Thursday, December 16, 2010

औरत दूसरी होने की सजा

RASHTRIYE SAHARA, UMANG, 15-12-2010

औरत दूसरी होने की सजा

(अरविन्द जैन)

सिर्फ यह तथ्य कि कोई स्त्री-पुरुष पति-पत्‍नी की तरह रहते है , किसी भी कीमत पर उन्हें पति-पत्‍नी का स्थान नहीं दे देता, भले ही वे समाज के सामने पति-पत्‍नी के रूप में पेश आते हों और समाज भी स्वीकार करता हो

दूसरी अपने समाज में पुरुषों के दूसरी शादी करने को उतनी घृणित नजर से देखने का रिवाज नहीं है, जैसे किसी शादीशुदा मर्द की दूसरी बीवी बनने वाली औरत को उपेक्षित किया जाता है, कानून में भी औरतों के इस संबंध को अधिकारहीन बनाये रखा है, शीर्ष स्त्रीवादी विचारक और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अर¨वद जैन-

भारतीय दंड संहिता की धारा-494 में प्रावधान है कि पति या पत्‍नी के जीवित रहते दूसरा विवाह दंडनीय अपराध है और प्रमाणित होने पर अधिकतम सात साल कैद और जुर्माना हो सकता है, परन्तु आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 उपयरुक्त अपराध को सं™ोय अपराध नहीं मानती, लिहाजा अपराध जमानत योग्य भी है

