Thursday, August 14, 2014

औरत: आज़ाद होने का अर्थ?


स्वाधीनता दिवस- 15 अगस्त,2014 
                          
प्रिय पुत्र प्रिंस’/शुभाशीर्वाद
 
स्वतंत्रता दिवस के बहाने, जन्मदिन पर शुभकामनाओं के लिए आभारी हूं। मैं सचमुच नहीं जानती-समझती कि तुमने क्या सोच कर लिखा है- माई डियर मदर इंडिया! मैं अंगूठा छापऔरत- मदर इंडिया’! नहीं..नहीं.., नहीं हो सकती मदर इंडिया! सच तो यह है कि मैं, सिर्फ तुम्हारी अभागी मां ही बनी रही। अगर निष्पक्ष होकर सोचूं- कहूं तो मैं केवल ‘गांधारी’ से बेहतर नहीं बन-बना सकी अपने आपको काश! 'मदर इंडिया' होती और अपने तमाम हत्यारे, बलात्कारी, भ्रष्टाचारी, दुराचारी, निकम्मे और दुष्ट बेटों को गोली मार देती, काश!

स्वाधीनता और जन्म दिवस के ऐसे शुभ अवसरों पर, हम औरतों को भी राष्ट्र की आर्थिक समृद्धि, सामाजिक कल्याण, सुख-शांति और न्याय की भावी योजनाओं, कल्पनाओं और सरकारी घोषणाओं के बारे में ही विचार-विमर्श करना चाहिए। करना चाहिए, इसीलिए तो 67 साल करते रहे उम्मीद कि एक दिन, हम भी आजाद होंगे और हमें भी मिलेंगे बराबर कानूनी हक, सामाजिक मान-सम्मान, आर्थिक आत्म-निर्भरता और राजनीतिक सत्ता में समान भागेदारी। हम चुप रहे अब तक मगर अब देश के हालात और औरतों की दयनीय स्थिति-नाकाबिले बर्दाश्त हो चुकी है। चाहो तो इसे अग्रिम चेतावनी या चुनौती भी समझ सकते हो।

1947 की आधी रात, जब सारी दुनिया सो रही थी और देश जीवन और आजादी के लिए जाग रहा था, उसी समय तुम्हारी नानी मुझे जन्म देकर, कोख के भार से मुक्त हुई थी। लेकिन मुझे या मुझ जैसी करोड़ों अबलाओंको कोख से कब्र तक, न जाने कब छुटकारा मिलेगा। मिलेगा भी या नहीं। 67 साल से दमित, शोषित और पीड़ित आत्माओं की चीत्कार, न संसद को सुनाई देती है और न ही सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच पाती है। इसे 'आधी दुनिया' का दुर्भाग्य कहूं या अपने ही पिता-पति और पुत्र का सुनियोजित षड्यंत्र?
क्या हुआ हर आंख से आंसूपोंछने वाले, बापू और उनके सपने का? क्या आज भी हर औरत की आंखों में आंसू और आंचल में असहनीय कष्ट और पीड़ा मौजूद नहीं है? कहां गये सपनों को यथार्थ में बदलने के वायदे, पद ग्रहण के समय ली गई शपथ, संविधान द्वारा घोषित मौलिक और मानवीय अधिकार या हर पांचवें साल, आम चुनावों के समय किये गए वायदे और घोषणाएं
गरीबपुरा से लेकर देश की राजधानी तक, है कोई ऐसा गांव, शहर या महानगर, जहां स्त्रियां हिंसा और यौन हिंसा की शिकार न हो रही हों? हर दिन..हर घंटे..हर मिनट! राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आधे-अधूरे आंकड़े भी, क्या किसी माई के लालको दिखाई नहीं देते! 

