Thursday, January 27, 2011

संविधान, समाज और स्त्री: अरविन्द जैन



राष्ट्रीय सहारा, आधी दुनिया, (२६ जनवरी २०११)

‘समानता का अर्थ है समान लोगों में समानता’ (संविधान के अनुच्छेद-14 पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय)

हमने स्त्री को पूजनीय माना लेकिन उसके सामाजिक सरोकार की हर रोज जानबूझकर धज्जियां भी उड़ाई। उसके अधिकारों की हिजाफत को लेकर कई कानून हैं। गणतंत्र के साये में उन्हें कमतर समझने की गलती हम अब भी कर रहे हैं

हमारे देश का पूरा न्यायिक ढांचा, सारे कानून और कानूनी-प्रक्रिया 1947 में स्वतंत्रता- प्राप्ति के समय वही थी जो अंग्रेजों के शासनकाल में थी। लेकिन 26 जनवरी, 1950 को हमारा अपना संविधान बना। लिहाजा, उन हिस्सों को हमने अपने कानून के दायरे से बाहर निकाल दिया, जो कहीं न कहीं हमारे राष्ट्रीय आंदोलन की भावना के प्रतिकूल थे, अन्यथा तमाम कानून पूर्ववत रहे, चाहे भारतीय दंड संहिता हो, आपराधिक प्रक्रिया संहिता हो, साक्ष्य अधिनियम हो या दूसरे कानून हों। 1950 में अपना संविधान बनने के बाद पहली बार मौलिक अधिकार, समानता का अधिकार, अभिव्यक्ति और संपत्ति का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार.. न्याय और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों की बात हुई। इसके बाद 1955-56 में कुछ नए कानून बने और कुछ कानूनों में संशोधन हुआ। हिन्दू विवाह अधिनियम, उत्तराधिकार अधिनियम, भरण-पोषण अधिनियम, दत्तक ग्रहण जैसे कानून अस्तित्व में आए। नए कानून, नए अधिकार और नई न्याय- व्यवस्था का एक विश्वास भारतीय जनमानस में पैदा हुआ। न्याय-व्यवस्था पर समग्र रूप से गहन चिंतन करने की आवश्यकता है। ब्रिटिश काल के दौरान बने कानून अपने आप में पूर्ण हो सकते हैं। मसलन, भारतीय दंड संहिता जिसमें अब तक बहुत कम संशोधन हुए हैं मगर, आजादी के बाद भारतीय संसद ने जो कानून बनाए, उनमें पूर्णता का अभाव दिखाई देता है। कोई भी कानून जब तक पूर्ण दस्तावेज बनकर समाज के सामने नहीं आता, तब तक उस कानून से कोई लाभान्वित नहीं होता। अगर कानून अपने में पूर्णता लिये हुए नहीं है और उससे बच निकलने के रास्ते मौजूद हों तो उसे लागू करना अर्थहीन हो जाता है। 1860 के कानूनों से 2000 के भारतीय समाज को न्याय दे पाना असंभव लगता है और ‘संविधान के मूल ढांचे में संशोधन नहीं किया जा सकता’ (सुप्रीम कोर्ट)। भारत के जिन लोगों के नाम पर संविधान के कायदे-कानून, नियम और अधिनियम बनाए गए हैं, उनमें से ज्यादातर लोग अनपढ़, अंगूठा टेक हैं, लेकिन कानून की अज्ञानता उनके लिए भी कोई बहाना नहीं हो सकती। हालांकि अच्छे- खासे, पढ़े-लिखे लोग तो दूर, कानून-विशेषज्ञों, वकीलों और न्यायाधीशों में से शायद ही कोई ऐसा मिले, जिसे देश के सभी कानूनों की पूरी जानकारी हो। सच है कि समय और समाज बदलने के साथ-साथ नए कानून भी बनाने पड़े और अपने संविधान में भी संशोधन करने पड़े। श्रम कानून, सामाजिक कानून, दहेज कानून, सती कानून, विदेशी मुद्रा कानून और अनेक नए कानून बने। लेकिन कानून का सहारा लेकर जिस तरह अंग्रेज दमन करते थे, उसी तरह हमारे यहां व्यवस्था द्वारा दमन हुआ। प्रभुता-संपन्न वर्ग कानून को हमेशा अपने अस्तित्व को बचाने या बनाए रखने के लिए बनाता है।

