Thursday, August 7, 2014

औरतों के कठघरे में खड़ी न्यायपालिका

इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि देश की सबसे ऊंची अदालत ने कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न रोकने के लिए 13 अगस्त 1997 को जो ऐतिहासिक दिशा-निर्देश (विशाखा गाइडलाइंस) जारी किए थे, उन्हें अपने ही ढांचे में लागू करने में उसे लगभग 17 साल लग गए। सरकार भी विधेयक बनाने के बारे में इतने साल तक सोचती-विचारती रही। आखिरकार, 22 अप्रैल 2013 को कानून बन पाया। कारण कई हो सकते हैं, पर इससे लिंग समानता और स्त्री सुरक्षा के सवाल पर विधायिका और न्यायपालिका की गंभीरता का एक अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है।
 किस पर करें भरोसा
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीशों पर यौन शोषण के आरोप, तहलका के संपादक तरुण तेजपाल पर अपनी एक सहकर्मी के यौन शोषण का मामला, यौन उत्पीड़न के कारण इंडिया टीवी की पत्रकार द्वारा आत्महत्या का प्रयास और आए दिन महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न के बावजूद समाज, मीडिया और न्यायपालिका की रहस्यमय खामोशी का मतलब क्या है? क्या इस देश की औरतें यह सब होने-देखने के लिए ही अभिशप्त हैं? न्यायपालिका में पारदर्शिता पर चल रही बहस के बीच में ही एक और ‘दुर्घटना’ हमारे सामने है। मध्य प्रदेश उच्च-न्यायालय (ग्वालियर) के न्यायमूर्ति एस.के. गंगेले द्वारा यौन उत्पीड़न से परेशान महिला सत्र-न्यायाधीश का इस्तीफा।

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आर. एम. लोढ़ा ने कहा है, ‘यह एकमात्र ऐसा पेशा है, जिसमें हम अपने सहयोगियों को भाई और बहन के रूप में देखते हैं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। मेरे पास शिकायत आई है और मैं इस पर उचित कार्रवाई करूंगा।’ कब और क्या कार्यवाही होगी, अभी कहना कठिन है। जस्टिस गंगेले ने सभी आरोपों का खंडन करते हुए कहा है कि ‘आरोप सिद्ध हों तो फांसी पर लटका दें। किसी भी एजेंसी से जांच करवा लो। मैं निर्दोष हूं।’ हम सब जानते हैं कि आरोपों की जांच और सुनवाई के बिना तो कुछ होना नहीं है। पूर्व अतिरिक्त महाधिवक्ता ने न्यायमूर्ति पर ‘महाभियोग’ चलाने की मांग की है।




आश्चर्यजनक है कि समाज में संदेह से परे समझे जाने वाले क्षेत्रों (शिक्षा, चिकित्सा, न्यायपालिका, मीडिया आदि) से भी महिलाओं के देह-दमन के अशोभनीय समाचार निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। न्याय के प्रांगण से बचाओ-बचाओ की चीख-चिल्लाहट, अस्मत के बदले इंसाफ की दास्तान या किसी न्यायमूर्ति द्वारा नौकरी पाने-बचाने की ऐसी शर्मनाक शर्तें सचमुच गंभीर चेतावनी हैं। न्याय और कानूनविदों के चाक-चौबंद किले में ‘कुलद्रोहियों’ का क्या काम? पुनर्विचार करना पड़ेगा कि न्यायाधीशों की चुनाव प्रक्रिया में किस-किस खामी के कारण अनैतिकता और बीमार मानसिकता चोरी-छुपे प्रवेश कर रही है। चारों ओर से सवालों का घेरा गहराता जा रहा है।

दरअसल, शिक्षित और स्वावलंबी स्त्रियों को दोहरी भूमिका निभानी पड़ रही है। आजादी के बाद शिक्षा-दीक्षा के कारण स्त्रियां बदली हैं, बदल रही हैं, मगर भारतीय पुरुष अपनी मानसिक बनावट-बुनावट बदलने को तैयार नहीं। एक तरफ पुरुषों के लिए यह सत्ता से भी अधिक लिंग वर्चस्व की लड़ाई है। दूसरी ओर स्त्रियां अपने सम्मान और गरिमा पर हुए या होने वाले हमले का हर संभव विरोध करने लगी हैं। दमन और विरोध के इस दुश्चक्र में यौन शोषण, उत्पीड़न और हिंसा की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं।