लाखों महिलाओं को मौत के घाट उतारा जा चुका है और न्याय या कानून-व्यवस्था से आम औरतों ही नहीं, आदमियों का भी भरोसा उठता जा रहा है। लगता है किसी दिन, कागजी कानून की विशाल इमारतें अपने ही भार तले दब जायेंगी, बशर्ते कि समय रहते इन जर्जर संस्थाओं की ठीक से ‘मरम्मत’ नहीं की गई। मैं तो अब भी आशा और उम्मीद करती हूं कि हमारी मंगल कामनाओं के साथ, राष्ट्र के प्रहरीविश्वासघात न करें। जो हुआ सो हुआ.. अब और नहीं। अब तुम्हें क्या-क्या और कैसे बताऊं- समझाऊं कि हम (दलित) महिलाओं को आए दिन, कहीं न कहीं निर्वस्त्र घुमाया जाता है, जिंदा जलाया जाता है, रिपोर्ट करो तो धमकाया जाता है, जबरन वेश्या बनाया जाता है, धर्म के नाम पर बहलाया- फुसलाया जाता है, बेटियों को गर्भ में ही मरवाया जाता है, भेड़-बकरियों की तरह खरीदा-बेचा जाता है, खाप पंचायतों के आदेश-अध्यादेश पर प्रेमी युगलों को पेड़ों पर लटकाया जाता है.....फांसी चढ़ाया जाता है।

भ्रूणहत्या से लेकर सती तक बने-बनाये गये कानून, स्त्री हितों की रक्षा-सुरक्षा कम, आतंकित अधिक करते हैं, ‘रमीजा बीअब भी बलात्कार (सामूहिक) का शिकार हो रही है, तो मथुराऔर सुमन रानीखाकी वर्दी वालों की हवस को शांत कर रही हैं। देवराला सतीकांड के तमाम हत्यारे बाइज्जत बरी कर दिये गये हैं। ‘निर्भया’ के हत्यारों की फाँसी पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा राखी है, इंसाफ की आस में औरतों की चीखती-चिल्लाती-भटकती आत्माएं, सालों से कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रही हैं। जिन्दा औरतें अपने ही घरों में असुरक्षित हैं, ‘अपना घरबेटियों के यौन शोषण-उत्पीड़न का अड्डा बना है और आशा किरणमें अंधेरे पसरे पड़े हैं।

फिजाअपने ही घर में मरी हुई पाई गई और गीतिकाने आत्महत्या करना बेहतर समझा। बहुएं दहेज की बलिवेदी पर और बेटियां तेजाब काण्ड या गैंगरेप के दुष्चक्र में मर-खप रही हैं। अपराधी (अग्रिम) जमानत पर, छुट्टे घूम रहे हैं। ऐसे हत्यारे और दहशतजदा माहौल में, आजाद देश की औरतों को गुलामों से बेहतर नहीं कहा जा सकता। हां! शिक्षित-समृद्ध-साधन-सम्पन्न और कुछ अति-आधुनिक शहरी औरतें, इससे थोड़ा अलग मानी-समझी जा सकती हैं, जिनकी पहुंच ऊपर तकहै। मैं तो सिर्फ देश की उन आम औरतों की बात कर रही हूं, जिनकी व्यथा-कथा सुनने वाला कोई नहीं। राष्ट्रीय महिला आयोग और महिला संगठनों से लेकर राष्ट्रीय मीडिया तक।

अयोध्या-गोधरा से कुरुक्षेत्र तक, हर खुदाई में मिलेंगे स्त्री कंकाल ही। इन सब पर सोचने-समझने पर घोर घृणा भी हो रही है और पश्चात्ताप भी। पैदा होते ही ऐसे विषधरों का गला, क्यों न घोंट दिया माताओं ने। अब तो प्रायश्चित भी, असंभव-सा लगने लगा है। 67 साल की यह बूढ़ी मां क्या करेगी? अफसोस कि तमाम प्रतिभाशाली और क्रांतिकारी बेटे-बेटियां, जो सचमुच स्वाधीनता संघर्ष के दौरान बुने सपनों को साकार कर सकते थे या जिनमें देश की नियति बदलने की सारी संभावनाएं मौजूद थीं, सत्ता संस्थानों ने खरीद लिए, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पूंजी की गुलामी करने लगे या पेशेवर दलाल हो गये। कुछ ने सपनों के स्वर्ग अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैंड या कहीं और जाकर आत्महत्याकर ली। 
जिनके बस का यह सब करना नहीं था, वो फर्जी मुठभेड़में मारे गये या फिर अराजक जीवन की शराब पीते-पीते एक दिन, खून की उल्टियां करते हुए मिले। ऐसी विश्वासघाती और आत्मघाती होनहार पीढ़ियों को या राष्ट्र कर्णधारों को, यह बूढ़ी मां क्या कहे, कैसे कहे- आजादी मुबारकहो। मुझे माफ करना पुत्र! यह सब लिखने के लिए।

