Thursday, August 21, 2014

कोर्ट- कचहरी: लापता लड़की (कहानी संग्रह)

कोर्ट- कचहरी: लापता लड़की (कहानी संग्रह)

कोर्ट- कचहरी: औरत: आज़ाद होने का अर्थ?

कोर्ट- कचहरी: औरत: आज़ाद होने का अर्थ?

Wednesday, August 20, 2014

लापता लड़की (कहानी संग्रह)


  लापता लड़की 

"कहानी तो बस इतनी ही है कि वह लड़की घर लौटने के बाद सारी रात सपनों का सफ़ेद स्वेटर बुनती रहती और सारा दिन दफ्तर में उंघते-उंघते उधेड़ती रहती.... इस उधेड़-बुन में उसे यह पता ही नहीं चला कि उसने कब मेंहदी हाथों में रचाने कि बजाये, बालों में लगानी शुरू कर दी थी. कहानी तो बस इतनी ही है."(लापता लड़की)


 "वह निस्संग है, आखेटित है, लापता है। वही यहाँ है। परंपराएँ उसे लापता करती हैं। बाज़ार  उसे निस्संग और उसका आखेट करता है। हर धर्म, हर जाति उसके संग ऐसा ही सलूक करती है। ये कहानियाँ इसी स्त्री या लिंग संवेदनशीलता से शुरू होती हैं और इस लापता कर दी गई स्त्री की खोज का आवेशमय विमर्श बन जाती हैं। ये औरत को किसी घटना या किस्से के ब्यौरे में नहीं दिखातीं, उसे खोजती हैं, बनाती हैं और जितना बनाती हैं, पाठक को उतना ही सताती हैं। स्त्री लेखन स्त्री ही कर सकती है यह सच है लेकिन ‘स्त्रीवादी’ लेखन पुरुष भी कर सकता है-यह भी सच है। यह तभी संभव है, जब वह लिंग भेद के प्रति आवश्यक संवेदनाशील हो क्योंकि वह पितृसत्ता की नस-नस बेहतर जानता है। मर्दवादी चालें ! मर्दों की दुनिया में औरत एक जिस्म, एक योनि, एक कोख भर है और मर्दों के बिछाए बाज़ार में वह बहुत सारे ब्रांडों में बंद एक विखंडित इकाई है।
अरविंद, जो बहुत बहुत कम कहानी लिखते हैं, इस औरत को हर तरह से, हर जगह पूरी तदाकारिता से खोजते हैं। वैसे ही जैसे आसपड़ोस की गायब होती लड़कियों को संवेदनशील पाठक खोजते-बचाते हैं। अरविंद कहीं पजैसिव हैं, कहीं कारुणिक हैं, लेकिन प्रायः बहुत बेचैन हैं। यहाँ स्त्री के अभिशाप हैं जिनसे हम गुजरते हैं। मर्दों की दुनिया द्वारा गढ़े गए अभिशाप, आजादी चाह कर भी औरत को कहाँ आज़ाद होने दिया जाता है ?
अरविंद की इन वस्तुतः छोटी कहानियों में मर्दों की दुनिया के भीतर, औरत के अनंत आखेटों के इशारे हैं। यह रसमय जगत नहीं, मर्दों की निर्मित स्त्री का ‘विषमय’ जगत है।

अरविंद की कहानी इशारों की नई भाषा है। उनकी संज्ञाएं, सर्वनाम, विशेषण सब सांकेतिक बनते जाते हैं। वे विवरणों, घटनाओं में न जाकर संकेतों व्यंजकों, में जाते हैं और औरत की ओर से एक जबर्दस्त जिरह खड़ी करते हैं। स्त्री को हिन्दी कथा में किसी भी पुरुष लेखक ने इतनी तदाकारिता से नहीं पढ़ा जितना अरविंद ने। ये कहानियों उनके उत्कट उद्वेग का विमर्श हैं और स्त्री के पक्ष में एक पक्की राजनीतिक जिरह पैदा करती हैं।
इन कहानियों को पढ़ने के बाद पुरुष पाठकर्ता संतप्त होगा एवं तदाकारिता की ओर बढ़ेगा और स्त्री पाठकर्ता अपने पक्ष में नई कलम को पाएगी-वहाँ भी, जहाँ स्त्री सीधा विषय नहीं है। अरविंद जैन का यह पहला कथा संग्रह बताता है कि हिन्दी कहानी में निर्णायक ढंग से फिर बहुत कुछ बदल गया है।" सुधीश पचौरी


