अरविन्द जैन
 
 नवभारत टाइम्स (13 फरवरी 2013) में प्रकाशित मीनाक्षी लेखी का लेख "बेतुकी है दांपत्य में बलात्कार पर कानून बनानें की मांग" पढ़ कर कोई ख़ास हैरानी-परेशानी नहीं हुई। सब जानते हैं कि मीनाक्षी   लेखी  'सुप्रीम कोर्ट की चर्चित वकील' ही नहीं, आजकल मीडिया में भारतीय जनता पार्टी की चर्चित प्रवक्ता भी हैं। मैं इस लेख के माध्यम से,  ससम्मान उनके विचारों से अपनी असहमति और विरोध प्रकट करता हूँ और पाठकों को कानूनी वस्तुस्थिति से भी अवगत करना चाहता हूँ। 
मीनाक्षी का कहना है कि दांपत्य में बलात्कार को 'भारतीय यथार्थ' के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए हालाँकि 'प्रामाणिक आंकड़े' उपलब्ध नहीं हैं, सो 'ठोस बहस' करना बहुत मुश्किल है। मगर इसके बावजूद   उनका स्पष्ट निर्णय है कि "दांपत्य में बलात्कार को अपराध घोषित करने से असंतुष्ट और प्रतिशोधी पत्नियों की पौ बारह हो जाएगी"।  एक तरफ  उनका  कहना-मानना है कि  “हम दांपत्य में बलात्कार की संभावना को खारिज नहीं कर रहे हैं। ना ही इस अपमानजक कृत्य की अनदेखी कर रहे हैं”। मगर थोड़ी ही देर में बताना-सिखाना शुरू कि   “पति  द्वारा  जबरन  बनाए गए संबंध   को   अपराध   घोषित   करना   महिलाओं   के   हित  में  नहीं  है।   यह  परिवार  या  समाज  जैसी संस्थाओं की चूलें हिला सकता है”। समझ नहीं आ रहा कि प्रखर प्रवक्ता के विचारों में यह कौन 'सूत्रधार' बोल रहा है? दांपत्य में बलात्कार संबंधी कानूनी प्रावधानों की चर्चा किये बगैर  'ठोस बहस' कैसे संभव है? 
उल्लेखनीय है कि जनता पार्टी के राज (1978) में जब बाल विवाह रोकथाम अधिनियम,1929 और हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में संशोधन किया गया, तो लड़की की शादी की उम्र 15 साल से   बढ़ाकर 18 साल निर्धारित की गई। लेकिन देश के ‘योग्य नौकरशाह’ और ‘महान नेता’, भारतीय दंड संहिता की धाराओं में संशोधन करना ही 'भूल' गए। 
बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के मुताबिक, किसी भी लड़की की शादी की उम्र 18 साल और लड़के की उम्र 21 साल होना अनिवार्य है। 18 साल से कम उम्र की लड़की की शादी 21 साल से कम उम्र के लड़के के साथ कराना दंडनीय अपराध है और दो साल का सश्रम कारावास या एक लाख रुपये तक का आर्थिक दंड या फिर दोनों हो सकते हैं। मगर शादी के वक्त यदि लड़के की उम्र  18  साल से कम है, तो इसे अपराध ही  नहीं माना जाता।  
3 फरवरी 2013 से लागू अपराधिक संशोधन अध्यादेश, 2013 से पहले, बिना सहमति के किसी औरत के साथ यौन संबंध स्थापित करना या 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ (सहमति के साथ भी) संबंध स्थापित करना बलात्कार की श्रेणी में आता था। हालांकि, 15 साल से अधिक  उम्र की अपनी पत्नी के साथ जबर्दस्ती किया गया यौन संबंध बलात्कार नहीं माना जाता रहा  है।  भारतीय दंड संहिता की धारा-376 के अनुसार  किसी महिला के साथ बलात्कार करने वाले को आजीवन कारावास की सजा दी  सकती थी/है लेकिन यदि पति 12 से 15 साल की अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करता तो अधिकतम सजा दो साल की जेल या जुर्माना या दोनों हो सकती थे।