तुमको मैं कुछ कहना ही नहीं चाहती थी, कभी कहा भी नहीं। सारी उम्र तुम्हारे नाम की, कभी सौंगध तक नहीं उठाई। पता नहीं क्यों, अब चुप रहना-सहना मुमकिन नहीं। स्वाधीनता दिवस की पूर्व-संध्या पर, राष्ट्रपति का राष्ट्र के नाम संदेशसुनते-सुनते और लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के भाषण में दिखाये सब्ज बागों से कान पक गये हैं। दुख तो यह भी है कि महिला प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, गवर्नर, सुप्रीम और हाईकोर्ट की न्यायमूर्तियां और अन्य सांसद, मंत्री, अफसर वगैरह के होने के बावजूद, हम आम औरतों के हालात बद से बदतर होते गये हैं।
कुर्सी मिलते ही औरत, औरत नहीं रहती, सत्ता के इशारे पर नाचने वाली गुड़ियाबन जाती है, गुड़िया। राजपथ पहुंचते ही सब भूल जाते हैं कि दुर्गा पूजापर घर भी जाना है, जहां यह बूढ़ी मांसालभर इंतजार करती रहती है। तुमने जाने-अनजाने मालूम नहीं कितने पुराने घाव, हरे-भरे कर दिये बेटा! किसी की लिखी दो लाइनें, रह-रहकर याद आ रही हैं-
  
“मां-बाप बहुत रोए, घर आ के अकेले में, मिट्टी के खिलौने भी, सस्ते न थे मेले में”


खैर..छोड़ो देश-दुनिया की बातें। सबसे पहले तो यह बताओ कि तुम और तुम्हारा घर-परिवार कैसा है? बहू रानी मस्त होंगी। बेटे, पोते कैसे हैं? बड़े वाले की बहू की, तो शक्ल तक न देखी। पोतों को भी, फोटो में ही देखा था सालों पहले। सुना था कि तुमने शानदार कोठी खरीद ली है। चलो, अच्छा है, बढ़िया है, खुश रहो, खुशहाल रहो। अब तो हम सब, ग्लोबल विलेजमें ही रहते हैं ना! सुना है कि देशों की सीमा-रेखाएं समाप्त हो गई, पर क्या सच में कभी होंगी? याद रखना कि तुम हिन्दुस्तानीहो। जरूरत पड़ने पर सबसे पहले, तुम्हें ही देखा-परखा-पहचाना और खदेड़ा जाएगा।
हां! मैंने अपनी वसीयत रजिस्ट्रेडकरवा दी है। मृत देह अस्पताल को और चल-अचल सम्पत्ति, ‘राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान’ के नाम कर दी है। 

बहुत-बहुत स्नेह सहित
तुम्हारी मां उर्फ मदर इंडिया

Saturday, August 9, 2014

इंसाफ़ की तलाश में स्त्री





Thursday, August 7, 2014

औरत होने की सजा :अरविन्द जैन 
http://books.google.co.in/books?id=09tJkQH_4-AC&printsec=frontcover&dq=aurat+hone+ki+saza&hl=en&sa=X&ei=IUHEUdavAoPnrAeYiIDIBg&ved=0CC0Q6AEwAA#v=onepage&q=aurat%20hone%20ki%20saza&f=true

न्याय व्यवस्था में दहेज़ का नासूर

दहेज उत्पीड़न विरोधी कानून की मूल विडंबना है कि यह स्त्रियों को सुरक्षा कम देता है, आतंकित और भयभीत ज्यादा करता है. आज तक इसका लाभ, वास्तविक पीड़िताओं को कम ही मिल पाया है. ईमानदारी से कहूँ तो साफ़ तौर पर कारण यह है कि कानून की भाषा में दहेज़ माँगना, लेना या देना किसी भी तरह ‘अपराध’ नहीं है, दहेज़ हत्या ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ मामला नहीं, दहेज़ उत्पीड़न ‘मृत्यु से ठीक पहले’ होना सिद्ध करो और अब दहेज़ अपराधियों की गिरफ्तारी पर भी रोक या अंकुश. नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में हर घंटे एक महिला दहेज हत्या का शिकार हो रही है लेकिन दहेज प्रताड़ना के अधिकाँश मामले तो दर्ज ही नहीं होते. कानूनी जाल-जंजाल या समाज में बदनामी के भय से, उत्पीड़ित महिलाएं सामने नहीं आतीं और घुट-घुटकर जीती-मरती रहती हैं. इस सब के बावजूद देश की सब से बड़ी अदालत का कहना है कि महिलाएं कानून का ‘नाजायज इस्तेमाल’ ढाल की बजाय, हथियार के तरह कर रही हैं. सच यह है कि इस देश में बहुत से कानून हैं, मगर महिलाओं के लिए कोई कानून नहीं है और जो हैं वो अंततः स्त्री विरोधी हैं.

