Wednesday, March 23, 2011

विवाद में संबंध

विवाद में संबंध




अरविन्द जैन
(वरिष्ठ अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट)
स्त्री और पुरुष के रिश्ते को केवल दांपत्य में सीमित रखना और इसके बाहर निकलते ही शादी के दायरे से अलग होना, अब तक परिभाषित नहीं किया जा सका है। हमेशा से बहस का मुद्दा रहे इन रिश्तों में गुजारा-भत्ता को लेकर विवाद होते रहे हैं। आर्थिक मदद और टेम्प्रेरी दैहिक रिश्तों को लेकर देश की सबसे बड़ी अदालत ने बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है
ताज्जुब की बात है कि एक ही मसले पर पंद्रह दिनों के भीतर सुप्रीम कोर्ट की दो पीठों ने अलग-अलग फैसले सुनाये। मामला यह था कि यदि महिला लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रही है तो आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1973 की धारा- 125 के तहत उसे मैंटेनेंस (गुजारा-भत्ता) मिलना चाहिए? 7 अक्टूबर, 2010 को एक पीठ ने इस मामले को बड़ी पीठ के पास भेजने का निर्णय लिया, जबकि दूसरी पीठ ने 21 अक्टूबर, 2010 को उसे बंद करना उचित समझा। तभी यह कानूनी विशेषज्ञों सहित मीडिया के हलकों में गरमागरम बहस का मुद्दा बन गया। लिव-इन-रिलेशनशिप में रह रही महिलाओं को गुजारा-भत्ता दिए जाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश मार्कडेय काटजू और न्यायाधीश टी. एस. ठाकुर ने डी. वेलुसामी बनाम डी.पटचाईम्मल (2011 सीआरएल. एल. जे 320) मामले में 21 अक्टूबर, 2010 को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-125 के तहत विरोधाभासी फैसला सुना दिया कि हमारेमुताबिक, लिव-इन-रिलेशनशिप वाले सभी लोगों को शादी के समान दायरे में आने वाले घरेलू उत्पीड़न कानून-2005 के तहत लाभ नहीं मिल सकता। ऐसे लाभ के लिए कानून द्वारा निश्चित की गयी शर्त पूरी होनी चाहिए और उसे सबूत के जरिये से सिद्ध भी करना होगा। यदि कोई पुरुष किसी को बतौर रखैल रखता है, जिसे वह आर्थिक मदद भी करता है और शारीरिक रिश्तों के लिए उसका इस्तेमाल करता है और/या वह नौकर हो, तो हमारे विचार से, यह रिलेशनशिप शादी के दायरे में नहीं आएगी। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया, जबकि अलग समवर्ती विवाह अदालत एवं मद्रास हाई कोर्ट ने हटकर आदेश पारित किया और डी. पटचाईम्मल को पांच सौ रुपए गुजारा- भत्ता देने का आदेश दिया। उन्होंने दावा किया था कि उसने याचिकाकर्ता डी. वेलुसामी से शादी की है। हालांकि, न्यायाधीश काटजू और न्यायाधीश ठाकुर एक ओर यह कहकर सहानुभूति जताते हैं कि 'इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस मामले का हम जिक्र कर रहे हैं, उसमें 2005 के कानून के तहत कई महिलाएं आती ही नहीं हैं, लेकिन कोर्ट का काम कानून बनाना या उसमें संशोधन करना नहीं है। संसद ने 'रिलेशनशिप इन द नेचर ऑफ मैरिज' शब्द का प्रयोग किया है न कि 'लिव-इन रिलेशनशिप' का। व्याख्या करने के लिए अदालत लैंग्वेज ऑफ स्टेटय़ूट को नहीं बदल सकती।'
