कानून बनानें की मांग" पढ़ कर कोई ख़ास हैरानी-परेशानी नहीं हुई। सब जानते हैं कि मीनाक्षी लेखी 'सुप्रीम कोर्ट की चर्चित वकील' ही नहीं, आजकल मीडिया में भारतीय जनता पार्टी की चर्चित प्रवक्ता भी हैं। मैं इस लेख के माध्यम से, ससम्मान उनके विचारों से अपनी असहमति और विरोध प्रकट करता हूँ और पाठकों को कानूनी वस्तुस्थिति से भी अवगत करना चाहता हूँ। मीनाक्षी का कहना है कि दांपत्य में बलात्कार को 'भारतीय यथार्थ' के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए हालाँकि 'प्रामाणिक आंकड़े' उपलब्ध नहीं हैं, सो 'ठोस बहस' करना बहुत मुश्किल है। मगर इसके बावजूद उनका स्पष्ट निर्णय है कि "दांपत्य में बलात्कार को अपराध घोषित करने से असंतुष्ट और प्रतिशोधी पत्नियों की पौ बारह हो जाएगी"। एक तरफ उनका कहना-मानना है कि “हम दांपत्य में बलात्कार की संभावना को खारिज नहीं कर रहे हैं। ना ही इस अपमानजक कृत्य की अनदेखी कर रहे हैं”। मगर थोड़ी ही देर में बताना-सिखाना शुरू कि “पति द्वारा जबरन बनाए गए संबंध को अपराध घोषित करना महिलाओं के हित में नहीं है। यह परिवार या समाज जैसी संस्थाओं की चूलें हिला सकता है”। समझ नहीं आ रहा कि प्रखर प्रवक्ता के विचारों में यह कौन 'सूत्रधार' बोल रहा है? दांपत्य में बलात्कार संबंधी कानूनी प्रावधानों की चर्चा किये बगैर 'ठोस बहस' कैसे संभव है? उल्लेखनीय है कि जनता पार्टी के राज (1978) में जब बाल विवाह रोकथाम अधिनियम,1929 और हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में संशोधन किया गया, तो लड़की की शादी की उम्र 15 साल से बढ़ाकर 18 साल निर्धारित की गई। लेकिन देश के ‘योग्य नौकरशाह’ और ‘महान नेता’, भारतीय दंड संहिता की धाराओं में संशोधन करना ही 'भूल' गए। बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के मुताबिक, किसी भी लड़की की शादी की उम्र 18 साल और लड़के की उम्र 21 साल होना अनिवार्य है। 18 साल से कम उम्र की लड़की की शादी 21 साल से कम उम्र के लड़के के साथ कराना दंडनीय अपराध है और दो साल का सश्रम कारावास या एक लाख रुपये तक का आर्थिक दंड या फिर दोनों हो सकते हैं। मगर शादी के वक्त यदि लड़के की उम्र 18 साल से कम है, तो इसे अपराध ही नहीं माना जाता। 3 फरवरी 2013 से लागू अपराधिक संशोधन अध्यादेश, 2013 से पहले, बिना सहमति के किसी औरत के साथ यौन संबंध स्थापित करना या 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ (सहमति के साथ भी) संबंध स्थापित करना बलात्कार की श्रेणी में आता था। हालांकि, 15 साल से अधिक उम्र की अपनी पत्नी के साथ जबर्दस्ती किया गया यौन संबंध बलात्कार नहीं माना जाता रहा है। भारतीय दंड संहिता की धारा-376 के अनुसार किसी महिला के साथ बलात्कार करने वाले को आजीवन कारावास की सजा दी सकती थी/है लेकिन यदि पति 12 से 15 साल की अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करता तो अधिकतम सजा दो साल की जेल या जुर्माना या दोनों हो सकती थे। बलात्कार संज्ञेय और गैर जमानती अपराध था, लेकिन 12-15 साल की उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार संज्ञेय अपराध नहीं माना जाता था और जमानत योग्य अपराध था । 15 साल से कम उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार का मामला हो, तो पुलिस कोई भी कार्रवाई नहीं कर सकती थी और गरीब नाबालिग लड़की को खुद ही कोर्ट का दरवाजा खटखटाना और मुकदमे के दौरान काफी कठिन प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। हिन्दू अल्पवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा-6 सी, में आज भी यह हास्यास्पद प्रावधान मौजूद है कि "विवाहित नाबालिग लड़की का संरक्षक उसका पति होता है" भले ही पति और पत्नी दोनों ही नाबालिग हों। अध्यादेश में बलात्कार को अब ‘यौन हिंसा’ माना गया है और सहमती से सम्भोग की उम्र 16 साल से बढ़ा कर 18 साल कर दी गई है, जबकि धारा 375 के अपवाद में पत्नी की उम्र 15 साल से बढ़ा कर 16 साल की गई है। 16 साल से कम उम्र की पत्नी से बलात्कार के मामले में अब सजा में कोई ‘विशेष छूट’ नहीं मिलेगी। अध्यादेश जारी करते समय सरकार ने वैवाहिक बलात्कार संबंधी न तो विधि आयोग की 205वी रिपोर्ट की सिफारिश को माना और न ही वर्मा आयोग के सुझाव। भारतीय विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि “भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद को खत्म कर दिया जाना चाहिए"। अध्यादेश के बाद अब भी भारतीय दंड संहिता की धारा-375 का अपवाद, पति को अपनी 16 साल से बड़ी उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार करने का कानूनी लाइसेंस देता है, जो निश्चित रूप से नाबालिग बच्चियों के साथ मनमाना और विवाहित महिला के साथ कानूनी भेदभावपूर्ण रवैया है। यह दमनकारी, भेदभावपूर्ण कानूनी प्रावधान संविधान के अनुच्छेद-14, 21 में दिए गए विवाहित महिलाओं के मौलिक अधिकारों ही नहीं बल्कि मानवाधिकारों का भी हनन है। परिणाम स्वरूप शादीशुदा महिलाओं के पास चुपचाप यौनहिंसा सहन करने, बलात्कार की शिकार बने रहने या फिर मानसिक यातना के आधार पर पति से तलाक लेने या घरेलु हिंसा अधिनियम के आधीन कोर्ट-कचहरी करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। वैवाहिक जीवन में बलात्कार की सजा से छूट के कारण भारतीय शादीशुदा महिलाओं की स्थिति ‘सेक्स वर्कर’ और ‘घरेलू दासियों’ से भी बदतर है, क्योंकि सेक्स वर्कर को ना कहने का अधिकार है परन्तु शादीशुदा महिला को नहीं है।


मीनाक्षी लेखी जिसे "और भी हैं रास्ते" बता रही हैं, क्या वो कागची 'विकल्प' मौलिक अधिकारों की बराबरी कर सकते हैं ? इकिस्वीं सदी के किसी भी सभ्य समाज में पति को पत्नी के साथ बलात्कार/ यौनहिंसा के कानूनी लाइसेंस की वकालत करना, सचमुच "बलात्कार की संस्कृति" को बढ़ावा देना ही कहा जायेगा। परंपरा, संस्कृति, संस्कार, रीति-रिवाजों और रूढ़िवादियों व धर्मशास्त्रियों द्वारा बनाए गए नियमों के आधार पर, वैवाहिक बलात्कार को कभी भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। कोई भी धर्म वैवाहिक बलात्कार का समर्थन नहीं करता। डायना इ एच रसेल ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक "रेप इन मैरिज" (1990) में कितना सही लिखा है "वैवाहिक जीवन में बलात्कार को पति के विशेषाधिकार के रूप में देखते जाना अपमानजनक ही नहीं, दुनिया की तमाम औरतों के लिए खतरा भी है” बताने की जरूरत नहीं कि 1991 में आर. बनाम आर. (रेप : वैवाहिक छूट) मामले में हाउस ऑफ लॉर्डस के मुताबिक, ‘कोई भी पति अपनी पत्नी के साथ बिना सहमति के यौन संबंध बनाने पर अपराधी हो सकता है, क्योंकि पति और पत्नी दोनों समान रूप से शादी के बाद जिम्मेदार होते हैं। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता कि शादी के बाद सभी परिस्थितियों में पत्नी यौन संबंध बनाने के लिए खुद को पेश करेगी या मौजूदा शादी के बाद सभी हालातों में पत्नी यौन संबंध बनाने के लिए राजी हो।’ पीपुल्स बनाम लिब्रेटा मामले में न्यूयार्क की अपील कोर्ट ने कहा कि बलात्कार और वैवाहिक जीवन में बलात्कार के बीच अंतर करने का कोई औचित्य नहीं है और विवाह किसी पति को अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करने का लाइसेंस नहीं देता। कोर्ट ने न्यूयार्क के उस कानून को असंवैधानिक करार दिया जिसने वैवाहिक बलात्कार को अपराध ना मानने की छूट दे रखी थी।’ नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने घोषित किया कि पत्नी की सहमति के बिना वैवाहिक सेक्स बलात्कार के दायरे में आएगा। यह भी कहा गया कि धार्मिक ग्रंथों में भी पुरुषों द्वारा पत्नी के बलात्कार की अनदेखी नहीं की है। कोर्ट ने यह भी कहा कि हिन्दू धर्म में पति और पत्नी की आपसी समझ पर जोर दिया गया है। दुनिया के करीब 76 देशों में वैवाहिक बलात्कार दंडनीय अपराध के तौर पर घोषित हो चुका है जबकि भारत सहित पांच देशों में वैवाहिक बलात्कार को अपराध तब माना जाता है, जब कानूनी तौर पर दोनों एक-दूसरे से अलग रह रहे हों। 'परिवार की पवित्रता' की दुहाई देते हुए मीनाक्षी कह रही हैं कि "दांपत्य में बलात्कार कानून की मांग से पुरुष समाज भी डरा हुआहै। विवाह और परिवार जैसी संस्थाओं को बदनाम करके इन संस्थाओं की पवित्रता को खतरे में नहीं डालाजा सकता"। पुरुष समाज क्यों डरा हुआ है ? विवाह और परिवार जैसी संस्थाओं की पवित्रता को किसने खंडित किया? इसके लिए जिम्मेवार वो बलात्कारी पिता-पति-पुत्र हैं, जिनके कारण संबंधों की किसी भी छत के नीचे स्त्री सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रही। पता नहीं 'परिवार की पवित्रता', नैतिकता, मर्यादा और आदर्श भारतीय नारी के धार्मिक उपदेशों से हिंदुस्तान की स्त्री को कब और कैसे मुक्ति मिलेगी? नेहरु जी के शब्दों में " हम हर भारतीय स्त्री से सीता होने की अपेक्षा करते हैं, मगर पुरुषों से मर्यादा पुरषोतम राम होने की नहीं"। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सदियों पुराने संस्कारों की सीलन- आखिर कब और कैसे समाप्त होगी? कैसे अंत हो स्त्री उत्पीड़न की राजनीति का? क्या हम वास्तव में मौजूदा मर्दवादी कानूनों से, महिलाओं के खिलाफ लगातार बढती हिंसा-यौनहिंसा-घरेलू हिंसा को रोकना चाहते हैं या तथाकथित महान भारतीय सभ्यता, संस्कृति और धार्मिक परंपराओं की आड़ में, महिलाओं का शोषण, उत्पीड़न, दमन और यौनहिंसा ज़ारी रखना चाहते हैं?

