Wednesday, April 27, 2011

शादी का झूठा आश्वासन यौन शोषण

राष्ट्रीय सहारा (आधी दुनिया) २७.४.२०११
शादी का झूठा आश्वासन यौन शोषण


अरविंद जैन
अधिकतर रेप के मामले अनियंत्रित यौन-वासना को संतुष्ट करने के लिए सावधानी से रचे होते हैं और कामुक फिल्मी छवियों का एहसास और फैंटेसी का एकमात्र उद्देश्य महिलाओं पर हावी होना है। दरअसल, वास्तविक बलात्कार या 'डेट रेप' करने से पहले बलात्कारी के दिमाग में नशे की तरह कई बार रिहर्सल होता है। सदा ही पीड़िता को ही दोषी ठहराया और अपमानित किया जाता है और खुद के परिजनों द्वारा 'कथित फेमिली ऑनर एंड रिप्यूटेशन' के लिए भी अपमानित किया जाता है। शादी का झांसा देकर किसी लड़की के साथ शारीरिक रिश्ते बनाना और बाद में शादी के बंधन में बंधने से मना करना बलात्कार के दायरे में जाता है, वह भी तब जब लड़के का लड़की से शादी करने का कोई इरादा न हो। हम इसे 'शादी की आड़ में यौन शोषण' कह सकते हैं। अधिकतर लड़के शादी का झांसा देकर शारीरिक रिश्ते बनाते हैं और तब तक बनाते रहते हैं जब तक लड़की गर्भवती नहीं हो जाती। कुछ समय बाद गर्भपात कराना भी मुश्किल हो जाता है और फिर ये बातें परिवार और पड़ोसियों की नजर में आ ही जाती हैं। बाद के अधिकतर मामलों में दोषियों के खिलाफ मामले दर्ज होते हैं। भारतीय अदालतों ने कई बार सवाल उठाए हैं- 'किसी लड़की से शादी का झूठा वायदा करके शारीरिक रिश्ते बनाना गलत सहमति है या नहीं? यदि वह बलात्कार नहीं है तो यह धोखेबाजी है या नहीं?'
शादी के झूठे वादे देकर बालिग लड़की की सहमति से तब तक शारीरिक रिश्ते कायम करना, जब तक कि वह गर्भवती न हो जाए, तो इसे स्वच्छंद संभोग कहा जाएगा
जयंती रानी पांडा बनाम पश्चिम बंगाल सरकार और अन्य के मामले में कलकत्ता हाईकोर्ट ने स्थानीय गांव के उस स्कूल शिक्षक को दोषी ठहराया, जो पीड़िता के घर जाता था। पीड़िता के मां-बाप की अनुपस्थिति में उसने उसके करीब जाकर अपने प्यार का इजहार किया और शादी करने की इच्छा जताई। पीड़िता भी तैयार हो गयी और उसने आरोपी से वायदा किया कि अपने माता-पिता की समर्थन मिल जाने के साथ ही वह उससे शादी कर लेगा। इस आश्वासन के बाद आरोपी पीड़िता के साथ शारीरिक रिश्ते बनाने लगा। यह सिलसिला कई महीनों तक चला। इस अवधि में आरोपी ने कई रातें उसके साथ गुजारीं। आखिरकार जब वह गर्भवती हो गई और जोर देने लगी- अब हमें जल्द से जल्द शादी कर लेनी चाहिए तो आरोपी ने उस पर गर्भपात कराने का दबाव डालकर बाद में शादी करने पर सहमति जताई। पीड़िता ने उसकी बात नहीं मानी और आरोपी अपने वादे से मुकर गया, यहां तक कि उसने पीड़िता के घर आना-जाना बंद कर दिया। इसका अर्थ यह है कि अगर बालिग लड़की शादी के वादे के आधार पर शारीरिक रिश्ते को राजी होती है और तब तक इस गतिविधि में लिप्त रहती है जब तक कि वह गर्भवती नहीं हो जाती, यह उसकी ओर से स्वच्छंद संभोग (प्रॉमिस्क्यूटी) के दायरे में आएगा। ऐसे में, तथ्यों की गलत इरादे से प्रेरित नहीं कही जा जाएंगी। आईपीसी की धारा-90 के तहत कुछ नहीं किया जा सकता, जब तक अदालत आश्वासन न दे दे कि रिश्ते बनाने के दौरान आरोपी का इरादा शादी करने का नहीं था। (1984 सीआरआई.एल.जे. 1535, हरि माझी बनाम राज्य : 1990 सीआरएल.एल.जे. 650 और अभ्ॉय प्रधान बनाम पश्चिम बंगाल राज्य : 1999 सीआरएल.एल.जे 3534)
