Thursday, September 23, 2010

अब तो इस क़ानून की (परि)भाषा बदल दें!
१ सितम्बर 2010 को दिल्ली हाईकोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति एस. एन. ढींगरा ने एक केस का फैसला सुनाते हुए कहा कि किसी बेरोजगार व्यक्ति को अपनी परित्यक्ता पत्नी को गुजारा-भत्ता देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता है. कोर्ट ने कहा है कि लैंगिक समानता के मौजूदा युग में जब पत्नी भी सामान स्थिति में हो, किसी व्यक्ति को उसे गुजारा-भत्ता देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता है. जस्टिस एस एन ढींगरा ने कहा है कि प्रचलित क़ानून के तहत एक पति को अपनी कमाई से परित्यक्ता पत्नी को गुजारा-भत्ता देना पड़ता है, लेकिन कोई क़ानून यह नहीं कहता है कि अलग रह रही पत्नी को पति तब भी गुजारा-भत्ता दे, जबकि वह कमाता भी नहीं हो. हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फ़ैसले को खारिज कर दिया, जिसमें एक बेरोजगार पति को अपनी परित्यक्ता पत्नी को हर महीने पांच हज़ार रुपये गुजारा भत्ते के तौर पर देने का आदेश दिया गया था.

जस्टिस ढींगरा ने पति को राहत देते हुए कहा कि कोर्ट पति से यह नहीं कह सकता कि वह चाहे भीख मांगे, उधार ले या चोरी करे, लेकिन अपनी पत्नी को गुजारा-भत्ता देना ही पड़ेगा . वह भी तब जब पत्नी पढी-लिखी और कमाने में सक्षम है. हाईकोर्ट ने कहा है कि इस मामले में पत्नी अपने पति के सामान पढी-लिखी है और एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करती थी , इसलिए वह अपने पति से गुजारा-भत्ता नहीं मांग सकती है, जिसके पास कोई नौकरी भी नहीं है.

मेरा मानना है कि भले ही पति बेरोजगार हो, यह उसकी नैतिक जिम्मेदारी है कि वो अपनी पत्नी और बच्चों के जीवन यापन के लिए प्रबंध करे. पत्नी के शिक्षित और नौकरी करने की क्षमता से इस पर कोई फर्क नहीं पड़ता. अगर पत्नी के पास जीवन यापन के लिए समुचित साधन नहीं है तो उसे पति से गुजारा-भत्ता लेने का अधिकार है. पति गुजारा-भत्ता देने से इस आधार पर नहीं बच सकता कि वह बेरोजगार है. गुजारा भत्ते के कानूनी प्रावधान ख़ासकर अपराध दंड प्रक्रिया की धारा -125 के अनुसार पत्नी, बच्चे और माता-पिता के पास अगर जीवन यापन के समुचित साधन नहीं हैं तो वो अपने पति, पिता या पुत्र से गुजारा-भत्ता ले सकते हैं. गुजारा-भत्ता पति की आमदनी और पत्नी की बुनियादी जरूरत के अनुसार तय किया जा सकता है.
लाहौर हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट ने गुजारा भत्ते से संबंधित अभी तक जितने फ़ैसले सुनाए हैं उनके अनुसार, महत्वपूर्ण यह नहीं है कि पत्नी कमा सकती है या नहीं बल्कि देखने वाली बात यह है कि उसके पास अपने जीवन यापन के समुचित साधन है या नहीं. अगर न्यायमूर्ति एस. एन. ढींगरा की इस न्यायिक विवेचना को सही माना जाए कि पति-पत्नी दोनों शिक्षित हैं और बेरोजगार हैं तो पति को गुजारा-भत्ता देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है- तो ऐसी स्थिति में कमाऊ पति भी कल यह कहेगा कि उसकी पत्नी शिक्षित है और कमा सकती है, इसलिए गुजारा-भत्ता किस बात का? दूसरी बात यह है कि भारत में जहां अधिकाँश महिलाएं अनपढ़ और अशिक्षित हैं, और कोई नौकरी या रोजगार उनके पास नहीं है, उनका क्या होगा? क्या उनके पतियों को भी यह छूट मिल जाएगी कि वे बेरोजगार हैं इसलिए गुजारा-भत्ता नहीं दे सकेंगे.

