Thursday, January 27, 2011

अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (संयुक्त राष्ट्र) की एक रिपोर्ट के अनुसार "दुनिया की ९८ प्रतिशत पूँजी पर पुरुषों का कब्जा है. पुरुषों के बराबर आर्थिक और राजनीतिक सत्ता पाने में औरतों को अभी हज़ार वर्ष और लगेंगे." पितृसत्तात्मक समाजों के अब तक यह पूँजी पीढ़ी-दर-पीढ़ी पुरुषों को पुत्राधिकार में मिलती रही है, आगे भी मिलती रहेगी. आश्चर्यजनक है कि श्रम के अतिरिक्त मूल्य को ही पूँजी माना जाता है, मगर श्रम की परिभाषा मे घरेलू श्रम या कृषि श्रम शामिल नहीं किया जाता. परिणामस्वरूप आधी दुनिया के श्रम का अतिरिक्त मूल्य यानी पूँजी को बिना हिसाब-किताब के ही परिवार का मुखिया या पुरुष हड़प कर जाते हैं. सारी दुनिया की धरती और (स्त्री) देह यानी उत्पादन और उत्पत्ति के सभी साधनों पर पुरुषों का ’सर्वाधिकार सुरक्षि” है. उत्पादन के साधनों पर कब्जे के लिये उत्तराधिकार कानून और उत्पत्ति यानी स्त्री देह पर स्वामित्व के लिये विवाह संस्था की स्थापना (षड्‌यन्त्र) बहुत सोच-समझकर की गयी है.
उत्तराधिकार के लिए वैध संतान (पुत्र) और वैध संतान के लिए वैध विवाह होना अनिवार्य है. विवाह संस्था की स्थापना से बाहर पैदा हुए बच्चे ‘नाजायज’, ‘अवैध’, ‘हरामी’ और ‘बास्टर्ड’ कहे-माने जाते हैं. इसलिए पिता की संपत्ति के कानूनी वारिस नहीं हो सकते. हाँ, माँ की सम्पत्ति (अगर हो तो) में बराबर के हकदार होंगे. न्याय की नज़र में वैध संतान सिर्फ पुरुष की और ‘अवैध’ स्त्री की होती है. ‘वैध-अवैध’ बच्चों के बीच यही कानूनी भेदभाव (सुरक्षा कवच)ही तो है, जो विवाह संस्था को विश्व-भर में अभी तक बनाए-बचाए हुए है. वैध संतान की सुनिश्चितता के लिए यौन-शुचिता, सतीत्व, नैतिकता, मर्यादा और इसके लिए स्त्री देह पर पूर्ण स्वामित्व तथा नियंत्रण बनाए रखना पुरुष का ‘परम धर्म’ है. उत्तराधिकार में तमाम पूँजी सिर्फ पुत्रों को ही मिलती है सों बेटियाँ भ्रूण हत्या की शिकार होंगी ही.
विवाह संस्था में (धर्म) पत्नी, पति की सम्पत्ति भी है और घरेलू गुलाम भी. एकल विवाह सिर्फ स्त्री के लिए. पति के अलावा किसी भी दूसरे व्यक्ति से सम्बन्ध रखना ‘व्यभिचार’. पति किसी भी बालिग़ अविवाहित, तलाकशुदा या विधवा महिला से बिना कोई अपराध किये यौन सम्बन्ध रख सकता है, चाहे ऐसी महिला उसकी अपनी ही माँ, बहन, बेटी से लेकर भतीजी और भानजी क्यों न हो ! व्यभिचार के ऐसे कानूनी प्रावधानों के कारण ही समाज में व्यापक स्तर पर वेश्यावृत्ति और कालगर्ल व्यापार फल-फूल रहा है. मतलब विवाह संस्था में स्त्री पुरुष की ‘सम्पत्ति’ है और विवाह संस्था से बाहर ‘वस्तु’.
उत्तराधिकार कानूनों के माध्यम से पूँजी और पूँजी के आधार पर राजसत्ता, संसद, समाज, सम्पत्ति, शिक्षा और क़ानून-व्यवस्था- सब पर मर्दों का कब्जा है. नियम, कायदे-क़ानून, परम्परा, नैतिकता-आदर्श और न्याय सिद्धांत- सब पुरुषों ने ही बनाए हैं और वे ही उन्हें समय-समय पर परिभाषित और परिवर्तित करते रहते हैं. हमेशा अपने वर्ग-हितों की रक्षा करते हुए. ‘भ्रूण हत्या’ से लेकर ‘सती’ बनाए जाने तक प्रायः सभी क़ानून, महिला कल्याण के नाम पर सिर्फ उदारवादी-सुधारवादी ‘मेकअप’ ही दिखाई देता है. मौजूदा विधान-संविधान-क़ानून महिलाओं को कानूनी सुरक्षा कम देते हैं, आतंकित, भयभीत और पीड़ित अधिक करते हैं. निःसंदेह औरत को उत्पीडित करने की सामाजिक-धार्मिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया में पूँजीवादी समाज क़ानून को हथियार की तरह इस्तेमाल करता रहा है. इसलिए ‘लॉ’ का असली अर्थ ही है-‘लॉ अगेंस्ट वूमैन’. समता की परिभाषा (बकौल सुप्रीम कोर्ट) है- सामान लोगों में समानता. नारी सम्बन्धी अधिकांश फैसलों के लिए आधारभूमि तो धर्मशास्त्र ही हैं जो मर्दों के लिए ‘अफीम’ मगर औरतों के लिए ज़हर से भी अधिक खतरनाक सिद्ध हुए हैं. तमाम न्यायाशास्त्रों के सिद्धांत पुरुष हितों को ही ध्यान में रखकर गढ़े-गढ़ाए गए हैं.

(पुस्तक गूगल बुक्स पर उपलब्ध है-- http://books.google.co.in/books?id=09tJkQH_4-AC&dq=aurat+hone+ki+saza&source=gbs_navlinks_s )

Aurat Hone Ki Saza
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