शादी का झूठे वायदे को लेकर दिया गया सोचा-समझा पल्रोभन महज धोखाधड़ी बंबई हाईकोर्ट के न्यायाधीश बी. बी. भग्यानी ने कहा कि ऐसे मामले काफी कम ही ध्यानार्थ सामने आते हैं कि आईपीसी की धारा-415 के तहत धोखाधड़ी को अपराध के दायरे में परिभाषित किया गया है। याचिका को निरस्त करने के निर्णय के दौरान न्यायाधीश भग्यानी ने माराह चंद्र पॉल बनाम त्रिपुरा राज्य की सुनवाई (1997 सीआरआई 715) को ध्यान में रखा और इस पर कायम रहे कि पीड़िता को जानबूझ कर शादी के वादे के झांसे में रखकर शारीरिक रिश्ते बनाने के लिए उकसाया गया था। याचिकाकर्ता-अभियुक्त के कार्य निश्चित रूप से शरीर, मन और सम्मान को क्षति पहुंचाने की वजह हैं। शादी का झूठा वायदा कर जानबूझकर दिए गए पल्रोभन के बाद याचिकाकर्ता और आरोपी के शारीरिक रिश्ते 'धोखाधड़ी' की परिभाषा के तहत 'शरारत'
के दायरे में आते हैं, जैसा आईपीसी की धारा-415 के तहत परिभाषित किया गया है और जो आईपीसी की धारा-417 के तहत दंडनीय है। (आत्माराम महादू मोरे बनाम महाराष्ट्र राज्य (1998 (5) बीओएम सीआर 201 आदेश- दिनांक 13/11/1997) (शेष पेज 2 पर)
धोखाधड़ी
जयंती रानी पांडा मामले में पटना हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति राम नंदन प्रसाद ने कहा कि मामले से जुडे तथ्यों को देखते हुए पाया गया कि बलात्कार अपराध से अलग नहीं है। शादी के झूठे वायदे की आड़ में लड़का आरोपी को धोखे में रखकर लगातार शारीरिक रिश्ते बनाता रहा, लेकिन झूठे वादे की आड़ में वह शारीरिक रिश्ते कायम करने के लिए राजी नहीं थी। याचिकाकर्ता का दायरा, इसलिए आईपीसी की धारा-415 के तहत धोखाधड़ी के रूप में परिभाषित है और आईपीसी की धारा-417 के तहत प्रथम-दृष्ट्या अपराध सिद्ध होता है। धोखाधड़ी के इस कृत्य के अलावा, याचिकाकर्ता और दूसरे आरोपियों पर डराने-धमकाने में लिप्त रहने का आरोप लगाने और शिकायतकर्ता और उसके माता-पिता को डराने के मामला भी आईपीसी की धारा-506 और 323 के तहत अपराध है। (मीर वाली मोहम्मद उर्फ कालू बनाम बिहार सरकार (1991 (1) बीएलजेआर 247 आदेश दिनांक 2/7/1990)
परिवार की ओर से सच्चा दबाव
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति पी. वेंकटरमन रेड्डी और पीपी नेवलेकर ने 03.11.2004 को फैसला सुनाया- 'हमें इसमें संदेह नहीं कि आरोपी ने लड़की से शादी का वायदा किया था और इसी प्रभाव से लड़की ने उसके साथ शारीरिक रिश्ते भी बना लिया। लड़की भी उससे शादी करने को उत्सुक थी, जैसाकि उसने खासतौर पर कहा भी। लेकिन हमारे पास बात के कोई सबूत नहीं हैं कि किसी ठोस संदेह के हम इस संदर्भ में यह कह दें कि आरोपी का शुरू से ही लड़की के साथ विवाह का कोई इरादा नहीं था और यह कि लड़के ने जो वायदा किया, वह उसकी जानकारी के मुताबिक झूठा था। इसके विपरीत, बाद में लड़की का यह बयान कि आरोपी उससे विवाह करने को तैयार हो गया था लेकिन उसके पिता और दूसरे लोगों ने उसे गांव से दूर ले गये। इससे संकेत मिलता है कि आरोपी असल में विवाह का इरादा तो रखता था लेकिन परिवार के बड़े-बुजुगरे के दबाव में ऐसा नहीं कर पाया। यह विवाह करने के वायदे को लेकर वायदा खिलाफी का मामला प्रतीत होता है, न कि विवाह के झूठे वायदे का मामला।' (दिलीप सिंह उर्फ दिलीप कुमार बनाम बिहार राज्य, 2005 (1) सुप्रीम कोर्ट 88)।