दहेज कानून का ‘दुरुपयोग’: गिरफ़्तारी पर अंकुश

2 जुलाई 2014 को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति चंद्रमौली कुमार प्रसाद और पिनाकी चन्द्र घोष की खंड पीठ ने, अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य  ( क्लिक करे) के मामले में दहेज कानून का ‘दुरुपयोग’ रोकने के लिए महत्वपूर्ण व्यवस्था दी है. सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि जिन मामलों में 7 साल तक की सजा हो सकती है, उनमें गिरफ्तारी सिर्फ इस आधार पर नहीं की जा सकती कि आरोपी ने वह अपराध किया ही होगा.
गिरफ्तारी तभी की जाए, जब पर्याप्त सबूत हों, आरोपी की गिरफ्तारी ना करने से जांच प्रभावित हो, और अपराध करने या फरार होने की आशंका हो. अदालत के निर्देश यह भी हैं कि दहेज मामले में गिरफ्तारी से  पहले केस डायरी में कारण दर्ज करना अनिवार्य होगा, जिस पर मजिस्ट्रेट जरूरी समझे तो गिरफ्तारी का आदेश दे सकता है. इस आदेश की अनदेखी करने पर अधिकारी के विरुद्ध विभागीय कार्रवाई की जानी चाहिए. माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश जारी किया है कि दहेज उत्पीड़न के मामलों में भी आरोपी को बहुत जरूरी होने पर ही  गिरफ्तार किया जाना चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498 ए या दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम की धारा 4 तक ही सीमित नहीं है, बल्कि ऐसे सभी मामलों के लिए है जिनमे अपराध की सजा सात वर्ष से कम हो या अधिकतम सात साल तक हो. उल्लेखनीय है कि इस निर्णय द्वारा पति के सम्बन्धियों को भी ‘रक्त-विवाह और गोद संबंधों’ तक ही सीमित कर दिया गया है. शेष किसी सम्बन्धी के खिलाफ मामला नहीं चल सकता.

सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर से महिलाओं द्वारा दहेज़ कानून के ‘दुरूपयोग’  पर ‘गहरी चिंता’ जताते हुए कहा है कि यह कानून बनाया तो इसलिए गया था कि महिलाओं को दहेज़ प्रताड़ना से बचाया जा सके, परन्तु कुछ औरतों ने इसका ‘नाजायज इस्तेमाल’ किया और दहेज उत्पीड़न की झूठी शिकायतें दर्ज कराईं हैं. उल्लेखनीय है कि यह सर्वोच्च न्यायालय का ऐसा पहला या आखिरी निर्णय नहीं है, जिसे किसी न्यायमूर्ति विशेष का पूर्वग्रह या दुराग्रह मान-समझ कर नज़र अंदाज़ किया जा सके. हिंसा, यौन-हिंसा, घरेलू  हिंसा से लेकर सहजीवन में सहमति के संबंधों तक पर, उच्च न्यायालयों समेत और भी न्यायालय विवादस्पद सवाल उठा चुके हैं. दहेज़ कानूनों से परेशान ‘पति बचाओ’ या ‘परिवार बचाओ’ आन्दोलन भी सक्रिय है.

कानून अधिकार या हथियार?


सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के ‘दुरुपयोग’ पर दिशा-निर्देश महिला संगठनों को बेहद चौंकाने वाले हैं. विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में ही स्त्रियों द्वारा दहेज़ कानूनों का ‘दुरूपयोग’ किया जा रहा है या पुलिस-अभियोग पक्ष की कमजोरियों के कारण सजा नहीं हो पाती ? क्या अपराधियों को गिरफ्तारी में असीमित छूट से पुलिस की निरंकुशता और भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं मिलेगा? सही है कि स्त्री-पुरुष के लिए एक जैसा होना चाहिए, मगर क्या दोनों की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थिति समान है? यह भी सही है कि निर्दोष की अविवेकपूर्ण गिरफ़्तारी या सजा नहीं होनी चाहिए, परन्तु यह काम तो पुलिस अधिकारी का है ना कि जांच-पड़ताल से पता लगाए- कौन-कौन अपराध में शामिल थे या नहीं थे? न्याय व्यवस्था का मूल सिद्धांत ही है कि भले ही ‘हजारों निर्दोष छूट जांए, पर किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए.’ ‘न्यायिक बुद्धिमता’ और ‘विवेक’ के कैसे-कैसे सिद्धान्त गढे-मढे जा रहे हैं, जो सचमुच अन्याय, शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ उठने वाली हर आवाज़ का गर्भ में ही गला घोंट देना चाहते हैं. 