समानता के संघर्ष में स्त्रियों का विरोध-प्रतिरोध या दबाव-तनाव बढ़ता है तो कुछ उदारवादी-सुधारवादी ‘मेक-अप’ या ‘कॉस्मेटिक सर्जरी’ की तरह नए विधि-विधान बना दिए जाते हैं। जब-तब कुछ अन्य सुधारों के सपने भी दिखा दिए जाते हैं। लेकिन सच यह है कि सिर्फ कानूनी प्रावधान बना देने भर से समस्या का समाधान नहीं होगा। विशाखा दिशा-निर्देशों की छांव में ढले-पले अधिनियम में अभी भी ढेरों अंतर्विरोध और विसंगतियां मौजूद हैं। इसमें मौजूद ‘कानूनी गड्ढों’ और चोर रास्तों के रहते स्त्री-विरोधी अपराधों पर लगाम लगा पाना मुश्किल होगा। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हक़ मांगने वाली आवाजों को चुप कराना या रख पाना अब नामुमकिन है। एक बार मीडिया को डरा-धमका कर झुका भी लें तो सोशल मीडिया का गला घोंटना असंभव है। संविधान के मौलिक अधिकारों का अर्थ स्त्री-पुरुष के लिए बराबर होना चाहिए। 1860 के न्याय-शास्त्रों और सिद्धांतों से इक्कीसवीं सदी के स्त्री-समाज को नहीं चलाया जा सकता।



मुखिया की जिम्मेदारी
सार्वजनिक आस्था और विश्वास के दायरे में हाईकोर्ट के हर न्यायमूर्ति से यह अपेक्षा रहती है कि वह निष्ठा और नैतिक मानदंडों पर खरा उतरेगा। आम व्यक्ति की आखिरी उम्मीद हैं न्यायाधीश। यह बहाना नहीं चलेगा कि समाज का नैतिक पतन हो रहा है, और वे भी उसी समाज से आते हैं, लिहाजा आदर्श व्यवहार की आशा नहीं करनी चाहिए। अगर संविधान के रक्षकों पर ही स्त्री अस्मिता के भक्षक बनने के गंभीर आरोप (सही या गलत) लग रहे हैं, तो यह अपने आप में बेहद संगीन है। न्याय मंदिरों के ‘स्वर्ण कलश’ ही कलुषित होने लगे तो फिर ‘लज्जा’ कहां फरियाद करेगी? समय रहते इस महामारी का समुचित समाधान ढूंढ़ने और उसे कारगर रूप से लागू करने की मुख्य जिम्मेदारी निस्संदेह न्यायिक परिवार के मुखिया की है। देश की आधी आबादी बड़ी उत्सुकता और बेचैनी से निर्णायक फैसले और संपूर्ण न्याय के इंतजार में बाट जोह रही है। उसके धैर्य की परीक्षा नहीं ली जानी चाहिए।





Saturday, August 3, 2013

'औरत होने की सजा' (1994) का बीसवां साल

'औरत होने की सजा' (1994) का बीसवां साल.
More than 25 editions.
Translated in Punjabi in 2012 by Unistar Publications, Chandigarh.
http://books.google.co.in/books?id=09tJkQH_4-AC&printsec=frontcover&dq=aurat+hone+ki+saza&hl=en&sa=X&ei=IUHEUdavAoPnrAeYiIDIBg&ved=0CC0Q6AEwAA#v=onepage&q=aurat%20hone%20ki%20saza&f=fa

हंस विशेषांक 2000 'अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य'
लेख 'यौन हिंसा और न्याय की भाषा'- अरविन्द जैन

