निंदनीय कृत्य के एवज में पचास हजार
न्यायमूर्तियों ने हालांकि, गौर किया कि याचिकाकर्ता ने अपने विरुद्ध लगे आरोप में संदेह का लाभ लेते हुए दंड कानून के दायरे से खुद को अलग कर लिया। लेकिन, हम उसके निंदनीय आचरण को अनदेखा नहीं कर सकते, क्योंकि उसने पीड़ित लड़की से विवाह का वायदा कर उसे शारीरिक रिश्ते बनाने के लिए फुसलाया, जिसके चलते वह गर्भवती हो गयी। आरोपी के इस कृत्य से लड़के को काफी दुख हुआ, यहां तक कि उसकी बदनामी हुई, जिससे वह सदमे में पहुंच गयी। आरोपी इस नुकसान का दोषी है और वह मुकदमा खत्म करने के लिए लड़की को पचास हजार रुपये खुशी-खुशी देने को राजी हो गया।
लड़की की कम उम्र ज्यादा संवेदनशील
विश्लेषण करने पर पता चला कि जिस समय यह सब हुआ, जयंती रानी पांडा की आयु 21- 22 साल थी, जबकि येदला श्रीनिवास राव के मामले में लड़की की आयु 15 से 16 साल के बीच थी। यह साक्ष्य का मामला है कि लड़की से झूठे वायदे करके उसकी सहमति या उसकी राय की गयी और आरोपित को पता था कि वह कभी अपने वायदे को पूरा करने का इरादा नहीं रखता। यदि आरोपी कम उम्र की लड़की को फुसलाकर उससे विवाह करने का वायदा कर ले, तो ऐसे में यह उसकी सहमति नहीं होती, बल्कि फुसलाकर किया गया कृत्य होता है और आरोपी शुरू से ही अपने वायदे को पूरा करने का इरादा नहीं रखता। ऐसी कपटपूर्ण सहमति को सहमति नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अपराध के लिए हामी भराना आरोपी का अपराध है।

पर्याप्त समझ, महत्व और नैतिक गुण
उदय बनाम कर्नाटक सरकार के मामले में 19.2.2003 को सुप्रीम कोर्ट ने दृढ़तापूर्वक कहा कि कोई कड़ा फामरूले नहीं रखा जा सकता कि पीड़िता ने स्वैच्छिक सहमति से ही रिश्ते बनाए हों या किसी गलत इरादे के अंतर्गत है लेकिन निम्नलिखित मामले सामने होते हैं : क) यदि लड़की की उम्र 19 साल है और उनमें इस करतूत के महत्व और नैतिक गुण की पर्याप्त समझ है, उसकी सहमति मानी जाएगी। ख) उसे मालूम है कि जाति के आधार पर उनकी शादी होने में परेशानी है। ग) याचिकाकर्ता के संज्ञान में यह आरोप लगाना काफी मुश्किल है कि उसके वायदे से पैदा हुई गलतफहमी के चलते पीड़िता राजी हुई थी और घ) इस मामले में साबित करने का कोई साक्ष्य नहीं है कि आरोपी का पीड़िता से शादी करने का कभी इरादा नहीं था।
भावनाओं और नाजुक पलों में जुनून से जुड़े मामले
न्यायाधीश एन. संतोष हेगड़े और बी. पी. सिंह ने गंभीर संदेह जताया था कि शादी के वादे के चलते आरोपी पीड़िता पर शारीरिक रिश्ते बनाने के लिए दबाव डाल सकता है, क्योंकि वह जानती है कि जाति के आधार पर आरोपी के साथ उसकी शादी नहीं हो सकती और दोनों परिवारों के सदस्यों का विरोध झेलने के लिए मजबूर होंगे। वह पूरी तरह जानती है कि अपीलकर्ता द्वारा किये के बावजूद शादी नहीं हो सकती। हालांकि अपीलकर्ता के पास ऐसा विश्वास करने के कारण हैं क्योंकि जब भी वे मिलते हैं, एक-दूसरे को बहुत प्यार करते हैं, वह उस लड़के को काफी छूट देती है, जिससे वह बेहद प्यार करता है, सिर्फ उसी के लिए ऐसी छूट भी है। याचिकाकर्ता लड़की ने रात 12 बजे सुनसान जगह पर चुपचाप गयी। जब दो लोग जवान हों, तो आमतौर पर ये होता ही है कि वे सभी अहम बातों को भुलाकर जुनून में आकर प्यार कर बैठें, खासकर तब जब वे कमजोर क्षणों में अपनी भावनाओं पर काबू न कर पायें। ऐसे में, दोनों के बीच शारीरिक रिश्ते कायम हो ही जाते हैं। लड़की स्वेच्छा से लड़के के साथ रिश्ते कायम करती है, वह उस लड़के से बेहद प्यार करती है, इसलिए नहीं कि उस लड़के ने उससे शादी के वायदा किया था, बल्कि इसलिए कि लड़की ऐसा चाहती भी थी। (सुप्रीम कोर्ट 46 2003 (4))