लेकिन, अगले पैरे में देश की आधी आबादी को ध्यान में रखते हुए याद दिलाया गया- 'सामंती समाज में शादी से इतर किसी दूसरे पुरुष और स्त्री के शारीरिक रिश्ते की मनाही है और उसे घृणित माना गया है। जैसा लिओ टॉलस्टॉय अपने उपन्यास 'अन्ना करेनिना', गुस्ताव फ्लाउबर्ट के उपन्यास 'मैडम बावेरी' और महान बंगाली लेखक शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास में वर्णित है। डी. ए. एक्ट-2005 को तैयार करने वाले और अब एडिशनल सॉलिसिटर जनरल इंदिरा जयसिंह ने न्यायाधीशों की आलोचना की और अदालत से गुजारिश की कि निर्णय सुनाते वक्त लिंग से जुड़े संजीदा शब्दों के इस्तेमाल से दूरी बनाये रखी जाए। न्यायाधीश काटजू और न्यायाधीश ठाकुर की पीठ के समक्ष उन्होंने कहा कि वह फैसले में प्रयुक्त शब्द 'रखैल' के इस्तेमाल के लिए आवेदन करेंगी। उन्होंने सवाल किया कि 21वीं सदी में सुप्रीम कोर्ट 'कीप' (रखैल) और 'एक रात की बात' जैसे शब्द का इस्तेमाल कैसे कर सकती है ? हालांकि, न्यायाधीश ठाकुर ने घाव पर नमक छिड़कते हुए इंदिरा जयसिंह से पलटकर सवाल किया कि 'क्या 'रखैल' की तुलना में 'उपपत्नी' शब्द का इस्तेमाल करना ठीक रहेगा?'
निस्संदेह, इस तरह की अभिव्यक्ति अपमानजनक है और यह महिलाओं को बहुत ही बुरे ढंग से चित्रित करती है। यह तो नैतिक निर्णय की बात है और लेकिन सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीशों को ऐसे शब्दों के इस्तेमाल से बचना चाहिए। यह लिंग समानता के राष्ट्रीय संकल्प के नजरिये से भी ठीक नहीं है और इसमें वैवाहिक स्तर को लेकर भी भेदभाव झलकता है। मार्च, 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने 'महिला दक्षता समिति' की उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें 21 अक्टूबर, 2010 के निर्णय की समीक्षा की मांग की गई थी, जिसमें यदि महिला पुरुष के साथ रहती है तो उसे 'रखैल' कह दिया जाता है। समीक्षा याचिका को खारिज करते हुए न्यायाधीश मार्कडेय काटजू और न्यायाधीश टी. एस. ठाकुर ने कहा- 'समीक्षा याचिका पर सावधानीपूर्वक ध्यान दिया गया है। साथ ही, हमें उससे संबंधित कागजों पर विचार करने में कोई वजह नहीं दिख रही कि 'महिला दक्षता समिति' की समीक्षा याचिका पर ध्यान दिया जाए।'
21 अक्टूबर, 2010 में जब फैसला सुनाया जा रहा था, तब भी हमें अजीब महसूस हो रहा था। यूं कहें कि धक्का लग रहा था क्योंकि न्यायाधीश मार्कडेय काटजू और न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर ने न्यायाधीश जी. एस. सिंघवी और न्यायाधीश ए. के. गांगुली के फैसले पर ध्यान नहीं दिया, जो उन्होंने 7 अक्टूबर, 2010 को चिन्मुनिया बनाम वीरेंद्र कुमार सिंह और अन्य (2011 सीआरएल. एल.जे. 96) मामले में दिया था और इसी मसले पर अब बड़ी पीठ ने फैसला सुनाया। न्यायाधीश गांगुली ने लिखा- 'सामाजिक सरोकारों के मद्देनजर 1973 की संहिता की धारा-125 के तहत हम 'पत्नी' की परिभाषा पर व्यापक नजरिया रखते हैं। हालांकि दो न्यायाधीशों की पीठ में हम ऐसा फैसला नहीं सुना सकते थे। हमें आशंका थी कि उपयरुक्त दोनों मामलों में व्यक्त विचारों को लेकर विरोधाभासी सोच सामने न आ जाए।'