स्त्री: मुक्ति का सपना
'वसुधा' का स्त्री विशेषांक 2004
संपादन अरविन्द जैन और लीलाधर मंडलोई

books.google.co.in
When law strips naked: justice(s) flees
(Outraging the modesty of women) ARVIND JAIN http://indianmuslimobserver.com/.../indian-muslim-news.../


indianmuslimobserver.com
Hon’ble Justice Fazal Ali and Sabyasachi Mukharjee rightly confessed that “Sometimes the law which is meant to import justice and fair play to the citizens or people of the country is so torn and twisted by a morbid interpretative process that instead of giving haven to the disappointed and dejected…

Aurat Hon Di Sazaa

"ਇਸ ਪੁਸਤਕ ਵਿਚ ਲਗਭਗ 37 ਲੇਖ ਹਨ ਭਿੰਨ-ਭਿੰਨ ਪੱਖਾਂ ਉਤੇ ਚਾਨਣਾ ਪਾਉਂਦੇ ਹੋਏ, ਕਾਨੂੰਨਾਂ ਦੀ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਪਰਿਭਾਸ਼ਾ ਸਥਾਪਿਤ ਕਰਦੇ ਹੋਏ, ਸਮਾਜ ਵਿਚ ਔਰਤ ਦਾ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਸਥਾਨ ਨਿਸਚਿਤ ਕਰਦੇ ਹੋਏ, ਗੁਲਾਮੀ ਦਾ ਹਰ ਰੂਪ ਦਰਸਾਉਂਦੇ ਹੋਏ। ਮਿਸਾਲ ਦੇ ਤੌਰ 'ਤੇ ਉਹੀ ਹੋਏਗਾ ਜੋ ਪੁਰਸ਼ ਚਾਹੇਗਾ, ਲਿੰਗ ਜਾਂਚ ਦੀ ਦੋਧਾਰੀ ਤਲਵਾਰ, ਬਾਲ ਵਿਆਹ ਕਾਨੂੰਨ 'ਚ ਛੇਦ, ਕੰਨਿਆਦਾਨ ਜ਼ਰੂਰੀ ਨਹੀਂ, ਕੰਮਕਾਜੀ ਔਰਤਾਂ ਦਾ ਯੌਨ ਸ਼ੋਸ਼ਣ, ਬਦਨਾਮੀ ਦਾ ਡਰ ਅਤੇ ਖਾਮੋਸ਼ੀ ਦੇ ਖ਼ਤਰੇ ਆਦਿ। ਇਹ ਹੀ ਨਹੀਂ, ਇਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ ਜੁੜੀਆਂ ਹਨ ਅਨੇਕਾਂ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਜੋ ਪਰਿਵਾਰਾਂ ਨੂੰ ਤੋੜ ਰਹੀਆਂ ਤੇ ਔਰਤ ਨੂੰ ਹੋਰ ਵਧੇਰੇ ਗੁਲਾਮ ਬਣਾ ਰਹੀਆਂ ਹਨ। ਲੇਖਕ ਨੇ ਕੁਝ ਵਿਸ਼ੇ ਅਜਿਹੇ ਵੀ ਉਲੀਕੇ ਹਨ-ਬਣਦੇ ਕਾਨੂੰਨ-ਟੁੱਟਦੇ ਪਰਿਵਾਰ, ਬੱਚੇ ਦਾ ਦਾਅਵਾ, ਬੱਚੇ ਉਤੇ ਮਾਂ ਦਾ ਅਧਿਕਾਰ, ਕੁੱਖ, ਕਾਨੂੰਨ ਅਤੇ ਕਰੂਰਤਾ, ਗੁਜ਼ਾਰਾ ਭੱਤੇ ਦੀ ਸਮੱਸਿਆ, ਦੂਜੀ ਔਰਤ ਹੋਣ ਦੀ ਸਜ਼ਾ, ਮਤਰੇਆ ਹੋਣ ਦਾ ਮਤਲਬ, ਆਤਮ-ਹੱਤਿਆ ਦਾ ਮੌਲਿਕ ਅਧਿਕਾਰ, ਅਸ਼ਲੀਲਤਾ-ਦੇਹ ਦੇ ਚੌਰਾਹੇ, ਦੁਰਾਚਾਰੀ ਕੌਣ, ਬਚਪਨ ਤੋਂ ਬਲਾਤਕਾਰ, ਗਰੀਬੀ ਚਰਿੱਤਰਹੀਣਤਾ ਹੈ, ਗ਼ੈਰ-ਕੁਦਰਤੀ ਯੌਨ ਸ਼ੋਸ਼ਣ, ਯੌਨ ਹਿੰਸਾ ਤੇ ਨਿਆਂ ਦੀ ਭਾਸ਼ਾ ਅਤੇ ਉਤਰਾਧਿਕਾਰ ਜਾਂ ਪੁੱਤਰ ਅਧਿਕਾਰ ਆਦਿ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਨੂੰ 
ਕਾਨੂੰਨ ਦੀਆਂ ਧਾਰਾਵਾਂ ਦੀਆਂ ਉਦਾਹਰਨਾਂ ਦੇ ਕੇ ਉਸ ਸੰਦਰਭ ਵਿਚ ਪੇਸ਼ ਕੀਤਾ ਹੈ।
ਕਾਨੂੰਨੀ ਨੁਕਤਿਆਂ ਦੀ ਚੀਰ-ਫਾੜ ਕਰਦੇ ਤੇ ਅਦਾਲਤੀ ਫ਼ੈਸਲਿਆਂ 'ਤੇ ਪ੍ਰਸ਼ਨ-ਚਿੰਨ੍ਹ ਲਾਉਂਦੇ ਇਹ ਲੇਖ ਪ੍ਰਮਾਣਿਕ ਖੋਜੀ ਦਸਤਾਵੇਜ਼ ਹਨ।
ਲੇਖਕ ਨੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਲੇਖਾਂ ਨੂੰ ਪ੍ਰਮਾਣਿਕਤਾ ਸਹਿਤ ਪੇਸ਼ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਕਾਨੂੰਨੀ ਬਾਰੀਕੀਆਂ ਨੂੰ ਸਰਲ, ਸੰਖੇਪ ਤੇ ਸਹਿਜ ਭਾਸ਼ਾ ਵਿਚ ਹੀ ਪੇਸ਼ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ, ਬਲਕਿ ਰੌਚਕਤਾ ਤੇ ਕਹਾਣੀ ਰਸ ਦੀ ਪੁੱਠ ਵੀ ਦਿੱਤੀ ਹੈ।"

