Thursday, November 18, 2021

मन्नू भंडारी


पत्नी को बताया कि मन्नू जी नहीं रही, तो उसने कहा "ओह नो...!" और वो स्मृतियों में वो साड़ी ढूँढने लगी, जो मन्नू जी उसके लिए लाई थी।

साल1986, मन्नू भंडारी (और राजेंद्र यादव) जी का हौज़ खास फ्लैट103... दोपहर के खाने का समय। मैं सपत्नीक आमंत्रित। दरअसल मन्नू जी ने अपने 'वकील' की 'बहू' देखने के लिए, खाने पर बुलाया था। नामवर जी और अजित कुमार जी भी मौजूद। खाने में दाल-बाटी चूरमा। 
पत्नी को धीरे-धीरे खाते हुए देख नामवर जी ने कहा "राजेन्द्र जी, माना कि लज्जा नारी के आभूषण हैं, पर आभूषण इतने भारी भी नहीं होने चाहिए ना!" मन्नू जी ने टोका "बहू को दो कौर खा भी लेने दो....!" 

याद है कि मन्नू भंडारी का 'आपका बंटी' मैंने पहली बार (1971-72) 'धर्मयुग' में धारावाहिक पढ़ा था। मुझे लगता था कि 'डिवोर्स' इतना आसान है क्या और है भी तो दूसरा विवाह करने के बाद,  शुरू में ही बंटी को हॉस्टल भेज देना चाहिए (था)। मगर हॉस्टल भेज दें, तो उपन्यास कैसे पूरा हो? 

खैर बाद में 'आपका बंटी' पर 1985-86 में एक फिल्म बनी थी 'समय की धारा'। फ़िल्म में भारी बदलाव कर दिया गया था, जो मन्नू जी को मंजूर नहीं था। बात अदालत तक जा पहुंची। संयोग से मैं मन्नू भंडारी का वकील था। 32- 33 साल का ही तो था उस समय।

दिल्ली हाई कोर्ट ने फ़िल्म के प्रदर्शन पर रोक लगा दी थी। जज साहब और सभी पक्षों ने फिक्की हाल में बैठ कर, फ़िल्म का 'स्पेशल शो' देखा था। सभी फिल्मी और अन्य पत्र पत्रिकाओं में ख़बर छपती रहती थी। 'माधुरी' से 'इंडिया टुडे' तक। उन दिनों 'आपका बंटी' का एक-एक संवाद, पेज नंबर सहित रट गया था। 

बहस के बाद  8 अगस्त, 1986 को न्यायमूर्ति एस. बी. वाड ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया। हालांकि निर्णय आने से पहले ही, मन्नू और फ़िल्म निर्माता ने आपस में समझौता कर लिया था। मन्नू ने फ़िल्म से अपना नाम हटवा दिया। फ़िल्म क्या चलनी थी? शायद फ्लॉप ही रही। 

साहित्य और कानून की दुनिया में 'लेखक के नैतिक अधिकार' पर जब भी कोई बहस खड़ी होगी, मन्नू भंडारी बनाम कला विकास पिक्चर्स में दिल्ली हाई कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णय (एआईआर1987 दिल्ली 13) का ज़िक्र जरूर होगा। कॉपीराइट कानून की धारा 57 पर यह पहला निर्णय था, सो महत्वपूर्ण बन गया। 

अगस्त1986 से राजेन्द्र यादव जी का 'हंस' शुरू हुआ तो कुछ साहित्यिक मुकदमों पर लेख लिखे थे। इसी कड़ी में तब 'आपका बंटी' विवाद/ मुक़दमें के बारे में भी विस्तार से एक लेख लिखा था। 'आपका बंटी' उपन्यास पर लिखा 'आलोचनात्मक' लेख मेरी पुस्तक "औरत: अस्तित्व और अस्मिता" में संकलित है। 

बाद में एक बार मन्नू जी की अनुमति के बिना कोई एक नाटककार (नाम याद नहीं) मंडी हाउस में 'महाभोज' का मंचन कर रहा था। मन्नू जी के कहने पर, वो भी मैंने ही अदालत से रुकवाया था। अगले दिन नाटककार ने अदालत में पेश हो, अपनी गलती मान ली थी और चौबीस घंटे में मुकदमा ख़त्म।

ना जाने क्यों, मुझे सालों से लगता रहा है कि स्त्री जीवन का एक बेहद पेचीदा और अंतहीन मुकदमा हैं (थीं) मन्नू भंडारी। सादर नमन।
#अरविंद_जैन (15 नवंबर, 2021)