सच यह है कि हज़ारों शादीशुदा नौजवान भारत में बेरोजगार हैं. क्या उनकी अपनी पत्नी और बाल-बच्चे को पालने-पोसने की कोई ज़िम्मेदारी नहीं? हो सकता है कि न्यायमूर्ति ढींगरा जी की यह सोच महानगरों के साधनसंपन्न वर्ग के लिए सही हो, लेकिन देश भर के उन पुरुष प्रधान परिवारों की करोड़ों स्त्रियों को भुलाया नहीं जा सकता जो आज भी निर्धन-रेखा के नीचे जी रही हैं. शहरों-महानगरों में लाखों महिलाएं शिक्षित होने के बावजूद आज भी घरेलू कामकाज ही देखती हैं. न्यायमूर्ति ढींगरा का यह कहना कि हम लैंगिक समानता के युग में जी रहे हैं और भारतीय संविधान यौन, जाती, धर्म आदि के बावजूद सामान व्यवहार का अधिकार प्रदान करता है. तो मैं पूछना चाहता हूँ के संवैधानिक समानता के बावजूद क्या हमारे समाज में भी स्त्री और पुरुष के बीच बराबरी के रिश्ते हैं? घर से लेकर संसद तक स्त्रियाँ आज भी हाशिए पर खड़ी हैं- इस बात को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता. मैं यह याद दिलाना चाहता हूँ कि आपराधिक दंड प्रक्रिया की धारा 125 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 (3) के अंतर्गत बनायी गयी है. संविधान के 15 (3) के अनुसार राज्य महिलाओं और बच्चों के हित में विशेष क़ानून बना सकता हैं. इसी अनुच्छेद 15 (3) के तहत 125 भारतीय दंड संहिता की संवैधानिक वैधता को सही ठहराया गया है. अगर स्त्री और पुरुष के बीच सामान संवैधानिक अधिकार होते तो इस क़ानून को बनाने की कोई जरूरत ही नहीं थी.

भारतीय सन्दर्भ में विवाह संस्था और पारिवारिक संरचना में पुरुषों की भूमिका और स्त्री की अधीनता और घरेलू गुलामी को कैसे भुलाया जा सकता है. यह सही है कि हर वैवाहिक मुकदमेबाजी के पीछे 'दहेज़ की मांग' और 'घरेलू हिंसा' मुख्य कारण नहीं है, और भी कारण हो सकते हैं लेकिन देश में दहेज़ हत्या, घरेलू हिंसा और यौन हिंसा के आंकड़े लगातार बढ़ते जा रहे हैं- यह भी सच है. आश्चर्यजनक यह है कि आजतक भारत में एक भी दहेज़ हत्या के मामले में दहेज़ हत्यारों को फांसी की सजा नहीं मिली है. फांसी की सजा जहां-जहां हुई भी उसे माननीय उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट ने उम्र कैद में बदल दिया. 1986 के बाद तो क़ानून में ही संशोधन कर दिया गया. जहां १९८६ से पहले दहेज़ हत्या के मामले धारा 302 में दर्ज होते थे, अब धारा 304 (बी) में दर्ज होते हैं. पहले फांसी की सज़ा हो सकती थी, लेकिन अब वो भी संभव नहीं क्योंकि धारा 304 (बी) में यह प्रावधान कर दिया गया है कि दहेज़ हत्या की अधिकतम सजा उम्रकैद होगी.

यह सच है कि समय बदला है, समाज बदला है लेकिन क़ानून अभी भी स्त्री के विरुद्ध इतने हत्यारे अर्थों में खड़ा है कि उसका बयान करना मुश्किल है. ऐसे दहशतजदा माहौल में आख़िरी उम्मीद और विश्वास सिर्फ और सिर्फ न्यायपालिका पर टिका है. ऐसे में माननीय न्यायमूर्तियों से देश की आम जनता की यही अपेक्षा है कि वे मौजूदा समाज मैं स्त्री की समस्याओं की तह में जा कर न्याय के नए रास्तों का निर्माण करें. गंभीरता पूर्वक सकारात्मक रूप से तमाम कानूनों की भाषा पर पुनर्विचार की जरूरत है और अब तक की गई न्यायिक परिभाषाओं पर भी. ससम्मान असहमति के साथ मेरे विचार से जब तक मौजूदा क़ानून व्यवस्था और न्यायिक प्रक्रिया में क्रांतिकारी आमूलचूल बदलाव नहीं होगा, तब तक यह निर्णय अखबार की सुर्खियाँ तो बन सकते हैं, समाज का सही दिशा में दिशानिर्देशन नहीं कर सकते. (शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित)

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