-ਡਾ: ਜਗਦੀਸ਼ ਕੌਰ ਵਾਡੀਆ 

ਮੋ: 98555-84298


Monday, April 22, 2013

बलात्कारियों को फांसी देंगें.. अभी नहीं... कभी नहीं....

बलात्कारियों को फांसी देंगें.. अभी नहीं... कभी नहीं....

शराब, ड्रग्स,पोर्नोग्राफी, छोटे पर्दे से बड़े पर्दे तक पसरी अश्लीलता, विज्ञापनों में नग्न-अर्धनग्न औरतें और अपराधियों को मिले राजनीतिक संरक्षण से समाज में खौफनाक कामुक, उतेजक और हिंसक माहौल बना-बनाया गया है, उसमें यौनहिंसा होना अनहोनी नहीं है। जब कानून 'नपुंसक' , पुलिस भ्रष्ट, न्याय प्रहरी असंवेदनशील, समाज आत्मकेंद्रित और पारिवारिक सम्बन्ध भयंकर शीतयुद्ध की चपेट में हों, तो अबोध बच्चों की सुरक्षा कैसे संभव होगी? पिछले कई सालों से बच्चियों से बलात्कार के मामलों में मध्य प्रदेश सबसे आगे रहता है- क्या हमने कभी सोच-विचार किया कि क्यों? १ ५ से २ ० साल तक अदालती फैसलों के इंतजार का मतलब क्या घोर अंधेर नहीं? बलात्कारियों को फांसी देंगें.... अभी नहीं... कभी नहीं.....I बहस करना बेकार है।

