स्वाधीनता दिवस- 15 अगस्त,2014
प्रिय पुत्र ‘प्रिंस’/शुभाशीर्वाद
स्वतंत्रता दिवस के
बहाने,
जन्मदिन पर
शुभकामनाओं के लिए आभारी हूं। मैं सचमुच नहीं जानती-समझती कि तुमने क्या
सोच कर लिखा है- ‘
माई
डियर मदर इंडिया!’
।
मैं ‘
अंगूठा छाप’
औरत- ‘
मदर इंडिया’!
नहीं..नहीं.., नहीं
हो सकती मदर
इंडिया! सच तो यह है कि मैं,
सिर्फ
तुम्हारी अभागी मां ही बनी रही। अगर निष्पक्ष होकर सोचूं-
कहूं तो मैं केवल ‘गांधारी’ से बेहतर
नहीं बन-बना सकी अपने आपको। काश!
'मदर इंडिया' होती और अपने तमाम हत्यारे, बलात्कारी, भ्रष्टाचारी,
दुराचारी, निकम्मे और दुष्ट बेटों को गोली मार
देती, काश!
स्वाधीनता और जन्म
दिवस के ऐसे शुभ अवसरों पर,
हम
औरतों को भी राष्ट्र की आर्थिक समृद्धि,
सामाजिक कल्याण,
सुख-शांति और न्याय की भावी योजनाओं,
कल्पनाओं और सरकारी घोषणाओं के बारे में
ही विचार-विमर्श करना चाहिए। करना चाहिए,
इसीलिए तो 6
7 साल करते रहे उम्मीद कि एक दिन, हम भी
आजाद होंगे और हमें भी मिलेंगे बराबर कानूनी हक,
सामाजिक मान-सम्मान,
आर्थिक आत्म-निर्भरता और राजनीतिक सत्ता
में समान भागेदारी। हम चुप रहे अब तक मगर अब देश के हालात और औरतों की दयनीय
स्थिति-नाकाबिले बर्दाश्त हो चुकी है। चाहो तो इसे अग्रिम चेतावनी या चुनौती भी समझ
सकते हो।
1947 की आधी रात, जब सारी
दुनिया सो रही
थी और देश जीवन और आजादी के लिए जाग रहा था, उसी समय तुम्हारी नानी मुझे जन्म देकर,
कोख के भार से मुक्त हुई थी। लेकिन मुझे
या मुझ जैसी करोड़ों
‘अबलाओं’ को कोख से कब्र तक, न जाने कब छुटकारा मिलेगा। मिलेगा भी या नहीं। 67 साल से दमित, शोषित और पीड़ित आत्माओं की चीत्कार, न
संसद को सुनाई
देती है और न ही सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच पाती है। इसे 'आधी दुनिया' का दुर्भाग्य कहूं या
अपने ही पिता-पति और पुत्र का सुनियोजित षड्यंत्र?
क्या हुआ ‘हर आंख से आंसू’ पोंछने वाले, बापू और उनके सपने का?
क्या आज भी हर औरत
की आंखों में आंसू और
आंचल में असहनीय कष्ट और पीड़ा मौजूद नहीं है? कहां गये सपनों को यथार्थ में बदलने के वायदे,
पद ग्रहण के समय ली गई शपथ, संविधान द्वारा घोषित मौलिक और मानवीय
अधिकार या हर पांचवें साल, आम चुनावों के समय किये
गए वायदे और घोषणाएं?
गरीबपुरा
से लेकर देश की राजधानी तक, है कोई ऐसा गांव, शहर या महानगर, जहां स्त्रियां हिंसा और यौन हिंसा की शिकार न हो रही हों?
हर दिन..हर घंटे..हर मिनट! राष्ट्रीय
अपराध ब्यूरो के आधे-अधूरे आंकड़े भी, क्या किसी ‘माई के लाल’ को दिखाई नहीं देते!