मौजूदा भारतीय समाज में सभी धर्म-वर्ग (मुस्लिम के अलावा) के लोगों के लिए, एकल विवाह की ही कानूनी व्यवस्था है। पति या पत्‍नी के जीवित रहते (बिना तलाक) दूसरा विवाह अवैध ही नहीं, दंडनीय अपराध भी है, बशत्रे कि कानूनी रूप से मान्य शत्रे पूरी हों। मसलन ’सप्तपदी‘ वगैरह। लेकिन ऐसे विवाह के परिणामस्वरूप हुए बच्चे, वैधानिक दृष्टि से वैध ही नहीं, बल्कि अपने मां-बाप की संपत्ति में भी बराबर के हकदार होंगे। हालांकि उन्हें ’संयुक्त परिवार की संपत्ति बंटवाने का कोई अधिकार नहीं होगा।‘ आश्चर्यजनक है कि दूसरी पत्‍नी को पति से गुजारा-भत्ता तक नहीं मिल सकता। हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा-5 में विवाह के लिए तय पांच शर्तो में से सर्वप्रथम शर्त यह है कि किसी भी पक्ष (वर-वधू) का पति या पत्‍नी (विवाह के समय) जीवित नहीं होना चाहिए, वरना धारा- 11 के अनुसार विवाह पूर्णतया रद्द माना जाएगा और धारा- 17 के अनुसार ऐसा विवाह रद्द ही नहीं बल्कि भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 494-495 के तहत दंडनीय अपराध भी होगा। धारा-5 की शर्त है कि विवाह के समय वर-वधू, दोनों में से किसी का भी पति या पत्‍नी जीवित नहीं होना चाहिए और धारा-17 कहती है कि दोनों में से किसी एक का भी पति या पत्‍नी जीवित है, तो दूसरा विवाह अवैध और दंडनीय अपराध होगा। अगर दोनों में से किसी एक का पति या पत्‍नी जीवित है, तो दूसरा पक्ष पता लगने पर (अगर चाहे) विवाह को रद्द तो घोषित करवा सकता है, मगर दंड नहीं दिलवा सकता/सकती। लेकिन अगर दोनों के ही पति-पत्‍नी जीवित हों, तो कौन-किसके विरुद्ध दावा दायर करेगा? जाहिर है, दोनों चुप रहेंगे। भारतीय दंड संहिता की धारा-494 में प्रावधान है कि पति या पत्‍नी के जीवित रहते दूसरा विवाह दंडनीय अपराध है और प्रमाणित होने पर अधिकतम सात साल कैद और जुर्माना हो सकता है, परन्तु आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 उपरोक्त अपराध को सं™ोय अपराध नहीं मानती, लिहाजा अपराध जमानत योग्य भी है। मतलब यह कि पुलिस या अदालत पीड़ित पक्ष द्वारा शिकायत (प्रमाण सहित) के बिना कानूनी कार्यवाही नहीं कर सकती और शिकायत पर कोई कार्यवाही होगी, तो अभियुक्त को जमानत पर छोड़ना ही पड़ेगा। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-198 के अनुसार शिकायत का अधिकार सिर्फ पहले पति या पत्‍नी को ही उपलब्ध है, न कि दूसरे पति या पत्‍नी को। वे चाहें तो किसी भी कारणवश खामोश रह, दूसरे विवाह को ’वैधता‘ प्रदान कर सकते है। हिन्दू विवाह अधिनियम लागू होने (18 मई, 1955) से पहले एकल विवाह का नियम सिर्फ स्त्रियों पर लागू होता था। पुरुष चाहे जितनी मर्जी, प}ियां रख सकता था। पुरुषों के लिए भी एकल विवाह का कानूनी प्रावधान बनाया गया। लेकिन कानून की अदालती व्याख्याओं ने सम्भावित सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में गतिरोधक की भूमिका ही निभाई। भाऊराव शंकर लोखंडे बनाम महाराष्ट्र (एआईआर 1965 सुप्रीम कोर्ट 1564) के मामले में माननीय न्यायमूर्तियों ने धारा-494 की व्याख्या करते हुए स्थापना दी कि ’हू एवर मैरीज‘ का मतलब है ’हू एवर मैरीज वैलिडली।‘ उन्होंने आगे कहा, ’सिर्फ यह तथ्य कि कोई स्त्री-पुरुष पति-पत्‍नी की तरह रहते है, किसी भी कीमत पर उन्हें पति-पत्‍नी का स्थान नहीं दे देता, भले ही वे बाहर समाज के सामने पति-पत्‍नी के रूप में पेश करते है और समाज भी स्वीकार करता हो।‘ न्यायमूर्तियों ने बहुत स्पष्ट रूप से लिखा है कि दूसरा विवाह भी विधिवत होना परम अनिवार्य है, वरन दंडनीय अपराध नहीं। इस निर्णय के पदचिन्हों पर ही चलते हुए अनेक निर्णय आते चले गए। (एआईआर 1966, सुप्रीम कोर्ट-614 और एआईआर 1971, सुप्रीम कोर्ट-1153 एआईआर 1979, सुप्रीम कोर्ट 713, 848) पुनर्विवाह के आपराधिक मामलों में भी सार्वजनिक और न्यायिक सहानुभूति इतनी पारदर्शी है कि किसी अतिरिक्त टिप्पणी की आवश्यकता नहीं। इस संदर्भ में अनेक उच्च न्यायालयों के बहुत से निर्णय बताएगिनाए जा सकते है। सर्वोच्च न्यायालय का ही एक और फैसला, शान्ति देव वर्मा बनाम कंचन पर्वा देवी (1991 क्रिमिनल लॉ जरनल 660) विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अपीलार्थी ने 1962 में पहला विवाह किया और बिना तलाक लिये 1969 में दूसरा। पहली पत्‍नी की शिकायत पर मजिस्ट्रेट ने पति व अन्य व्यक्तियों को डेढ़ वर्ष कारावास की सजा सुनाई, मगर अपील में सत्र न्यायाधीश ने सबको बाइज्जत बरी कर दिया। उच्च न्यायालय ने सिर्फ पति को दोषी माना और बाकी सबको रिहा कर दिया। 1979 में पति ने सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका दायर की, जिसका फैसला (10 अक्टूबर, 1990) सुनाते हुए न्यायमूर्ति रतनावेल पांडियन और के. जयचन्दा रेड्डी ने कहा, ’उच्च न्यायालय के निर्णय को बहुत ध्यान से देखने के बाद हमारा विचार है कि विवाह में सप्तपदी के संदर्भ में विश्वसनीय साक्ष्यों के बिना, उच्च न्यायालय द्वारा (पत्रों के आधार पर) अर्थ निकालना उचित नहीं।‘ उपरोक्त निर्णय के ठीक एक साल बाद बम्बई उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एम. एफ. सलदाना ने इन्दू भाग्य नातेकर बनाम भाग्य पांडुरंग नातेकर व अन्य (1992 क्रिमिनल लॉ जरनल 601) के अपील में कहा कि शिकायतकर्ता के लिए यह जरूरी नहीं है कि विवाह-संबंधी सभी रीति-रिवाज और कर्मकांडों को प्रमाणित करे। विश्वसनीय साक्ष्यों (विवाह प्रमाणपत्र) के आधार पर भी आरोप सिद्ध किया जा सकता है। न्यायमूर्ति सलदाना ने अपील में उठे प्रश्नों को ’बेहद महत्वपूर्ण समाजशास्त्री सवाल‘ मानते हुए निर्णय में लिखा, ’दूसरा विवाह करने संबंधी अपराध, विवाह की सामाजिक संस्था की जड़ों पर आघात करता है और भारतीय दंड संहिता बनाने वालों ने इसे गंभीर अपराध के रूप में वर्गीकृत किया है, क्योंकि यह मौजूदा विवाह संस्था को नष्ट करता है। इस अपराध के प्राय: आरोप लगाए जाते है लेकिन दुलर्भ मामलों में ही अदालतों के समक्ष प्रमाणित हुआ है या भारतीय समाज के अपने नियम है कि जो व्यक्ति से व्यक्ति, जाति से जाति, धर्म से धर्म और लिंग से लिंग के लिए फर्क है। ये नियम अपनी सुविधा के लिए जब चाहे, बना लिये जाते है और जो इनके विरोध में खड़ा होता है, उसको ’रेबेल‘ यानी परम्परा भंजक कहा जाता। समाज के नियम, कानून और संविधान से हमेशा इतर होते है क्योंकि कानू न और संविधान में एक से नियम होते है, सबके लिए। क्यों हम सब कानून और संविधान की बात न करके हमेशा वेद-पुराण,