Saturday, April 20, 2013

स्त्री के विरुद्ध हिंसा-यौन हिंसा

20.3.2013 के राष्ट्रीय सहारा, आधी दुनिया के पहले पन्ने पर कविता कृष्णन के लेख "18 पर फिर वापसी" में छपा है "मालूम हो कि भारत में सहमती की उम्र 1983 से लेकर अभी कुछ महीनें पहले तक 16 वर्ष ही थी"। सादर सम्मान सहित- शुक्र है आपने देश के कानून मंत्री की तरह यह नहीं कहा कि भारत में सहमती की उम्र 1860 से ही 16 वर्ष है।

उल्लेखनीय है कि 1860 में सहमती की उम्र सिर्फ 10 साल थी जो 1891 में 12 साल, 1925 में 14 साल और 1949 में 16 साल की गई थी। 1949 के बाद इस पर कभी कोई विचार ही नहीं किया गया। अध्यादेश (3.2.2013) में इसे 16 से बढ़ा कर 18 किया गया था। नए विधेयक में जो किया जा रहा है, वो आपको सामने है। 

विवाह के लिए लड़की की उम्र 18 साल होनी चाहिए मगर 18 से कम होने पर भी विवाह "गैरकानूनी" नहीं माना-समझा जाता और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अपवाद अनुसार "15 वर्ष से अधिक उम्र की पत्नी के साथ यौन संबंध किसी भी स्थिति में बलात्कार नहीं है"।
दांपत्य में यौन संबंधों के बारे में सदियों पुरानी सामंती सोच और संस्कार में कोई बदलाव नहीं हो पा रहा।कविता जी तो वैवाहिक बलात्कार पर बहुत बोलती हुई सुनाई देती थी। मालूम नहीं अब क्यों 'मौनव्रत' धारण कर लिया है। 

सवाल यह है कि क्या ऐसे ही कानूनों से रुकेगा 'बाल विवाह', 'बाल तस्करी', 'बाल वेश्यव्रती' और स्त्री विरोधी हिंसा-यौन हिंसा? वैधानिक प्रावधानों में अंतर्विरोधी और विसंगतिपूर्ण 'सुधारवादी मेकअप' से, स्त्री के विरुद्ध हिंसा-यौन हिंसा, कम होने की बजाये बढ़ी है, बढती रही है और बढती रहेगी। 

कविता जी देश के नागरिक हमेशा " याद रखें (गे) कि यह विधेयक सिर्फ महिलों के संघर्ष का परिणाम है"। निश्चित ही, महिलाओं के मुद्दों पर नारी समुदाय की राय ही अहम है। मर्दों की कोई भूमिका नहीं हो सकती - सिवा विरोध-प्रतिरोध के।

Murderer is disqualified from inheriting

The Hindu succession Act, 1956 Section 25 has laid down that Murderer is disqualified from inheriting the property of the person murdered.
"A person who commits murder or abets the commission of murder shall be disqualified from inheriting the property of the person murdered, or any other property in furtherance of the succession to which he or she committed or abetted the commission of the murder".
SO WHY THE PERSONS MURDER THEIR PARENTS?

क्या इन्साफ में देर का मतलब- अंधेर नहीं?


फरवरी १९ ९ ६ में ७-८ साल की गूंगी-बहरी लड़की के साथ बलात्कार हुआ। 
नवम्बर १ ९ ९ ९ में निचली अदालत ने दस साल कैद और जुर्माना की सजा दी। 
१ ९ ९ ९ में हाईकोर्ट में अपील दाखिल हुई। 
अप्रैल २० १ ३ में हाईकोर्ट ने १ ३ साल बाद अपील रद्द करते हुए,
अपराधी को एक हफ्ते में सरेंडर करने का आदेश दिया है। 
जाहिर है अपराधी जमानत पर छुटा हुआ है।
बलात्कारी अभी सुप्रीम कोर्ट में भी अपील दायर कर सकता है।
फैसला होने में १८ साल तो लग ही चुके हैं।
यहाँ पर सवाल बहुत से आ खड़े हुए हैं।
अपराधी ने एक हफ्ते में सरेंडर नहीं किया तो?
इन्साफ में इस देरी को क्या कहा जाए?
अदालतों को 'हाई फ़ास्ट ट्रैक' पर कैसे डाला जाये?