Tuesday, February 12, 2013

अरविन्‍द जैन होइहें सोई जो पुरुष रचि राखा मैं आदमी हूँ यानी पुरुष, मर्द स्‍वामी, देवता, मंत्री, संतरी, सामंत, राजा, मठाधीश और न्‍यायाधीश-सबकुछ मैं हूँ और मेरे लिए ही सबकुछ है या सबकुछ मैंने अपने सुख-सुविधा, भोग-विलास और ऐयाशी के लिए बनाया है। सारी दुनिया की धरती और (स्‍त्री) देह यानी उत्‍पादन और पुनरुत्‍पादन के सभी साधनों पर मेरा ‘सर्वाधिकार सुरिक्षत' है। रहेगा। धरती पर कब्‍जे के लिए उत्‍तराधिकार कानून और देह पर स्‍वामित्‍व के लिए विवाह संस्‍था की स्‍थापना मैंने बहुत सोच-समझकर की है। सारे धर्मों के धर्मग्रंथ मैंने ही रचे हैं। धर्म, अर्थ, समाज, न्‍याय और राजनीति के सारे कायदे-कानून मैंने बनाये हैं और मैं ही समय-समय पर उन्‍हें परिभाषित और परिवर्तित करता हूँ। घर, खेत, खलिहान, दुकान, कारखाने, धन, दौलत, सम्‍पत्ति, साहित्‍य, कला, शिक्षा, सत्‍ता और न्‍याय-सब पर मेरे अधिकार हैं सभी धर्मों का भगवान मैं ही हूँ और सारी दुनिया मेरी ही पूजा करती है। ‘अर्धनारीश्‍वर' का अर्थ आधी नारी और आधा पुरुष नहीं बल्‍कि आधी नारी और आधा ईश्‍वर है। इसलिए तुम नारी और मैं (पुरुष) ईश्‍वर हूँ। तुम्‍हारा ईश्‍वर-पति परमेश्‍वर मैं ही हूँ। तुम औरत हो यानी मेरी पत्‍नी, वेश्‍या और दासी-जो कुछ भी हो, मेरी हो और मेरे सुख, आनंद, भोग और ऐश्‍वर्य के लिए सदा समर्पित रहना ही तुम्‍हारा परम धर्म और कर्तव्‍य है। मेरे हुक्‍म के अनुसार चलती रहोगी, सम्‍पूर्ण रूप से समर्पित होकर वफादारी के साथ मेरी सेवा करोगी तो ‘सीता', ‘सावित्री' और ‘महारानी' कहलाओगीऋ सुख-सुविधाएँ, कपड़े-गहने, धन-ऐश्‍वर्य, मान-सम्‍मान और प्रतिष्‍ठा पाओगी। मगर मुझसे अलग मेरे विरुद्ध आँखें उठाने की कोशिश भी करोगी तो कीड़े-मकोड़ों की तरह कुचल दी जाओगी। कोई तुम्‍हारी मदद के लिए आगे नहीं आयेगा। समाज, धर्म, कानून, मठाधीश, मंत्री, नेता और राजा, सब मेरे हैं, बल्‍कि ये ही वे हथियार हैं जिनसे मैं इस दुनिया में ही नहीं, दूसरी दुनिया में भी तुम्‍हें नही छोडूगाँ। पहली और दूसरी दुनिया मै हूँ तुम महज तीसरी दुनिया हो, तुम्‍हारी न कोई दलील सुनेगा, न अपील। मेरे पैदा होने की खबर मात्र से बहन ‘सुनीता', ‘अनीता' और ‘अनामिका', पंखे से लटककर आत्‍महत्‍या कर लेंगी। नहीं करेंगी तो बहनों, साफ-साफ सुन लो कि - बहन होकर जायदाद में बराबर के अधिकार माँगोगी तो पिताजी को बहकाकर जल्‍दी से कहीं शादी करवा दूँगा और वसीयत में सबकुछ अपने नाम लिखवा कर ताला बंद कर दूँगा। सुसराल जाओगी तो चार दिन में अक्‍ल ठिकाने आ जायेगी। तीज, त्‍योहार, होली, दीवाली, राखी, भैया दूज, भात पर जो दें उसे सिर-माथे लगाओगी तो ठीक, नहीं तो आगे से वो भी बंद। संयुक्‍त हिन्‍दू परिवार की सम्‍पत्‍ति में बँटवारा करवाने का तो तुम्‍हें कोई हक ही नहीं है, वो सब हम मर्दों का मामला है... पिताजी की सम्‍पत्‍ति में तुम्‍हें बराबर का हक है लेकिन सिर्फ तब जब वो अपनी वसीयत लिखकर न मरे हों... बिना वसीयत लिखे मैं उन्‍हें मरने दूँगा? वसीयत मेरे नाम नहीं लिखेंगे तो बुढ़ापे में क्‍या सड़क पर भीख माँगेंगे? ‘कागजी कानूनों' का डर किसी और को दिखाना-मैं तो डरनेवाला हूँ नहीं। पिताश्री अचानक बिना वसीयत लिखे ही स्‍वर्ग सिधार भी गये तो भी क्‍या है? अपना हक माँगोगी तो समझना ‘मर गये तुम्‍हारे भाई भी' और समाज में ‘थू-थू' अलग। उन्‍होंने चुपचाप वसीयत लिखकर तुम्‍हारे नाम एक कौड़ी भी की तो यह मेरे साथ घोर अन्‍याय होगा और मैं अन्‍याय के खिलाफ� सुप्रीम कोर्ट तक तीस साल मुकदमा लडूँगा, वसीयत को हरसंभव चुनौती दूँगा और तुम्‍हारे घर के बर्तन-भाँडे तक बिकवा दूँगा। मैंने तो सौतेले भाइयों को ही बराबर बाँटने का अधिकार नहीं लेने दिया, बहनें तो मुझसे लेंगी ही क्‍या? पर बूढ़े माँ-बाप के भरण-पोषण की जितनी ज़िम्‍मेदारी मेरी है, उतनी ही तुम्‍हारी भी। प्रेमिका बनकर, प्‍यार का नाटक करके मुझ पर अधिकार जमाना चाहोगी, तो मेरा कुछ भी बिगड़ने से रहा, बदनामी तुम्‍हारी ही होगी। लोम्‍बरोसो, टोमस, फ्रॉयड, किंग्‍सले, डेविस आटो पोलक, एडलर, जॉनसन और हाईट बनकर मैंने तुम्‍हारा मनोवैज्ञानिक अध्‍ययन किया है, इसलिए तुम्‍हारी रग-रग से वाकिफ हूँ। मैं तो तुम्‍हारी सुंदरता की तारीफ करके, शादी के सुनहले सपने दिखाकर और चिकनी-चुपड़ी बातें बनाकर कुछ दिन तुम्‍हारे साथ मस्‍ती और फिर अचानक एक दिन तुम्‍हें किसी बेगाने शहर की अनजानी, अँधेरी बंद गली में छोड़कर भाग जाऊँगा। तुम्‍ही सँभालकर रखना प्‍यार की यादें, मैं तो भूल जाऊँगा सारी कसमें, सारे वायदे। पुलिस से बलात्‍कार की शिकायत करोगी तो अदालत कहेगी, ‘कोई जवान लड़की शादी के वायदे को सच मानकर संभोग की सहमति देती है और इस प्रकार की यौन-क्रीड़ाओं में तब तक लिप्‍त रहती है जब तक गर्भवती न हो जाये तो भारतीय दंड संहिता की धारा-90 कोई मदद नहीं कर सकती और लड़की की करतूतों को माफ करके लड़के को अपराधी नहीं ठहराया जा सकता। ‘लड़की लड़के से प्‍यार करती थी, (प्‍यार में) गर्भवती हुई और गर्भपात भी करवाया। साफ है कि संभोग सहमति से ही हुआ होगा।' वैसे ‘हर लड़की तीसरे गर्भपात के बाद धर्मशाला हो जाती है', लेकिन फिर भी गर्भपात करवा लोगी तो बेहतर, नहीं तो बच्‍चा ‘अवैध' और ‘नाजायज' कहलाएगा। मेरी सम्‍पत्‍ति में से तो उसे धेला तक मिलेगा नहीं और तुम्‍हारे पास देने के लिए होगा ही क्‍या? इतना शुक्र मानो कि अब स्‍कूल में बिना बाप का नाम बताये भी दाखिला तो मिल जायेगा। लेकिन दूसरे लड़के पूछेंगे तो बेचारा क्‍या जवाब देगा? मैं (हम) “कोई ऐसा काम नहीं करना चाहता (चाहते) जिससे औरतों या उनके हितों को नुकसान पहुँचे।” लेकिन अगर चाहूँ तो कर सकता हूँ और तुम मेरा न कुछ बिगाड़ सकती हो, न “कानून बदल सकती हो।” तुम मेरी प्रेमिका नहीं बनोगी तो मैं जब भी मौका लगेगा जबरदस्‍ती तुम्‍हारा मुँह काला कर दूँगा। तुम बलात्‍कार की शिकायत घर पर करोगी तो घरवाले कहेंगे, यह परिवार की प्रतिष्‍ठा का सवाल है। हफ्‍तों इस बात पर सोचेंगे कि मामले को अदालत में ले जाएँ या नहीं। हफ्‍ते या महीने बाद रिपोर्ट करवाएँगे तो अदालत पूछेगी इतने दिन की देरी क्‍यों? पढ़ने जाओगी तो डॉक्‍टर बनकर, सिफारिश के लिए जाओगी तो नेता और मंत्री बनकर, मदद के लिए जाओगी तो सेठ, साहूकार, जागीदार ओर उद्योगपति बनकर, नायिका बनने के लए जाओगी तो निर्माता और निर्देशक बनकर, पुण्‍य कमाने जाओगी तो पुजारी और मठाधीश बनकर, और अदालत में न्‍याय के लिए जाओगी तो वकील बनकर... मैं हमेशा तुम्‍हारा पीछा करता रहूँगा। तुम मेरे चंगुल से बच नहीं सकतीं। तुम जितनी बार बलात्‍कार की शिकायत करोगी मैं उतनी ही बार कभी यह तर्क और कभी वह तर्क देकर साफ बच जाऊँगा लेकिन तुम्‍हारी और तुम्‍हारे घरवालों की खैर नहीं। अकेली तुम्‍हारी गवाही के आधार पर तो सजा होगी नहीं, ऐसे में चश्‍मदीद गवाह कोई होता ही नहीं, पुलिस क्‍या जाते ही तुम्‍हारी रिपोर्ट लिख लेगी? रिपोर्ट लिख भी ली तो जाँच में दस घपले, डॉक्‍टरी मुआयना करवायेगी नहीं, करवाया तो डॉक्‍टर को गवाही के लिए नहीं बुलवायेगी, डॉक्‍टर की रिपोर्ट सन्‍देह से परे तक विश्‍वसनीय नहीं मानी जायेगी, कपड़ों पर वीर्य और खून के निशान मिलेंगे नहीं, पीठ और शरीर पर चोट के निशान नहीं मिले और डॉक्‍टर ने अगर कह दिया कि तुम संभोग की आदी हो तो सारा मामला ही खत्‍म, बलात्‍कार सहमति से संभोग में बदल जायेगा और मैं बाइज्‍जत बरी या सन्‍देह का लाभ उठाकर बाहर। वयस्‍क और विवाहित महिला के साथ बलात्‍कार करने पर चोट के निशान कैसे मिलेंगे? संभोग की आदी वो होती ही है, कोई भी तर्क चल जायेगा कि ‘किसी को आता देखकर शोर मचाया-अपनी इज़्‍ज़त बचाने के लिए या अपनी करतूतों पर परदा डालने के लिए' या ‘बदलचन, आवारा, रखैल, बदनाम, वेश्‍या या कॉलगर्ल है' या संभोग सहमति से हुआ और इसमें पति की मिलीभगत थी। अगर तुमने 16 साल से कम उम्र होने का दावा किया तो प्रमाणित भी तुम्‍हें ही करना होगा। स्‍कूल सर्टीफिकेट अदालत में पेश नहीं किया तो फायदा मुझे ही मिलेगा, डॉक्‍टरी रिपोर्ट उम्र का सही अंदाजा नहीं लगा सकती, इसलिए मानी नहीं जायेगी, एक्‍सरे रिपोर्ट या ओसिफीकेशन टेस्‍ट महज एक राय होगी, प्रमाण नहीं, मेडिकल टेस्‍ट ज़्‍यादा प्रामाणिक नहीं माने जायेंगे क्‍योंकि ‘ऐसे में तीन साल तक की गलती हो सकती है, उम्र के बारे में जन्‍म-प्रमाणपत्र ही सबसे बढ़िया प्रमाण है लेकिन दुर्भाग्‍य (सौभाग्‍य) से इस देश में आम तौर पर यह दस्‍तावेज उपलब्‍ध नहीं होता, और उम्र प्रमाणित करना जरूरी है जो तुम कर नहीं पाओगी, ऐसे में बलात्‍कार उम्र प्रमाणित करने के चक्‍कर में समाप्‍त। कितनी ही बलात्‍कार की झूठी शिकायतों का मैंने सामना किया है। हर बार मेरा बचाव मानवाधिकारों का ‘मुखौटा' लगाए कोई-न-कोई प्रतिबद्ध वकील करता ही रहा है। ‘कोई भी प्रतिष्‍ठित सम्‍माननीय महिला दूसरे व्‍यक्‍ति पर बलात्‍कार का आरोप नहीं लगायेगी क्‍योंकि ऐसा करके वह अपनी इज़्‍ज़त ही बलिदान करेगी-वही जो उसे सबसे प्रिय है।' प्रतिष्‍ठित और सम्‍माननीय महिला की परिभाषा में रखैल, वेश्‍या और कॉलगर्ल शामिल नहीं हैं और वो गरीब व अनपढ़ युवतियाँ भी नहीं जो बिना किसी ‘मानवीय गरिमा' या किसी भी ‘गरिमा' के निर्धनता रेखा से नीचे जी रही हैं। यह बहुत ही कम संभावना है कि कोई आत्‍मस्‍वाभिमानी औरत न्‍याय की अदालत में आगे आकर, अपने साथ हुए बलात्‍कार के बारे में, अपने सम्‍मान के विरुद्ध शर्मनाक बयान देगी, जब तक कि यह पूर्ण रूप से सत्‍य न हो या (पूर्ण रूप से झूठ), इज्‍जतदार औरतें तो बलात्‍कार सच में हो जाने पर भी किसी को नहीं ‘बतातीं', शर्म के मारे डूबकर मर जाती हैं। तुम्‍हारी तरह कोर्ट-कचहरी करती नहीं घूमतीं। ज़्‍यादा तीन-पाँच करोगी और ‘हिरोइन' बनोगी तो मैं तुम्‍हारे साथ अकेले नहीं, बल्‍कि अपने पूरे गैंग सहित सारे गाँव के सामने, बीच सड़क पर बलात्‍कार करूँगा, तुम्‍हारे अंग-अंग के ‘क्‍लोज अप' लेते हुए ‘इंसाफ का तराजू', ‘मेरा शिकार' और ‘जख्‍मी औरत' बनवाऊँगा, सिनेमा हॉलों पर तुम्‍हारी असलियत देखने के लिए भीड़ लग जायेगी, मैं लाखों कमाऊँगा और तुम्‍हें सारे समाज के सामने नंगा करके अपमानित और जलील करूँगा। रही-सही कसर वीडियो पर ‘ब्‍लू फिल्‍म' बनवाकर पूरी कर दूँगा। नोट-के-नोट और तुम्‍हारी ऐसी-कम-तैसी। मैं मूँछों पर ताव देकर घूमूँगा ठाठ से और तुम किसी को मुँह दिखाने के काबिल भी न रहोगी। साबुन और शराब, माचिस और सिगरेट, निरोध और नारियल तेल, तौलिये और साड़ियाँ ही नहीं, स्‍कूटर और कार तक के विज्ञापनों में तुम्‍हारी नग्‍न और अर्धनग्‍न तस्‍वीरें छपवाऊँगा, फिल्‍मों के तुम्‍हारे बड़े-बड़े उत्तेजक पोस्‍टर सारे शहर में लगवाऊँगा, अखबारों, पत्रिकाओं और किताबों में तुम्‍हारी अश्‍लील-से-अश्‍लील हरकतों का भंडाफोड़ करूँगा, हजारों पत्रिकाएँ धड़ल्‍ले से बेचूँगा और लाखों के वारे-न्‍यारे। ‘सत्‍यम्‌-शिवम्‌ सुन्‍दरम्‌', ‘बॉबी', ‘राम तेरी गंगा मैली' बनाकर मेरी मदद करनेवाले को बड़े-से-बड़े पुरस्‍कारों से सम्‍मानित करूँगा, बहुत देखी हैं मैंने दफा-292 और अश्‍लीलता के खिलाफ� बने कानून। अदालत कह चुकी है, ‘फूहड़ बात अश्‍लील नहीं होती', और न ही ‘औरतों के नग्‍न फोटो छापना अश्‍लीलता है।' न्‍यूड पेंटिंग्‍स तो वैसे भी महान कला मानी जाती है, खजुराहो और कोणार्क के मंदिरों की दीवारों तक पर तो मैंने तुम्‍हारे साथ संभोग करते हुए मूर्तियाँ बना दीं- इससे ज़्‍यादा और क्‍या करूँ? तुम्‍हारे बारे में अश्‍लीलता से लिखा हुआ मेरा हर शब्‍द पढ़ा जाता है और ‘धर्म ग्रंथों' में लिखी कोई भी बता अश्‍लील नहीं होती- बाहर जब सब ‘भेड़िये' और अपने घरवाले तक ‘बेगाने' लगने लगे तो अब तुम मेरी पत्‍नी बनना चाहती हो? मेरे साथ शादी करनी है तो पाँच-दस लाख दहेज, कार, कूलर, टी.