बलात्कार संज्ञेय  और गैर जमानती अपराध था,  लेकिन 12-15 साल की उम्र  की पत्नी के साथ बलात्कार  संज्ञेय अपराध नहीं माना जाता था और जमानत योग्य अपराध था । 15 साल से कम उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार का मामला हो, तो पुलिस कोई भी कार्रवाई नहीं कर सकती थी और गरीब नाबालिग लड़की को खुद ही कोर्ट का दरवाजा खटखटाना और मुकदमे के दौरान काफी कठिन प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था। हिन्दू अल्पवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा-6 सी, में आज भी यह हास्यास्पद प्रावधान मौजूद है कि  "विवाहित नाबालिग लड़की का संरक्षक उसका पति होता है" भले ही पति और पत्नी दोनों ही नाबालिग हों। 
अध्यादेश में बलात्कार को अब ‘यौन हिंसा’ माना गया है और सहमती से सम्भोग की उम्र 16 साल से बढ़ा   कर 18 साल कर दी गई है, जबकि धारा 375 के अपवाद में पत्नी की उम्र 15 साल से बढ़ा कर 16 साल की गई है। 16 साल से कम उम्र की पत्नी से बलात्कार के मामले में अब सजा में कोई ‘विशेष छूट’ नहीं मिलेगी। अध्यादेश जारी करते समय सरकार ने वैवाहिक बलात्कार संबंधी न तो विधि आयोग की 205वी रिपोर्ट की सिफारिश को माना और न ही वर्मा आयोग के सुझाव। भारतीय विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि “भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद को खत्म कर दिया जाना चाहिए"। 
अध्यादेश के बाद अब भी भारतीय दंड संहिता की धारा-375 का अपवाद, पति को अपनी 16 साल से बड़ी उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार करने का कानूनी लाइसेंस देता है, जो निश्चित रूप से नाबालिग  बच्चियों के साथ मनमाना और विवाहित महिला के साथ कानूनी भेदभावपूर्ण रवैया है। यह दमनकारी, भेदभावपूर्ण कानूनी प्रावधान संविधान के अनुच्छेद-14, 21 में दिए गए विवाहित महिलाओं के मौलिक अधिकारों ही नहीं बल्कि मानवाधिकारों  का भी हनन है। परिणाम स्वरूप  शादीशुदा महिलाओं के पास चुपचाप यौनहिंसा सहन करने,  बलात्कार की शिकार बने रहने या फिर मानसिक यातना के आधार पर पति से तलाक लेने या घरेलु हिंसा अधिनियम के आधीन कोर्ट-कचहरी करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। 
वैवाहिक जीवन में बलात्कार की सजा से छूट के कारण भारतीय शादीशुदा महिलाओं की स्थिति  ‘सेक्स वर्कर’ और ‘घरेलू दासियों’ से भी बदतर है, क्योंकि सेक्स वर्कर को ना कहने का अधिकार  है परन्तु शादीशुदा महिला को नहीं है।
 मीनाक्षी लेखी जिसे "और भी हैं रास्ते" बता रही हैं, क्या वो कागची 'विकल्प' मौलिक अधिकारों की बराबरी कर सकते हैं ? इकिस्वीं सदी के किसी भी सभ्य समाज में पति को पत्नी के साथ बलात्कार/ यौनहिंसा के  कानूनी लाइसेंस की वकालत करना, सचमुच  "बलात्कार की संस्कृति" को बढ़ावा देना ही कहा जायेगा। परंपरा,  संस्कृति,  संस्कार,  रीति-रिवाजों और रूढ़िवादियों व धर्मशास्त्रियों द्वारा बनाए गए नियमों के आधार पर, वैवाहिक बलात्कार को कभी भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। कोई भी धर्म वैवाहिक बलात्कार का समर्थन नहीं करता। डायना इ एच रसेल ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक "रेप इन मैरिज" (1990) में कितना सही  लिखा है "वैवाहिक जीवन में बलात्कार को पति के विशेषाधिकार के रूप में देखते जाना अपमानजनक ही नहीं, दुनिया की तमाम औरतों के लिए खतरा भी है”
