Saturday, April 20, 2013

स्त्री के विरुद्ध हिंसा-यौन हिंसा

20.3.2013 के राष्ट्रीय सहारा, आधी दुनिया के पहले पन्ने पर कविता कृष्णन के लेख "18 पर फिर वापसी" में छपा है "मालूम हो कि भारत में सहमती की उम्र 1983 से लेकर अभी कुछ महीनें पहले तक 16 वर्ष ही थी"। सादर सम्मान सहित- शुक्र है आपने देश के कानून मंत्री की तरह यह नहीं कहा कि भारत में सहमती की उम्र 1860 से ही 16 वर्ष है।

उल्लेखनीय है कि 1860 में सहमती की उम्र सिर्फ 10 साल थी जो 1891 में 12 साल, 1925 में 14 साल और 1949 में 16 साल की गई थी। 1949 के बाद इस पर कभी कोई विचार ही नहीं किया गया। अध्यादेश (3.2.2013) में इसे 16 से बढ़ा कर 18 किया गया था। नए विधेयक में जो किया जा रहा है, वो आपको सामने है। 

विवाह के लिए लड़की की उम्र 18 साल होनी चाहिए मगर 18 से कम होने पर भी विवाह "गैरकानूनी" नहीं माना-समझा जाता और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अपवाद अनुसार "15 वर्ष से अधिक उम्र की पत्नी के साथ यौन संबंध किसी भी स्थिति में बलात्कार नहीं है"।
दांपत्य में यौन संबंधों के बारे में सदियों पुरानी सामंती सोच और संस्कार में कोई बदलाव नहीं हो पा रहा।कविता जी तो वैवाहिक बलात्कार पर बहुत बोलती हुई सुनाई देती थी। मालूम नहीं अब क्यों 'मौनव्रत' धारण कर लिया है। 

सवाल यह है कि क्या ऐसे ही कानूनों से रुकेगा 'बाल विवाह', 'बाल तस्करी', 'बाल वेश्यव्रती' और स्त्री विरोधी हिंसा-यौन हिंसा? वैधानिक प्रावधानों में अंतर्विरोधी और विसंगतिपूर्ण 'सुधारवादी मेकअप' से, स्त्री के विरुद्ध हिंसा-यौन हिंसा, कम होने की बजाये बढ़ी है, बढती रही है और बढती रहेगी। 

कविता जी देश के नागरिक हमेशा " याद रखें (गे) कि यह विधेयक सिर्फ महिलों के संघर्ष का परिणाम है"। निश्चित ही, महिलाओं के मुद्दों पर नारी समुदाय की राय ही अहम है। मर्दों की कोई भूमिका नहीं हो सकती - सिवा विरोध-प्रतिरोध के।

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