बी., वी.सी.आर., फर्नीचर, कपड़ा गहना देना पड़ेगा और साथ में 5 लीटर मिट्टी का तेल, एक स्‍टोव और माचिस और उम्र-भर मेरे हुक्‍म की गुलामी। बदले में तुम्‍हें सात साल ठीक-ठाक रखने का ‘कानूनी गारंटी कार्ड' तो मिलेगा लेकिन समय पर तुम्‍हें यह ‘कार्ड' बोगस, नकली और अर्थहीन ही लगेगा। माँ-बाप के पास यह सब दहेज में देने को नहीं है तो कानपुर की ‘अलका, गुड्डी और मनू' की तरह पंखे से लटककर आत्‍महत्‍या करो। जीना चाहती हो तो मेरी माँग तो पूरी करनी ही पड़ेगी। झूठे बहकावों में मैं आनेवाला नहीं हूँ। पूरा दहेज नहीं लाओगी तो मैं नहीं कह सकता कि तुम्‍हारी जिंदगी कितने दिन की है? मुझे तो मजबूरन मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगानी पड़ेगी- माँ-बाप का इकलौता बेटा हूँ, नहीं मानूँगा तो वो मुझे जायदाद से बेदखल कर देंगे। मैं क्‍या कर सकता हूँ? मुझे तो दुखी होकर दुनिया से यही कहना पड़ेगा कि स्‍टोव पर दूध गर्म कर रही थी- साड़ी में आग लग गयी। तुम्‍हारे घरवाले शोर मचायेंगे तो उन्‍हें मैं ‘अच्‍छी तरह' समझा दूँगा और महीने-भर में ही तुम्‍हारी छोटी बहन यानी साली की डोली मेरे घर होगी। नहीं मानेंगे तो ये रहा पुलिस स्‍टेशन और वो रही कोर्ट-कचहरी। पुलिस, गवाह और डॉक्‍टरी रिपोर्ट कैसे ठीक-ठाक करवायी जाती है- मैं सब जानता हूँ। उसी दिन जमानत ओर अगले दिन बाइज्‍जत रिहा हो जाऊँगा। ज़्‍यादा होगा तो सात साल हाई कोर्ट ओर सुप्रीम कोर्ट अपीलों में बीत जायेंगे। इस बीच दूसरी शादी करुँगा, फिर दहेज से घर भर जायेगा और मजे से रहूँगा। तुम्‍हारी ‘सहेलियों' और सिरफिरे अखबारों के चक्‍कर में अगर मुझे उम्र-क़ैद की सजा हो भी गयी, तो क्‍या मुझे फाइलें गायब करवानी नहीं आतीं? कितनी ‘सुधाओं' की फाइलें मेरे कब्‍जे में हैं- तुम क्‍या जानो? आज तक एक भी केस में फाँसी हुई है किसी को? तुम मेरी पत्‍नी हो इसलिए मुझे तुम्‍हारे साथ हर समय, किसी भी तरह संभोग का कानूनी अधिकार है। तुम्‍हारी मर्जी, सहमति, इच्‍छा और मन का कोई अर्थ नहीं, बीमारी, माहवारी या गर्भ-कोई बहाना नहीं चलेगा। चँकि 15 साल से बड़ी हो तुम इसलिए तुम्‍हारी मर्जी के विरुद्ध जबरदस्‍ती भी करूँगा तो कोई मुकदमा तो मुझ पर चलने से रहा। व्‍यक्‍तिगत स्‍वतंत्रता का इतना ही ख्‍़याल था तो शादी करने से पहले सोचा होता। शादी के बाद अब व्‍यक्‍तिगत स्‍वतंत्रता के सारे मौलिक अधिकार मेरे पास गिरवी हैं। चीखने चिल्‍लाने या शोर मचाने से कोई फायदा नहीं, सीध्‍ो-सीध्‍ो चलो मेरे साथ.. मुझसे ब्‍याह किया है तो पत्‍नी होने का धर्म निभाओ, आओ, मेरे सम्‍पत्ति के वारिसों को जन्‍म दो, पुत्र जन्‍मोगी तो भाग्‍यशाली और लक्ष्‍मी कहलाओगी, छत पर चढ़कर ननद थाली बजायेंगी और सारे शहर में लड्‌डू बाँटे जाएँगे- पर याद रखना, बेटियाँ जन्‍मीं तो कुलक्षणी और अभागी मानी जाओगी क्‍योंकि “छोरियाँ होने की खुशी सिर्फ वेश्‍याओं के यहाँ मनायी जाती है।” मैं तो पैदा होते ही गला घोंट दूँगा, गड्ढे में दबा दूँगा या गंगा में प्रवाहित कर दूँगा। वैसे अब तो बच्‍चे होने से पहले ही ‘एमनियोसैंटोसिस' टेस्‍ट करवा लो। लड़की है तो गर्भपात, सारे झंझटों से ही मुक्‍ति। बेटा या बेटी कुछ भी नही हुआ तो बाँझ होने के जुर्म में तानों के तीरों से जख्‍मी होकर मरना या किसी कुएँ-बावड़ी... मेरे लिए वारिस जननेवाली और बहुत मिल जायेंगी। अपना बेटा नहींहुआ तो कोई बात नहीं। मैं अपने किसी भाई का बेटा गोद ले लूँगा लेकिन मेरे जीते जी तुम किसी के बच्‍चे को गोद नहीं ले सकतीं। गोद लेने के कानून में मैंने ऐसा कोई प्रावधान बनाया ही नहीं है। तुम गोद तभी ले सकती हो जब मुझसे तलाक ले लो या मैं पागल या संन्‍यासी हो जाऊँ। वो मैं होने से रहा। मैं चाहूँगा तो गोद लूँगा, नहीं चाहूँगा तो नहीं लूँगा- तुम्‍हारी तो सिर्फ� सहमति ही चाहिए न। मैं अगर गोद न लेना चाहूँ तो तुम मेरा क्‍या कर लोगी? ज़मीन, जायदाद वसीयत करके दान कर दूँगा, तुम फिरना हाथ में कटोरा लिये और मैं देखता हूँ कि कौन करता है तुम्‍हारी बुढ़ापे में देखभाल और मरने पर अंतिम दाह-संस्‍कार, कौन बहाता है तुम्‍हारे फूल गंगा में और कौन मनाता है हर साल तुम्‍हारा ‘श्राद्ध'? अगर बेटी पैदा भी हो गयी तो न उसे अच्‍छा खाने को दूँगा और न अच्‍छा पहनने को। अच्‍छा खाने-पहनने का हक सिर्फ� मेरे बेटों को हासिल है। बेटी घर के बर्तन माँजेगी, कपड़े धोएगी, झाडू-पोंछा करेगी तो खाने को मिल भी जायेगा नहीं तो मरेगी भूखी-मेरा क्‍या लेगी? बेटों का तो काम ही है पतंग उड़ाना, क्रिकेट खेलना, खाना, सोना, पढ़ना और ऐश करना। होश सँभालने से पहले छोटी उम्र में ही बेटी की शादी कर दूँगा। नहीं तो बड़ी होकर न जाने कहाँ नाक कटवा देगी। क्‍या बिगाड़ लेगा बाल-विवाह अधिनियम मेरा? तंग करेगी तो किसी मंदिर में देवदासी, आचार्य या सुंदरी के चरणों में समर्पित करके ‘साध्‍वी' बनवा दूँगा। छोड़ना चाहेगी तो शहर क्‍या देश-भर में बदनाम करूँगा। पढ़ने-लिखने दूँगा नहीं-स्‍कूल, कॉलेज और विश्‍वविद्यालय के सपने देखना ही बेकार है। पत्‍नी हो, तो पत्‍नी बनकर रहो- जैसे मैं चाहूँ, जहाँ-चाहूँ ‘पत्‍नी का पहला फर्ज है अपने पति की आज्ञा के सामने आज्ञाकारी ढंग से अपने-आप को समर्पित कर देना और उसकी छत के नीचे उसकी सुरक्षा में रहना।' तुम्‍हें बिना उचित कारण बताये अलग से घर बसाने का तब तक अधिकार नहीं है जब तक मैं यह न कह दूँ कि मैं तुम्‍हें नहीं रख सकता (या रखना चाहता)। फिर भी अगर तुम नहीं मानोगी तो मुझे विवश होकर कोर्ट से मेरे साथ रहने की डिक्री लानी पड़ेगी। तलाक जल्‍दी से लेने नहीं दूँगा- जब तक तलाक नहीं मिलेगा तब तक दूसरी शादी कानूनी जुर्म और जब तक तलाक मिलेगा तब तक बूढ़ी हो जाओगी। कौन बनायेगा तुम्‍हें अपनी पटरानी? वैसे भी मर्द ब्‍याह अनछुई, कुँवारी कन्‍याओं से ही करना पसंद करता है- तलाकशुदा, विधवा है और पहले भोगी हुई महिलाओं के साथ तो बस कुछ रोज की रंगरेलियाँ ही ठीक है॥ तुम तलाक ले भी लोगी तो मेरा क्‍या बिगाड़ लोगी। 5 साल से बड़े बेटे और बेटियाँ साथ ले जाने नहीं दूँगा। तुम सिर्फ अपने अवैध बच्‍चों को ही अपने पास रख सकती हो। बेटे बेटियों के नाम पर या उनके लिये जरूरी सारे काम करने की जिम्‍मेवारी और अधिकार सिर्फ मेरा, उनके बारे में सारे निर्णय मेरे तुम सिर्फ� उन्‍हें पैदा करो, पालो और भूल जाओ। बेटे-बेटियों ने तुम्‍हारी तरफदारी की तो सारी जायदाद से बेदखदल कर दूँगा नालायकों को। मैं सिर्फ� लायक बेटों का बाप बन सकता हूँ, नालायकों के लिए मेरे घर में कोई जगह नहीं। मैं किसी भी अविवाहित, तलाकशुदा, विधवा वेश्‍या के साथ रँगरेलियाँ मनाऊँ, मेरी मर्जी। मुझे कानूनन अधिकार है लेकिन तुम सिवा मेरे किसी भी अन्‍य पुरुष के साथ संबंध करो, यह नहीं हो सकता। करोगी तो उसको तो दफा-497 में बंद करवा ही दूँगा और तुमसे ले लूँगा तलाक। सारे शहर में लोग ‘बदचलन' और ‘कलंकनी' कहकर पत्‍थर मारेंगे सो अलग क्‍योंकि “दुनिया की सारी खूबसूरत बहू-बेटियाँ सिर्फ मेरे लिए हैं, लेकिन अपनी बहू-बेटी पर अगर किसी ने नज़र डाली तो उसकी आँखें फोड़ दी जायेंगी” समझीं कुछ? हाँ! मैं चाहूँ तो अन्‍य पुरुष मेरी मिलीभगत से तुम्‍हारे साथ संबंध बना सकता है। जब तक मेरा फायदा होता रहेगा तब तक मैं आँखें बंद किये रखूँगा। तुम न चाहो तो भी मेरे अधिकारों पर कोई अंकुश नहीं। चुपचाप रहोगी तो ठीक, शिकायत करोगी तो व्‍यभिचार की शिकायत करने का तुम्‍हें अधिकार ही नहीं है। वैसे भी ‘व्‍यभिचार' का अभियोग लग ही नहीं सकता। मेरे खिलाफ� तुम कुछ नहीं कर सकतीं।दफा- 497 में मेरे विरुद्ध कोई फौजदारी मुकदमा नहीं चला सकतीं। ज़्‍यादा-से-ज़्‍यादा तुम (हिन्‍दू विवाह अधिनियम की धारा-13 (ए) के तहत) शादी के बाद पत्‍नी के अलावा किसी महिला के साथ स्‍वेच्‍छा से यौन-संबंधों के आधार पर मुझसे तलाक ले सकती हो। ले लो तलाक, तलाक अभिशाप या दंड तुम्‍हारे लिए ही होगा, मेरे लिए तलाक तुमसे पिंड छुड़ाने (छूटने) का ही दूसरा नाम है। भरण-पोषण के लिए खर्चा माँगोगी तो वर्षों कोर्ट-कचहरी के बाद ज़्‍यादा-ज़्‍यादा 500 रु. महीना देना पड़ेगा, तो दे दूँगा। वैसे तुम्‍हें रखने में तो इससे अधिक ही खर्च होता है। मेरे साथ संबंध रखनेवाली किसी कुँवारी, तलाकशुदा या विधवा को गर्भ ठहर गया तो बेधड़क गर्भपात करवा दूँगा। अगर उसने बच्‍चा जनने का फैसला लिया और नौकरीपेशा हुई तो नियमानुसार बाकायदा प्रसवावकाश भी दिलवा दूँगा। मेरी अवैध संतान तुम्‍हारी वैध संतान कहलायेगी। जो कुद्द भी जायज, वैध और कानूनी है, वही मेरा है और सब नाजायज, अवैध और गैरकानूनी तुम्‍हारा। व्‍यभिचार कानून की संवैधानिक वैधता को भी तुमने चुनौती देकर देख लिया। तुम और तुम्‍हारे हिमायती वकीलों ने क्‍या बिगाड़ लिया मेरा? मैं जानता था कि शादी करने, घर बसाने और बच्‍चे होने के बाद बहुत जल्‍दी ही मैं तुमसे ऊब जाऊँगा, थक जाऊँगा, इसीलिए मैंने समाज में वेश्‍या, कॉलगर्ल और रखैल बना ली हैं। पैसे लुटाए, मौज-मस्‍ती की और दूध के धुले घर वापस। जब चाहा, जहाँ चाहा, एक-से-एक खूबसूरत औरत को बुलाया, दाम चुकाया, भोगा और सब भूल-भालकर लौट आये। समाज में पूरा सम्‍मान भी बना रहा और मौज-मस्‍ती में भी कोई कमी नहीं। वेश्‍यावृत्ति के लिए 18 साल से बड़ी लड़कियों को बहलाना, फुसलाना, नशीली दवाएँ, साड़ियाँ, जेवर, फाइव स्‍टार होटलों में लंच, डिनर, कॉकटेल और नोटों की झलक दिखाकर फँसाना, रिझाना, प्रभावित करना और अपने बस में कर लेना मैं खूब जानता हूँ। कॉलगर्ल या कैबरे डांसर पकड़ी गयी तो अपनी मर्जी से आई और अपनी इच्‍छा से धंधा करती है- मेरा क्‍या? 18 साल से कम उम्र की अनाथ लड़कियों को भगा लाना कोई ‘अपहरण' का अपराध तो है नहीं। एक बार मेरे अड्डे पर पहुँच गयी तो बाहर निकलने केे सब दरवाजे बंद। कानून की सब बारीकियाँ और ‘लूप-होल' मैं अच्‍छी तरह समझता हूँ। मुझसे स्‍वतंत्र होने के लिए तुम खुद वेश्‍या बनोगी? किसने कह दिया कि ‘वेश्‍या स्‍वतंत्र नारी है?' मैंने अब वेश्‍याओं को भी ‘नियंत्रित' रखने के लिए लंबे-चौड़े कानून बना दिये हैं। अकेली औरत को रोजी-रोटी, भरण-पोषण के लिए वेश्‍यावृत्ति करने की खुली छूट, लेकिन दो या दो से अधिक वेश्‍याओं द्वारा संगठित होकर देह-व्‍यापार करना अपराध। संगठित होंगी तो यूनियन बनायेंगी, अधिकारों की बातें करेंगी, जुलूस निकालेंगी, सरकार की नाक में दम करेंगी। इनके साथ रहने और इनकी आमदनी पर पलनेवालों के खिलाफ� भी कानून बनाना पड़ा-ये अकेली ही रहें तो ठीक रहेगा। अकेली औरत का जब चाहो, जैसे चाहो उपयोग कर सकते हो, न कोई सुननेवाला, न मदद करनेवाला। शहर में अलग-अलग जगह पर रहेंगी तो एक जगह ‘गंदगी का ढेर' भी नजर नहीं आयेगा और समाज का काम भी ‘बिना रुकावट' चलता रहेगा। कोठे का मालिक बनकर मैं करोड़ों कमाऊँगा ओर ग्राहक बनकर रोज तुम्‍हें भोगूँगा। पुलिस का छापा पड़ेगा तो पकड़ी तुम जाओगी। (ग्राहक को कानून हाथ तक नहीं लगा सकता) पुलिस तुमसे पैसे भी लेगी और रात-भर हिरासत में तुम्‍हारी बोटी-बोटी नोच डालेगी। पुलिस पर बलात्‍कार का आरोप लगाओगी तो ‘वेश्‍या' प्रमाणित होते ही बलात्‍कार सहमति से संभोग में बदल जायेगा और पुलिस अफसर बाइज्‍जत रिहा। कौन सुनेगा तुम्‍हारी फरियाद? सब ‘उन स्‍त्रियों को (तो) घृणा की दृष्‍टि से देखते हैं जो थोड़ी देर के लिए वेश्‍याएँ बनती हैं, पर उन स्‍त्रियों का (ही) आदर और मान करते हैं जो उम्र-भर वेश्‍यावृत्ति करती हैं।' तुम जिससे कहोगी उसके खिलाफ� हड़ताल करवा दूँगा। राजलक्ष्‍मी का दवाज़ा खटखटाओगी तो उसके विरुद्ध रिश्‍वत खाने का आरोप लगाऊँगा और सी.