 बताने की जरूरत नहीं कि 1991 में आर. बनाम आर. (रेप : वैवाहिक छूट) मामले में हाउस ऑफ लॉर्डस  के मुताबिक, ‘कोई भी पति अपनी पत्नी के साथ बिना सहमति के यौन संबंध बनाने पर अपराधी हो सकता है, क्योंकि पति और पत्नी दोनों समान रूप से शादी के बाद जिम्मेदार होते हैं। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता कि शादी के बाद सभी परिस्थितियों में पत्नी यौन संबंध बनाने के लिए खुद को पेश करेगी या मौजूदा शादी के बाद सभी हालातों में पत्नी यौन संबंध बनाने के लिए राजी हो।’ पीपुल्स बनाम लिब्रेटा मामले में न्यूयार्क की अपील कोर्ट ने कहा कि बलात्कार और वैवाहिक जीवन में बलात्कार के बीच अंतर करने का कोई औचित्य नहीं है और विवाह किसी पति को अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करने का लाइसेंस नहीं देता। कोर्ट ने न्यूयार्क के उस कानून को असंवैधानिक करार दिया जिसने वैवाहिक बलात्कार को अपराध ना मानने की छूट दे रखी थी।’
 नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने घोषित किया कि पत्नी की सहमति के बिना वैवाहिक सेक्स बलात्कार के दायरे में आएगा। यह भी कहा गया कि धार्मिक ग्रंथों में भी पुरुषों द्वारा पत्नी के बलात्कार की अनदेखी नहीं की है। कोर्ट ने यह भी कहा कि हिन्दू धर्म में पति और पत्नी की आपसी समझ पर जोर दिया गया है। दुनिया के करीब 76 देशों में वैवाहिक बलात्कार दंडनीय अपराध के तौर पर घोषित हो चुका है जबकि भारत सहित पांच देशों में वैवाहिक बलात्कार को अपराध तब माना जाता है, जब कानूनी तौर पर दोनों एक-दूसरे से अलग रह रहे हों। 
'परिवार की पवित्रता' की दुहाई देते हुए मीनाक्षी कह रही हैं कि "दांपत्य में बलात्कार  कानून  की  मांग से  पुरुष समाज भी डरा हुआहै। विवाह और   परिवार   जैसी   संस्थाओं   को   बदनाम   करके  इन  संस्थाओं  की  पवित्रता को खतरे में नहीं डालाजा सकता"।  पुरुष समाज क्यों डरा हुआ है ? विवाह और परिवार  जैसी  संस्थाओं   की पवित्रता को किसने खंडित किया? इसके लिए जिम्मेवार वो बलात्कारी पिता-पति-पुत्र हैं, जिनके कारण संबंधों की किसी भी छत के नीचे स्त्री सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रही।  
पता नहीं 'परिवार की पवित्रता', नैतिकता, मर्यादा और आदर्श भारतीय नारी के धार्मिक उपदेशों से हिंदुस्तान की स्त्री को कब और कैसे मुक्ति मिलेगी? नेहरु जी के शब्दों में " हम हर भारतीय स्त्री से सीता होने की अपेक्षा करते हैं, मगर पुरुषों  से मर्यादा पुरषोतम राम होने की नहीं"। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि  सदियों पुराने संस्कारों की सीलन- आखिर  कब और कैसे समाप्त होगी? कैसे अंत हो स्त्री उत्पीड़न की राजनीति का?
 क्या हम वास्तव में मौजूदा  मर्दवादी  कानूनों से, महिलाओं के खिलाफ लगातार बढती हिंसा-यौनहिंसा-घरेलू हिंसा को रोकना चाहते हैं या तथाकथित  महान भारतीय सभ्यता, संस्कृति और धार्मिक परंपराओं  की आड़ में, महिलाओं का  शोषण, उत्पीड़न, दमन और यौनहिंसा ज़ारी रखना चाहते हैं?  