पीठ ने माननीय मुख्य न्यायाधीश से आग्रह किया कि इसे अन्य लोगों के बीच बड़ी पीठ तय करे कि यदि एक पुरुष और महिला कुछ खास वक्त में बतौर पति-पत्नी रह रहे हैं तो उसे वैध शादी जैसा माना जा सकता है और इस तरह सीआरपीसी की धारा-125 के अंतर्गत महिला गुजारे-भत्ता की हकदार है। यदि घरेलू हिंसा कानून-2005 के प्रावधानों के मुताबिक, सीआरपीसी की धारा-125 के अंतर्गत गुजारे-भत्ते की दावेदारी की जाती है तो शादी के प्रमाणपत्र को अनिवार्य रूप से प्रस्तुत करना होगा। यदि परंपरागत संस्कारों और अनुष्ठानों के तहत शादी हुई है, लेकिन हिन्दू विवाह कानून-1955 की धारा-7(1) या दूसरे पर्सनल लॉ के तहत सभी अर्हताएं पूरी भी न होती हों, तो भी महिला को सीआरपीसी की धारा-125 के तहत गुजारा-भत्ता देना होगा। (बाकी पेज दो पर) यह संबं ध
पीठ ने माननीय मुख्य न्यायाधीश से दरख्वास्त की कि इसे अन्य लोगों के बीच, साथ ही इस मसले पर बड़ी पीठ तय करे कि यदि एक पुरुष और महिला कुछ खास अवधि में बतौर पति- पत्नी रह रहे हैं तो उसे वैध शादी जैसा माना जा सकता है और इस तरह सीआरपीसी की धारा- 125 के अंतर्गत महिला गुजारे-भत्ता की हकदार होगी। यदि घरेलू हिंसा कानून-2005 के प्रावधानों के मुताबिक, सीआरपीसी की धारा- 125 के अंतर्गत गुजारे- भत्ते की दावेदारी की जाती है तो शादी के प्रमाणपत्र को अनिवार्य रूप से जमा करना होगा। यदि परंपरागत संस्कारों और अनुष्ठानों के तहत शादी हुई है, लेकिन हिन्दू विवाह कानून-1955 की धारा-7(1) या दूसरे पर्सनल लॉ के तहत सभी अर्हताएं पूरी नहीं होतीं, तो भी औरत को सीआरपीसी की धारा- 125 के तहत गुजारा- भत्ता देना होगा।
माननीय न्यायाधीश जी. एस. सिंघवी और न्यायाधीश ए. के. गांगुली ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा, 'हमारी राय है कि 'पत्नी' शब्द की व्यापक व्याख्या होनी चाहिए। उन मामलों में भी, जब एक पुरुष और एक महिला एक साथ बतौर पति-पत्नी काफी लंबे अरसे से रह रहे हैं सीआरपीसी की धारा-125 के तहत गुजारे-भत्ते के लिए शादी से पहले के सबूत नहीं देने होंगे, जिससे इस धारा के तहत लाभ-संबंधी प्रावधानों की सम्यक भावना और सारतत्व को अमल में लाया जा सकता है। हमें भरोसा है कि इस तरह की व्याख्या हमारे संविधान की प्रस्तावना में व्यक्त सिद्धांतों के अनुरूप सामाजिक न्याय और किसी की व्यक्तिगत गरिमा के दायरे में होगा।'
यह न्यायिक अनुशासन और औचित्य का तकाजा है कि न्यायाधीश काटजू और न्यायाधीश ठाकुर मामले पर ध्यान दें, जिसमें कानून के भीतर इसी मसले पर सर्वोच्च न्यायालय की दूसरी पीठ ने फैसले दिए। सीनियर एडवोकेट श्री जयंत भूषण का यह पेशेवर कर्तव्य और दायित्व है कि वह पीठ को एमिकस क्यूरी के रूप में कानून से संबंधित ऐसे मसले 7 अक्टूबर, 2010 को बड़ी पीठ के पास भेजें। ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले बार और पीठ के जरिये अपडेट होने आसान नहीं हैं। वजह यह है कि कम्प्यूटरीकरण के बावजूद इस मामले में कोई पण्राली ही नहीं खोजी गयी है। अगर व्यापक सुधारों के लिहाज से देखें, तो यह काफी गंभीर मसला है। इससे तो न्यायिक प्रक्रिया की साख प्रभावित हो सकती है। वर्तमान ढांचे के तहत तो एक पीठ दूसरी पीठ के सुनाये फैसले से पूरी तरह अनजान बनी हुई है। इस तरह सामान्य याचिकाकर्तागण एक ही नाव में यात्रा करते हुए अलग-अलग दिशाओं में भटक सकते हैं। (राष्ट्रीय सहारा, आधी दुनिया, २३.३.२०११)

Thursday, March 3, 2011

अपने ही घर में खतरों से घिरी बेटियां

राष्ट्रीय सहारा, आधी दुनिया, २.३.२०११
अपने ही घर में खतरों से घिरी बेटियां


अरविन्द जैन
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं)
बेटी से बलात्कार से खतरनाक कुछ नहीं हो सकता लेकिन ऐसे खुलासे लगातार बढ़ते जा रहे हैं। डरा-धमका कर उनका जीना मुश्किल करने वाला और कोई नहीं, उनको जन्म देने वाला बाप ही होता है। फैसलों में होने वाली दे री और महंगी कानूनी जंग किसी अबोध कन्या को कितना लाचार करती है, समझा ही जा सकता है। मानसिक रूप से दीवालिया ऐसे खौफनाक पिताओं के आतंक से मुक्ति पाने की लड़ाई की भारी कीमत चुकानी होती हैना
नाबालिग बेटियों-सौतेली बेटियों के साथ पिता द्वारा बलात्कार और यौन शोषण के मामले भारतीय समाज में भी लगातार बढ़ते जा रहे हैं, जो बेहद चिंताजनक और शर्मनाक है। किशोरियों के विरुद्ध लगातार बढ़ रहे यौन हिंसा के कारणों की विस्तार से खोजबीन अनिवार्य है। एक तरफ मीडिया में बढ़ते यौन चित्रण, पारिवारिक विखंडन, लचर कानून और न्याय व्यवस्था, ज्यादातर अपराधियों का बाइज्जत बरी हो जाना अपराधियों को बेखौफ बनाती है, मगर फैसले होने में बरसों की देरी और महंगी कानूनी सेवा, चुप रहने को मजबूर पीड़ित युवा स्त्री विरोध-प्रतिरोध कर सकती है, इसलिए भी अबोध बच्चियों पर हिंसा बढ़ रही है, नाबालिग लड़कियां अपने ही पिता या संबंधियों के खिलाफ न्याय की लड़ाई लड़ने की हिम्मत भी करें तो आखिर किसके सहारे? रिश्तों की किसी भी छत के नीचे स्त्री, अपने आपको सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रही। कुछ ही दिन पहले अखबारों में समाचार छपा था कि ‘राजधानी दिल्ली के मंगोलपुरी इलाके में 14 वर्षीय सौतेली बेटी से बलात्कार करने के आरोप में, राजेश कुमार नाम के व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया है। वह छह महीने से सौतेली बेटी का यौन उत्पीड़न कर रहा था।‘ खबर रेखांकित करती है कि वह उसकी अपनी नहीं, ‘सौतेली बेटी‘ थी। ‘सौतेली बेटी‘ से बलात्कार, क्या बलात्कार नहीं है? या ‘सौतेली बेटी‘ से बलात्कार, अपनी ही बेटी से बलात्कार से कमतर घिनौना अपराध है? अक्सर सौतेली बेटियां ही बलात्कार की अधिक शिकार होती हैं। उत्तर प्रदेश में शाहजहांपुर के कटरा इलाके में एक पिता ने अपनी बेटी को हवस का शिकार बना लिया और राज तब खुला, जब वह गर्भवती हो गयी। अमृतसर की एक कॉलेज छात्रा ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के