बी.आई. जाँच, साहब पर छेड़छाड़ का आरोप लगायेगी तो साहब को पुरस्‍कार से सम्‍मानित करवाऊँगा, लेखिकाएँ और महिला बुिद्धजीवी देती रहें राष्‍ट्रपति को ज्ञापन। मेरी दुनिया में जैसे मैं चाहूँगा तुम्‍हें वैसे ही रहना पड़ेगा। मुझसे अलग तुम्‍हारी कोई पहचान नहीं। मेरे कारनामों पर सोचोगी और मुझे रोकोगी तो पागल घोषित करवा दूँगा। सारी उम्र पागलखाने में बंद पड़ी रहना। पागलखाने नहीं भिजवा पाया तो घर में ही ऐसी स्‍थितियाँ बना छोडूँगा कि तुम्‍हें खुद ही अपनी जिंदगी व्‍यर्थ लगने लगेगी। आत्‍महत्‍या करोगी तो दुनिया से कह दूँगा, ‘पागलपन की बीमारी से तंग आकर खुदकुशी कर ली।' नहीं करोगी आत्‍महत्‍या तो मुझे हत्‍या करनी या करवानी पड़ेगी। पकड़ा गया तो थोड़ा सा झूठ बोलना पड़ेगा कि तुम्‍हारा किसी गैरमर्द से नाजायज संबंध था, मैंने तुम दोनों को आपत्तिजनक स्‍थिति में देखा तो ‘अचानक और भयंकर उत्त्ोजना' में तुम्‍हारी हत्‍या कर दी, प्रेमी भाग गया। असल में तो मर्डर के एक्‍सपर्ट वकील मुझे बचा ही लेंगे। नहीं भी बचा पाये तो फाँसी तो लगने से रही-दस साल कैद की सजा हो जायेगी। वो भी राष्‍ट्रपति या गवर्नर से माफ करवा लूँगा। तुम मेरे साथ जिओगी तो मेरे साथ ही मरना भी पड़ेगा। मेरे मरने पर मेरे साथ सती होना पड़ेगा। नहीं होगी तो घर-बार छोड़ वृंदावन विधवा आश्रम जाना होगा। सती बनोगी तो तुम्‍हारी याद में आलीशान मंदिर बनेंगे। हर साल मेला लगेगा, लोग पूजने आयेंगे और तुम्‍हारी भी स्‍वर्ग में एक सीट पक्‍की। पति की लाश के साथ पत्‍नी को जिंदा जलाना या दफनाना कानूनन अपराध है। तो कोई बात नहीं, जिंदा नहीं (मारकरद्ध जलायेंगे या दफनायेंगे। अर्थी के साथ गंगा में तो बहा ही सकते हैं? सती होने का धर्म भी पूरा हो जायेगा और कानून को भी आँच नहीं आयेगी। सती बनाने के मुजरिमों की वकालत करनेवाले वकील की तीन पीढ़ियाँ देश में राज करेंगी और मुकदमा लड़नेवालों के घर हमेशा ‘लक्ष्‍मी' वास करेगी। ज़्‍यादा चूँ-चपड़ की या तुम्‍हारे हिमायतियों ने ‘मनुष्‍यता' वगैरह की बकवास की तो खूँखार, शास्‍त्रीय दाँतोंवाले सम्‍पादक छुड़वा कर बोटी-बोटी चिथवा दूँगा। संदर्भ 1. 10 मार्च, 1989ऋ चंडीगढ़ में भाई होने की खबर सुनकर तीन बहनों ने आत्‍महत्‍या कर ली। 2. संयुक्‍त हिन्‍दू परिवार में मिताक्षरा स्‍कूल में सिर्फ पुत्र ही संपत्ति बंटवा सकते हैं। 3. हिन्‍दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 की धारा-8 4. विमैन लॉज ऑन पेपरः भगवती टाइम्‍स ऑफ इंडिया, 3 अप्रैल, 1988 “अधिकांश संपत्‍ति वसीयत द्वारा बेटों को दे दी जाती है और बहनें कानूनी अन्‍याय खामोश रहकर सहन करती हैं।” 5. ऑल इंडिया रिपोर्टर 1987 सुप्रीम कोर्ट 1616, “हिन्‍दू उत्‍तराधिकार अधिनियम की धारा 15 (1) (ए) में पुत्री की परिभाषा में सौतेले पुत्र व पुत्री शामिल नहीं हैं।” 6. आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-125 (1) (डी) के अंतर्गत माँ-बाप के भरण-पोषण की जिम्‍मेवारी बेटे पर हैं। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में कहा है कि ‘बेटियों को इस दायित्‍व से अलग नहीं किया जाना चाहिए।' 7. जयंती राम पंडा, 1984 क्रिमिनल लॉ जरनल 1535 (कलकत्‍ता)। 8. मोयनुल मियाँ, 1984 क्रि. ज. (एन. ओ. सी. 28 गोहाटी)। 9. ‘संसद से सड़क तक' धूमिल, पृ.। 10. हिंदू उत्‍तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा-3 (जे) के अनुसार ‘संबंधी' का अर्थ वैध रक्‍त संबंधवाला ही है लेकिन ‘अवैध बच्‍चे' अपनी माँ के वैध संबंधी माने जाएँगे। 11. वेश्‍याओं द्वारा दायर एक याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कारण बताओं नोटिस जारी किया था। याचिका का मुख्‍य मुद्दा यह था कि स्‍कूल में वेश्‍याओं के बच्‍चों को दाखिला इस कारण नहीं दिया जाता कि उनके बाप का नाम पता नहीं है। इस नोटिस के बाद दिल्‍ली प्रशासन ने सब स्‍कूलों को निर्देश दिये कि दाखिले के लिये बाप का नाम जरूरी नहीं। 12. ‘रेप लॉ अनसिम्‍पेथेटिक टू विकटिम' उषा राय, टाइम्‍स ऑफ इंडिया, 8 मार्च, 1989ऋ रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट के मुख्‍य न्‍यायाधीश का सुमन रेप केस पर महिला संगठनों को दिया आश्‍वासन। 13. सुप्रिया हत्‍याकांड की सुनवाई कें दौरान सुप्रीम कोर्ट में भूतपूर्व कानूनमंत्री श्री अशोक सेन की टिप्‍पणी। टाइम्‍स ऑफ इंडिया, 10 मार्च, 1989 14. हरपाल सिंह 1981, सुप्रीम कोर्ट केसेस (क्रिमिनल) 208 15. 17 क्रिमिनल लॉ जरनल 150, 81, पंजाब लॉ रिपोर्टर, 194 16. ए. आई. आर. 1857 उड़ीसा 78 और 63 पंजाव लॉ रिपोर्टर 546 17. फ्‍लैटरी केस 1877 (2) क्‍यू. बी. ड़ी. 410 18. यदुराम 1972 क्रि. लॉ. ज. (1464) जम्‍मू-कश्‍मीर 19. तीस हजारी कोर्ट में वकील इंद्रसिंह शर्मा द्वारा 19 वर्षीय महिला मुवक्‍किल के साथ बलात्‍कार का आरोप (टाइम्‍स ऑफ इडिंया, 20 मार्च, 1988) इससे पूर्व गुड़गाँव (हरियाणा) के प्रसिद्ध वकील राव हरनारायण पर अपनी नौकरानी के साथ बलात्‍कार व हत्‍या का मुकदमा चला था। 1957 पंजाब लॉ रिपोर्टर 519 में जमानत पर न्‍यायधीश श्री टेकचंद का निर्णय और ए. आई. आर. 1958 पंजाब 273 में अदालत अवमानना पर निर्णय महत्त्वपूर्ण हैं। उल्‍लेखनीय है कि जिस पत्रकार ने इस हत्‍याकांड का भंडाफोड किया था उसे अदालत अवमानना कानून के तहत जुर्माना भरना पड़ा था। देखें लेख बलात्‍कारः पीड़ा की हार अरविंद जैन, चौथी दुनिया, 27 मार्च से 2 अप्रैल 1988 20. 13 वर्षीय लड़की के साथ बलात्‍कार, मेडिकल परीक्षण नहीं करवाया, डॉक्‍टर को गवाही के लिए नहीं बुलाया, अभियुक्‍त रिहा। 1978 चाँद लॉ रिपोर्टर (क्रि.) दिल्‍ली-91 21. 80 पंजाब लॉ रिपोर्टर 232 22. 1977 क्रि. लॉ. ज. 185 (जम्‍मू-कश्‍मीर) 23. 82 पंजाब लॉ रिपोर्टर 220 24. 1980 चाँद लॉ रिपोर्टर 108 (पंजाब व हरियाणा) ए. आई. आर. 1977 सुप्रीम कोर्ट 1307, ए. आई. आर. 1979, सुप्रीम कोर्ट 185 25. ए. आई. आर. 1927 लाहौर 858 ए. आई.आर 1942 मद्रास 285 26. भारतीय साक्षी अधिनियम की धारा-155(4) में प्रावधान है कि अगर पुरुष पर बलात्‍कार का अभियोग हो तो गवाह की विश्‍वसनीयता समाप्‍त करने के लिऐ यह प्रमाणित करना आवश्‍यक है कि पीड़ित अनैतिक चरित्र की हैं। 27. प्रताप मिश्रा बनाम राज्‍य, ए.आई.आर. 1977 सुप्रीम कोर्ट 1307 मेंं गर्भवती प्रोमिला कुमारी रावत के साथ तीन व्‍यक्‍तियों ने बलात्‍कार किया, 4-5 दिन बाद गर्भपात हुआ, चोट के निशान न मिलने के कारण सुप्रीम कोर्ट का निर्णय था कि सम्‍भोग सहमति से हुआ हैं और इसमें पति की मिलीभगत है। 28. ए.आई.आर. 1939, इलाहाबाद 708 29. 1979 राजस्‍थान क्रिमिनल केसेस 357 30. कुदरत बनाम राज्‍य, ए.आई.आर. 1939, इलाहाबाद 708 31. 1977 (2) राजस्‍थान क्रिमिनल केसेस 206 32. ए.आई.आर. 1958, सुप्रीम कोर्ट 143 33. रफीक बनाम राज्‍य, 1980 (4), सुप्रीम कोर्ट केसेस 262 34. ए.आई.आर. 1923, लाहौर 297 35. 19 क्रिमिनल लॉ जरनल 155 36. राजकपूर बनाम राज्‍य, ए.आई.आर. 1980 सुप्रीम कोर्ट 258 37. वही, 615 38. समरेश बोस बनाम अमल मित्रा 1985 (4) सुप्रीम कोर्ट के केस 289 39. फरजाना बी बनाम सेंसर बोर्ड 1983 इलाहाबाद लॉ जरनल 1133 40. भारतीय दंड सहिंता की धारा 292 के अपवाद 41. भारतीय दंड सहिंता की धारा 304-बी और भारतीय साक्षी अधिनियम की धारा 113-बी 42. ‘बड़ी बेटी के हत्‍यारे को छोटी बेटी ब्‍याह दी' जनसत्‍ता, 26 जून, 1988 पृ. 3 43. चौथी दुनिया, 17-23 जनवरी, 1988। संडे आब्‍जर्वर, 27 मार्च, 1988, ‘गंगा' जनवरी 1989 और सुप्रीम कोर्ट केसेस 1985 (4) पृ. 476 और ‘ब्राइडस ऑर नाट फॉर बर्निंग रंजना कुमारी, रेडियंट पब्‍लिशर्ज, 1989 44. वीरभान सिंह बनाम राज्‍य, ए.आई.आर. 1983 सुप्रीम कोर्ट 1002, कैलाश कौर बनाम राज्‍य, ए.आई.आर. 1987,सुप्रीम कोर्ट, लक्ष्‍मी देवी बनाम राज्‍य ए.आई.आर.1988 सु. को. 1785, व अन्‍य। पढ़ेःं ‘विमैन, लॉ एंड सोशल चेंज इन इंडिया', इंदू प्रकाश सिंह, रेडियंट पंब्‍लिशर्स 1989 45. भारतीय दंड सहिंता की धारा-375 में यह अपवाद कि पत्‍नी अगर 15 वर्ष से कम उम्र की नहीं है तो उसके साथ सम्‍भोग बलात्‍कार नही माना जाएगा। हालाँकि हिन्‍दू विवाह अधिनियम की धारा-5 (प्‍प्‍प्‍द्ध के अनुसार दुल्‍हे की उम्र 21 वर्ष और दुल्‍हन की उम्र 18 वर्ष होना अनिवार्य हैं। 46. हिन्‍दू गोद व भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा-8 47. वही, धारा-6 48. ‘रोके नहीं रुकते बाल-विवाह', अशोक शर्मा, रविवारीय जनसत्‍ता, 17 अप्रैल, 1988, पृ. 4 49. ‘जैन धर्म और बालदीक्षा', इंद्रदेव, नई सदी, मई, 1988, पृ. 4, ‘धर्म गुरुओं की हैवानियत का दूसरा नाम हैं बालदीक्षा', चौथी दुनिया, 1-7 जनवरी, 1989,पृ. 7, ‘कम उम्र बच्‍चियों को जबरन बनाया जाता है साध्‍वी', दैनिक विश्‍वामित्र, 10 मई, 1987 50. ‘द रनअवे नत', इंडिया टूडे, 31 जनवरी 1987, पृ. 89 51. ‘शोकिंग डेथ' संडे मेल, 18-24 अक्‍तूबर, 1987 52. ए. आई. आर. 1966 मध्‍यप्रदेश 212 53. भारतीय विवाह अधिनियम की धारा-9, ए.आई.आर. 1983, आंध्र प्रदेश 356 के अनुसार यह प्रावधान संविधान के अनुच्‍छेद 14 और 21 के विरुद्ध हैं लेकिन अपील में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के इस फैसले को रद्द कर दिया। ए.आई.आर. 1984, सुप्रीम कोर्ट 1562 54. हिंदू अवयस्‍कता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा-6 55. हिंदू अवयस्‍कता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा-8 56. भारतीय दंड संहिता की धारा-497 के अनुसार व्‍यभिचार किसी अन्‍य व्‍यक्‍ति की पत्‍नी के साथ बिना उसके पति की सहमति या मिलीभगत के यौन-संबंध स्‍थापित करना हैं। देखें-लेख अरविंद जैन, चौथी दुनिया, 28 फरवरी-5 मार्च, 1988 57. ‘आदमी की निगाह में औरत', राजेन्‍द्र यादव साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान, 1989, पृ. 23 58. आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-125 59. सैमित्र विष्‍णु बनाम भारत सरकार, ऑल इंडिया रिपोर्टर, 1985, सुप्रीम कोर्ट 1618 60. भारतीय दंड संहिता की धारा-361 61. ‘आदमी की निगाह में औरत', राजेन्‍द्र यादव, साप्‍ताहिक हिंदुस्‍तान, 12 मार्च, 1989 62. इम्‍मौरल ट्रैफिक (प्रवर्शन) एक्‍ट-1956 63. रतनमाला केस आलॅ इंडिया रिपोर्टर 1962 मद्रास-31 64. वेश्‍यावृत्‍ति निरोधक कनून 1956 की धारा-2 (एफ) 65. देखें ‘कानून भी वेश्‍या को ही सताता हैं' अरविंद जैन, मधुर कथाएँ जून, 1988 पृ. 77 66. मथुरा केस, सुमन बलात्‍कार केस 1989 (1) स्‍केल, 199 और परड़िया बलात्‍कार कांड, हिंदुस्‍तान टाइम्‍स, 31 मार्च, 1988 67. ‘क्रूजर सोनाटा', लेव तोल्‍सतोय। 68. भारतीय दंड संहिता की धारा-300 का अपवाद (1) इसके अंतर्गत बहुत से ऐसे हत्‍या के मुकदमें हैं जिनमें अवैध यौन-संबंधों के आधार पर हत्‍यारों की सजा कम हुई हैं। 69. भारतीय संविधान के अनुच्‍छेद-72 के अंतर्गत राष्‍ट्रपति और गवर्नर द्वारा काफी मामलों से सजा माफ की गई हैं। 70. सती निरोधक कानून की धारा। 71. ए.आई.आर. 1914 इलाहाबाद 249 एक सती का मुकदमा जिसमें मुजरिमों की पैरवी पं. मोतीलाल नेहरू न की थी। (देखें, ‘हंस' नवम्‍बर, 1987, पृ. 86) --