 मीनाक्षी लेखी जिसे "और भी हैं रास्ते" बता रही हैं, क्या वो कागची 'विकल्प' मौलिक अधिकारों की बराबरी कर सकते हैं ? इकिस्वीं सदी के किसी भी सभ्य समाज में पति को पत्नी के साथ बलात्कार/ यौनहिंसा के  कानूनी लाइसेंस की वकालत करना, सचमुच  "बलात्कार की संस्कृति" को बढ़ावा देना ही कहा जायेगा। परंपरा,  संस्कृति,  संस्कार,  रीति-रिवाजों और रूढ़िवादियों व धर्मशास्त्रियों द्वारा बनाए गए नियमों के आधार पर, वैवाहिक बलात्कार को कभी भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। कोई भी धर्म वैवाहिक बलात्कार का समर्थन नहीं करता। डायना इ एच रसेल ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक "रेप इन मैरिज" (1990) में कितना सही  लिखा है "वैवाहिक जीवन में बलात्कार को पति के विशेषाधिकार के रूप में देखते जाना अपमानजनक ही नहीं, दुनिया की तमाम औरतों के लिए खतरा भी है”
 बताने की जरूरत नहीं कि 1991 में आर. बनाम आर. (रेप : वैवाहिक छूट) मामले में हाउस ऑफ लॉर्डस  के मुताबिक, ‘कोई भी पति अपनी पत्नी के साथ बिना सहमति के यौन संबंध बनाने पर अपराधी हो सकता है, क्योंकि पति और पत्नी दोनों समान रूप से शादी के बाद जिम्मेदार होते हैं। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता कि शादी के बाद सभी परिस्थितियों में पत्नी यौन संबंध बनाने के लिए खुद को पेश करेगी या मौजूदा शादी के बाद सभी हालातों में पत्नी यौन संबंध बनाने के लिए राजी हो।’ पीपुल्स बनाम लिब्रेटा मामले में न्यूयार्क की अपील कोर्ट ने कहा कि बलात्कार और वैवाहिक जीवन में बलात्कार के बीच अंतर करने का कोई औचित्य नहीं है और विवाह किसी पति को अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करने का लाइसेंस नहीं देता। कोर्ट ने न्यूयार्क के उस कानून को असंवैधानिक करार दिया जिसने वैवाहिक बलात्कार को अपराध ना मानने की छूट दे रखी थी।’
 नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने घोषित किया कि पत्नी की सहमति के बिना वैवाहिक सेक्स बलात्कार के दायरे में आएगा। यह भी कहा गया कि धार्मिक ग्रंथों में भी पुरुषों द्वारा पत्नी के बलात्कार की अनदेखी नहीं की है। कोर्ट ने यह भी कहा कि हिन्दू धर्म में पति और पत्नी की आपसी समझ पर जोर दिया गया है। दुनिया के करीब 76 देशों में वैवाहिक बलात्कार दंडनीय अपराध के तौर पर घोषित हो चुका है जबकि भारत सहित पांच देशों में वैवाहिक बलात्कार को अपराध तब माना जाता है, जब कानूनी तौर पर दोनों एक-दूसरे से अलग रह रहे हों। 
'परिवार की पवित्रता' की दुहाई देते हुए मीनाक्षी कह रही हैं कि "दांपत्य में बलात्कार  कानून  की  मांग से  पुरुष समाज भी डरा हुआहै। विवाह और   परिवार   जैसी   संस्थाओं   को   बदनाम   करके  इन  संस्थाओं  की  पवित्रता को खतरे में नहीं डालाजा सकता"।  पुरुष समाज क्यों डरा हुआ है ? विवाह और परिवार  जैसी  संस्थाओं   की पवित्रता को किसने खंडित किया? इसके लिए जिम्मेवार वो बलात्कारी पिता-पति-पुत्र हैं, जिनके कारण संबंधों की किसी भी छत के नीचे स्त्री सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रही।  
पता नहीं 'परिवार की पवित्रता', नैतिकता, मर्यादा और आदर्श भारतीय नारी के धार्मिक उपदेशों से हिंदुस्तान की स्त्री को कब और कैसे मुक्ति मिलेगी? नेहरु जी के शब्दों में " हम हर भारतीय स्त्री से सीता होने की अपेक्षा करते हैं, मगर पुरुषों  से मर्यादा पुरषोतम राम होने की नहीं"। सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि  सदियों पुराने संस्कारों की सीलन- आखिर  कब और कैसे समाप्त होगी? कैसे अंत हो स्त्री उत्पीड़न की राजनीति का?
 क्या हम वास्तव में मौजूदा  मर्दवादी  कानूनों से, महिलाओं के खिलाफ लगातार बढती हिंसा-यौनहिंसा-घरेलू हिंसा को रोकना चाहते हैं या तथाकथित  महान भारतीय सभ्यता, संस्कृति और धार्मिक परंपराओं  की आड़ में, महिलाओं का  शोषण, उत्पीड़न, दमन और यौनहिंसा ज़ारी रखना चाहते हैं?  
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