बाइबिल, कुरआन, गुरु ग्रंथ साहिब की बात करते है। किसने कहा, ये सब ग्रंथ कुछ नहीं सिखाते, पर क्या आप वाकई इन ग्रंथों में लिखी हर बात मानते है या केवल कुछ बातें जो आपको सुविधाजनक लगती है, उनको मान कर अपना लेते है और बार-बार उनको हर जगह दोहराते रहते है। जितनी शिद्दत से आपने ये धर्म ग्रंथ पढ़े है, क्या उतनी शिद्दत से आपने अपने संविधान को कभी पढ़ने और समझने की कोशिश की है? भारत का संविधान सबको बराबर मानता है, हर धर्म को, हर जाति को और हर लिंग को। फिर क्यों ये समाज किसी को बड़ा और छोटा मानता है और क्यों यह समाज नारी को हमेशा दोयम का दर्जा देता है? नारी के नाम को बदलना शादी के बाद, -नारी को ’देवी‘ कह कर पूजना पर उसको समान अधिकार न देना, यहां तक कि पैदा होने का भी (कन्या घूणहत्या), -नारी का बलात्कार, अगर वह किसी की बात का प्रतिकार करे (लड़की को छेड़ा गया, प्रतिकार करने पर गाड़ी में खींचकर बलात्कार किया गया) -नारी को जाति आधरित बातों पर मारना (लड़की को गैर जाति युवक से प्यार करने की सजा उसको नग्न अवस्था में घुमाया जाना, पूरे गांव के सामने कोड़े से मारना) न जाने कितनी खबरें थीं अखबार में। इसलिए आग्रह है कि धर्मग्रंथों और सामाजिक नियमांे से उठकर कानून और संविधान की जानकारी लें। उसको पढ़ें और बांचें, ताकि समाज में फैली असमानता को दूर किया जा सके। धर्मग्रंथ, समाज के नियम, कानून और संविधान, चुनाव सही करें।

RASHTRIYE SAHARA, UMANG, 15-12-2010

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