उसकी व्याख्याएं लोकतांत्रिक देशों में न्यायपालिका द्वारा अपने ढंग से की जाती हैं लेकिन मूलत: यह सारा अधिकार संसद के पास है। इतने वर्षो का इतिहास देखें तो कुछ समय को छोड़कर देश पर एक दल ने ही शासन किया और उसने पूरे अधिकार के साथ जो चाहे, वे कानून बनाए। कुछ कानून, जो ऐसा लगता भी है कि सामाजिक संदभरे में औरतों के लिए, बच्चों के लिए, मजदूरों के लिए बनाए गए, वे भी इतने आधे-अधूरे बनाए गए कि उनका पूरा लाभ इन वगरे को नहीं मिल पाया। अपराध, बलात्कार, औरतों के प्रति अत्याचार, दहेज के कारण होने वाली मौ तें, कहीं भी किसी जगह कोई कमी नहीं आई। साठ से ज्यादा बरसों में कानून का सामाजिक न्याय के साथ जो रिश्ता बना, वह यह है कि अपराध करने वाले 98 प्रतिशत लोग छूट जाते हैं। कानून की अपनी बारीकियां हो सकती हैं लेकिन मूलत: कानून का जो ढांचा हमारे पास है, उसमें जो भी कानूनी सुविधाएं हैं ये साधन-सम्पन्न लोगों के लिए अधिक हैं। गरीब आदमी आज भी पुलिस, कोर्ट-कचेहरी और कानून से डरता है। शायद उतना ही डरता है जितना अं ग्रेजों के शासनकाल में डरता था क्योंकि कानून आज भी उसकी पहुंच से बाहर है। जिस व्यक्ति के पास पैसा है, वह अच्छा वकील करने की स्थिति में है, वर्षो मुकदमा लड़ सकता है। लेकिन गरीब आदमी की स्थिति यह है कि वह न वकीलों की फीस देने की स्थिति में है और न सबेरे से शाम तक कोर्ट-कचेहरी में बैठने की स्थिति में। बड़ी मुश्किल से कहीं से पैसा जुटाकर कनिष्ठ वकील कर भी लिया तो वह वरिष्ठ वकील के मुकाबले कहीं खड़ा नहीं हो पाता। संविधान के एक-एक अनुच्छेद और कानून की एक-एक धारा के बारे में विभिन्न मत हैं। देश की सबसे बड़ी न्यायिक संस्था ‘उच्चतम न्यायालय’ अपने ही फैसलों को कितनी बार रद्द किया है। अधिनियम, नियम, अधिसूचनाएं और निर्णयों की बहुतायतता हो गई है।

वकीलों को ही समझ नहीं आता तो आम लोगों को क्या समझ में आएगा? लोग किसी निर्णय को सुनकर खुश होते हैं। अरे! यह तो मेरे पक्ष में है, अगले दिन सुनने में आएगा कि इस निर्णय को तो उच्च न्यायालय ने खारिज (ओवर रूल) कर दिया। उच्च न्यायालय के निर्णय को अगले साल उच्चतम न्यायालय ने खारिज कर दिया और उच्चतम न्यायालय का निर्णय है तो उसने उसे स्वयं खारिज कर दिया। तो आप पता लगाते रहिए कि कौन-से निर्णय वैध हैं और किन्हें खारिज कर दिया गया है। इसकी वजह से एक भयंकर जटिल स्थिति बनती जा रही है । कुल मिलाकर, वर्तमान भारतीय कानू न- व्यवस्था ऐसा घना-अंधेरा जंगल हो गया है जिसे पार करना बेहद जोखिमभरा काम है और शायद इसीलिए आम आदमी कोर्ट-कचेहरी के नाम तक से आतंकित रहता है। कानून, पुलिस, अदालतों और वकीलों का भय छोड़, कर्ज लेकर खर्च करने के बाद भी बरसों तक अगर किसी मुकदमे (दीवानी या फौजदारी) का निर्णय ही न हो तो वह क्या करे? न्याय मिलने में विलम्ब का अर्थ हैन् याय का न मिलना। तो फिर क्या उसके साथ न्याय हो रहा है? या ऐसे में न्याय हो भी सकता है या नहीं? अगर न्याय सस्ता और शीघ्र सुलभ हो ही नहीं सकता, तब क्या जरूरी नहीं है कि पूरी कानून और न्याय-व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन हो, ताकि हर नागरिक के साथ न्याय हो सके? न्याय की नींव का नया पत्थर कब रखा जाएगा? कहना अभी बहुत मुश्किल है। यही वजह है कि आज दे श में बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, अशिक्षा और अकाल जैसे समस्याएं हैं। बाल मजदूरी के खिलाफ कानून बना, बाल विवाह के खिलाफ कानून बना, क्या इनमें से कोई भी समस्याा हल हो पाई ? जाहिर है- नहीं। और ऐसा नहीं है कि इन कानूनों का पालन ठीक से न हो पाने के कारण यह समस्या जैसी की तैसी मौजूद है।