 
समीक्षा-1 
"September  2013
अक्षर पर्व  ( अंक 168  )

जसविंदर कौर बिन्द्रा
"अरविन्द जैन ने अब तक पत्र-पत्रिकाओं में कई समीक्षाएं, कविताएं तथा कानून संबंधी कई स्तंभ,लेखन, शोध, लेख तथा इसके अलावा कई रचनाएं भी लिखी, लेकिन उनका कहानी संग्रह पहली बार अस्तित्व में आया। इससे एकदम स्पष्ट हो जाता है कि अरविन्द जैन को लिखने का अनुभव काफी है और कहानी संग्रह लाने के लिए उन्होंने कोई जल्दबाजी नहीं की।
अरविन्द जैन की कहानियां आज के संदर्भों से जुड़ी हुई हैं मगर कहानीकार ने अपनी रचनाओं को नियमित ढंग के कहानी लेखन से थोड़ा अलग ढंग से रचा है। संग्रह का शीर्षक 'लापता लड़की' है जबकि लगता है कहानीकार अपनी कहानियों में लड़की के साथ उन सभी सामाजिक तथा पारिवारिक, नैतिक तथा आर्थिक सरोकारों तथा स्थितियों को ढूंढने की कोशिश करता है, जिनके चलते आज नारी की गरिमा, उसके प्रति संवेदना आदि सभी संवेग तथा भावनाएं सिर्फ उपभोग्यवादी प्रवृत्ति में तब्दील हो गए हैं। ये सभी कहानियां उत्तर आधुनिकवाद की उपज हैं।
'कार्बन-कॉपी' में जो नौजवान अपने उसूलों तथा कुछ कर दिखाने के सपने के कारण अपने वकील बाप से इसलिए नफरत करता है क्योंकि वह अपनी कानूनी सलाहों तथा वकालत के बल पर एक बड़ा, नामी बै्रंड में तब्दील हो गया और सदा झूठ के नाम पर मुकदमे लड़ता रहा, उसके लड़के को उसकी मौत के बाद उसके बनाए इतने बड़े नामी गिरामी चेम्बर को संभालने में कुछ घंटे भी न लगे। बाप की छोड़ी कुर्सी पर बैठते ही वह बाप की 'कार्बन-कॉपी' बन गया। 'लापता लड़की' को ढूंढने निकले कहानीकार को काफी दिक्कत होती रही कि वह उस लड़की को प्रेमी के साथ लिव-इन में रहने भेज मामला खत्म करे या किसी की भी रखैल बना दे। लेकिन उसे मालूम नहीं कि 'लड़की' को खपा देना या लापता कर देना इतना आसान नहीं।
शायद इसी खीझ ने लड़की को शिकार, स्लीपिंग पार्टनर या बुलेट प्रूफ में बदल दिया हौ। ऊंची अभिलाषाओं, सुख-सुविधाओं की लालसा तथा ग्लैमर-फैशन की चकाचौंध ने स्त्रियों को भी काफी गुमराह कर, उन्हें घरों की चारदीवारी से बाहर निकाल इतना उलझा दिया है कि वह खुद भी समझ नहीं पाती कि कौन-सा रास्ता नारी की आजादी का है और कौन-सा नारी-अस्तित्व की पहचान का।
अरविन्द जैन के पास नये बिम्ब तथा प्रतीक हैं, जिनके माध्यम से वह पात्र संरचना करते है। 'घूस-यार्ड', 'भेड़-भेड़िए' आदि शीर्षक न्याय व्यवस्था पर व्यंग्य करते हैं तो शिकार, लापता, स्लीपिंग पार्टनर आदि शीर्षक औरत के प्रति मानसिकता की गिरावट को दर्शाते हैं।
समय अवश्य बदलेगा और नारी की स्थिति ही नहीं, उससे संबंधित संबोधन भी बदलेंगे और वह लापता भी नहीं रहेगी।" 
http://mobile.aksharparv.com/artcile_desc.php?issue_no=168&article_id=239#.U_SMbqMR4Zl
पुस्तक का नाम- 'लापता लड़की' ,लेखक- अरविन्द जैन
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली. पृष्ठ- 100,,मूल्य- 195 रुपए
जसविंदर कौर बिन्द्रा
संपर्क- मो. 09868182835
 
