Monday, July 16, 2012

राष्ट्रीय सहारा (आधी दुनिया ) २०.६.२०१२ बाल विवाह बलात्कार का लाइसेन्स *अरविन्द जैन पिछले हफ्ते महिला संगठनों ने माननीय न्यायमूर्ति एस. राणोन्द्र भट्ट और एस. पी. गर्ग की दिल्ली हाईकोर्ट की बेंच द्वारा 15 वर्ष की मुस्लिम लड़की की शादी को जायज ठहराये जाने पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। कोर्ट ने कहा था कि यदि 15 साल की कोई मुस्लिम लड़की युवा हो चुकी है तो वह अपनी मर्जी से शादी कर सकती है। हालांकि बाल विवाह के मामले में कोर्ट का यह बयान न तो पहला है और न ही आखिरी, जबकि बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 धर्म को लेकर कोई भेदभाव नहीं करता है। 11 जनवरी, 2007 से भारतीय संसद ने इसे लागू किया है, जो जम्मू-कश्मीर के लोगों को छोड़कर देश की तमाम जनता पर लागू है। यहां तक कि यह कानून भारत में रहने वाले या बाहर रहने वाले सभी देशवासियों पर लागू होता है। भारतीय संसद द्वारा बाल विवाह को लेकर जो कानून बनाये गए हैं, उन पर गौर करने की जरूरत है। इसके प्रावधान इस कदर विरोधाभासी हैं और एक-दूसरे के प्रावधानों का परस्पर विरोध करते हैं कि कानून का कोई भी जानकार उलझन में पड़ सकता है। मैं यहां सिर्फ कानून के उन अनुभागों और उपवगरे की चर्चा कर रहा हूं जो मन में खटक रहे हैं। 1929 में किसी भी लड़की की शादी की उम्र 13 साल निर्धारित की गई थी जिसे 1949 में बढ़ाकर 15 साल किया गया। 1978 में जब बाल विवाह रोकथाम अधिनियम,1929 औ र हिन्दू मैरिज एक्ट, 1955 में संशोधन किया गया तो लड़की की शादी की उम्र बढ़ाकर 18 साल निर्धारित की गई। लेकिन देश के योग्य नौकरशाह और महान नेता भारतीय दंड संहिता की धाराओं में संशोधन करना भूल गए। पिछले महीने केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बच्चों के बचाव के लिए यौन अपराध विधेयक को मंजूरी दी, जिसके तहत उम्र के साथ सहमति का प्रस्ताव किया और 18 वर्ष से नीचे की आयु वालों (आईपीसी की धारा-375 के तहत सहमति की उम्र अभी 16 साल है) के साथ यौन संबंधों को बलात्कार की संज्ञा दी गई, चाहे वह सहमति से हुआ हो या बिना सहमति के। लेकिन आईपीसी की धारा-375 और 376 में संशोधन करने का कोई प्रस्ताव नहीं है। बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 की धारा-9 के मुताबिक, 18 साल से कम उम्र की लड़की की शादी 18 साल से कम उम्र के लड़के के साथ कराना दंडनीय अपराध है और ऐसा करने पर दो साल का सश्रम कारावास या एक लाख रुपये तक का आर्थिक दंड या फिर दोनों हो सकते हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि शादी के वक्त यदि लड़के की उम्र 18 साल से कम है और वह 18 साल से कम या उससे अधिक आयु की लड़की से शादी कर रहा है तो इसे अपराध नहीं माना जा सकता। पीसीएमए के मुताबिक, किसी भी लड़की की शादी की उम्र 18 साल है। हालांकि आईपीसी की धारा-375 के अपवाद में, यदि पत्नी 15 साल से कम ना हो और उसका पति उसके साथ शारीरिक संबंध बनाता है, तो यह बलात्कार नहीं है, जबकि आईपीसी की धारा-375 के छठे खंड के अनुसार, यदि को ई व्यक्ति सहमति या गैर-सहमति से 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध स्थापित करता है तो उसे बलात्कार माना जाएगा। वर्तमान कानून के मुताबिक, बिना सहमति के किसी औरत के साथ संबंध स्थापित करना या 