अगर इन कानूनों को पूरी ईमानदारी से लागू किया जाए, तब भी इनमें से कोई समस्या खत्म नहीं होनेवाली, क्योंकि हमने जो कानून बनाए उनका अगर बारीकी से अध्ययन करें तो पता चलेगा कि ये इतने आधे- अधूरे हैं कि इनके लागू करने से भी कुछ नहीं होगा। अब तक सैकड़ों नए कानून बने, सै कड़ों बार उनमें संशोधन हुआ लेकिन कानून के मूल ढांचे में कोई खास परिवर्तन नहीं होने वाला। भारतीय दंड संहिता, साक्ष्य अधिनियम, आपराधिक प्रक्रिया संहिता, व्यक्तिगत कानून आदि में कहीं कोई मूलभूत परिवर्तन नहीं किया गया या जो नए कानून बने भी, उनमें इतने छिद्र हैं कि उनको पास करने से भी कुछ नहीं हुआ। सवाल है, ऐसी क्या खामियां रह गई हैं कि आम समाज और न्याय के बीच की दूरी कम होने की बजाय बढ़ती चली गई? इस मामले में सबसे पहले हमें कानून को अपने समाज के स्तर पर देखना चाहिए था, संसद के स्तर पर देखना चाहिए था और क्रियान्वयन के स्तर पर देखना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। न्यायपालिका में जो लोग बैठे हैं उनका आम आदमी से जो सरोकार होना चाहिए था, वह नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि न्याय पण्राली में सुधारवादी आंदोलन न चले हों। न्यायमूर्ति पी. एन. भगवती से लेकर न्यायिक सक्रियता के इस दौर तक अनेक ऐसे आंदोलन चले और उनका कुछ-न- कुछ लाभ भी समाज को हुआ होगा लेकिन स्वतंत्रता के इन वर्षो में हम न्यायपालिका की तटस्थ आलोचना की परंपरा भी विकसित नहीं कर पाए। हमारे यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात आती है लेकिन कोई पत्रकार न्यायपालिका पर कोई टीका-टिप्पणी करना चाहे तो उसके सामने हमेशा अदालत की अवमानना की तलवार लटकती रहती है। न्यायपालिका का यह डर भी इतने वर्षो में नहीं निकल पाया। (बाकी पेज दो पर)

सारी जनहित याचिकाओं के बावजूद और सारी न्यायिक सक्रियता के ‘छाया युद्ध’ के बावजूद क्या हम बलात्कार की शिकार महिलाओं को कोई राहत दे पाए? क्या हम गरीब आदमी.. निचले तबके के आदमी को कोई राहत दे पाए?

भारत के जिन लोगों के नाम पर संविधान के कायदे- कानून, नियम और अधिनियम बनाए गए हैं उनमें से ज्यादातर लोग अनपढ़, अंगूठा टेक हैं। लेकिन कानून की अज्ञानता उनके लिए भी कोई बहाना नहीं हो सकती.