समीक्षा-2
Written by मीडिया सरकार on Tuesday, 27 August 2013 03:34

"अरविन्द जैन कभी-कभार कहानियां लिखते हैं, पर अकसर अपनी हर कहानी में वे औरत को नये ढंग से तलाशते हैं। वे मकडज़ाल-सी बनती चली जाती हैं। आलोच्य कहानी-संग्रह ‘लापता लड़की’ में कुल दस कहानियां हैं। सांकेतिक भाषा में लिखी गई इन कहानियों की अद्ïभुत शैली कहानी के मध्य कहानी की परतें खोलती है। संग्रह की सभी कहानियां इसी विशिष्ट शैली में हैं।

पहली कहानी ‘घूस-यार्ड’ का केंद्रीय आश्रय कोर्ट-कैंटीन है जहां चूहे, मूसे, बिलाव-बिल्ली और कुत्ते अपनी उदरपूर्ति करते विचरते हैं। इन जीवों के माध्यम से भ्रष्टाचार की पोलें खुलती चली जाती हैं। कहना गलत नहीं होगा कि कथाकार ने न सिर्फ इन जीवों की जीवनशैली को बारीकी से निरखा है बल्कि इनके माध्यम से देश की अनचाही दीमकों की भक्षण-पद्धति को भी परखा है। उदाहरणार्थ, थोड़े दिन बाद उसे ऐसा लगने लगा जैसे वह जहां कहीं भी जाता है, कोई-न-कोई बिलाव या बिल्ली नजर आ ही जाती है। …कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई बिलाव अकेले किसी चूहे को नहीं मार पाता, तब वह बाहरी बिलावों की मदद लेता है और बदले में थोड़ा हिस्सा उन्हें भी दे देता है।
अरविन्द जैन की महिला-पात्रों की मानसिक परिस्थितियां उनकी अत्याधुनिक जीवन शैली का अभिशाप लगती हैं, जो नारी-मुक्ति की गलत अवधारणा की शिकार हैं। पुरुष की बराबरी का अहं पालती ये सिगरेट-बीड़ी के छल्ले उड़ाने से गुरेज नहीं करतीं। चाहे वह ‘कार्बन-कापी’ की अंकिता हो, ‘शिकार’ की सपना, ‘बुलेट प्रूफ’ की प्रदर्शन सुंदरियां या फिर कोई ‘लापता लड़र्की।’ ‘अनुवाद’ कहानी उस असफल प्रेम का दृष्टांत है जहां पुरुष पलायनवादी की भूमिका निभाता है। ‘स्लीपिंग पार्टनर’ उच्छृंखल युवती की अत्याधुनिक सोच की ओर इशारा करती है तो ‘यश पापा’ द्विखंडित मानसिकता की तरफ।
इन कहानियों का तात्विक विवेचन कथाकार अंतिम कहानी ‘भेड़-भेडि़ए’ के माध्यम से पाठकों पर छोड़ता है जहां उसे मौजूदा न्याय-व्यवस्था से असंतोष है।  एक बाड़े में भेड़ों के सिर पर काली पट्टी बंधी दिखती है और ठीक उसके सामने मोटे से ल_े पर खून में लथपथ भेड़ पड़ी है। इस तरह ये कहानियां फुर्सती लम्हों की बजाय चिन्तन-मनन की स्थिति में ले जाती हैं।"
०पुस्तक : लापता लड़की (कहानी-संग्रह) ०कहानीकार: अरविन्द जैन ०प्रकाशक: राजकमल  प्रकाशन, नयी दिल्ली, ०पृष्ठ संख्या : 100 ०मूल्य : रुपये 195

.http://mediasarkar.com/hi/index.php?option=com_content&view=article&id=4706%3A2013-08-27-03-36-47&catid=133%3A2010-01-27-13-15-12%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6