स्थानीय नेता व अपने पिता के खिलाफ पिछले आठ बरसों से बलात्कार करने का आरोप लगाया। पुलिस के अनुसार, 20 वर्षीय कॉलेज छात्रा के अपने पिता पर पिछले आठ बरसों से यौन शोषण का आरोप लगाने के बाद अजनाला भाजपा इकाई के महासचिव अशोक तनेजा को पिछले बुधवार रात गिरफ्तार किया गया, मगर हृदय की परेशानी और असामान्य महसूस करने के कारण तनेजा को बृहस्पतिवार को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। रिश्तों को कलुषित और कलंकित करने का यह पहला और अंतिम मामला नहीं है। फिल्लौर-जालंधर में रक्त-संबंधों की तमाम मर्या दाओं को धूल में मिला अपनी ही 13 वर्षीय बेटी के साथ बलात्कार करने वाले, एनआरआई पिता (दुबई में कार्यरत) को पंजाब पुलिस ने गिरफ्तार किया, मगर आरोपी पिता सुरिंदर सिंह का कहना है- ‘वह बिल्कुल निर्दोष है और उसे पैसे के मामले में विवाद होने के कारण कुछ लोगों ने साजिश के तहत फंसाया है।‘ हरियाणा के सोनीपत जिले के नीलोखेड़ी गांव से समाचार है कि एक व्यक्ति ने पिता-पुत्री के रिश्ते की पवित्रता को खंडित करते हुए, अपनी ही 14 वर्षीय नाबालिग बेटी के साथ डेढ़ साल तक बलात्कार और यौन उत्पीड़न करता रहा। ऊपर से धमकी यह कि अगर किसी से भी शिकायत की तो, उसे जान से मार डालेगा। किसी तरह लड़की घर से भाग निकली और अपने ताऊ के पास जाकर अपनी ‘आपबीती‘ सुनाई तो ताऊ ने पुलिस थाने में जाकर मुकदमा दर्ज करवाया। लड़की की मां का कई साल पहले देहांत हो चुका है, एक भाई और एक बहन अनाथालय में रहते हैं। वह भी पहले अनाथालय में रहती थी, लेकिन डेढ़ साल पहले उसके पिता उसे वहां से ले आये और तब से आए दिन वह अपने पिता की हवस का शिकार होती रही। आरोपी पिता फरार है..। पीड़िता को मेडिकल चेकअप के लिए भेज दिया गया है और पुलिस बलात्कारी पिता की तलाश में इधर-उधर घूम रही है। लक्सर क्षेत्र के गांव केहड़ा में रहने वाले इंद्रेश (गुज्जर) का अपनी ही हमउम्र रितु (हरिजन) से प्रेम का सिलसिला पिछले दो वर्षो से चला आ रहा था। परिजनों को यह रिश्ता मंजूर न हुआ, सो एक दूसरे से मिलने पर पाबंदी लगा दी गयी। प्रेमी युगल ने बुलंदशहर जाकर कोर्ट मैरिज की और गाजियाबाद में नया जीवन जीना शुरू कर दिया। मगर समाज के तथाकथित ठेकेदारों ने पंचायत बुलाकर इंद्रेश के परिवार को गांव-बदर कर दिया और उनकी सारी संपत्ति पर कब्जा जमा लिया। रितु की मां की मौजूदगी में ही पहले उसकी बेटी के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया और उसके बाद उसकी बेरहमी से हत्या कर शव उत्तराखंड-यूपी की सीमा से सटे खेत में फेंक दिया गया। थाना न्यू आगरा क्षेत्र में एक पिता पर अपनी 11 वर्षीय बेटी के साथ बलात्कार करने का आरोप है, मगर पिता घटना के बाद से फरार है और बेटी की मां डीआईजी ऑफिस के चक्कर काट रही है। 