हम क्यों और कैसे भूल जाते हैं कि दहेज अपराध में सजा की दर इसलिए भी बेहद कम है कि अपराध घर की चारदीवारी के भीतर होते हैं, जिनके पर्याप्त सबूत नहीं होते या नहीं हो नहीं सकते. कौन देगा ‘बहू’ के पक्ष में गवाही? ऊपर से कानून में इतने गहरे गढ्ढे हैं, कानून के रखवाले भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं, साधन-संपन वर्ग में दहेज के चलन का पहले से अधिक बढ़ा है, कानून ऊपरी तौर पर बेहद प्रगतिशील दिखते हैं पर दरअसल बेजान और नख-दन्त विहीन हैं. कहा यह जा रहा है कि महिलाएं कानून का ‘नाजायज इस्तेमाल’ हथियार के तरह कर रही हैं, ना कि ढाल के रूप में. कानून अगर हथियार ही है तो क्या सिर्फ महिलाएं ही इसका ‘नाजायज इस्तेमाल’ कर रही हैं? बाकी कानूनों के ‘दुरूपयोग’ और बढ़ते अपराधों के बारे में, आपका क्या विचार है?
सजग और चेतना संपन्न महिलाएं पूछ रही हैं “कहीं दहेज़ कानून के ‘दुरूपयोग’ की आड़ में असली मकसद, उन सत्ताधीशों, उच्च पदों पर आसीन अफसरों, संपादकों और भूत-पूर्व अपराधियों को बचाना तो नहीं- जिन पर गंभीर यौनाचार, शोषण या उत्पीड़न के आरोप लगते रहे (रहते) हैं.” निश्चय ही यह ‘ऐतिहासिक फैसला’ मेरे देश की ‘आधी आबादी’ को ‘कटघरे’ में खड़ा करके, स्वयं बहुत से संदेहास्पद सवालों में घिरा नज़र आता है. संदेह की सुई ना जाने कहाँ जा कर टिकेगी.  

दहेज़ माँगना, लेना या देना ‘अपराध’ नहीं

निस्संदेह दहेज़ विरोधी कानून तो 1961 में ही बन गया, लेकिन इस पर लगाम लगने की बजाय, समस्या निरंतर जटिल और भयंकर होती गई. इसलिए 1983 में संशोधन करके भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498A जोड़ा गया, साक्ष्य अधिनियम में बदलाव किये. कारण कानून की भाषा में दहेज़ माँगना, लेना या देना किसी भी तरह ‘अपराध’ नहीं माना-समझा गया. परिणाम स्वरुप दहेज़ उत्पीड़न और दहेज़ हत्याओं के आंकड़े, साल-दर-साल बढ़ते ही चले गए और आज तक दहेज़ हत्या किसी भी मामले में फाँसी की सज़ा नहीं हुई. जिन मामलों में हुई भी तो वो उच्च अदालतों ने, आजीवन कारावास में बदल दी. सर्वोच्च न्यायालय से उम्रकैद की सजा पाए हत्यारे, फाइलें गायब करवा के तब तक बाहर घुमते रहे जबतक अखबारों में “भंडाफोड़” नहीं हुआ. सुधा गोयल (State Delhi (Administration) vs Laxman Kumar & Ors,1986) और शशिबाला केस में “चौथी दुनिया” और टाइम्स ऑफ़ इंडिया में सनसनीखेज रिपोर्ट-सम्पादकीय छपने के बाद ही, हत्यारों को जेल भेजा जा सका. इस बारे में मैंने विस्तार से ‘वधुओं को जलाने की संस्कृति’ (‘औरत होने की सज़ा’ क्लिक करें ) में लिखा है.