Monday, February 25, 2013

दाम्पत्य में 'बलात्कार का लाइलेंस' असंवैधानिक है

अरविन्द जैन नवभारत टाइम्स (13 फरवरी 2013) में प्रकाशित मीनाक्षी लेखी का लेख "बेतुकी है दांपत्य में बलात्कार पर कानून बनानें की मांग" पढ़ कर कोई ख़ास हैरानी-परेशानी नहीं हुई। सब जानते हैं कि मीनाक्षी लेखी 'सुप्रीम कोर्ट की चर्चित वकील' ही नहीं, आजकल मीडिया में भारतीय जनता पार्टी की चर्चित प्रवक्ता भी हैं। मैं इस लेख के माध्यम से, ससम्मान उनके विचारों से अपनी असहमति और विरोध प्रकट करता हूँ और पाठकों को कानूनी वस्तुस्थिति से भी अवगत करना चाहता हूँ। मीनाक्षी का कहना है कि दांपत्य में बलात्कार को 'भारतीय यथार्थ' के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए हालाँकि 'प्रामाणिक आंकड़े' उपलब्ध नहीं हैं, सो 'ठोस बहस' करना बहुत मुश्किल है। मगर इसके बावजूद उनका स्पष्ट निर्णय है कि "दांपत्य में बलात्कार को अपराध घोषित करने से असंतुष्ट और प्रतिशोधी पत्नियों की पौ बारह हो जाएगी"। एक तरफ उनका कहना-मानना है कि “हम दांपत्य में बलात्कार की संभावना को खारिज नहीं कर रहे हैं। ना ही इस अपमानजक कृत्य की अनदेखी कर रहे हैं”। मगर थोड़ी ही देर में बताना-सिखाना शुरू कि “पति द्वारा जबरन बनाए गए संबंध को अपराध घोषित करना महिलाओं के हित में नहीं है। यह परिवार या समाज जैसी संस्थाओं की चूलें हिला सकता है”। समझ नहीं आ रहा कि प्रखर प्रवक्ता के विचारों में यह कौन 'सूत्रधार' बोल रहा है? दांपत्य में बलात्कार संबंधी कानूनी प्रावधानों की चर्चा किये बगैर 'ठोस बहस' कैसे संभव है? उल्लेखनीय है कि जनता पार्टी के राज (1978) में जब बाल विवाह रोकथाम अधिनियम,1929 और हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में संशोधन किया गया, तो लड़की की शादी की उम्र 15 साल से बढ़ाकर 18 साल निर्धारित की गई। लेकिन देश के ‘योग्य नौकरशाह’ और ‘महान नेता’, भारतीय दंड संहिता की धाराओं में संशोधन करना ही 'भूल' गए। बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के मुताबिक, किसी भी लड़की की शादी की उम्र 18 साल और लड़के की उम्र 21 साल होना अनिवार्य है। 18 साल से कम उम्र की लड़की की शादी 21 साल से कम उम्र के लड़के के साथ कराना दंडनीय अपराध है और दो साल का सश्रम कारावास या एक लाख रुपये तक का आर्थिक दंड या फिर दोनों हो सकते हैं। मगर शादी के वक्त यदि लड़के की उम्र 18 साल से कम है, तो इसे अपराध ही नहीं माना जाता। 