2008 में उड़ीसा के मलकानगिरी के कुडुमुलुगुमा गांव में रहने वाले 37 वर्षीय भागबान दाकु को अपनी 14 वर्षीय पुत्री के साथ बलात्कार करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। जब ग्रामीणों ने उसकी बड़ी लड़की को गर्भवती अवस्था में पाया तो भागबान की जमकर पिटाई की और उसे पुलिस के हवाले कर दिया। रांची से सौ किलोमीटर दूर हजारीबाग जिले में पुलिस ने अपनी किशोरी बेटी (साइंस की इंटर की छात्रा) से कई वर्षो से कथित रूप से बलात्कार कर रहे पिता (सरकारी डॉक्टर) को गिरफ्तार किया। पिता उसे बचपन से ही ब्लू फिल्में दिखाकर अपने साथ सेक्स करने के लिए उकसाता रहा, मगर इस बात की शिकायत करने पर मां ने भी मामले में चुप रहने की सलाह दी। पिता के कथित यौन उत्पीड़न से हालत गंभीर होने पर एक बार उसे रांची के अपोलो अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा था, लेकिन वहां से घर वापस आने पर पिता उसके साथ बलात्कार करता रहा। गिरफ्तारी के बाद पिता ने कहा कि बेटी मानसिक रूप से बीमार है। इससे पूर्व मुंबई ट्रैफिक कांस्टेबल गणोश तुकाराम पर अपने ही सहयोगी पु लिसकर्मी की नाबालिग बेटी के साथ बलात्कार का आरोप लगा था। वह नवीं कक्षा में पढ़ने वाली लड़की को घुमाने के बहाने गणोश विरार के पाटिल रिसॉर्ट ले गया था। पुलिस ही बलात्कारी हो जाए और औरतों की अस्मत से खिलवाड़ करने लगे तो आम जनता की बहू-बेटियों की सुरक्षा कौन करेगा? मार्च 2009 में ऑस्ट्रिया के सांक्ट पोएल्टेन शहर की अदालत ने फ्रीत्ज्ल को अपनी बेटी को सेक्स गुलाम बनाने और 24 साल तक अपने घर के तहखाने में कैद कर उसके साथ व्यभिचार करने के अपराध में उम्रकैद और बाकी उम्र किसी पागलखाने में गुजारने की सजा सुनाई थी, क्योंकि मानसिक रोग विशेषज्ञ के अनुसार ‘73 साल का फ्रीत्ज्ल महसूस करता है कि उसका जन्म बलात्कार करने के लिए ही हुआ है।‘ मार्च में ही मुंबई पुलिस ने 60 साल के व्यापारी को ‘अपनी ही दो बेटियों के साथ बलात्कार‘ के आरोप में गिरफ्तार किया। इस कुकृत्य में बाप ही नहीं, लड़कियों की मां भी शामिल थी और दोनों पति-पत्नी ऐसा इसलिए कर रहे थे क्योंकि तांत्रिक ने कहा था- ‘ऐसा करने से उनके घर की उन्नति होगी।‘ व्यापारी ने पहले अपनी बड़ी बेटी के साथ 11 साल की उम्र से ही बलात्कार करना शुरू किया और कुछ महीने पहले 15 साल की बेटी को भी अपनी हवस का शिकार बना डाला। ऑस्ट्रिया के जोसफ फ्रिट्जल के समान ही 2004 में एक मामला भोपाल में भी सामने आया था, जहां 13 साल की बेटी के साथ उसका पिता बलात्कार करता था। अप्रैल-2005 में ऐसा ही अपराध हैदराबाद में भी हुआ, जहां 14 साल की बेटी पिता द्वारा बलात्कार के कारण गर्भवती हो गई थी। अक्टूबर-2006 में 25 साल की एक महिला ने भी अपने पिता (कानपुर में एसडीएम) पर आरोप लगाया था कि वह करीब एक साल से ज्यादा समय से उसके साथ बलात्कार कर रहा था। जून-2010 में यह खबर छपी थी कि मेरठ में ‘अपनी ही बेटी‘ से बलात्कार के आरोप में गिरफ्तार, एक पिता (सूरज कुमार, उम्र 40 साल) ने हवालात में रोशनदान की खिड़की से अपनी कमीज बांध फांसी लगाकर खुदखुशी कर ली। यहां आत्महत्या ‘अपनी ही बेटी‘ से बलात्कार के अपराध-बोध का परिणाम है या उम्रकैद की सजा और समाज में बदनामी का भय?