1978 में हिन्दू विवाह अधिनियम और बालिववाह अधिनियम में संशोधन किया गया। संशोधित कानून के तहत लड़की की उम्र शादी के वक्त 15 से बढ़ाकर 18 साल और लड़के की उम्र 18 से बढ़कर 21 साल कर दी गई।

सारी जनहित याचिकाओं के बावजूद और सारी न्यायिक सक्रियता के ‘छाया युद्ध’ के बावजूद क्या हम बलात्कार की शिकार महिलाओं को कोई राहत दे पाए? क्या हम गरीब आदमी.. निचले तबके के आदमी को कोई राहत दे पाए? पर्यावरण प्रदूषण पर अदालतों के अनेक आदेश आए। अब हजारों फैक्ट्रियों को बन्द करने की बात चल रही है। झुग्गी-झोंपड़ियों को हटाने का भी मसला चलता रहता है लेकिन सवाल यह है कि यदि आप इन सब निर्णयों को उच्च वर्ग की दृष्टि से दिखेंगे तो यह सब निर्णय समाजोपयोगी नजर आएंगे लेकिन मजदूरों की दृष्टि से, झुग्गी-झोंपड़ीवासियों की दृष्टि से देखेंगे तो ये निर्णय संभवत: समाजोपयोगी न लगें, बल्कि जनविरोधी सिद्ध हों। न्यायपालिका में क्या सुधार हो, इतने वर्षो में यह हमारी प्राथमिकता कभी नहीं रही। यही वजह है कि पिछले पचास वर्षो में कानून-व्यवस्था में आम आदमी की आस्था हम पैदा नहीं कर पाए। आस्था हो भी तो कैसे? देश की अदालतों में लाखों मुकदमे बरसों से विचाराधीन पड़े हैं और हर रोज इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। न्यायाधीशों की संख्या में अगर तीन गुना वृद्धि है तो मुकदमों की संख्या में बीस गुना। आखिर मुकदमों का फैसला कैसे हो? दीवानी मुकदमों में ‘स्टे’ (स्थगन आदेश) और फौजदारी मुकदमों में ‘बेल’

(जमानत) के बाद तो बस अगली तारीखें ही पड़ती रहती हैं। कारण यह नहीं, अनेक हैं। कभी जवाब तैयार नहीं, कभी वकील साहब बीमार, कभी इसका वकील नहीं आया, तो कभी उसका वकील गायब, कभी किसी राजनेता की मृत्यु के कारण अदालत बन्द, तो कभी किसी न्यायमूर्ति का निधन, कभी गवाह हाजिर नहीं है तो कभी सरकारी वकील। सबकुछ हो जाने के बाद भी फैसला सुरक्षित और आप महीनों क्या, बरसों फैसला सुनाए जाने वाले दिन का इंतजार करते रहिए। इस बीच, अगर जज साहब रिटायर हो गए या.. तो मुकदमे की सुनवाई फिर से होगी। मान लो फैसला हो भी गया तो क्या जरूरी है कि दूसरा पक्ष हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर नहीं करेगा? करेगा तो फिर अपील में बरसों लगेंगे। अपील नहीं तो विशेष याचिका दायर होगी या आपको करनी पड़ेगी। समाज में एक खास तरह का भ्रम फैलाया जा रहा है कि बहुत से उदारवादी-सुधारवादी कानून बनाए गए हैं। बाल-विवाह के खिलाफ, दहेज-हत्या के खिलाफ वगैरह-वगैरह, लेकिन उनको सही ढंग से लागू किया जाता। ये बातें कोरी लफ्फाजी हैं। अगर ईमानदारी से इन बातों की जांच-पड़ताल की जाए तो कुछ और ही तथ्य सामने आते हैं। 1978 में हिन्दू विवाह अधिनियम औ र बालिववाह अधिनियम में संशोधन किया गया। संशोधित कानून के तहत लड़की की उम्र शादी के वक्त 15 से बढ़ाकर 18 साल और लड़के की उम्र 18 से बढ़कर 21 साल कर दी गई। लेकिन दूसरी ओर इससे संबंधित जो जरूरी व्यवस्थाएं अन्य कानूनों में हैं, उन्हें यूं ही छोड़ दिया गया। मसलन हिन्दू विवाह अधिनियम और बाल-विवाह अधिनियम में तो लड़की की शादी की उम्र 18 साल कर दी गई, लेकिन भारतीय दंड संहिता को संशोधित नहीं किया गया, जिसकी धारा-375 में पति-पत्नी के रिश्ते की उम्र 15 साल है। इसी तरह धारा- 376 में उल्लिखित है कि 12 साल से ज्यादा और 15 साल से कम उम्र की विवाहित युवती से शारीरिक संबंध रखने वाला पति बलात्कार का आरोपी होगा और उसे दो साल की कैद या जुर्माना हो सकता है, जबकि दूसरी ओर साधारण बलात्कार के मुकदमों में अधिकतम सजा आजीवन कारावास और न्यूनतम 7 साल की कैद का प्रावधान है। इस तरह परस्पर विरोधी बातें स्पष्ट दिखाई देती हैं। हिन्दू विवाह अधिनियम में एक और विसंगति है- 18 साल से कम उम्र की लड़की के साथ विवाह वर्जित है और ऐसा करने वाले व्यक्ति को 15 दिन की कैद या सजा या 100 रुपए का जुर्माना हो सकता है। लेकिन जो मुकदमे आज तक निर्णीत हुए हैं, उनमें देखा गया है कि इस तरह के विवाह भले ही दंडनीय अपराध हैं लेकिन अवैध नहीं हैं। सवाल उठता है