Monday, February 11, 2013

मेरिटल रेप में पति को छूट क्यों?

 राजेश चौधरी, नवभारत टाइम्स | Feb 9, 2013, 05.30AM IST नई दिल्ली।। 
मेरिटल रेप के मामले में कानून में दी गई छूट के बदलाव को लेकर दाखिल याचिका पर हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता ने दलील दी कि यह महिलाओं के मूल अधिकार में दखल है। महिला (पत्नी) की उम्र चाहे कोई भी हो, उसकी मर्जी के खिलाफ उसके साथ संबंध नहीं बनाया जा सकता। कानून में मेरिटल रेप के मामले को अपवाद के तौर पर रखा गया है और ऐसे मामले में पति के खिलाफ मुकदमा नहीं चलता। इस कानूनी प्रावधान में बदलाव होना चाहिए। इस मामले की अगली सुनवाई 15 मार्च को होगी। याचिकाकर्ता के वकील अरविंद जैन ने बताया कि याचिकाकर्ता की साढ़े 15 साल की बेटी घर से गायब हो गई थी। वह एक लड़के के साथ भाग गई थी। लड़की के पिता ने पुलिस को शिकायत की। लड़की बाद में बरामद हुई और लड़का पकड़ा गया। लड़की जब बरामद हुई, तब वह गर्भवती थी लेकिन वह अपने पिता के साथ नहीं जाना चाहती थी। उसे नारी निकेतन भेजा गया और वहां उसने बच्चे को जन्म दिया। इस मामले में लड़की के पिता की ओर से याचिका दायर कर कहा गया कि 15 साल से ऊपर की उम्र में पत्नी के साथ बनाए गए शारीरिक संबंध को रेप की श्रेणी में लाया जाना चाहिए। हाई कोर्ट में अरविंद जैन ने दलील दी कि रेप की परिभाषा में धारा-375 के तहत बताया गया है कि अगर 12 से 15 साल की उम्र की पत्नी के साथ रेप करता है, तो ऐसे मामले में दो साल तक कैद की सजा का प्रावधान है। लेकिन अब कानून में बदलाव कर ऊपरी सीमा 16 साल कर दी गई है और सजा बढ़ा दी गई है। इस तरह 16 साल से ज्यादा उम्र की पत्नी के साथ अगर उसका पति जबर्दस्ती संबंध बनाता है, तो वह रेप नहीं माना जाएगा। जबकि लड़की अगर शादीशुदा न हो और उसकी उम्र 18 साल से कम हो, तो उसकी मर्जी से भी संबंध बनाने पर उसे रेप माना जाएगा। उन्होंने दलील दी कि कानून में इस तरह के विरोधाभास हैं। हालांकि इस दौरान अदालत ने कहा कि घरेलू हिंसा कानून के तहत महिलाओं को प्रोटेक्शन मिला हुआ है और इसके तहत मुआवजा पाने, मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना या फिर सेक्सुअल प्रताड़ना के मामले में उसे प्रोटेक्शन है। इस पर याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि महिला के संवैधानिक अधिकार का सवाल है। घरेलू हिंसा कानून के तहत प्रोटेक्शन काफी नहीं है।

Wednesday, October 17, 2012

यौन हिंसा की शिकार दलित कन्याएं

राष्ट्रीय सहारा, आधी दुनिया, १७.१०.२०१२

 हरियाणा के जिला जींद के सच्चा खेड़ा गांव में बीते हफ्ते, एक दलित परिवार की १६ वर्षीय किशोरी के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ. बर्बर दुर्घटना के बाद लड़की ने, खुद पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्मदाह कर लिया. बलात्कार की शिकार किशोरी के परिवार के ज़ख्मों पर मरहम लगाने पहुंची कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पत्रकारों से कहा कि इस तरह की घटनाएं बढ़ी हैं लेकिन ऐसा सिर्फ हरियाणा में नहीं, देश के सभी राज्यों में भी हैं। सोनिया ने दोषियों को सख्त सजा देने की बात कही मगर जिम्मेवारी कानून और न्यायपालिका के गले में बांध दी. सनद रहे कि 2010 में मिर्चपुर प्रकरण के बाद, राहुल गांधी पीड़ित परिवार को दिलासा देने पहुंचे थे.
 अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग के चेयरमैन पी.एल. पूनिया ने हरियाणा को 'बलात्कार प्रदेश' के नाम से नवाज़ा है किन्तु सगोत्र और प्रेम विवाहों पर तालिबानी फरमान जारी करनें वाली कुछ खाप पंचायतों ने बलात्कार रोकने के लिए सुझाव दिया है कि अगर लड़कियों कि शादी की उम्र १८ साल से घटाकर १६ साल और लड़कों की उम्र २१ से घटाकर १८ कर दी जाए, तो बलात्कार के मामलों में कमी हो सकती है. हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला ने भी खाप पंचायत के प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा है कि "मुगलों के शासनकाल में भी हमलावरों से बेटियों को बचाने के लिए उनकी शादी छोटी उम्र में कर दी जाती थी. हमें भी इतिहास से सबक लेना चाहिए और खाप पंचायतों के इस अच्छे फैसले को मान लेना चाहिए".

 समझ नहीं आ रहा कि हरियाणा के सामजिक और राजनैतिक विवेक को आखिर हो क्या गया है? क्या आर्थिक समृधि की अफीम, राज्य की आत्मा तक को निगल गई है? चौटाला जी ! इस देश में ३ महीने कि बच्ची से लेकर ७० साल कि वृद्ध महिला तक से बलात्कार के मामले सामने आये हैं और आप हैं कि वोटों कि राजनीति के लिए ऐसे शर्मनाक बयान दे रहे हैं. शुक्र है कि आप हरियाणा के मुख्यमंत्री नहीं हैं(अब) वरना न जाने क्या करते-करवाते. सोनिया गांधी के जींद दौरे के अगले ही दिन, कैथल में एक और दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार का समाचार आ खड़ा हुआ. राज्य में बीते पखवाड़े में ही 'यौन हिंसा' की यह 14वीं घटना है. इससे पहले हिसार, भिवानी,अम्बाला, पानीपत, यमुना नगर और न जाने कहाँ -कहाँ, हरियाणा के दबंगों ने दलित बालिकाओं के साथ शर्मनाक अपराधों को अंजाम दिया है.

जनवरी 2012 से लेकर अब तक हिसार में 94 ,करनाल में 92, रेवाड़ी में 89 , रोहतक में 87 गुड़गांव में 34, अंबाला में 31 और फरीदाबाद में 28 बलात्कार के मामले दर्ज हुए हैं. अधिकतर हादसे दलित महिलाओं के साथ ही हुए हैं.अगर बलात्कार के मामलों में सख्त कार्रवाई होती और कठोर सजा मिलती तो लड़कियां खुद को सुरक्षित महसूस कर सकती थी तो शायद ये गंभीर घटनाएं टल जाती मगर राज्य कि कानून व्वयस्था को लगता है कि लकवा ही मार गया है. उल्लेखनीय है कि अब तक दलित महिलाओं के साथ, बलात्कार के सब से ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश में और आदिवासी महिलाओं के साथ दुष्कर्म की घटनाएँ, मध्य प्रदेश में होती रही हैं. २०११ की रिपोर्ट के अनुसार नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कार के अधिकतम मामले (२६-२७%) मध्य प्रदेश में ही हुए. नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कार के मामलों में, पिछले कई सालों से मध्य प्रदेश प्रथम आता रहा है.

 दिल्‍ली से गुड़गांव, फरीदाबाद, रोहतक, करनाल और चंडीगढ़ तक, बहुमंजिला इमारतें दरअसल हरियाणा के विकास की भ्रामक छवि है. सच यह है कि सीमेंट के जंगल में राजनेताओं कि छत्र-छाया में पल रहे दबंगों की तादाद भी उतनी ही तेजी से बढ़ रही है. दलितों में लगातार बढ़ रही शिक्षा और जागरूकता के कारण, वो अपने कानूनी अधिकारों के प्रति पहले से अधिक सजग हुए है और समाज में बराबरी और सम्मान पूर्वक जीने की मांग करने लगे हैं जबकि तथाकथित उच्च जाती के लोग, दलित महिलाओं को बलात हवश का शिकार बना और मनोबल कुचल कर, गाँव-गाँव में उन्हें नीचा दिखने का प्रयास करते रहते हैं.. राज्य कि सत्ता भी उच्च जाती के राजनेताओं के हाथ में होने के कारण, राज्य में 'अछूत कि शिकायत' सुनने वाला कोई नहीं.

ज्यादातर दलित महिलाएं खेतों-खलियानों में या उनके घरों में काम करती हैं, इसलिए उनके बेख़ौफ़, आवारा और बेरोजगार युवकों की आसानी से शिकार बन जाती हैं. दलितों के साथ अत्याचार, उत्पीड़न, दमन और शोषण का इतिहास बहुत पुराना है परन्तु अब दलित समाज चुपचाप सहने और खामोश रहने को तैयार नहीं हैं. बेटिओं से आये दिन बलात्कार, अब नाकाबिले बर्दाशत होता जा रहा है.स्पस्ट है कि अगर समय रहते हरियाणा सरकार, विपक्ष और आम समाज ने मिलकर अबोध और विशेषकर दलित लड़कियों की सुरक्षा के समुचित समाधान नहीं ढूंढे तो महिलाएं अपनी आत्म रक्षा में खुद ही हथियार उठाने के लिए विवश होंगी और तब बलात्कारियों को सजा से कोई नहीं बचा पायेगा.