समीक्षा-3

दैनिक हिंदुस्तान (26.01.2013)
कहानी के बहाने जिरह
"अरविंद जैन का यह पहला कहानी संग्रह है। वर्षों पहले उन्होंने औरत होने की सजाजैसी पुस्तक उन्होंने लिखी थी, जिसकी बड़ी चर्चा रही थी। वैसे उसमें स्त्रियों से जुड़े कानूनी मसलों और पहलुओं की चर्चा थी, लेकिन जो दृष्टिकोण वहां मौजूद था, उसका सार्थक विस्तार इस संग्रह में देखा जा सकता है। विडम्बना यह है कि लापता लड़कीहमारे समाज में हर जगह उपस्थित है। जैन की ये कहानियां औरत की बेचैनी के दस्तावेज हैं। इन कहानियों में व्यक्त यथार्थ को स्त्रियों के प्रति सहानुभूति तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता। लेखक की संवेदनशील दृष्टि व्यापक है जो पुरुषों के वर्चस्व की जबरदस्त तरीके से पोल खोलती है। साथ ही उतनी ही मजबूती से तरफदारी करती है।"
लापता लड़की, लेखक: अरविंद जैन, प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-2, मूल्य: 195 रु.

कहानी "भेड़-भेड़िये" http://www.shabdankan.com/2013/09/arvindjain.html#.U_Sj6aMR4Zl

'न्यायक्षेत्रे-अन्यायक्षेत्रे'

Thursday, August 14, 2014

औरत: आज़ाद होने का अर्थ?


स्वाधीनता दिवस- 15 अगस्त,2014 
                          
प्रिय पुत्र प्रिंस’/शुभाशीर्वाद
 
स्वतंत्रता दिवस के बहाने, जन्मदिन पर शुभकामनाओं के लिए आभारी हूं। मैं सचमुच नहीं जानती-समझती कि तुमने क्या सोच कर लिखा है- माई डियर मदर इंडिया! मैं अंगूठा छापऔरत- मदर इंडिया’! नहीं..नहीं.., नहीं हो सकती मदर इंडिया! सच तो यह है कि मैं, सिर्फ तुम्हारी अभागी मां ही बनी रही। अगर निष्पक्ष होकर सोचूं- कहूं तो मैं केवल ‘गांधारी’ से बेहतर नहीं बन-बना सकी अपने आपको काश! 'मदर इंडिया' होती और अपने तमाम हत्यारे, बलात्कारी, भ्रष्टाचारी, दुराचारी, निकम्मे और दुष्ट बेटों को गोली मार देती, काश!

स्वाधीनता और जन्म दिवस के ऐसे शुभ अवसरों पर, हम औरतों को भी राष्ट्र की आर्थिक समृद्धि, सामाजिक कल्याण, सुख-शांति और न्याय की भावी योजनाओं, कल्पनाओं और सरकारी घोषणाओं के बारे में ही विचार-विमर्श करना चाहिए। करना चाहिए, इसीलिए तो 67 साल करते रहे उम्मीद कि एक दिन, हम भी आजाद होंगे और हमें भी मिलेंगे बराबर कानूनी हक, सामाजिक मान-सम्मान, आर्थिक आत्म-निर्भरता और राजनीतिक सत्ता में समान भागेदारी। हम चुप रहे अब तक मगर अब देश के हालात और औरतों की दयनीय स्थिति-नाकाबिले बर्दाश्त हो चुकी है। चाहो तो इसे अग्रिम चेतावनी या चुनौती भी समझ सकते हो।

1947 की आधी रात, जब सारी दुनिया सो रही थी और देश जीवन और आजादी के लिए जाग रहा था, उसी समय तुम्हारी नानी मुझे जन्म देकर, कोख के भार से मुक्त हुई थी। लेकिन मुझे या मुझ जैसी करोड़ों अबलाओंको कोख से कब्र तक, न जाने कब छुटकारा मिलेगा। मिलेगा भी या नहीं। 67 साल से दमित, शोषित और पीड़ित आत्माओं की चीत्कार, न संसद को सुनाई देती है और न ही सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच पाती है। इसे 'आधी दुनिया' का दुर्भाग्य कहूं या अपने ही पिता-पति और पुत्र का सुनियोजित षड्यंत्र?
क्या हुआ हर आंख से आंसूपोंछने वाले, बापू और उनके सपने का? क्या आज भी हर औरत की आंखों में आंसू और आंचल में असहनीय कष्ट और पीड़ा मौजूद नहीं है? कहां गये सपनों को यथार्थ में बदलने के वायदे, पद ग्रहण के समय ली गई शपथ, संविधान द्वारा घोषित मौलिक और मानवीय अधिकार या हर पांचवें साल, आम चुनावों के समय किये गए वायदे और घोषणाएं
गरीबपुरा से लेकर देश की राजधानी तक, है कोई ऐसा गांव, शहर या महानगर, जहां स्त्रियां हिंसा और यौन हिंसा की शिकार न हो रही हों? हर दिन..हर घंटे..हर मिनट! राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आधे-अधूरे आंकड़े भी, क्या किसी माई के लालको दिखाई नहीं देते! 