दहेज़ हत्या : फाँसी नहीं उम्रकैद 

आश्चर्यजनक तो यह है कि जब दहेज़-हत्या के मामलों में फाँसी की सजा के मामले सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचने लगे, तो भारतीय संसद को 1986 में कानून बदलना पड़ा. सैंकड़ों मामले हैं, किस-किस के नाम गिनवाएं. भारतीय दंड संहिता, 1860 में, दहेज़ हत्याओं के लिए चालाकी पूर्ण ढंग से विशेष प्रावधान धारा 304B पारित किया. इस कानून में यह कहा गया कि शादी के 7 साल बाद तक अगर वधु की मृत्यु अस्वाभाविक स्थितियों में हुई है और ‘मृत्यु से ठीक पहले’ (‘soon before death’) दहेज़ के लिए प्रताड़ित किया गया है, तो अपराध सिद्ध होने पर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है. इससे पहले दहेज़ हत्या के केस भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 के तहत दर्ज़ होते थे और अधिकतम सजा फाँसी हो सकती थी. मगर संशोधन द्वारा यह पुख्ता इंतजाम कर दिया गया कि दहेज़ हत्या के जघन्य, बर्बर और अमानवीय अपराधों में भी, फाँसी का फंदा ‘पिता-पुत्र-पति’ के गले तक ना पहुँच सके और अगर सजा हो भी तो, सात साल से लेकर अधिकतम सजा ‘उम्रकैद’ ही हो.
मीडिया में प्रचारित-प्रसारित यह किया गया कि महिलाओं की रक्षा-सुरक्षा के लिया सख्त कानून बनाए गए हैं. ऐसे अनेक मामले हैं, जिनमे सर्वोच्च न्यायालय सहित विभिन्न अदालतों ने अपराधियों को, इसी आधार पर बाइज्ज़त रिहा किया कि पीडिता को ‘मृत्यु से ठीक पहले’     (‘soon before death’) दहेज़ के लिए प्रताड़ित नहीं किया गया था.

दहेज़ उत्पीड़न, ‘मृत्यु से ठीक पहले’ अनिवार्य 

5 अगस्त 2010 को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आर. एम. लोढ़ा (अब २०१४ में बने मुख्य न्यायाधीश) और पटनायक की खंड पीठ  ने अमर सिंह बनाम राजस्थान केस के फैसले में कहा कि दहेज़ हत्या के मामले में आरोप ठोस और पक्के होने चाहिए, महज अनुमान और अंदाजों के आधार पर ये आरोप नहीं ठहराए जा सकते . पति के परिजनों पर ये आरोप महज अनुमान के आधार पर सिर्फ इसलिए नहीं गढ़े-मढ़े जा सकते कि वे एक ही परिवार के है, सो उन्होंने ज़रूर  पत्नी को प्रताड़ित किया होगा. जस्टिस आर. एम. लोढ़ा (अब २०१४ में बने मुख्य न्यायाधीश) और पटनायक की  खंडपीठ ने यह कहते हुए पति की माँ और छोटे भाई के खिलाफ लगाये गए दहेज़ प्रताड़ना और दहेज़ हत्या के आरोपों को रद्द कर दिया. आरोपियों को बरी करते हुए खंडपीठ ने कहा "दहेज़ माँगना अपराध नहीं है और दहेज़ के लिए उत्पीड़न मृत्यु से ठीक पहले होना चाहिए, वरना सजा नहीं हो सकती. वधुपक्ष के लोग पति समेत उसके सभी परिजनों को अभियुक्त बना देते हैं, चाहे उनका दूर-दूर तक इससे कोई वास्ता ना हो. अनावश्यक रूप से परिजनों को अभियुक्त बनाने से असली अभियुक्त के छूट जाने का खतरा बना रहता है .
दहेज़ हत्या- ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ या नहीं?  
 दूसरी और 2010 में सुप्रीम कोर्ट जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा ने एक मामले में कहा कि दहेज हत्या के मामले में फांसी की सजा होनी चाहिए। ये केस ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ की श्रेणी में आते हैं। स्वस्थ समाज की पहचान है कि वह महिलाओं को कितना सम्मान देता है, लेकिन भारतीय समाज ‘बीमार समाज’ हो गया है। समय आ गया है कि वधु हत्या की कुरीति पर जोरदार वार कर इसे खत्म कर दिया जाए, इस तरह कि कोई ऐसा अपराध करने की सोच न पाए.सर्वोच्च न्यायालय की. खंड पीठ  ने कहा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले और आदेश से असहमत होने का कोई कारण नहीं है. वास्तव में  में यह धारा 302 (नृशंस और बर्बरतापूर्ण हत्या) का केस है, जिसमें मौत की सजा होनी चाहिए. लेकिन आरोप  धारा 302 के तहत नहीं लगाया गया, सो हम ऐसा नहीं कर सकते। वरना मामला तो यह दुर्लभतम में दुर्लभ की श्रेणी में आता है और अपराधियों को मौत की सजा होनी चाहिए. होनी चाहिए मगर.......! इस मुद्दे पर विधि आयोग की २०२वी रिपोर्ट पढने लायक है. विधि आयोग ने भी कोई विशेष संशोधन की सिफारिश नहीं की.