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ सहमति के साथ संबंध स्थापित करना बलात्कार की श्रेणी में आता है। हालांकि, 15 साल (नाबालिग लड़की जिसे बाल विवाह के लिए मजबूर किया जा रहा है) से अधिक की अपनी पत्नी के साथ जबर्दस्ती किया गया यौन संबंध बलात्कार नहीं है। वैवाहिक धरातल पर विवाहित और अविवाहित महिलाओं के बीच किसी भी तरह के अलग कानून नहीं बनाए गए हैं। का लाइस स ब्ा ल्ात्कार आईपीसी की धारा-375 के अपवादस्वरूप, यह पति को अपनी 15 साल उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार करने का लाइसेंस देता है, जो उस उम्र की बच्चियों के साथ मनमाना और विवाहित महिला के साथ भेदभावपूर्ण रवैया है, खासकर बाल वधू के साथ, जो मूलभूत अधिकारों का, मानवाधिकार का हनन है, खासकर व्यक्ति की गरिमा और संविधान के अनुच्छेद-21 में दिए गए विवाहित महिलाओं की गोपनीयता के अधिकार का हनन है । यहां यह नहीं माना जाता कि 15 से 18 साल के बीच की लड़की पत्नी नहीं बन सकती, जबकि यौन संबंध की सहमति उसे एक साल कम करती है जो दमनकारी, भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक कानून है। ऐसे में, बाल विवाह को रोकने और बच्चों के हित की रक्षा के मामले में उद्देश्यपूर्ण ढंग से कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। शादीशुदा महिलाओं के पास चुपचाप सहन करने, बलात्कार की शिकार बनने या फिर मानसिक यातना के आधार पर पति से तलाक लेने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है लेकिन इन मामलों में पति की गलत इच्छाओं या फिर वैवाहिक मुकदमे में फं से रहने को आधार नहीं बनाया जा सकता है। बुद्धदेव कर्मास्कर बनाम पश्चिम बंगाल सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक, सेक्स वर्कर भी मनुष्य हैं और किसी को भी उन पर हमला करने या हत्या करने का अधिकार नहीं है। कोई भी महिला गरीबी के कारण सेक्स वर्कर बनती है ना कि सुख के लिए। सेक्स वर्कर के प्रति समाज को सहानुभूति रखनी चाहिए और उन्हें तिरस्कृत नहीं करना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत वे भी जिंदगी में गरिमा पाने की हकदार हैं। यहां तक कि सेक्स वर्कर को गोपनीयता और सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार है और किसी को भी इन अधिकारों को उनसे छीनने का अधिकार नहीं है। हालांकि, वैवाहिक जीवन में बलात्कार की सजा की छूट ने भारत की शादीशुदा महिलाओं की स्थिति ‘सेक्स वर्कर’ और ‘घरेलू दासियों’ से भी बदतर कर दी है क्योंकि सेक्स को ना कहने का जो अधिकार सेक्स वर्कर को उपलब्ध कराया गया है, वह भारत की शादीशुदा महिला को नहीं है। ब्रिटिश कालीन भारत में लॉर्ड मैकाले द्वारा तैयार भारतीय दंड सहिता को 1861 में लागू किया गया था। ‘ऑफ ऑफेंस इफेक्टिंग द ह्यूमन बॉडी’ नामक अध्याय में आईपीसी की धारा- 375 और 376 की चर्चा की गई है। हालांकि ब्रिटेन में यौन अपराध (संशोधन) अधिनियम 1976 के अंग्रेजी कानून को बदला गया, जिसके मुताबिक, बलात्कार बिना सहमति के किसी महिला के साथ किया गया यौन संबंध है। इसके बाद, 1997 में आर. बनाम आर. (रेप : वैवाहिक छूट) (1991 4 ¬थ्थ् कङ 481) मामले में हाउस ऑफ लॉर्डस ने जो फैसला सुनाया, उसके मुताबिक, ‘कोई भी पति अपनी पत्नी के साथ बिना सहमति के यौन संबंध बनाने पर अपराधी नहीं हो सकता। अब यह इंग्लैंड के कानून में नहीं है क्योंकि पति और पत्नी दोनों समान रूप से शादी के बाद जिम्मेदार होते हैं और इससे स्वीकार नहीं किया जा सकता कि शादी के बाद सभी परिस्थितियों में पत्नी यौन संबंध बनाने के लिए खुद को पेश करेगी या मौजूदा दौर की शादी के बाद सभी हालातों में पत्नी यौन संबंध बनाने के लिए राजी हो।’ इसके बाद, पीपुल्स बनाम लिब्रेटा (1984) मामले में न्यूयार्क की अपील कोर्ट ने कहा कि बलात्कार और वैवाहिक जीवन में बलात्कार के बीच अंतर करने का कोई औचित्य नहीं है और विवाह किसी पति को अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करने का लाइसेंस नहीं देता। कोर्ट ने न्यूयार्क के उस कानून को असंवैधानिक करार दिया जिसने वैवाहिक बलात्कार को अपराध ना मानने की छूट दे रखी थी।’ यह बेहद निंदनीय है कि भारत में वैवाहिक जीवन में अब भी बलात्कार को कानूनी मान्यता प्राप्त है जबकि छोटे से हमारे पड़ोसी देश नेपाल में काफी पहले से यह गैरकानूनी है। नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने घोषित कर रखा है कि यदि कोई पति अपनी पत्नी को सेक्स के लिए मजबूर करेगा तो उस पर बलात्कार का आरो प लगाया जा सकता है। पिछली मई में मील का पत्थर बनी यह घोषणा उस याचिका का परिणाम थी जिसे जुलाई, 2001 में नेपाल के महिला अधिकार संगठन ‘महिला, कानून और विकास फोरम’ ने दायर किया था। नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने घोषित किया कि पत्नी की सहमति के बिना वैवाहिक सेक्स बलात्कार के दायरे में आएगा। यह भी कहा गया कि धार्मिक ग्रंथों में भी पुरुषों द्वारा पत्नी के बलात्कार की अनदेखी नहीं की है। कोर्ट ने यह भी कहा कि हिन्दू धर्म में पति और पत्नी की आपसी समझ पर जोर दिया गया है। 19वीं सदी के शुरू में ‘सेकेंड सेक्स’ की दुनिया पुरुषों को अपनी पत्नी के साथ से क्स करने के लिए मजबूर करती रही है। अमेरिका में, 19वीं सदी में महिला अधिकार आंदोलन पति के खिलाफ विवाह के बाद यौन संबंध बनाने के अधिकार के विरुद्ध अभियान था। इसने सेक्स और सेक्सुअलिटी को लेकर उन्नीसवीं सदी के टैबू को खत्म कर उल्लेखनीय विकास कार्य किया। शादी के भीतर या बाहर के बलात्कार में कोई अंतर नहीं है। बलात्कार वह है, जिसमें कोई पुरुष किसी महिला के साथ जबर्दस्ती यौन संबंध बनाता है, चाहे उसे ऐसा करने के लिए शादी के कानून का लाइसेंस मिला हो या नहीं। 21वीं सदी में भारतीय महिलाओं के मूलभूत मानवाधिकार को 18वीं सदी के चश्मे से नहीं देखा जा सकता। 12 साल से अधिक उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार का मामला हो तो पुलिस मामले को दर्ज करने के अलावा कोई भी कार्रवाई नहीं करेगी और गरीब नाबालिग लड़की को खुद कोर्ट का दरवाजा खटखटाना होगा, जिसके तहत शिकायत मामले में उसे मुकदमे के दौरान काफी कठिन प्रक्रिया से गुजरना होता है। . भारतीय विधि आयोग ने अपनी 205वीं रिपोर्ट में कहा है, ‘भारतीय दंड संहिता 15 साल से कम उम्र की नाबालिग पत्नी के साथ यौन संबंध को बलात्कार मानता है। पिछली सदी में फुलमोनी मामले में बाल विवाह के खिलाफ लोगों ने सार्वजनिक तौर पर एकजुट होकर आवाज उठाई थी। इस मामले में 11 साल की लड़की की जननांग के फटने से मौत हो गई थी क्योंकि उसके पति ने उसे जबर्दस्ती सेक्स करने के लिए मजबूर किया था।’ यद्यपि, बाल विवाह का वर्तमान कानून फुलमोनी जैसे मामले को नहीं देखता। ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसमें बाल वधू को अपने पति से दूर रखने या दूसरे उत्पीड़न के साथ यौन उत्पीड़न को रोकने का प्रस्ताव हो। बाल विवाह अधिनियम वास्तव में, बाल विवाह की मान्यता को रद्द ना करके इस तरह के अपराध को आधार प्रदान करता है। शोध बताते हैं कि बाल वधुओं को गर्भावस्था से जुड़ी समस्याओं से अधिक जूझना पड़ता है। साथ ही, बाल विवाह मामलों में मातृ और शिशु मृत्यु दर अधिक है। बाल विवाह सभी बच्चियों को उनके मानव अधिकारों तथा स्वस्थ- प्राकृतिक वातावरण में विकसित होने से वंचित करता है। इसके साथ ही उनके शैक्षिक, शारीरिक और मानसिक विकास को भी रोकता है। यह उनको अपने वातावरण के साथ स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति और आंदोलन करने जैसे बुनियादी अधिकारों से दूर करता है। भारतीय विधि आयोग की 205वीं रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि ‘हमलोग यह महसूस करते हैं कि छोटी-सी दुल्हन और अन्य नाबालिग लड़कियों के लिए यौन संबंध मामले में सहमति के लिए अलग उम्र तय करने का कोई औचित्य नहीं है। सहमति की उम्र के लिए न्यूनतम उम्र के पीछे मूल कारण यह है कि लड़की यौन संबंध के मामले में ज्यादा परिपक्व नहीं होती। बाल वधू और दूसरी नाबालिग लड़कियों के मामले में भी यही मूल वजह है।’ इसकी सिफारिश कुछ यूं है - (त्त्त्) ‘भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद को खत्म कर दिया जाना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि यौन संबंधों के लिए सहमति की उम्र सभी लड़कियों के लिए 16 साल होगी, चाहे वह शादीशुदा हो या ना हो।’ जब से मानवाधिकारों की अवधारणा विकसित हुई है, वैवाहिक अधिकार के तौर पर यौन संबंधों को लेकर सहमति की बात व्यापक तौर पर उठने लगी है। पति द्वारा बलात्कार की आपराधिक घटनाएं वैिक स्तर पर यौन अपराध के रूप में सामने आ रही हैं जो नैतिकता, परिवार, अच्छे संस्कार, सम्मान, सदाचार के साथ-साथ स्वतंत्रता, आत्मनिर्ण य और फिजिकल इंटीग्रिटी के खिलाफ अपराध है। परंपरा, संस्कृति, संस्कार, रीति-रिवाजों और रूढ़िवादियों व धर्मशास्त्रियों द्वारा बनाए गए नियमों के आधार पर वैवाहिक बलात्कार को कभी भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। कोई भी धर्म वैवाहिक बलात्कार का समर्थन नहीं करता। दुनिया के करीब 76 देशों में वैवाहिक बलात्कार दंडनीय अपराध के तौर पर घोषित हो चुका है जबकि भारत सहित पांच देशों में वैवाहिक बलात्कार को अपराध तब माना जाता है जब कानूनी तौर पर दोनों एक-दूसरे से अलग रह रहे हों। महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2006 बनाया गया लेकिन वैवाहिक बलात्कार को ‘अपराध’ घोषित नहीं किया गया। भारतीय दंड संहिता की धारा-275-सी के अपवादस्वरूप समय-समय पर भारत सरकार के द्वारा घोषित घोषणाओं और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का यह सरासर उल्लंघन है। यहां यह बताना आवश्यक है कि 20 दिसम्बर, 1993 में, जब संयुक्त राष्ट्र महासभा महिलाओं के खिलाफ हिंसा उन्मूलन की घोषणा करने में जुटी थी तब उन्होंने अनुच्छेद- 1 में पाया कि ‘महिलाओं के खिलाफ हिंसा’ का अर्थ है जेंडर आधारित किसी भी तरह की हिंसा या शारीरिक, यौनिक या मनोवैज्ञानिक तरीके से चो ट पहुंचाना या सार्वजनिक या निजी जीवन में ऐसे कृत्यों