Monday, July 16, 2012

राष्ट्रीय सहारा (आधी दुनिया ) २०.६.२०१२ बाल विवाह बलात्कार का लाइसेन्स *अरविन्द जैन पिछले हफ्ते महिला संगठनों ने माननीय न्यायमूर्ति एस. राणोन्द्र भट्ट और एस. पी. गर्ग की दिल्ली हाईकोर्ट की बेंच द्वारा 15 वर्ष की मुस्लिम लड़की की शादी को जायज ठहराये जाने पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। कोर्ट ने कहा था कि यदि 15 साल की कोई मुस्लिम लड़की युवा हो चुकी है तो वह अपनी मर्जी से शादी कर सकती है। हालांकि बाल विवाह के मामले में कोर्ट का यह बयान न तो पहला है और न ही आखिरी, जबकि बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 धर्म को लेकर कोई भेदभाव नहीं करता है। 11 जनवरी, 2007 से भारतीय संसद ने इसे लागू किया है, जो जम्मू-कश्मीर के लोगों को छोड़कर देश की तमाम जनता पर लागू है। यहां तक कि यह कानून भारत में रहने वाले या बाहर रहने वाले सभी देशवासियों पर लागू होता है। भारतीय संसद द्वारा बाल विवाह को लेकर जो कानून बनाये गए हैं, उन पर गौर करने की जरूरत है। इसके प्रावधान इस कदर विरोधाभासी हैं और एक-दूसरे के प्रावधानों का परस्पर विरोध करते हैं कि कानून का कोई भी जानकार उलझन में पड़ सकता है। मैं यहां सिर्फ कानून के उन अनुभागों और उपवगरे की चर्चा कर रहा हूं जो मन में खटक रहे हैं। 1929 में किसी भी लड़की की शादी की उम्र 13 साल निर्धारित की गई थी जिसे 1949 में बढ़ाकर 15 साल किया गया। 1978 में जब बाल विवाह रोकथाम अधिनियम,1929 औ र हिन्दू मैरिज एक्ट, 1955 में संशोधन किया गया तो लड़की की शादी की उम्र बढ़ाकर 18 साल निर्धारित की गई। लेकिन देश के योग्य नौकरशाह और महान नेता भारतीय दंड संहिता की धाराओं में संशोधन करना भूल गए। पिछले महीने केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बच्चों के बचाव के लिए यौन अपराध विधेयक को मंजूरी दी, जिसके तहत उम्र के साथ सहमति का प्रस्ताव किया और 18 वर्ष से नीचे की आयु वालों (आईपीसी की धारा-375 के तहत सहमति की उम्र अभी 16 साल है) के साथ यौन संबंधों को बलात्कार की संज्ञा दी गई, चाहे वह सहमति से हुआ हो या बिना सहमति के। लेकिन आईपीसी की धारा-375 और 376 में संशोधन करने का कोई प्रस्ताव नहीं है। बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 की धारा-9 के मुताबिक, 18 साल से कम उम्र की लड़की की शादी 18 साल से कम उम्र के लड़के के साथ कराना दंडनीय अपराध है और ऐसा करने पर दो साल का सश्रम कारावास या एक लाख रुपये तक का आर्थिक दंड या फिर दोनों हो सकते हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि शादी के वक्त यदि लड़के की उम्र 18 साल से कम है और वह 18 साल से कम या उससे अधिक आयु की लड़की से शादी कर रहा है तो इसे अपराध नहीं माना जा सकता। पीसीएमए के मुताबिक, किसी भी लड़की की शादी की उम्र 18 साल है। हालांकि आईपीसी की धारा-375 के अपवाद में, यदि पत्नी 15 साल से कम ना हो और उसका पति उसके साथ शारीरिक संबंध बनाता है, तो यह बलात्कार नहीं है, जबकि आईपीसी की धारा-375 के छठे खंड के अनुसार, यदि को ई व्यक्ति सहमति या गैर-सहमति से 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध स्थापित करता है तो उसे बलात्कार माना जाएगा। वर्तमान कानून के मुताबिक, बिना सहमति के किसी औरत के साथ संबंध स्थापित करना या 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ सहमति के साथ संबंध स्थापित करना बलात्कार की श्रेणी में आता है। हालांकि, 15 साल (नाबालिग लड़की जिसे बाल विवाह के लिए मजबूर किया जा रहा है) से अधिक की अपनी पत्नी के साथ जबर्दस्ती किया गया यौन संबंध बलात्कार नहीं है। वैवाहिक धरातल पर विवाहित और अविवाहित महिलाओं के बीच किसी भी तरह के अलग कानून नहीं बनाए गए हैं। का लाइस स ब्ा ल्ात्कार आईपीसी की धारा-375 के अपवादस्वरूप, यह पति को अपनी 15 साल उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार करने का लाइसेंस देता है, जो उस उम्र की बच्चियों के साथ मनमाना और विवाहित महिला के साथ भेदभावपूर्ण रवैया है, खासकर बाल वधू के साथ, जो मूलभूत अधिकारों का, मानवाधिकार का हनन है, खासकर व्यक्ति की गरिमा और संविधान के अनुच्छेद-21 में दिए गए विवाहित महिलाओं की गोपनीयता के अधिकार का हनन है । यहां यह नहीं माना जाता कि 15 से 18 साल के बीच की लड़की पत्नी नहीं बन सकती, जबकि यौन संबंध की सहमति उसे एक साल कम करती है जो दमनकारी, भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक कानून है। ऐसे में, बाल विवाह को रोकने और बच्चों के हित की रक्षा के मामले में उद्देश्यपूर्ण ढंग से कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। शादीशुदा महिलाओं के पास चुपचाप सहन करने, बलात्कार की शिकार बनने या फिर मानसिक यातना के आधार पर पति से तलाक लेने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है लेकिन इन मामलों में पति की गलत इच्छाओं या फिर वैवाहिक मुकदमे में फं से रहने को आधार नहीं बनाया जा सकता है। बुद्धदेव कर्मास्कर बनाम पश्चिम बंगाल सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक, सेक्स वर्कर भी मनुष्य हैं और किसी को भी उन पर हमला करने या हत्या करने का अधिकार नहीं है। कोई भी महिला गरीबी के कारण सेक्स वर्कर बनती है ना कि सुख के लिए। सेक्स वर्कर के प्रति समाज को सहानुभूति रखनी चाहिए और उन्हें तिरस्कृत नहीं करना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत वे भी जिंदगी में गरिमा पाने की हकदार हैं। यहां तक कि सेक्स वर्कर को गोपनीयता और सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार है और किसी को भी इन अधिकारों को उनसे छीनने का अधिकार नहीं है। हालांकि, वैवाहिक जीवन में बलात्कार की सजा की छूट ने भारत की शादीशुदा महिलाओं की स्थिति ‘सेक्स वर्कर’ और ‘घरेलू दासियों’ से भी बदतर कर दी है क्योंकि सेक्स को ना कहने का जो अधिकार सेक्स वर्कर को उपलब्ध कराया गया है, वह भारत की शादीशुदा महिला को नहीं है। ब्रिटिश कालीन भारत में लॉर्ड मैकाले द्वारा तैयार भारतीय दंड सहिता को 1861 में लागू किया गया था। ‘ऑफ ऑफेंस इफेक्टिंग द ह्यूमन बॉडी’ नामक अध्याय में आईपीसी की धारा- 375 और 376 की चर्चा की गई है। हालांकि ब्रिटेन में यौन अपराध (संशोधन) अधिनियम 1976 के अंग्रेजी कानून को बदला गया, जिसके मुताबिक, बलात्कार बिना सहमति के किसी महिला के साथ किया गया यौन संबंध है। इसके बाद, 1997 में आर. बनाम आर. (रेप : वैवाहिक छूट) (1991 4 ¬थ्थ् कङ 481) मामले में हाउस ऑफ लॉर्डस ने जो फैसला सुनाया, उसके मुताबिक, ‘कोई भी पति अपनी पत्नी के साथ बिना सहमति के यौन संबंध बनाने पर अपराधी नहीं हो सकता। अब यह इंग्लैंड के कानून में नहीं है क्योंकि पति और पत्नी दोनों समान रूप से शादी के बाद जिम्मेदार होते हैं और इससे स्वीकार नहीं किया जा सकता कि शादी के बाद सभी परिस्थितियों में पत्नी यौन संबंध बनाने के लिए खुद को पेश करेगी या मौजूदा दौर की शादी के बाद सभी हालातों में पत्नी यौन संबंध बनाने के लिए राजी हो।’ इसके बाद, पीपुल्स बनाम लिब्रेटा (1984) मामले में न्यूयार्क की अपील कोर्ट ने कहा कि बलात्कार और वैवाहिक जीवन में बलात्कार के बीच अंतर करने का कोई औचित्य नहीं है और विवाह किसी पति को अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करने का लाइसेंस नहीं देता। कोर्ट ने न्यूयार्क के उस कानून को असंवैधानिक करार दिया जिसने वैवाहिक बलात्कार को अपराध ना मानने की छूट दे रखी थी।’ यह बेहद निंदनीय है कि भारत में वैवाहिक जीवन में अब भी बलात्कार को कानूनी मान्यता प्राप्त है जबकि छोटे से हमारे पड़ोसी देश नेपाल में काफी पहले से यह गैरकानूनी है। नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने घोषित कर रखा है कि यदि कोई पति अपनी पत्नी को सेक्स के लिए मजबूर करेगा तो उस पर बलात्कार का आरो प लगाया जा सकता है। पिछली मई में मील का पत्थर बनी यह घोषणा उस याचिका का परिणाम थी जिसे जुलाई, 2001 में नेपाल के महिला अधिकार संगठन ‘महिला, कानून और विकास फोरम’ ने दायर किया था। नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने घोषित किया कि पत्नी की सहमति के बिना वैवाहिक सेक्स बलात्कार के दायरे में आएगा। यह भी कहा गया कि धार्मिक ग्रंथों में भी पुरुषों द्वारा पत्नी के बलात्कार की अनदेखी नहीं की है। कोर्ट ने यह भी कहा कि हिन्दू धर्म में पति और पत्नी की आपसी समझ पर जोर दिया गया है। 19वीं सदी के शुरू में ‘सेकेंड सेक्स’ की दुनिया पुरुषों को अपनी पत्नी के साथ से क्स करने के लिए मजबूर करती रही है। अमेरिका में, 19वीं सदी में महिला अधिकार आंदोलन पति के खिलाफ विवाह के बाद यौन संबंध बनाने के अधिकार के विरुद्ध अभियान था। इसने सेक्स और सेक्सुअलिटी को लेकर उन्नीसवीं सदी के टैबू को खत्म कर उल्लेखनीय विकास कार्य किया। शादी के भीतर या बाहर के बलात्कार में कोई अंतर नहीं है। बलात्कार वह है, जिसमें कोई पुरुष किसी महिला के साथ जबर्दस्ती यौन संबंध बनाता है, चाहे उसे ऐसा करने के लिए शादी के कानून का लाइसेंस मिला हो या नहीं। 21वीं सदी में भारतीय महिलाओं के मूलभूत मानवाधिकार को 18वीं सदी के चश्मे से नहीं देखा जा सकता। 12 साल से अधिक उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार का मामला हो तो पुलिस मामले को दर्ज करने के अलावा कोई भी कार्रवाई नहीं करेगी और गरीब नाबालिग लड़की को खुद कोर्ट का दरवाजा खटखटाना होगा, जिसके तहत शिकायत मामले में उसे मुकदमे के दौरान काफी कठिन प्रक्रिया से गुजरना होता है। . भारतीय विधि आयोग ने अपनी 205वीं रिपोर्ट में कहा है, ‘भारतीय दंड संहिता 15 साल से कम उम्र की नाबालिग पत्नी के साथ यौन संबंध को बलात्कार मानता है। पिछली सदी में फुलमोनी मामले में बाल विवाह के खिलाफ लोगों ने सार्वजनिक तौर पर एकजुट होकर आवाज उठाई थी। इस मामले में 11 साल की लड़की की जननांग के फटने से मौत हो गई थी क्योंकि उसके पति ने उसे जबर्दस्ती सेक्स करने के लिए मजबूर किया था।’ यद्यपि, बाल विवाह का वर्तमान कानून फुलमोनी जैसे मामले को नहीं देखता। ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसमें बाल वधू को अपने पति से दूर रखने या दूसरे उत्पीड़न के साथ यौन उत्पीड़न को रोकने का प्रस्ताव हो। बाल विवाह अधिनियम वास्तव में, बाल विवाह की मान्यता को रद्द ना करके इस तरह के अपराध को आधार प्रदान करता है। शोध बताते हैं कि बाल वधुओं को गर्भावस्था से जुड़ी समस्याओं से अधिक जूझना पड़ता है। साथ ही, बाल विवाह मामलों में मातृ और शिशु मृत्यु दर अधिक है। बाल विवाह सभी बच्चियों को उनके मानव अधिकारों तथा स्वस्थ- प्राकृतिक वातावरण में विकसित होने से वंचित करता है। इसके साथ ही उनके शैक्षिक, शारीरिक और मानसिक विकास को भी रोकता है। यह उनको अपने वातावरण के साथ स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति और आंदोलन करने जैसे बुनियादी अधिकारों से दूर करता है। भारतीय विधि आयोग की 205वीं रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि ‘हमलोग यह महसूस करते हैं कि छोटी-सी दुल्हन और अन्य नाबालिग लड़कियों के लिए यौन संबंध मामले में सहमति के लिए अलग उम्र तय करने का कोई औचित्य नहीं है। सहमति की उम्र के लिए न्यूनतम उम्र के पीछे मूल कारण यह है कि लड़की यौन संबंध के मामले में ज्यादा परिपक्व नहीं होती। बाल वधू और दूसरी नाबालिग लड़कियों के मामले में भी यही मूल वजह है।’ इसकी सिफारिश कुछ यूं है - (त्त्त्) ‘भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद को खत्म कर दिया जाना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि यौन संबंधों के लिए सहमति की उम्र सभी लड़कियों के लिए 16 साल होगी, चाहे वह शादीशुदा हो या ना हो।’ जब से मानवाधिकारों की अवधारणा विकसित हुई है, वैवाहिक अधिकार के तौर पर यौन संबंधों को लेकर सहमति की बात व्यापक तौर पर उठने लगी है। पति द्वारा बलात्कार की आपराधिक घटनाएं वैिक स्तर पर यौन अपराध के रूप में सामने आ रही हैं जो नैतिकता, परिवार, अच्छे संस्कार, सम्मान, सदाचार के साथ-साथ स्वतंत्रता, आत्मनिर्ण य और फिजिकल इंटीग्रिटी के खिलाफ अपराध है। परंपरा, संस्कृति, संस्कार, रीति-रिवाजों और रूढ़िवादियों व धर्मशास्त्रियों द्वारा बनाए गए नियमों के आधार पर वैवाहिक बलात्कार को कभी भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। कोई भी धर्म वैवाहिक बलात्कार का समर्थन नहीं करता। दुनिया के करीब 76 देशों में वैवाहिक बलात्कार दंडनीय अपराध के तौर पर घोषित हो चुका है जबकि भारत सहित पांच देशों में वैवाहिक बलात्कार को अपराध तब माना जाता है जब कानूनी तौर पर दोनों एक-दूसरे से अलग रह रहे हों। महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2006 बनाया गया लेकिन वैवाहिक बलात्कार को ‘अपराध’ घोषित नहीं किया गया। भारतीय दंड संहिता की धारा-275-सी के अपवादस्वरूप समय-समय पर भारत सरकार के द्वारा घोषित घोषणाओं और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का यह सरासर उल्लंघन है। यहां यह बताना आवश्यक है कि 20 दिसम्बर, 1993 में, जब संयुक्त राष्ट्र महासभा महिलाओं के खिलाफ हिंसा उन्मूलन की घोषणा करने में जुटी थी तब उन्होंने अनुच्छेद- 1 में पाया कि ‘महिलाओं के खिलाफ हिंसा’ का अर्थ है जेंडर आधारित किसी भी तरह की हिंसा या शारीरिक, यौनिक या मनोवैज्ञानिक तरीके से चो ट पहुंचाना या सार्वजनिक या निजी जीवन में ऐसे कृत्यों या बलात्कार या स्वतंत्रता के हनन की धमकी देना’। भारतीय दंड संहिता की धारा-375 की खामियां यहीं खत्म नहीं होती हैं। किसी दूसरी महिला के साथ बलात्कार करने वाले को आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर की जा सकती है। कोई भी अदालत इस मामले में न्यूनतम सजा सात साल की जेल और जुर्माने की सजा सुना सकती है (धारा 376 (1)। लेकिन, यदि पति 15 साल से कम उम्र की अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करता है तो वह कोई अपराध नहीं करता। इसके अलावा, यदि वह 15 साल से कम है लेकिन 12 साल से अधिक है तो पति को बलात्कारी माना जा सकता है लेकिन उसे सजा के तौर पर काफी सहूलियत दी गई है। इस मामले में अधिकतर सजा दो साल की जेल या जुर्माना या दोनों हो सकती है। जबकि दूसरे मामलों में, बलात्कार सं™ोय और गैर जमानती अपराध है। 12 साल की उम्र से अधिक की पत्नी के साथ बलात्कार भी सं™ोय और गैर जमानती अपराध है (सीआरपीसी, अनुच्छेद-1)। इसका अर्थ यह हुआ कि सामान्य तौर पर बलात्कार की शिकायत मिलने पर बिना किसी सबूत के पुलिस आरोपित को गिरफ्तार कर सकती है और जांच कर सकती है। यदि 12 साल से अधिक उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार का मामला हो तो पुलिस मामले को दर्ज करने के अलावा कोई भी कार्रवाई नहीं करेगी और गरीब नाबालिग लड़की को खु द कोर्ट का दरवाजा खटखटाना होगा, जिसके तहत शिकायत मामले में उसे मुकदमे के दौरान काफी कठिन प्रक्रिया से गुजरना होता है। तब पति को गिरफ्तार किया जा सकता है। किसी नाबालिग के साथ शादी करने के बाद अपराध करने से हर किसी को यह छूट मिलती है। आईपीसी की धारा-375 के तहत, 15 साल से कम उम्र की अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध बनाना बलात्कार माना जाता है। ऐ से में, बलात्कारी (पति) को धारा- 376 आईपीसी के तहत अन्य बलात्कार के मामलों की तरह सजा दी जानी चाहिए। हालांकि, कानून ने उस पर खास रियायत बरतते हुए दो साल कारावास या जुर्माना या दोनों मुकर्रर किया है, जो आम तौर पर अनुचित, अतार्किक, अन्यायपूर्ण, दमनकारी, भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक है। हिन्दू अल्पसंख्यक औ र संरक्षण अधिनियम, 1956 की धारा-6 सी, तो बाल विवाह को लेकर बहुत ही हास्यास्पद और चौंकाने वाला प्रावधान है। उप धारा (ए) के मुताबिक, किसी भी नाबालिग लड़के या अविवाहित लड़की के सामान्य तौर पर संरक्षक उसके पिता होते हैं और उसके बाद मां होती है। दूसरी ओर उपधारा-सी के मुताबिक, विवाहित लड़की (बड़ी हो या छोटी) का संरक्षक उसका पति होता है। यह उपधारा तब भी लागू होती है, जब पति और पत्नी दोनों नाबालिग हों। इसलिए इस कानून के मुताबिक, एक नाबालिग पति जो खुद ही अपने पिता या माता के संरक्षण में पल रहा है, वह नाबालिग पत्नी और बच्चों एवं संबंधित संपत्तियों का प्राकृतिक संरक्षक होगा। ऐसे में, व्यावहारिक तौर पर नाबालिग वधू अनाथ रह जाती है। क्या हम वास्तव में, इन कानूनों से ‘बाल विवाह’ को देश में समाप्त करना चाहते हैं या महिलाओं के शोषण और दमन के जरिए महान सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं के सहेजे रखना चाहते हैं? (लेखक सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील व स्त्रीवादी विचारक हैं)

Wednesday, August 10, 2011

आनर किल्लिंग:शादी की आज़ादी



आनर किल्लिंग:शादी की आज़ादी
अरविन्द जैन
(राष्ट्रीय सहारा आधी दुनिया १०.८.२०११)

अगर न्याय के पहरेदारों और कानून के बीच टकराहट होती रहेगी, तो जाति और धर्म के सांकल में जकड़ी शादियां आजाद कैसे हो पाएंगी? अराजक निजी कानूनों और न्यायिक व्याख्याओं में बदलावों के बिना अंतर्जातीय/अंतर्धार्मिक शादियों से जुड़े सामाजिक-आर्थिक-राजनीति का गतिविज्ञान तेजी से नहीं बदलेगा।

सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति मार्कडेय काटजू और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा ने 19 अप्रैल, 2011 को सभी राज्यों सरकारों को निर्देश दिया कि वे ऑनर किलिंग्स को सख्ती से दबा दें। कोर्ट ने अधिकारियों को आगाह किया कि इस प्रथा को रोक पाने में नाकाम अधिकारियों को दंडित किया जाएगा। पिछले साल गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने भी भरोसा जताया था कि ऐसी हत्याओं को रोकने के लिए वह संसद में विधेयक पेश कर उसमें विशिष्ट तौर पर सख्त दंड की व्यवस्था करेंगे।

सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति मार्कडेय काटजू और न्यायमूर्ति अशोक भान ने 2006 में व्यवस्था दी कि ‘ किसी देश के लिए जाति व्यवस्था अभिशाप है और बेहतरी के लिए शीघ्रता से इसे खत्म करना होगा। वास्तव में, यह ऐसे समय में देश को बांट रहा है कि जब देश एकजुट होकर कई तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है। राष्ट्रीय हित में अंतर्जातीय शादियां हकीकत बन चुकी हैं, क्योंकि ये जाति व्यवस्था को नष्ट करने का नतीजा है। हालांकि, देश के विभिन्न हिस्सों से दुखदायी खबरें आती रहती हैं कि अंतर्जातीय शादियां करने के बाद युवा पुरुष और महिलाओं को धमकियां, यातनाएं या फिर हिंसक हो उठने जैसी घटनाएं हो रही हैं।’ मेरे विचार से, हिंसा, यातना और धमकी संबंधी ऐसा कृत्य पूरी तरह गैरकानूनी है और जो भी इसमें लिप्त हैं, उन्हें कड़ी सजा दी जानी चाहिए। भारत स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश है, और कोई लड़का या लड़की अपने पसंद से शादी कर सकता है। यदि उनके अभिभावक अंतर्जातीय या अंतर्धार्मिक शादी को मंजूरी नहीं देते, तो ज्यादा से ज्यादा यह मुमकिन है कि उनसे सामाजिक रिश्ता तोड़ लिया जाता है, लेकिन उनके खिलाफ हिंसा या उसे धमकाया नहीं किया जा सकता। इसीलिए, हम निर्देश देते हैं कि समूचे देश के प्रशासन/पुलिस को देखना होगा कि अंतर्धार्मिक या अंतर्जातीय शादियां किये हुए लड़के या लड़की के खिलाफ कोई यातना, धमकी, हिंसा या इसके लिए उकसाने जैसी कार्रवाई न होने पाये। अगर कोई ऐसा करता पाया जाए तो पुलिस ऐसे लोगों के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई करे और कानून के तहत आगे कड़ी कार्रवाई संबंधी कदम उठाये। कभी- कभी, हम अंतर्धार्मिक या अंतर्जातीय शादियों को लेकर ऑनर किलिंग संबंधी घटनाओं के बारे सुनते हैं। ये शादियां अपनी मर्जी से की जाती हैं। ऐसे में, किसी तरह के मौत देने का कोई अच्छा मामला नहीं होता और वास्तव में, ऐसा कृत्य करने वाले बर्बर और शर्मनाक कृत्य कर बैठते हैं। यह बर्बर, सामंती मानसिकता के लोग हैं, जिन्हें कड़ा दंड दिये जाने की जरूरत है। सिर्फ ऐसा करके ही हम ऐसे बर्बरता संबंधी व्यवहार को खत्म कर सकते हैं। मां का नहीं पिता का नाम यह स्पष्ट नहीं है कि जाति व्यवस्था अभिशाप है, इसलिए जितनी जल्दी इसे खत्म कर दिया जाएगा, उतना ही बे हतर होगा क्योंकि इससे ऐसे समय में देश बंटता है, जब भारत को एक रखने के रास्ते में कई चुनौतियां हैं। इसलिए अंतर्जातीय शादियां राष्ट्रीय हित में हकीकत है। ऐसी शादियों के होते रहने से जाति व्यवस्था टूटेगी।

दूसरी ओर, सर्वोच्च अदालत ने कहा कि भारत में जाति व्यवस्था भारतीयों के दिमाग में रचा-बसा है। किसी कानूनी प्रावधान के न होने की सूरत में अंतर्जातीय शादियों होने पर कोई भी व्यक्ति अपने पिता की जाति का सहारा विरासत में लेता है, न कि मां का। (एआईआर सु. को. 2003, 5149 पैरा 27) सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एच. के. सीमा और डॉ. ए आर लक्ष्मणन ने अर्जन कुमार मामले में स्पष्ट कहा कि ‘यह मामला आदिवासी महिला की एक गैर आदिवासी पति से शादी करने का है। पति कायस्थ है, इसलिए वह अनुसूचित जनजाति के होने का दावा नहीं कर सकता।’ (एआईआर सु. को. 2006, 1177) एक भारतीय बच्चे की जाति उसके पिता से विरासत में मिलती है, न कि मां से। अगर वह बिन ब्याही है और बच्चे के पिता का नाम नहीं जानती, तो वह क्या करे? महिला अपने पिता की जाति से होगी और शादी के बाद पति की जाति की। आपकी जाति और धर्म आपके पिता के धर्म/ जाति से जुड़ी होती है। कोई अपना धर्म बदल सकता है लेकिन जाति नहीं।

दुर्भाग्य से, भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में विशेष विवाह कानून, 1954 के तहत अंतर्जातीय विवाह को संचालित करने वाले बुनियादी कानून प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इस कानून के तहत शादी के अंजाम संबंधी चौथे अध्याय में अंतर्जातीय विवाह को हतोत्साहित करते हैं। धारा-19 के मुताबिक, इस कानून के तहत शादी किसी अविभक्त हिंदू, बौद्ध, सिख या जैन अन्य धर्मावलंबी परिवार में आयोजित होती है, तो ऐसे परिवार से उन्हें अलग कर दिया जाएगा। कानून ऐसे हिंदू बौद्ध, सिख या जै न को आजादी देता है, जो अविभक्त परिवार के सदस्य हैं। ऐसे लोग अन्य धर्मो में शादी करते हैं तो शादी के दिन से उनके अपने परिवार के साथ रिश्ते अपने आप टूट जाएंगे। यह परोक्ष रूप से अवरोध निर्मित करता है और ऐलान करता है कि हम आपको गैर हिंदू पत्नी या पति को अपने परिवार में कबूल नहीं करेंगे। आप अपने विभक्त परिवार की संपत्ति में अपना हिस्सा, यदि कोई हो, लेते हैं तो परिवार से भी हाथ धोना पड़ेगा।

सुप्रीम कोर्ट ने इस बात की भी ताकीद कर दी है कि अगर लड़के या लड़की के माता-पिता ऐसी अंतर्जातीय या अंतर्धार्मिक शादी को मंजूरी नहीं देते, तो वे अपने पुत्र या पुत्री से सामाजिक रिश्ते तोड़ सकते हैं। कोर्ट ने ठीक ही आगाह किया है कि ऐसी शादियां कर चुके लोगों को घर वाले किसी तरह की न तो धमकी दे सकते हैं और न ही मारपीट कर सकते हैं। वे इन्हें यातना भी नहीं दे सकते। जाति व्यवस्था वाले ऐसे पारंपरिक समाज में, शादी के लिए चुनाव काफी अहम हो जाता है। ऐसे में, अपनी जाति या धर्म से हटकर शादी के बारे में सोच पाना नामुमकिन है। हालांकि, भारत में शादी के तरीके में आया हाल का बदलाव अंतर्जातीय शादियों, खासकर आर्थिक रूप से मजबूत दज्रे के चलते बढ़त दर्शा रहा है। पंजाब, हरियाणा, असम और महाराष्ट्र में फिर भी अंतर्धार्मिक शादियों को अब भी प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान जैसे राज्यों में पारंपरिक और सामंती माइंडसेट में बदलाव काफी कम देखा गया है इसलिए हमें निदरेष युवा लड़के और लड़कियों को ऑनर किलिंग से बचाने के लिए एकजुट होने की जरूरत है। ये वे युवा हैं, जो जाति और वर्ग रंिहत समाज में जीने की इच्छा रखते हैं।

अगर न्यायिक व्याख्याएं लिंग न्याय को स्वीकार नहीं करतीं, तो वक्त बीतने के साथ सामाजिक न्याय के बीज कैसे अंकुरित होंगे?
http://www.shabdankan.com/2013/09/honor-killing.html#.U_WF7aMR4Zl