हकीक़त यह भी है कि विधायिका ने जानबूझ कर ‘आधे-अधूरे’ कानून बनाए और कभी समीक्षा करने की चिंता ही नहीं की. जिनके लिए कानून बनाया गये, उनसे न्याय व्यवस्था का कोई सरोकार बन ही नहीं पाया. दहेज कानून के मौजूदा रूप-स्वरूप पर पुनर्विचार कब-कौन करेगा? लाखों पीड़ित-उत्पीड़ित स्त्रियां ना जाने कब से, सम्मानपूर्वक जीने-मरने का अधिकार पाने के लिए रोज़ कचहरी के चक्कर काटती घूम रही हैं. क्या विधि-विधान की देवी (देवता) की आँखों पर पड़ी पट्टी कभी नहीं खुलेगी? ‘महिला सशक्तिकरण’ और ‘न्यायिक सक्रियता’ के दौर में भी नहीं!


औरतों के कठघरे में खड़ी न्यायपालिका

इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि देश की सबसे ऊंची अदालत ने कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न रोकने के लिए 13 अगस्त 1997 को जो ऐतिहासिक दिशा-निर्देश (विशाखा गाइडलाइंस) जारी किए थे, उन्हें अपने ही ढांचे में लागू करने में उसे लगभग 17 साल लग गए। सरकार भी विधेयक बनाने के बारे में इतने साल तक सोचती-विचारती रही। आखिरकार, 22 अप्रैल 2013 को कानून बन पाया। कारण कई हो सकते हैं, पर इससे लिंग समानता और स्त्री सुरक्षा के सवाल पर विधायिका और न्यायपालिका की गंभीरता का एक अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है।
 किस पर करें भरोसा
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीशों पर यौन शोषण के आरोप, तहलका के संपादक तरुण तेजपाल पर अपनी एक सहकर्मी के यौन शोषण का मामला, यौन उत्पीड़न के कारण इंडिया टीवी की पत्रकार द्वारा आत्महत्या का प्रयास और आए दिन महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न के बावजूद समाज, मीडिया और न्यायपालिका की रहस्यमय खामोशी का मतलब क्या है? क्या इस देश की औरतें यह सब होने-देखने के लिए ही अभिशप्त हैं? न्यायपालिका में पारदर्शिता पर चल रही बहस के बीच में ही एक और ‘दुर्घटना’ हमारे सामने है। मध्य प्रदेश उच्च-न्यायालय (ग्वालियर) के न्यायमूर्ति एस.के. गंगेले द्वारा यौन उत्पीड़न से परेशान महिला सत्र-न्यायाधीश का इस्तीफा।

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आर. एम. लोढ़ा ने कहा है, ‘यह एकमात्र ऐसा पेशा है, जिसमें हम अपने सहयोगियों को भाई और बहन के रूप में देखते हैं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। मेरे पास शिकायत आई है और मैं इस पर उचित कार्रवाई करूंगा।’ कब और क्या कार्यवाही होगी, अभी कहना कठिन है। जस्टिस गंगेले ने सभी आरोपों का खंडन करते हुए कहा है कि ‘आरोप सिद्ध हों तो फांसी पर लटका दें। किसी भी एजेंसी से जांच करवा लो। मैं निर्दोष हूं।’ हम सब जानते हैं कि आरोपों की जांच और सुनवाई के बिना तो कुछ होना नहीं है। पूर्व अतिरिक्त महाधिवक्ता ने न्यायमूर्ति पर ‘महाभियोग’ चलाने की मांग की है।