शुरू से ही शादी का इरादा नहीं
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एके माथु र और अल्तमस कबीर ने 29.09.2006 को फैसला सुनाया- 'हम संतुष्ट हैं कि आरोपी ने उसे राजी करते हुए सबकुछ किया, लेकिन वह ऐ च्छिक भी नहीं था क्योंकि याची ने शादी करने जैसा वायदा करके उसे फुसलाया। कानून इसकी इजाजत नहीं देता। पीड़ित लड़की और गवाहों की गवाही से पूरी तरह स्पष्ट होता है कि गवाह पंचायत की तरह काम कर रहे थे। आरोपी ने पंचायत के समक्ष स्वीकार किया कि उसने लड़की के साथ शादी करने का वायदा कर उसके साथ शारीरिक रिश्ते बनाये लेकिन पंचायत के समक्ष वायदे करने के बावजूद वह पलट गया। इससे पता चलता है कि आरोपी का शुरू से ही लड़की से विवाह करने का कोई इरादा नहीं था और वह पीड़िता से शादी करेगा, इसका झांसा देकर उसने शारीरिक रिश्ते बनाये। अतएव, हम संतुष्ट हैं कि प्रतिवादी को सजा देना न्यायसंगत है। हमारे निष्कर्ष के मुताबिक, कोई मामला नहीं बनता। अपील खारिज की जाती है।' (यादला श्रीनिवास राव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, आपराधिक अपील 1369, 2004) माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में लड़की की उम्र, उसकी शिक्षा और उसके सामाजिक स्तर और लड़के के मामले में भी इन्हीं सब पर गौर किया जाना जरूरी है। याची लड़की स्वयं इस कृत्य में बराबर की भागीदार है। वह इस मामले में प्रतिवादी को माफ करना चाहती है लेकिन एक गरीब लड़की के मामले में ऐसे हालात में जबकि उसके पिता की मौत हो गयी हो, तो वह समझ नहीं पा रही कि किन हालात के चलते वह ऐसे कृत्य में फंस गयी और जब आरोपी ने उससे शादी का वायदा किया, लेकिन शुरू से ही वह शादी करने का इरादा नहीं रखता था। ऐसे में, लड़की के हामी भरने की कोई अहमियत नहीं है। उससे गलतफहमी में हामी भरवाना धोखा है। इसे लड़की की मंजूरी नहीं माना जा सकता।
मासूम लड़की का शोषण
दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति वी के जैन ने 1 फरवरी, 2010 को आरोपी की जमानत याचिका खारिज करते हुए ऐसे आपराधिक कृत्य की निंदा करते हुए लिखा- 'इस पर गौर करने पर कि आरोपी ने शादी का झांसा देकर लड़की से शारीरिक रिश्ते बनाये, इस आशय से कि उससे विवाह का उसका कोई इरादा नहीं था, कोई बलात्कार का मामला नहीं बनता। यह न सिर्फ घोर निंदनीय कृत्य है बल्कि प्रकृति से भी आपराधिक है। यदि ऐसा हो ने रहने की अनुमति दी जाए, तो इससे इनसान अनैतिक और बे ई मानी बनेगा। जो भी इस इरादे से इस देश में आएगा, शादी का ढोंग रचाएगा और कमजोर वर्ग की लड़की से शारीरिक रिश्ते बनाने का दबाव डालकर उनका शोषण करेगा। उधर, लड़की को यकीन रहेगा कि वह उसके साथ शादी करेगा। उसे भी यही लगेगा कि जिससे भविष्य में शादी होनी है, वह पति बनेगा ही, कम से कम उससे शादी से रिश्ते रखने में कुछ भी गलत नहीं है। इस वायदे का हवाला देकर