Wednesday, July 6, 2011

डिजर्ट ऑफ जस्टिस

राष्ट्रीय सहारा , आधी दुनिया 6.7.2011
डिजर्ट ऑफ जस्टिस
अरविंद जैन
“आखिर अजन्मी बच्ची आधुनिक समाज का मुकाबला कै से करेगी? ईर या मानवता को आधुनिक समाज के आतंकों से कैसे बच पाएगी? वह एक शिक्षित इंसान का किस तरह सामना करेगी और कैसे वह ईर या मानवता के इन खून चूसने वाले चमगादड़ों यानी आधुनिक समाज के चमगादड़ों से सुरक्षित करेगी.”
मंजू बनाम राज्य (2010 सीआरएल. एल. जे. 2307) केस में एक मां ने अपनी ही कन्या की भ्रूणहत्या जैसे दिल दहला देने वाला जुर्म किया। इसमें दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति प्रदीप नंद्रजोग और न्यायमूर्ति सुरेश कैत ने फैसले में सहानुभूतिपूर्वक लिखा, ‘वह नवजात कन्या थी और उसका इस धरती पर आना उनके लिए आफत थी। माता-पिता के लिए चिंता का सबसे बड़ा मुद्दा उसकी शादी थी। नवजात कन्या उनके लिए मजबूरी के सिवाय कुछ नहीं थी। उसकी शादी का ख्याल जैसे उन्हें बर्बाद करने के लिए काफी था। गरीब होना मामूली चीज थी। समाज ने भी पैदा होने से पहले ही उनकी मृत्यु को शोकपत्र पहले ही लिख डाला था। उसकी मां ने तो सिर्फ उसे जगजाहिर किया था। यह एक बेनाम नवजात की दास्तान है। संभवत: यह पहला फैसला है, जिसमें किसी पीड़ित को उसके नाम से संबोधित नहीं किया जा सकता है।’न्यायमूर्ति नंद्रजोग ईमानदारी से मानते हैं, ‘मानवता इंसानी जिंदगी से भी बढ़कर है, इसका हमें पता नहीं। मरने के बाद क्या होता है, इसका भी हमें कुछ नहीं पता पर यह मान्यता है और स्वीकृति भी कि मानवीय व्यक्तित्व इंसानी जाति के रूप में आगे तक जाती है। लेकिन कन्या के लिए तो यह भी अस्वीकार्य है।
कुछ तथ्य संक्षेप में
अपीलकर्ता मंजू (मां) लेडी हार्डिग मेडिकल कॉलेज के मैटर्निटी वॉर्ड में भर्ती थी। उसने 24 अगस्त 2007 को दोपहर करीब 12:10 बजे कन्या को जन्म दिया। उसी दिन वॉर्ड में बतौर असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट शकुंतला अरोड़ा थीं। वे कन्या के जन्म की गवाह थीं। अपीलकर्ता मंजू को लेबर रूम से निकालकर वॉर्ड में शिफ्ट किया गया। शाम करीब 4:30 बजे बच्ची को मैटर्निटी वॉर्ड में तैनात स्टाफ नर्स बिंदू जॉर्ज ने जच्चा को सौंप दिया। सायं लगभग साढ़े छह बजे बच्ची संबंधित खबर से अस्पताल में खलबली मच गई। नर्स संगीता रानी कहती है, मुझे डय़ूटी पर मौजूद इंटर्न डॉक्टर ने फोन पर बताया- ‘सिस्टर! जल्दी आओ, बच्ची बीमार है।’ पीएनसी इंटर्न ने दोषी मंजू की बच्ची को उठाया और जल्दी-जल्दी उसे ठीक करने में जुट गई। मैंने एक स्टूडेंट नर्स के जरिए सीनियर रेसिडेंट डॉ. निधि को भी बुलवाया। डॉक्टर ने बच्ची के गर्दन और नाक पर लाल व नीले रंग का निशान दिखाते हुए मुझे और सभी स्टाफ नर्स को दिखाया। उसके बाद डॉक्टर निधि ने पाया कि कन्या जीवित नहीं है। उसके बाद पुलिस को सूचना दी गई।
पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट
पुलिस को सूचना देने के बाद इंवेस्टिगेटिंग ऑफीसर ने कन्या के मृत शरीर को कब्जे में ले लिया और तहकीकात करने वाले दस्तावेजों को भरने के बाद हॉस्पिटल के मुर्दाघर में पोस्ट-मॉर्टम के लिए भेज दिया। डॉ. अभिषेक यादव ने 26 अगस्त, 2007 की सुबह कन्या के मृत शरीर का पोस्ट-मॉर्टम किया और रिपोर्ट तैयार की। डॉ. यादव ने कन्या के शरीर पर आठ बाहरी चोट का पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट में उल्लेख किया। उसमें मस्तिष्क में भारी मात्रा में फ्लूड्स के जमाव से सूजन आने के साथ कंजस्टेड भी बताया गया। इसके अलावा गर्दन में खून का परिस्त्रवन (एक्स्ट्रावैशन), कारोटिडशेथ के आसपास सॉफ्ट टिशू और लैरिंक्स मसल्स भी क्षतिग्रस्त पाई गई। ास नली और ब्रॉन्की भी कंजस्टेड बतायी गयी। दोनों फेफड़े कंजस्टेड होने के साथ पैटेशियल हैमरेज इंटर लेबर सर्फेस पर पाया गया। पैटेशियल हैमरेज हार्ट के वेंट्रिकुलर सर्फेस में था। लिवर, स्प्लीन और किडनी भी कंजस्टेड थी और डॉक्टरों की राय थी कि इस तरह की मौत गला घोंटने (एस्फिक्सिया) से होती है।
सत्यमेव जयते बनाम यतो धर्मस्ततो जय:
न्यायमूर्ति नंद्रजोग और न्यायमूर्ति कैत को इस तथ्य का बखूबी पता था कि न्यायिक दायरे में ‘सत्यमेव जयते’ का बड़ा असर होता है और सुप्रीम कोर्ट अपने न्यायिक क्षेत्राधिकार के तहत ‘यतो धर्मस्ततो जयते’ यानी ‘सिर्फ सच्चाई ही टिकती है’ को मानकर काम करता है। न्यायाधीश नंद्रजोग ने फैसला लिखते हुए स्पष्ट किया कि हमारे न्यायिक अधिकार क्षेत्र के दूसरे शब्द नीति से जुड़े हैं और सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्राधिकार ‘न्याय करने’ से जुड़ा है। इसलिए सिर्फ सुप्रीम कोर्ट को ही भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 142 के तहत संपूर्ण न्यायिक अधिकार प्राप्त हैं। इसलिए जहां तक माफी वाली एलिजाबेथ बुमिलर रचित पुस्तक है- ‘आप सौ बेटों की मां हो सकती हैं।’ दहेज, बहू जलाना, कन्या भ्रूणहत्या- निजी अनुभवों के आधार पर शोधपरक दस्तावेज होते हैं। वास्तव में, ये उत्तेजित करते और विचारों में हलचल पैदा करने वाली पुस्तक है। 1986 से 2001 के बीच 50 लाख कन्या भ्रूणहत्याएं हुई, क्योंकि ये सब लिंग परीक्षण संबंधी मेडिकल से जुड़े पेशेवरों के हाथ में था। 1994 में संसद ने पीएनडीटी (प्रीनेटल डायग्नोस्टिक टेक्नीक) कानून बनाया, जो पैदा होने से पहले परीक्षण तकनीकों के दुरुपयोग का जवाब था। बावजूद इसके, सुप्रीम कोर्ट ने मई, 2001 में सरकार को इसे लागू करने का निर्देश दिया। फिर भी हालात की पहले जैसे हैं। कितने अपराधियों को सजा मिली? कानून बेमानी साबित हुआ है।
कन्या का हत्यारा कौन?
आत्मा में झांकने के क्रम में न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने खुद से सवाल किया, ‘लेकिन, क्या अपील करने वाली मां एक ऐसे अपराध की जननी नहीं मानी जानी चाहिए, जिसे समाज ने निर्मित किया है। कन्या भ्रूणहत्या, मोहरे बनकर किया जाने वाली कृत्य है। क्या समाज के पापों का यही भुगतान है? क्योंकि, वह मां अनभिज्ञ है, गरीबी-रेखा से नीचे दयनीय माहौल में रह रही है। उसने अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा- 313 के तहत बांये हाथ के अंगूठे से अपनी निरक्षरता साबित की है। गरीबी-रेखा से नीचे बसर करती वह अपना झुग्गी-झोंपड़ी का पता बताती है। शायद ही वह अपनी आत्मा और शरीर को खंडित होने से बचा पायी हो या यह हकीकत साबित कर पायी हो कि उसका पति दैनिक वेतनभोगी है। हमारे सामने सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि यदि वह अपराध करने वाली नहीं है, तो समाज के पापों का वह भुगतान क्यों करे?’
भारतीय समाज में कानूनी, सामाजिक और नैतिक माहौल पर गौर करने के बाद न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने लाचार स्वर में कहा, ‘प्रतिक्रिया की प्रक्रिया खुद में इतनी अविवेकपूर्ण और एकतरफा है, जिसमें एक अनभिज्ञ और कमजोर के खिलाफ काफी कुछ हो जाता है।’ इस तरह एक अविवेकपूर्ण प्रक्रिया में कैसे एक अनभिज्ञ और कमजोर न्याय पर भरोसा और उससे उम्मीद करे?
खुद मां शिशु की हत्यारिन
अंतत: न्यायमूर्ति नंद्रजोग और न्यायमूर्ति कैत ने वकीलों के तर्क सुनने और गवाही से जुड़े सबूतों पर गौर करने के बाद नतीजा निकाला कि यहां शक की कोई वजह नहीं। कारण, दुर्भाग्य से कई उम्र की लड़कियों का गला दबाया जाता है और याचिकाकर्ता मां ने खुद कन्या भ्रूणहत्या संबंधी गुनाह किया और अपनी बच्ची की हत्या की।
पैदा होने से पहले प्रार्थना
ऐसे जटिल और उलझे हालात में शायद कुछ सांत्वना देने के लिए न्याय की बेड़ियों और जेल संबंधी उदाहरणों का उल्लेख करते हुए न्यायमूर्ति नंद्रजोग और न्यायमूर्ति कैत ने लुइस मैक्नीस की लिखी ‘प्रेयर बिफोर बर्थ’ कविता की तीन पंक्तियां सुनायीं- ‘मैं अभी तक जन्मा नहीं हूं, सांत्वना दीजिए; मैं डरा हुआ हूं क्योंकि मानव जाति मेरा आगे ऊंची दीवार चिना देगी, जिसमें काफी शक्तिशाली दवाएं होंगी, उनकी बुद्धिमानी मुझे ललचाने के लिए होगी। काले रंग की खूं टी मुझे कंपा रही है, मुझे खून से नहलाया जा रहा है।’
‘मैं अभी तक जन्मी नहीं हूं, दुनिया में आने का मैं पाप कर रही हूं, इसके लिए मुझे माफी कर दीजिए। मेरे लिए जो शब्द वे कहें, मेरे विचार जो मेरे लिए वे सोचते हैं, मे रा लिंग मेरे नियंतण्रसे बाहर है, उसके खिलाफ विासघाती हैं वे, मेरी जिंदगी जिसे वे मेरे हाथों से ही मार देंगे, मेरी मृत्यु होगी, उसी समय वे मेरे पास रहेंगे।’
‘मैं अभी तक जन्मी नहीं हूं। जब मैं खेलूं, तो मेरा अंग सहलाओ, जब मैं इशारा करूं तो बूढ़े आदमी की तरह मुझे सिखाओ, नौकरशाह मुझ पर धौंस दिखायें, पहाड़ बनकर मेरी रक्षा करो, प्रेमीजन मुझ पर हंसें, सफेद कॉलर वाले मुझे मूर्ख समझें और मुझे पराया कहें और भिखारी भेंट स्वरूप मुझे लेने से इंकार करें। यहां तक कि मेरे बच्चे अभिशाप कहकर दोष मढ़ें। दरअसल, समाज में रह रहा इंसान पापों को अंजाम देता है। दिल की गहराई से महसूस हुआ कि अजन्मी बच्ची की हालत संबंधी चिंता आत्मप्रवंचना है। आखिर वह आधुनिक समाज का मुकाबला कैसे करेगी? ईर या मानवता को आधुनिक समाज के आतंकों से कैसे बचाएगी? वह आधुनिक मानवता का किस तरह सामना करेगी और कैसे वह ईर या मानवता को इन खून चूसने वाले चमगादड़ों यानी आधुनिक समाज के चमगादड़ों से सुरक्षित करेगा या डंडा मारने वाले पिशाच से बचाएगा? इसी तरह के दूसरे भय समाज में हैं, इसी तरह के और अवरोधक समाज में ही हैं- ड्रग, झूठ, यातना और हिंसा इन्हीं की कई शक्लें हैं। अजन्मी बच्ची सुरक्षित होना चाहती है। धरती विकृत हो रही है और अजन्मी बच्ची ईर से प्रार्थना कर रही है कि वे उसे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से सेहतमंद रखें। अजन्मी बच्ची का महसूसना है कि आधुनिक समाज अपनी पहचान खो रहा है क्योंकि वहीं उसे पापों का पिटारा मिल रहा है। समाज ही मर्द और औरत में पाप उड़ेल रहा है। चूंकि बच्ची दुनिया का एक हिस्सा होगी, इसलिए उनके पाप कर्म में लिप्त होने की संभावना है। उसे जो भी पढ़ाया जाएगा, वही वह बोलेगी, उसे जिस तरह प्रशिक्षित किया जाएगा, वैसा ही सोचेगी और क्षमा भी वैसे ही मांगेगी। वास्तव में, एक मां की दलील भी वच्चे जैसी ही तो होती है। (बाकी पेज 2 पर)
जहां कन्या को मारना बड़ा पाप नहीं
न्यायाधीश नंद्रजोग ने साफ कहा कि भारत की जनता का नैतिक पतन होने का मतलब है कि भारत में सजा-संबंधी कानून कारगर नहीं है। इस तरह समझाने- बु झाने की नीति नाकाम हो चुकी है और कुशलता और काव्यमय ढंग से समझाया गया है कि दुनिया की उम्र काफी कम हो गयी है, इसके लिए महज आंकड़ों से इस तरह समझाया जा रहा है- दुनिया की आबादी बढ़ने में सिर्फ एक संख्या ही तो जोड़ी जाती है, दुनिया में औरत की आबादी में सिर्फ एक संख्या ही तो जोड़ने से काम चल जाता है, इस तरह एक संख्या कम करने से दुनिया की आबादी में वह कम हो जाती है, भारत में पुरुष-महिला के औसत आगे भी असंतुलित होना है, पैदा होने वालों के रजिस्टर में एक एंट्री भर ही तो हुई, इस तरह मृत्यु संबंधी रजिस्टर में एक ही तो कम हुआ! एक मुस्कराहट ही तो हमेशा के लिए छिन गयी!
अजन्मा बच्चा सुरक्षित होना चाहता है। धरती विकृत हो रही है और अजन्मा बच्चा ईर से प्रार्थना कर रहा है कि वे उसे शारीरिक, मानसिक और भावनत्मक रूप से सेहतमंद रखें
सामाजिक सोच के दुखद अक्स
न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने टिप्पणी की, ‘कोई तार्किक व्यक्ति कन्या भ्रूणहत्या की तरफदारी नहीं करेगा। यह न सिर्फ दंडनीय अपराध है बल्कि ईर के प्रति पाप भी है। जिंदगी रूपी तोहफा मानवता के प्रति ईर का महानतम उपहार है। बच्ची की पैदाइश जीवन की पैदाइश है, यह अभिभावकों की ओर से दिया गया जीवन नहीं है लेकिन अभिभावक द्वारा दिया गया जीवन अवश्य है। व्यापक रूप से सामाजिक तरंगों पर गौर करें तो आने वाली ज्यादातर याचिकाओं में कन्या के खिलाफ क्रूरता ज्यादा दिखती है। इससे पता चलता है कि पुरुष के खिलाफ काफी कम मामले हैं : औसतन औरतों का सेक्स जैविक रूप से ज्यादा सशक्त है, फिर भी वह अल्पसंख्यक है। आजादी के साठ साल बीतने के बाद भी तथाकथित आधुनिक समाज कन्याओं को लेकर अपना रवैया नहीं बदल पाया है। चाहे गांव हो या शहर, शिक्षित हो या बेपढ़ा, धनी हो या निर्धन, हर जगह कन्या को लेकर प्रतिकूल हालात हैं। 21 वीं सदी में भी सामाजिक सोच का यह दुखद पहलू है।’
आगे चलकर न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने यह भी कहा, ‘इसका कारण कन्या की शादी के दौरान दहेज है। इसीलिए कन्या के साथ ऐसा बर्ताव होता है और पुत्र को इसीलिए पूंजी की तरह देखा जाता है। समाज भूल जाता है कि एक पुत्र तभी तक पुत्र है जब तक उसकी शादी नहीं हुई रहती लेकिन एक पुत्री ताउम्र पुत्री होती है।’
अगर ‘कन्या को लेकर आजादी के 60 साल की समयावधि में समाज का तथाकथित आधुनिकीकरण होने के बावजूद सामाजिक रवैये में बदलाव नहीं आया, तो फिर क्या रास्ता है?’ क्या न्यायिक तौरतरीकों में सामाजिक बर्ताव शामिल नहीं है? क्या न्याय दिलाने की संस्कृति में कोई अहम बदलाव आया है? इस अन्याय को होने से कैसे रोका जाए और वह भी तब, जब कानून के चीलों ने भी लाचारी से सवरेत्तम क्रिया-प्रतिक्रिया दी हो!
बहनों के प्रति दोयम बर्ताव
इस मोड़ पर आकर माननीय न्यायाधीशों को आश्चर्य हुआ कि ‘अपनी समस्त प्रतिभाओं के बावजूद इंडिया या भारत देशों के समुदाय के साथ कदम से कदम मिलाकर चल पाने में क्यों अक्षम है और वह भी तब, जब हमारा सिर बिल्कुल ऊंचा है? शायद इसका कारण यह है कि हम अपने 50 प्रतिशत नागरिकों के साथ ऐसा बर्ताव करते हैं, इनमें हमारी बहनें भी हैं जिन्हें दोयम दज्रे का और जूनियर पार्टनर माना जाता है, बिना यह सोचे कि कदमताल करने के दौरान अगर आपका सहयोगी थोड़ा पीछे रह गया है, तो आपकी ही प्रगति धीमी होगी।’
बाल विवाह प्रतिबंधित फिर भी कायम
माननीय न्यायमूर्तियों ने विश्लेषण किया कि अपीलकर्ता (मां) से संबंधित मेडिकल पेपर्स दर्शाते हैं कि उसके माता-पिता ने उसकी शादी मात्र 15 वर्ष की कच्ची उम्र में कर दी थी। इस अपरिपक्व उम्र में अपीलकर्ता (मां) बतौर गृहिणी और मां की भूमिका उसी सूरत में निभा सकती है, जब उसे कुछ सिखाया जाए और किसी दूसरे के कहे के अनुसार चला जाए। निस्संदेह, जब तक वह मां बनी होगी, कानून के मुताबिक वह वयस्कता की दहलीज पर पहुंच चुकी होगी। भले ही कहा जाए कि चाहे जिन भी परिस्थितियों में वह खुद के बारे में सोचने व आसपास के सामाजिक वातावरण से लड़ने के लिए परिपक्व हो गयी हो?ेनेशनल कैपिटल टेटीटरी ऑफ दिल्ली (एआईआर 2006 दिल्ली 37) के मनीष सिंह बनाम राज्य सरकार में दिल्ली हाई कोर्ट ने विवशतापूर्वक सुझाव दिया कि यह सिर्फ संसद के विमर्श के लिए है कि हिंदू विवाह कानून और बाल विवाह (निषेध) कानून के मौजूदा प्रावधान नाकाफी साबित हुए हैं या बाल विवाह को रोकने की कोशिश करने में नाकाम रहे हैं और उन्हें किसी उपचारात्मक या सुधारात्मक कदम उठाने की जरूरत है। सुशीला गोथाला बनाम राजस्थान सरकार (1995(1) डीएमसी 198) में राजस्थान हाईकोर्ट ने बाल विवाह (निषेध) संबंधी सलाह देते हुए कहा, ‘मेरे विचार से किसी भी सूरत में कानून के उल्लंघन के तहत तब तक बाल विवाह होने को रोका नहीं जा सकता, जब तक खुद समाज द्वारा इसे दूर न किया जाए और पुराने रिवाजों को जड़ से मिटा न दिया जाए। सर्वाधिक पीड़ादायक बात यह है कि सामाजिक बुराई के रूप में फैली इस प्रथा से इंकार करने के बजाय, समाज द्वारा इसे स्वीकृति मिली हुई है। इसमें भी कोई शक नहीं कि बाल विवाह के परिणाम कई रूपों में सामने आते हैं। जो बच्चे शादी का अर्थ नहीं समझते, उनकी कम उम्र में शादी कर दी जाती है। कितनी ही महिलाएं जिनकी शादी बचपन में हो चुकी है, वे अपने ही पति द्वारा निरक्षर होने या अन्य कारणों से वयस्क या बालिग होने पर छोड़ दी जाती हैं। इस सामाजिक बुराई की जमकर निन्दा करना बहुत जरूरी है। पर दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोई भी सामाजिक संगठन बाल विवाह जैसे दोषों व बुराइयों के प्रति जनता को जागरूक करने के लिए आगे नहीं आते।
‘मनहूस’ कहने से बचें
माननीय न्यायमूर्तियों ने इस हकीकत को स्वीकार किया कि कन्या के खिलाफ होने वाले अपराध विकृत सामाजिक पैमाने और वीभत्स सामाजिक सोच की देन हैं और अपीलकर्ता जो न सिर्फ झुग्गी में रहती बेपढ़ी- गरीब है और जिसकी शादी मात्र 15 साल में हो गई, वह कभी भी कोई जुर्म करने की साजिश खुद से नहीं रच सकती। वह तो उस शख्स के हाथों की कठपुतली भर है, जिसने उसे यह सब करने का हुक्म सुनाया या रास्ता दिखाया। आपराधिक न्याय पण्राली के जरिये कोई नियम क्यों नहीं तैयार किया जाता? माननीय न्यायमूर्तियों ने तब जानबूझकर क्रिमिनल रूल्स ऑफ प्रैक्टिस, केरल-1982 के नियम संख्या-131 को स्पष्ट कि उन सभी मामलों में, जिसमें कोई औरत नवजात शिशु की हत्या की दोषी बताई गई हो, हाई कोर्ट के जरिए सरकार को बताया गया है कि यहां सजा को कम करने या उससे जुड़े मामलों में रिकॉर्ड के लिए संबंधित कॉपियां गत्थी की जाएंगी। पर एक बार फिर हैरानी हुई कि केंद्रशासित क्षेत्र दिल्ली में आपराधिक मामलों में न्यायिक व्यवस्था की प्रभारी राज्य सरकार के रूप में ऐसी सरकार नहीं है और इसीलिए हमने दिल्ली सरकार को नवजात कन्या की हत्या की गुनाह महिला को कम से कम केरल राज्य में बने नियमों के मुताबिक मानने संबंधी सलाह दी।
गंभीर अपराध, दोषी के प्रति सहानुभूति नहीं
किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले माननीय न्यायमूर्तियों ने एक बार दोहराया- ‘हमारे अनुरोध को बतौर मैनडमस के तौर पर नहीं लेना चाहिए..। हमने साफ कहाहै कि अपीलकर्ता के प्रति सहानुभूति जैसी चिंता दर्शाने का अर्थ हमारी ओर से यह नहीं है कि हम कन्या शिशुहत्या को मानते हैं न कि कोई संगीन जुर्म। हकीकत यह है कि यह संगीन जुर्म है और दोषी के प्रति किसी प्रकार की हमदर्दी नहीं दिखाई जा सकती, सिर्फ इस तथ्य पर गौर हो कि दोषी खुद ही अपने निरक्षर, गरीबी और सामाजिक वंचना के कारण समाज की उपेक्षा का शिकार थी।’ यदि यह कहना सही है कि ‘दोषी को सहानुभूति और दया की जरूरत नहीं तो क्यों, कैसे और किस आधार पर माननीय न्यायमूर्तियों ने अपने पूर्व के फैसलों में यह स्वीकारा कि ‘वह परित्यक्ता है, जो तकलीफदेह हालात में गरीबी रेखा के नीचे रहती है।’ धारा- 313 सीआर.पी.सी. के तहत उसके द्वारा दिए गए खुद के बयान में बाएं हाथ के अंगूठे की छाप ही उसके अनपढ़ होने का गवाह है। उसके पतेसे पता चलता है कि वह झुग्गी-झोंपड़ी में रहती है। माननीय न्यायमूर्तियों आगे साफ किया, ‘कन्या के प्रति अपराध विकृत सामाजिक दस्तूर और तंग नजरिये की ही देन हैं। इस तरह अशिक्षित, गरीब और झुग्गीवासी अपीलकर्ता की सिर्फ 15 वर्ष की उम्र में ही शादी हो गई हो, उसे अपराध को अंजाम देने जैसी भूमिका के लिए जिम्मेदारी नहीं ठहराया जा सकता।’