3 फरवरी 2013 से लागू अपराधिक संशोधन अध्यादेश, 2013 से पहले, बिना सहमति के किसी औरत के साथ यौन संबंध स्थापित करना या 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ (सहमति के साथ भी) संबंध स्थापित करना बलात्कार की श्रेणी में आता था। हालांकि, 15 साल से अधिक उम्र की अपनी पत्नी के साथ जबर्दस्ती किया गया यौन संबंध बलात्कार नहीं माना जाता रहा है। भारतीय दंड संहिता की धारा-376 के अनुसार किसी महिला के साथ बलात्कार करने वाले को आजीवन कारावास की सजा दी सकती थी/है लेकिन यदि पति 12 से 15 साल की अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करता तो अधिकतम सजा दो साल की जेल या जुर्माना या दोनों हो सकती थे। बलात्कार संज्ञेय और गैर जमानती अपराध था, लेकिन 12-15 साल की उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार संज्ञेय अपराध नहीं माना जाता था और जमानत योग्य अपराध था । 15 साल से कम उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार का मामला हो, तो पुलिस कोई भी कार्रवाई नहीं कर सकती थी और गरीब नाबालिग लड़की को खुद ही कोर्ट का दरवाजा खटखटाना और मुकदमे के दौरान काफी कठिन प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। हिन्दू अल्पवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा-6 सी, में आज भी यह हास्यास्पद प्रावधान मौजूद है कि "विवाहित नाबालिग लड़की का संरक्षक उसका पति होता है" भले ही पति और पत्नी दोनों ही नाबालिग हों। अध्यादेश में बलात्कार को अब ‘यौन हिंसा’ माना गया है और सहमती से सम्भोग की उम्र 16 साल से बढ़ा कर 18 साल कर दी गई है, जबकि धारा 375 के अपवाद में पत्नी की उम्र 15 साल से बढ़ा कर 16 साल की गई है। 16 साल से कम उम्र की पत्नी से बलात्कार के मामले में अब सजा में कोई ‘विशेष छूट’ नहीं मिलेगी। अध्यादेश जारी करते समय सरकार ने वैवाहिक बलात्कार संबंधी न तो विधि आयोग की 205वी रिपोर्ट की सिफारिश को माना और न ही वर्मा आयोग के सुझाव। भारतीय विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि “भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद को खत्म कर दिया जाना चाहिए"। अध्यादेश के बाद अब भी भारतीय दंड संहिता की धारा-375 का अपवाद, पति को अपनी 16 साल से बड़ी उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार करने का कानूनी लाइसेंस देता है, जो निश्चित रूप से नाबालिग बच्चियों के साथ मनमाना और विवाहित महिला के साथ कानूनी भेदभावपूर्ण रवैया है। यह दमनकारी, भेदभावपूर्ण कानूनी प्रावधान संविधान के अनुच्छेद-14, 21 में दिए गए विवाहित महिलाओं के मौलिक अधिकारों ही नहीं बल्कि मानवाधिकारों का भी हनन है। परिणाम स्वरूप शादीशुदा महिलाओं के पास चुपचाप यौनहिंसा सहन करने, बलात्कार की शिकार बने रहने या फिर मानसिक यातना के आधार पर पति से तलाक लेने या घरेलु हिंसा अधिनियम के आधीन कोर्ट-कचहरी करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। वैवाहिक जीवन में बलात्कार की सजा से छूट के कारण भारतीय शादीशुदा महिलाओं की स्थिति ‘सेक्स वर्कर’ और ‘घरेलू दासियों’ से भी बदतर है, क्योंकि सेक्स वर्कर को ना कहने का अधिकार है परन्तु शादीशुदा महिला को नहीं है।