आश्चर्यजनक है कि समाज में संदेह से परे समझे जाने वाले क्षेत्रों (शिक्षा, चिकित्सा, न्यायपालिका, मीडिया आदि) से भी महिलाओं के देह-दमन के अशोभनीय समाचार निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। न्याय के प्रांगण से बचाओ-बचाओ की चीख-चिल्लाहट, अस्मत के बदले इंसाफ की दास्तान या किसी न्यायमूर्ति द्वारा नौकरी पाने-बचाने की ऐसी शर्मनाक शर्तें सचमुच गंभीर चेतावनी हैं। न्याय और कानूनविदों के चाक-चौबंद किले में ‘कुलद्रोहियों’ का क्या काम? पुनर्विचार करना पड़ेगा कि न्यायाधीशों की चुनाव प्रक्रिया में किस-किस खामी के कारण अनैतिकता और बीमार मानसिकता चोरी-छुपे प्रवेश कर रही है। चारों ओर से सवालों का घेरा गहराता जा रहा है।

दरअसल, शिक्षित और स्वावलंबी स्त्रियों को दोहरी भूमिका निभानी पड़ रही है। आजादी के बाद शिक्षा-दीक्षा के कारण स्त्रियां बदली हैं, बदल रही हैं, मगर भारतीय पुरुष अपनी मानसिक बनावट-बुनावट बदलने को तैयार नहीं। एक तरफ पुरुषों के लिए यह सत्ता से भी अधिक लिंग वर्चस्व की लड़ाई है। दूसरी ओर स्त्रियां अपने सम्मान और गरिमा पर हुए या होने वाले हमले का हर संभव विरोध करने लगी हैं। दमन और विरोध के इस दुश्चक्र में यौन शोषण, उत्पीड़न और हिंसा की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं।



समानता के संघर्ष में स्त्रियों का विरोध-प्रतिरोध या दबाव-तनाव बढ़ता है तो कुछ उदारवादी-सुधारवादी ‘मेक-अप’ या ‘कॉस्मेटिक सर्जरी’ की तरह नए विधि-विधान बना दिए जाते हैं। जब-तब कुछ अन्य सुधारों के सपने भी दिखा दिए जाते हैं। लेकिन सच यह है कि सिर्फ कानूनी प्रावधान बना देने भर से समस्या का समाधान नहीं होगा। विशाखा दिशा-निर्देशों की छांव में ढले-पले अधिनियम में अभी भी ढेरों अंतर्विरोध और विसंगतियां मौजूद हैं। इसमें मौजूद ‘कानूनी गड्ढों’ और चोर रास्तों के रहते स्त्री-विरोधी अपराधों पर लगाम लगा पाना मुश्किल होगा। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हक़ मांगने वाली आवाजों को चुप कराना या रख पाना अब नामुमकिन है। एक बार मीडिया को डरा-धमका कर झुका भी लें तो सोशल मीडिया का गला घोंटना असंभव है। संविधान के मौलिक अधिकारों का अर्थ स्त्री-पुरुष के लिए बराबर होना चाहिए। 1860 के न्याय-शास्त्रों और सिद्धांतों से इक्कीसवीं सदी के स्त्री-समाज को नहीं चलाया जा सकता।



मुखिया की जिम्मेदारी
सार्वजनिक आस्था और विश्वास के दायरे में हाईकोर्ट के हर न्यायमूर्ति से यह अपेक्षा रहती है कि वह निष्ठा और नैतिक मानदंडों पर खरा उतरेगा। आम व्यक्ति की आखिरी उम्मीद हैं न्यायाधीश। यह बहाना नहीं चलेगा कि समाज का नैतिक पतन हो रहा है, और वे भी उसी समाज से आते हैं, लिहाजा आदर्श व्यवहार की आशा नहीं करनी चाहिए। अगर संविधान के रक्षकों पर ही स्त्री अस्मिता के भक्षक बनने के गंभीर आरोप (सही या गलत) लग रहे हैं, तो यह अपने आप में बेहद संगीन है। न्याय मंदिरों के ‘स्वर्ण कलश’ ही कलुषित होने लगे तो फिर ‘लज्जा’ कहां फरियाद करेगी? समय रहते इस महामारी का समुचित समाधान ढूंढ़ने और उसे कारगर रूप से लागू करने की मुख्य जिम्मेदारी निस्संदेह न्यायिक परिवार के मुखिया की है। देश की आधी आबादी बड़ी उत्सुकता और बेचैनी से निर्णायक फैसले और संपूर्ण न्याय के इंतजार में बाट जोह रही है। उसके धैर्य की परीक्षा नहीं ली जानी चाहिए।