लाखों महिलाओं को मौत के घाट उतारा जा चुका है और न्याय या कानून-व्यवस्था से आम औरतों ही नहीं, आदमियों का भी भरोसा उठता जा रहा है। लगता है किसी दिन, कागजी कानून की विशाल इमारतें अपने ही भार तले दब जायेंगी, बशर्ते कि समय रहते इन जर्जर संस्थाओं की ठीक से ‘मरम्मत’ नहीं की गई। मैं तो अब भी आशा और उम्मीद करती हूं कि हमारी मंगल कामनाओं के साथ, राष्ट्र के प्रहरीविश्वासघात न करें। जो हुआ सो हुआ.. अब और नहीं। अब तुम्हें क्या-क्या और कैसे बताऊं- समझाऊं कि हम (दलित) महिलाओं को आए दिन, कहीं न कहीं निर्वस्त्र घुमाया जाता है, जिंदा जलाया जाता है, रिपोर्ट करो तो धमकाया जाता है, जबरन वेश्या बनाया जाता है, धर्म के नाम पर बहलाया- फुसलाया जाता है, बेटियों को गर्भ में ही मरवाया जाता है, भेड़-बकरियों की तरह खरीदा-बेचा जाता है, खाप पंचायतों के आदेश-अध्यादेश पर प्रेमी युगलों को पेड़ों पर लटकाया जाता है.....फांसी चढ़ाया जाता है।

भ्रूणहत्या से लेकर सती तक बने-बनाये गये कानून, स्त्री हितों की रक्षा-सुरक्षा कम, आतंकित अधिक करते हैं, ‘रमीजा बीअब भी बलात्कार (सामूहिक) का शिकार हो रही है, तो मथुराऔर सुमन रानीखाकी वर्दी वालों की हवस को शांत कर रही हैं। देवराला सतीकांड के तमाम हत्यारे बाइज्जत बरी कर दिये गये हैं। ‘निर्भया’ के हत्यारों की फाँसी पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा राखी है, इंसाफ की आस में औरतों की चीखती-चिल्लाती-भटकती आत्माएं, सालों से कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रही हैं। जिन्दा औरतें अपने ही घरों में असुरक्षित हैं, ‘अपना घरबेटियों के यौन शोषण-उत्पीड़न का अड्डा बना है और आशा किरणमें अंधेरे पसरे पड़े हैं।

फिजाअपने ही घर में मरी हुई पाई गई और गीतिकाने आत्महत्या करना बेहतर समझा। बहुएं दहेज की बलिवेदी पर और बेटियां तेजाब काण्ड या गैंगरेप के दुष्चक्र में मर-खप रही हैं। अपराधी (अग्रिम) जमानत पर, छुट्टे घूम रहे हैं। ऐसे हत्यारे और दहशतजदा माहौल में, आजाद देश की औरतों को गुलामों से बेहतर नहीं कहा जा सकता। हां! शिक्षित-समृद्ध-साधन-सम्पन्न और कुछ अति-आधुनिक शहरी औरतें, इससे थोड़ा अलग मानी-समझी जा सकती हैं, जिनकी पहुंच ऊपर तकहै। मैं तो सिर्फ देश की उन आम औरतों की बात कर रही हूं, जिनकी व्यथा-कथा सुनने वाला कोई नहीं। राष्ट्रीय महिला आयोग और महिला संगठनों से लेकर राष्ट्रीय मीडिया तक।