मीनाक्षी लेखी जिसे "और भी हैं रास्ते" बता रही हैं, क्या वो कागची 'विकल्प' मौलिक अधिकारों की बराबरी कर सकते हैं ? इकिस्वीं सदी के किसी भी सभ्य समाज में पति को पत्नी के साथ बलात्कार/ यौनहिंसा के कानूनी लाइसेंस की वकालत करना, सचमुच "बलात्कार की संस्कृति" को बढ़ावा देना ही कहा जायेगा। परंपरा, संस्कृति, संस्कार, रीति-रिवाजों और रूढ़िवादियों व धर्मशास्त्रियों द्वारा बनाए गए नियमों के आधार पर, वैवाहिक बलात्कार को कभी भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। कोई भी धर्म वैवाहिक बलात्कार का समर्थन नहीं करता। डायना इ एच रसेल ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक "रेप इन मैरिज" (1990) में कितना सही लिखा है "वैवाहिक जीवन में बलात्कार को पति के विशेषाधिकार के रूप में देखते जाना अपमानजनक ही नहीं, दुनिया की तमाम औरतों के लिए खतरा भी है” बताने की जरूरत नहीं कि 1991 में आर. बनाम आर. (रेप : वैवाहिक छूट) मामले में हाउस ऑफ लॉर्डस के मुताबिक, ‘कोई भी पति अपनी पत्नी के साथ बिना सहमति के यौन संबंध बनाने पर अपराधी हो सकता है, क्योंकि पति और पत्नी दोनों समान रूप से शादी के बाद जिम्मेदार होते हैं। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता कि शादी के बाद सभी परिस्थितियों में पत्नी यौन संबंध बनाने के लिए खुद को पेश करेगी या मौजूदा शादी के बाद सभी हालातों में पत्नी यौन संबंध बनाने के लिए राजी हो।’ पीपुल्स बनाम लिब्रेटा मामले में न्यूयार्क की अपील कोर्ट ने कहा कि बलात्कार और वैवाहिक जीवन में बलात्कार के बीच अंतर करने का कोई औचित्य नहीं है और विवाह किसी पति को अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करने का लाइसेंस नहीं देता। कोर्ट ने न्यूयार्क के उस कानून को असंवैधानिक करार दिया जिसने वैवाहिक बलात्कार को अपराध ना मानने की छूट दे रखी थी।’ नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने घोषित किया कि पत्नी की सहमति के बिना वैवाहिक सेक्स बलात्कार के दायरे में आएगा। यह भी कहा गया कि धार्मिक ग्रंथों में भी पुरुषों द्वारा पत्नी के बलात्कार की अनदेखी नहीं की है। कोर्ट ने यह भी कहा कि हिन्दू धर्म में पति और पत्नी की आपसी समझ पर जोर दिया गया है। दुनिया के करीब 76 देशों में वैवाहिक बलात्कार दंडनीय अपराध के तौर पर घोषित हो चुका है जबकि भारत सहित पांच देशों में वैवाहिक बलात्कार को अपराध तब माना जाता है, जब कानूनी तौर पर दोनों एक-दूसरे से अलग रह रहे हों। 'परिवार की पवित्रता' की दुहाई देते हुए मीनाक्षी कह रही हैं कि "दांपत्य में बलात्कार कानून की मांग से पुरुष समाज भी डरा हुआहै। विवाह और परिवार जैसी संस्थाओं को बदनाम करके इन संस्थाओं की पवित्रता को खतरे में नहीं डालाजा सकता"। पुरुष समाज क्यों डरा हुआ है ? विवाह और परिवार जैसी संस्थाओं की पवित्रता को किसने खंडित किया? इसके लिए जिम्मेवार वो बलात्कारी पिता-पति-पुत्र हैं, जिनके कारण संबंधों की किसी भी छत के नीचे स्त्री सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रही। पता नहीं 'परिवार की पवित्रता', नैतिकता, मर्यादा और आदर्श भारतीय नारी के धार्मिक उपदेशों से हिंदुस्तान की स्त्री को कब और कैसे मुक्ति मिलेगी? नेहरु जी के शब्दों में " हम हर भारतीय स्त्री से सीता होने की अपेक्षा करते हैं, मगर पुरुषों से मर्यादा पुरषोतम राम होने की नहीं"। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि सदियों पुराने संस्कारों की सीलन- आखिर कब और कैसे समाप्त होगी? कैसे अंत हो स्त्री उत्पीड़न की राजनीति का? क्या हम वास्तव में मौजूदा मर्दवादी कानूनों से, महिलाओं के खिलाफ लगातार बढती हिंसा-यौनहिंसा-घरेलू हिंसा को रोकना चाहते हैं या तथाकथित महान भारतीय सभ्यता, संस्कृति और धार्मिक परंपराओं की आड़ में, महिलाओं का शोषण, उत्पीड़न, दमन और यौनहिंसा ज़ारी रखना चाहते हैं?