लाखों महिलाओं को मौत
के घाट उतारा जा चुका है और न्याय या कानून-व्यवस्था से आम औरतों ही नहीं,
आदमियों का भी भरोसा उठता जा रहा है।
लगता है किसी दिन,
कागजी कानून की विशाल इमारतें अपने ही
भार तले दब जायेंगी, बशर्ते
कि समय
रहते इन जर्जर संस्थाओं की ठीक से ‘मरम्मत’ नहीं की गई। मैं तो अब भी आशा और उम्मीद करती
हूं कि हमारी मंगल कामनाओं के साथ, ‘
राष्ट्र
के प्रहरी’
विश्वासघात न करें। जो हुआ सो हुआ.. अब और
नहीं। अब तुम्हें क्या-क्या और कैसे बताऊं-
समझाऊं कि हम (दलित) महिलाओं को आए दिन,
कहीं न कहीं निर्वस्त्र घुमाया जाता है, जिंदा जलाया जाता है, रिपोर्ट करो तो धमकाया जाता है, जबरन वेश्या बनाया जाता है, धर्म के नाम पर बहलाया- फुसलाया जाता है, बेटियों को गर्भ में ही मरवाया जाता है,
भेड़-बकरियों की तरह खरीदा-बेचा जाता है,
खाप पंचायतों के आदेश-अध्यादेश पर
प्रेमी युगलों को पेड़ों पर लटकाया जाता है.....फांसी चढ़ाया जाता है।
‘भ्रूणहत्या’ से लेकर ‘सती’ तक बने-बनाये गये कानून,
स्त्री हितों की रक्षा-सुरक्षा कम,
आतंकित अधिक करते हैं, ‘
रमीजा बी’
अब भी बलात्कार (सामूहिक) का शिकार हो
रही है, तो ‘मथुरा’ और ‘सुमन रानी’ खाकी वर्दी वालों की हवस को शांत कर रही
हैं। देवराला सतीकांड के तमाम हत्यारे बाइज्जत बरी कर दिये गये
हैं। ‘निर्भया’ के हत्यारों की फाँसी पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा राखी है, इंसाफ
की आस में औरतों की चीखती-चिल्लाती-भटकती आत्माएं, सालों से कोर्ट-कचहरी के चक्कर
काट रही हैं। जिन्दा
औरतें अपने ही घरों में असुरक्षित हैं, ‘
अपना घर’
बेटियों
के यौन शोषण-उत्पीड़न
का अड्डा बना है और ‘
आशा
किरण’
में अंधेरे पसरे पड़े
हैं।
‘
फिजा’
अपने ही घर में मरी हुई पाई गई और ‘
गीतिका’
ने आत्महत्या करना बेहतर समझा। बहुएं दहेज की
बलिवेदी पर और बेटियां तेजाब काण्ड या गैंगरेप के दुष्चक्र में मर-खप रही हैं। अपराधी
(अग्रिम) जमानत पर,
छुट्टे
घूम रहे हैं। ऐसे हत्यारे और दहशतजदा माहौल में, आजाद देश की औरतों को गुलामों से बेहतर
नहीं कहा जा सकता।
हां! शिक्षित-समृद्ध-साधन-सम्पन्न और कुछ अति-आधुनिक शहरी औरतें,
इससे थोड़ा अलग मानी-समझी जा सकती हैं,
जिनकी पहुंच ‘
ऊपर तक’
है। मैं तो सिर्फ देश की उन आम औरतों की बात कर रही हूं,
जिनकी व्यथा-कथा सुनने वाला कोई नहीं। राष्ट्रीय
महिला आयोग और महिला संगठनों से लेकर राष्ट्रीय मीडिया तक।
अयोध्या-गोधरा से कुरुक्षेत्र तक,
हर खुदाई में मिलेंगे स्त्री कंकाल ही। इन सब पर
सोचने-समझने पर घोर घृणा भी हो रही है और पश्चात्ताप भी। पैदा होते ही ऐसे
विषधरों का गला,
क्यों
न घोंट दिया माताओं
ने। अब तो प्रायश्चित भी, असंभव-सा लगने लगा है। 6
7 साल की यह बूढ़ी मां क्या करेगी?