अक्टूबर-2009 में ‘अपनी नाबालिग बेटी‘ से बलात्कार के दोषी एक व्यक्ति को मुंबई की अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनायी, मगर अपराध में मदद करने और उकसाने की आरोपी उसकी पत्नी को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया। सत्र न्यायाधीश पी. ए वाघेला ने भरत राठौड़ को उम्रकैद की सजा सुनाते हुए कहा- ‘यह जघन्य और शर्मनाक घटना है और दोषी अधिकतम सजा पाने का हकदार है।‘ दरअसल, पिता से तो अपने बच्चों की सुरक्षा करने की उम्मीद की जाती है, परंतु वह ही शिकारी बन जाए, तो बच्चों की हिफाजत कौन करेगा? नवम्बर, 2010 में अम्बाला के सैशन जज बी एम बेदी ने आठ वर्षीय बच्ची से दुष्कर्म और हत्या के मामले में फांसी की सजा सुनाई थी। आरोपी बच्ची को टॉफी देने का लालच देकर अपने साथ ले गए थे और बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर दी थी। जनवरी, 2011 में मेरठ के अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश श्याम विनोद ने एक पिता को ‘अपनी सात वर्षीय बेटी से बलात्कार‘ करने और बाद में हत्या कर देने के जुर्म में, मौत की सजा सुनाई। ऐसे ‘जघन्य‘
अपराधों में अभियुक्त के साथ किसी भी तरह की ‘सहानुभूति‘ समाज के लिए बेहद खतरनाक ही साबित होगी। फरवरी, 2011 को गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायाधीश आरएस विर्क ने सात वर्षीय बच्ची से दुष्कर्म और हत्या के मामले में 25 वर्षीय रामनारायण को 14 साल की सजा व 50 हजार रुपए जुर्माना तथा हत्या के मामले में फांसी की सजा सुनाई। किराये के मकान में रहने वाले रामनारायण ने नवम्बर, 2009 में अपनी पड़ोसी सात वर्षीय बच्ची को बहला कर उठा ले गया और बाद में खाली प्लॉट में बच्ची का शव मिला। ‘उम्र कैद‘ या ‘सजा-ए-मौत‘ के फैसले, अपीलों में अदालती सहानुभूति या कानूनी बारीकियों का फायदा उठाकर, सजा कम करवाने या छूट जाने में भी बदल सकते हैं छोटी बच्चियों से बलात्कार और हत्या के अनेक फैसले गवाह हैं। सो, गिनाने की जरूरत नहीं। अबोध-निर्दोष बच्चियों की (घर-बाहर-स्कूल-अस्पताल) सुरक्षा के लिए, नए सिरे से सोचना बहुत जरूरी है। सरकार, राष्ट्रीय महिला आयोग और महिला संगठन ही नहीं, बल्कि सं पूर्ण समाज को इस विषय पर गंभीरतापूर्वक ठोस कदम उठाने होंगे। हालांकि अब भी काफी देर हो चुकी है।