कि जब विवाह अवैध नहीं है, तो सजा क्यों? इतना ही नहीं, हिन्दू विवाह अधिनियम और बाल-विवाह अधिनियम की और भी विसंगतियां हैं। प्रावधान यह है कि अगर किसी लड़की का 15 साल से पहले विवाह रचा दिया गया तो वह लड़की 15 साल की होने के बाद मगर 18 वर्ष से पहले इस विवाह को अस्वीकृ त कर सकती है। यानी कानून खुद मान रहा है कि 15 साल से कम उम्र की लड़की की शादी उसके घरवाले कर सकते हैं। अमीना प्रकरण को ही लें तो 15 साल की होने के बाद वह तलाक ले सकती है। पहले तो वह 15 साल की होने का इंतजार करे, उसके बाद अदालतों के चक्कर लगाए। सवाल उठता है कि इतनी उम्र में लड़की के पास मुकदमे के खर्च के लिए पैसा कहां से आएगा? यह भी उस स्थिति में जब उसके घरवाले उसके विरुद्ध थे और घरवाले चाहते हैं कि यह शादी कायम रहे। अब वह अपने बलबूते पर तलाक लेना चाहती है तो कैसे ले? इस तरह के सैकड़ों विरोधाभास हमारे कानूनों में हैं। जब हमारी विधायिका ही इस तरह के कानून बनाती है तो न्यायपालिका भी क्या करेगी? उसकी अपनी सीमाएं भी तो हैं जिन्हें लांघना मुमकिन नहीं। बहुचर्चित सुधा गोयल हत्याकांड के अपराधी, अगर दिल्ली में रहकर सजा के बावजूद जेल से बच सकते हैं तो फिर अचर्चित दूरदराज के इलाकों में तो कुछ भी हो सकता है। (एआईआर-1986 सुप्रीम कोर्ट 250) और क्या ऐसा सिर्फ इसी मामले में हुआ होगा? हो सकता है और बहुत से मामलों में अपराधी फाइलें गायब करवा जेल से बाहर हों? दहेज हत्याओं के मामले में अभी तक एक भी सजा-ए-मौत नहीं, क्यों? मथुरा से लेकर भंवरी बाई और सुधा गोयल से लेकर रूप कंवर सती कांड तक की न्याय- यात्रा में हजारों-हजार ऐसे मुकदमे, आंकड़े, तर्क-कुतर्क, जाल-जंजाल और सुलगते सवाल समाज के सामने आज भी मुंह बाए खड़े हैं। अन्याय, शोषण और हिंसा की शिकार स्त्रियों के लिए घर-परिवार की दहलीज से अदालत के दरवाजे के बीच बहुत लम्बी-चौड़ी गहरी खाई है, जिसे पार कर पाना बेहद दुसाध्य काम है। स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती के शोर में ‘बेबस औरतों और भूखे बच्चों की चीख कौन सुनेगा? कात्यायनी के शब्दों में- ‘हमें तो डर है/कहीं लोग हमारी मदद के बिना ही/ न्याय पा लेने की/कोशिश न करने लगें।’ अदालत के बाहर अंधेरे में खड़ी आधी दुनिया के साथ न्याय का फैसला कब तक सुरक्षित रहेगा या रखा जाएगा? कब, कौन, कहां, कैसे सुनेगा इनके ददरे की दलील और न्याय की अपील?

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