अफसोस कि तमाम प्रतिभाशाली और
क्रांतिकारी बेटे-बेटियां,
जो
सचमुच स्वाधीनता संघर्ष के दौरान बुने सपनों को साकार कर सकते थे या जिनमें देश की नियति
बदलने की सारी संभावनाएं मौजूद थीं,
सत्ता संस्थानों ने खरीद लिए,
राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पूंजी की
गुलामी करने लगे या पेशेवर दलाल हो गये। कुछ ने सपनों के स्वर्ग
अमेरिका,
फ्रांस,
इंग्लैंड या कहीं और जाकर ‘
आत्महत्या’
कर ली।
जिनके बस का यह सब करना नहीं था,
वो ‘
फर्जी मुठभेड़’
में मारे गये या फिर अराजक जीवन की शराब
पीते-पीते एक दिन, खून
की उल्टियां
करते हुए मिले। ऐसी विश्वासघाती और आत्मघाती होनहार पीढ़ियों को या राष्ट्र कर्णधारों को,
यह बूढ़ी मां क्या कहे, कैसे कहे- ‘आजादी मुबारक’ हो। मुझे माफ करना पुत्र! यह सब लिखने
के लिए।
तुमको मैं कुछ कहना ही नहीं चाहती थी,
कभी कहा भी नहीं। सारी उम्र तुम्हारे
नाम की, कभी सौंगध तक नहीं उठाई। पता
नहीं क्यों, अब
चुप रहना-सहना मुमकिन नहीं। ‘स्वाधीनता
दिवस की पूर्व-संध्या पर, राष्ट्रपति
का राष्ट्र के नाम संदेश’ सुनते-सुनते
और लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के भाषण में दिखाये सब्ज बागों से कान पक गये हैं। दुख तो यह भी है
कि महिला प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति,
मुख्यमंत्री, गवर्नर, सुप्रीम और हाईकोर्ट की न्यायमूर्तियां
और अन्य सांसद,
मंत्री, अफसर वगैरह के होने के बावजूद, हम आम औरतों के हालात बद से बदतर होते गये हैं।
कुर्सी मिलते ही औरत, औरत
नहीं रहती, सत्ता के इशारे पर नाचने वाली ‘गुड़िया’ बन जाती है, गुड़िया। राजपथ पहुंचते ही सब भूल जाते
हैं कि
‘
दुर्गा पूजा’
पर घर भी जाना है,
जहां यह बूढ़ी मांसालभर इंतजार करती रहती है। तुमने
जाने-अनजाने मालूम नहीं कितने पुराने घाव,
हरे-भरे कर दिये बेटा! किसी की लिखी दो लाइनें,
रह-रहकर याद आ रही हैं-
“मां-बाप बहुत
रोए, घर आ के अकेले में, मिट्टी
के खिलौने भी, सस्ते
न थे मेले में”
खैर..छोड़ो
देश-दुनिया की बातें। सबसे पहले तो यह बताओ कि तुम और तुम्हारा घर-परिवार कैसा है?
बहू रानी मस्त होंगी। बेटे,
पोते कैसे हैं?
बड़े वाले की बहू की, तो शक्ल तक न देखी। पोतों को
भी,
फोटो में ही देखा था
सालों पहले।
सुना था कि तुमने शानदार कोठी खरीद ली है। चलो,
अच्छा है,
बढ़िया है,
खुश रहो,
खुशहाल रहो। अब तो हम सब, ‘
ग्लोबल विलेज’
में ही रहते हैं ना! सुना है कि देशों की
सीमा-रेखाएं समाप्त हो गई,
पर
क्या सच में कभी होंगी? याद रखना कि तुम ‘हिन्दुस्तानी’ हो। जरूरत पड़ने पर सबसे पहले, तुम्हें
ही देखा-परखा-पहचाना
और खदेड़ा जाएगा।
हां! मैंने अपनी
वसीयत ‘
रजिस्ट्रेड’
करवा दी है। मृत देह अस्पताल को और चल-अचल सम्पत्ति,
‘राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान’ के नाम कर दी है।
बहुत-बहुत स्नेह सहित
तुम्हारी मां उर्फ ‘
मदर इंडिया’