या बलात्कार या स्वतंत्रता के हनन की धमकी देना’। भारतीय दंड संहिता की धारा-375 की खामियां यहीं खत्म नहीं होती हैं। किसी दूसरी महिला के साथ बलात्कार करने वाले को आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर की जा सकती है। कोई भी अदालत इस मामले में न्यूनतम सजा सात साल की जेल और जुर्माने की सजा सुना सकती है (धारा 376 (1)। लेकिन, यदि पति 15 साल से कम उम्र की अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करता है तो वह कोई अपराध नहीं करता। इसके अलावा, यदि वह 15 साल से कम है लेकिन 12 साल से अधिक है तो पति को बलात्कारी माना जा सकता है लेकिन उसे सजा के तौर पर काफी सहूलियत दी गई है। इस मामले में अधिकतर सजा दो साल की जेल या जुर्माना या दोनों हो सकती है। जबकि दूसरे मामलों में, बलात्कार सं™ोय और गैर जमानती अपराध है। 12 साल की उम्र से अधिक की पत्नी के साथ बलात्कार भी सं™ोय और गैर जमानती अपराध है (सीआरपीसी, अनुच्छेद-1)। इसका अर्थ यह हुआ कि सामान्य तौर पर बलात्कार की शिकायत मिलने पर बिना किसी सबूत के पुलिस आरोपित को गिरफ्तार कर सकती है और जांच कर सकती है। यदि 12 साल से अधिक उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार का मामला हो तो पुलिस मामले को दर्ज करने के अलावा कोई भी कार्रवाई नहीं करेगी और गरीब नाबालिग लड़की को खु द कोर्ट का दरवाजा खटखटाना होगा, जिसके तहत शिकायत मामले में उसे मुकदमे के दौरान काफी कठिन प्रक्रिया से गुजरना होता है। तब पति को गिरफ्तार किया जा सकता है। किसी नाबालिग के साथ शादी करने के बाद अपराध करने से हर किसी को यह छूट मिलती है। आईपीसी की धारा-375 के तहत, 15 साल से कम उम्र की अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध बनाना बलात्कार माना जाता है। ऐ से में, बलात्कारी (पति) को धारा- 376 आईपीसी के तहत अन्य बलात्कार के मामलों की तरह सजा दी जानी चाहिए। हालांकि, कानून ने उस पर खास रियायत बरतते हुए दो साल कारावास या जुर्माना या दोनों मुकर्रर किया है, जो आम तौर पर अनुचित, अतार्किक, अन्यायपूर्ण, दमनकारी, भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक है। हिन्दू अल्पसंख्यक औ र संरक्षण अधिनियम, 1956 की धारा-6 सी, तो बाल विवाह को लेकर बहुत ही हास्यास्पद और चौंकाने वाला प्रावधान है। उप धारा (ए) के मुताबिक, किसी भी नाबालिग लड़के या अविवाहित लड़की के सामान्य तौर पर संरक्षक उसके पिता होते हैं और उसके बाद मां होती है। दूसरी ओर उपधारा-सी के मुताबिक, विवाहित लड़की (बड़ी हो या छोटी) का संरक्षक उसका पति होता है। यह उपधारा तब भी लागू होती है, जब पति और पत्नी दोनों नाबालिग हों। इसलिए इस कानून के मुताबिक, एक नाबालिग पति जो खुद ही अपने पिता या माता के संरक्षण में पल रहा है, वह नाबालिग पत्नी और बच्चों एवं संबंधित संपत्तियों का प्राकृतिक संरक्षक होगा। ऐसे में, व्यावहारिक तौर पर नाबालिग वधू अनाथ रह जाती है। क्या हम वास्तव में, इन कानूनों से ‘बाल विवाह’ को देश में समाप्त करना चाहते हैं या महिलाओं के शोषण और दमन के जरिए महान सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं के सहेजे रखना चाहते हैं? (लेखक सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील व स्त्रीवादी विचारक हैं)

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