उसके साथ दुष्कर्म करके आरोपी आराम से जब चाहे, चलता बनेगा। ऐसे मौकापरस्त लोगों को लड़की की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने का लाइसेंस नहीं दे सकती। इस तरह तो शादी के पवित्र रिश्ते में भारतीय लड़की को डाल देना कोई दो दिलों का मेल नहीं है। बेसहारा लड़कियों का शोषण करने वाले ऐसे लोगों को बेखौफ बच निकलना हमारे ऐसे कानून का मकसद कभी नहीं हो सकता, जो इस घिनौने कृत्य के बाद ताउम्र जेल की सजा का हकदार है।' (निखिल पराशर बनाम राज्य)
बेसहारा या सेक्स-संबंधी असंतुष्टि
बंबई हाईकोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति बी. यू. वाहाने ने शिवाजी पुत्र श्रवण खैरनार बनाम महाराष्ट्र राज्य (1991) मामले में वयस्क लड़की द्वारा सहमति के हालात या शारीरिक रिश्ते बनाने में इच्छा से एक पार्टी बन जाने संबंधी दलील दी। विद्वान न्यायमूर्ति ने सामाजिक अनुभव के आधार पर स्पष्ट किया कि वयस्क लड़की से चालबाजी से उसकी सहमति ले ली जाए, वह भी तब जब वह बेसहारा और सेक्स को लेकर असंतुष्ट हो, उसे पैसे की जरूरत हो, इसलिए बहाने से उसे प्रभावित किया जाए या हामी भरने का हालात बनाये जाएं आदि में भारतीय औरतों की सोच को लेकर न्यायिक संदर्भ का हवाला दिया।
विवाह करने संबंधी वायदे के साथ सेक्स करना और गर्भवती होने पर पुलिस रिपोर्ट वर्ग, धर्म, क्षेत्र, आयु या सामाजिक स्तर संबंधी ज्यादातर मामले एक जैसे होने पर आदमी लड़की पर सेक्स के लिए दबाव बनाता है, विवाह करने का भरोसा देकर गर्भवती करता है, परिवार और पुलिस का रिपोर्ट के संदर्भ में बरी होने, संदेह का लाभ पाने या उच्च अदालत में सजा..अपील और इस तरह अंतिम न्याय मिलने में पांच से बीस साल लगना। ये वे मामले हैं, जो समूचे मामलों की नजीर भर हैं। (लम्बोदर बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य, 103 (2007) 399 सीएलटी और ज्योत्स्ना कोरा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, 2008 के सीआरआर नं.2657)
कानूनी नजरिया उलझन भरा
इस खास संदर्भ में कानूनी राय और फैसले सीधे-सीधे बंटे हुए हैं और सहमति और तथ्यों के उलझाव में उलझे हुए हैं, क्योंकि कानून पूरी तरह पारदर्शी नहीं है और फैसले हर मामले के तथ्यों और हालातों के आधार पर होते हैं। न्यायिक राय को लेकर आमराय यही है कि विवाह का वायदा कर पीड़िता से शारीरिक रिश्ते की सहमति लेना कि भविष्य में वह विवाह करेगा, गलत तथ्यों के तहत ली गयी सहमति नहीं कही जा सकती। कुछ अदालतों का विचार है कि विवाह करने का झूठा वायदा करने को लेकर दी गयी कथित सहमति विवाह का राजीनामा नहीं है। इसके मुताबिक, विवाह के झूठे वायदे को लेकर पति-पत्नी जैसा शारीरिक रिश्ता बनाने संबंधी सहमति हासिल करना कानूनी नजरिये से सहमति ही नहीं है। ऐसे मामलों में सबसे कठिन काम यह साबित करना होता है कि आरोपी का शुरू से ही पीड़ित लड़की से विवाह करने का कोई इरादा नहीं था। वह कह सकता है कि मैं विवाह करना तो चाहता हूं लेकिन मेरा माता-पिता, धर्म, जाति, 'खाप' आदि इसके लिए अनुमति नहीं देते। औरत के खिलाफ अपराध संबंधी किंतु -परंतु को लेकर जब तक कानून में संशोधन नहीं होता, न्याय से जुड़े ऐसेकानूनी पेंच यूं ही कायम रहेंगे।

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