अयोध्या-गोधरा से कुरुक्षेत्र तक, हर खुदाई में मिलेंगे स्त्री कंकाल ही। इन सब पर सोचने-समझने पर घोर घृणा भी हो रही है और पश्चात्ताप भी। पैदा होते ही ऐसे विषधरों का गला, क्यों न घोंट दिया माताओं ने। अब तो प्रायश्चित भी, असंभव-सा लगने लगा है। 67 साल की यह बूढ़ी मां क्या करेगी? अफसोस कि तमाम प्रतिभाशाली और क्रांतिकारी बेटे-बेटियां, जो सचमुच स्वाधीनता संघर्ष के दौरान बुने सपनों को साकार कर सकते थे या जिनमें देश की नियति बदलने की सारी संभावनाएं मौजूद थीं, सत्ता संस्थानों ने खरीद लिए, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पूंजी की गुलामी करने लगे या पेशेवर दलाल हो गये। कुछ ने सपनों के स्वर्ग अमेरिका, फ्रांस, इंग्लैंड या कहीं और जाकर आत्महत्याकर ली। 
जिनके बस का यह सब करना नहीं था, वो फर्जी मुठभेड़में मारे गये या फिर अराजक जीवन की शराब पीते-पीते एक दिन, खून की उल्टियां करते हुए मिले। ऐसी विश्वासघाती और आत्मघाती होनहार पीढ़ियों को या राष्ट्र कर्णधारों को, यह बूढ़ी मां क्या कहे, कैसे कहे- आजादी मुबारकहो। मुझे माफ करना पुत्र! यह सब लिखने के लिए।

तुमको मैं कुछ कहना ही नहीं चाहती थी, कभी कहा भी नहीं। सारी उम्र तुम्हारे नाम की, कभी सौंगध तक नहीं उठाई। पता नहीं क्यों, अब चुप रहना-सहना मुमकिन नहीं। स्वाधीनता दिवस की पूर्व-संध्या पर, राष्ट्रपति का राष्ट्र के नाम संदेशसुनते-सुनते और लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री के भाषण में दिखाये सब्ज बागों से कान पक गये हैं। दुख तो यह भी है कि महिला प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, गवर्नर, सुप्रीम और हाईकोर्ट की न्यायमूर्तियां और अन्य सांसद, मंत्री, अफसर वगैरह के होने के बावजूद, हम आम औरतों के हालात बद से बदतर होते गये हैं।
कुर्सी मिलते ही औरत, औरत नहीं रहती, सत्ता के इशारे पर नाचने वाली गुड़ियाबन जाती है, गुड़िया। राजपथ पहुंचते ही सब भूल जाते हैं कि दुर्गा पूजापर घर भी जाना है, जहां यह बूढ़ी मांसालभर इंतजार करती रहती है। तुमने जाने-अनजाने मालूम नहीं कितने पुराने घाव, हरे-भरे कर दिये बेटा! किसी की लिखी दो लाइनें, रह-रहकर याद आ रही हैं-
  
“मां-बाप बहुत रोए, घर आ के अकेले में, मिट्टी के खिलौने भी, सस्ते न थे मेले में”


खैर..छोड़ो देश-दुनिया की बातें। सबसे पहले तो यह बताओ कि तुम और तुम्हारा घर-परिवार कैसा है? बहू रानी मस्त होंगी। बेटे, पोते कैसे हैं? बड़े वाले की बहू की, तो शक्ल तक न देखी। पोतों को भी, फोटो में ही देखा था सालों पहले। सुना था कि तुमने शानदार कोठी खरीद ली है। चलो, अच्छा है, बढ़िया है, खुश रहो, खुशहाल रहो। अब तो हम सब, ग्लोबल विलेजमें ही रहते हैं ना! सुना है कि देशों की सीमा-रेखाएं समाप्त हो गई, पर क्या सच में कभी होंगी? याद रखना कि तुम हिन्दुस्तानीहो। जरूरत पड़ने पर सबसे पहले, तुम्हें ही देखा-परखा-पहचाना और खदेड़ा जाएगा।
हां! मैंने अपनी वसीयत रजिस्ट्रेडकरवा दी है। मृत देह अस्पताल को और चल-अचल सम्पत्ति, ‘राष्ट्रीय शिक्षा संस्थान’ के नाम कर दी है। 

बहुत-बहुत स्नेह सहित
तुम्हारी मां उर्फ मदर इंडिया