Wednesday, August 20, 2014

लापता लड़की (कहानी संग्रह)


  लापता लड़की 

"कहानी तो बस इतनी ही है कि वह लड़की घर लौटने के बाद सारी रात सपनों का सफ़ेद स्वेटर बुनती रहती और सारा दिन दफ्तर में उंघते-उंघते उधेड़ती रहती.... इस उधेड़-बुन में उसे यह पता ही नहीं चला कि उसने कब मेंहदी हाथों में रचाने कि बजाये, बालों में लगानी शुरू कर दी थी. कहानी तो बस इतनी ही है."(लापता लड़की)


 "वह निस्संग है, आखेटित है, लापता है। वही यहाँ है। परंपराएँ उसे लापता करती हैं। बाज़ार  उसे निस्संग और उसका आखेट करता है। हर धर्म, हर जाति उसके संग ऐसा ही सलूक करती है। ये कहानियाँ इसी स्त्री या लिंग संवेदनशीलता से शुरू होती हैं और इस लापता कर दी गई स्त्री की खोज का आवेशमय विमर्श बन जाती हैं। ये औरत को किसी घटना या किस्से के ब्यौरे में नहीं दिखातीं, उसे खोजती हैं, बनाती हैं और जितना बनाती हैं, पाठक को उतना ही सताती हैं। स्त्री लेखन स्त्री ही कर सकती है यह सच है लेकिन ‘स्त्रीवादी’ लेखन पुरुष भी कर सकता है-यह भी सच है। यह तभी संभव है, जब वह लिंग भेद के प्रति आवश्यक संवेदनाशील हो क्योंकि वह पितृसत्ता की नस-नस बेहतर जानता है। मर्दवादी चालें ! मर्दों की दुनिया में औरत एक जिस्म, एक योनि, एक कोख भर है और मर्दों के बिछाए बाज़ार में वह बहुत सारे ब्रांडों में बंद एक विखंडित इकाई है।
अरविंद, जो बहुत बहुत कम कहानी लिखते हैं, इस औरत को हर तरह से, हर जगह पूरी तदाकारिता से खोजते हैं। वैसे ही जैसे आसपड़ोस की गायब होती लड़कियों को संवेदनशील पाठक खोजते-बचाते हैं। अरविंद कहीं पजैसिव हैं, कहीं कारुणिक हैं, लेकिन प्रायः बहुत बेचैन हैं। यहाँ स्त्री के अभिशाप हैं जिनसे हम गुजरते हैं। मर्दों की दुनिया द्वारा गढ़े गए अभिशाप, आजादी चाह कर भी औरत को कहाँ आज़ाद होने दिया जाता है ?
अरविंद की इन वस्तुतः छोटी कहानियों में मर्दों की दुनिया के भीतर, औरत के अनंत आखेटों के इशारे हैं। यह रसमय जगत नहीं, मर्दों की निर्मित स्त्री का ‘विषमय’ जगत है।

अरविंद की कहानी इशारों की नई भाषा है। उनकी संज्ञाएं, सर्वनाम, विशेषण सब सांकेतिक बनते जाते हैं। वे विवरणों, घटनाओं में न जाकर संकेतों व्यंजकों, में जाते हैं और औरत की ओर से एक जबर्दस्त जिरह खड़ी करते हैं। स्त्री को हिन्दी कथा में किसी भी पुरुष लेखक ने इतनी तदाकारिता से नहीं पढ़ा जितना अरविंद ने। ये कहानियों उनके उत्कट उद्वेग का विमर्श हैं और स्त्री के पक्ष में एक पक्की राजनीतिक जिरह पैदा करती हैं।
इन कहानियों को पढ़ने के बाद पुरुष पाठकर्ता संतप्त होगा एवं तदाकारिता की ओर बढ़ेगा और स्त्री पाठकर्ता अपने पक्ष में नई कलम को पाएगी-वहाँ भी, जहाँ स्त्री सीधा विषय नहीं है। अरविंद जैन का यह पहला कथा संग्रह बताता है कि हिन्दी कहानी में निर्णायक ढंग से फिर बहुत कुछ बदल गया है।" सुधीश पचौरी


 
समीक्षा-1 
"September  2013
अक्षर पर्व  ( अंक 168  )

जसविंदर कौर बिन्द्रा
"अरविन्द जैन ने अब तक पत्र-पत्रिकाओं में कई समीक्षाएं, कविताएं तथा कानून संबंधी कई स्तंभ,लेखन, शोध, लेख तथा इसके अलावा कई रचनाएं भी लिखी, लेकिन उनका कहानी संग्रह पहली बार अस्तित्व में आया। इससे एकदम स्पष्ट हो जाता है कि अरविन्द जैन को लिखने का अनुभव काफी है और कहानी संग्रह लाने के लिए उन्होंने कोई जल्दबाजी नहीं की।
अरविन्द जैन की कहानियां आज के संदर्भों से जुड़ी हुई हैं मगर कहानीकार ने अपनी रचनाओं को नियमित ढंग के कहानी लेखन से थोड़ा अलग ढंग से रचा है। संग्रह का शीर्षक 'लापता लड़की' है जबकि लगता है कहानीकार अपनी कहानियों में लड़की के साथ उन सभी सामाजिक तथा पारिवारिक, नैतिक तथा आर्थिक सरोकारों तथा स्थितियों को ढूंढने की कोशिश करता है, जिनके चलते आज नारी की गरिमा, उसके प्रति संवेदना आदि सभी संवेग तथा भावनाएं सिर्फ उपभोग्यवादी प्रवृत्ति में तब्दील हो गए हैं। ये सभी कहानियां उत्तर आधुनिकवाद की उपज हैं।
'कार्बन-कॉपी' में जो नौजवान अपने उसूलों तथा कुछ कर दिखाने के सपने के कारण अपने वकील बाप से इसलिए नफरत करता है क्योंकि वह अपनी कानूनी सलाहों तथा वकालत के बल पर एक बड़ा, नामी बै्रंड में तब्दील हो गया और सदा झूठ के नाम पर मुकदमे लड़ता रहा, उसके लड़के को उसकी मौत के बाद उसके बनाए इतने बड़े नामी गिरामी चेम्बर को संभालने में कुछ घंटे भी न लगे। बाप की छोड़ी कुर्सी पर बैठते ही वह बाप की 'कार्बन-कॉपी' बन गया। 'लापता लड़की' को ढूंढने निकले कहानीकार को काफी दिक्कत होती रही कि वह उस लड़की को प्रेमी के साथ लिव-इन में रहने भेज मामला खत्म करे या किसी की भी रखैल बना दे। लेकिन उसे मालूम नहीं कि 'लड़की' को खपा देना या लापता कर देना इतना आसान नहीं।
शायद इसी खीझ ने लड़की को शिकार, स्लीपिंग पार्टनर या बुलेट प्रूफ में बदल दिया हौ। ऊंची अभिलाषाओं, सुख-सुविधाओं की लालसा तथा ग्लैमर-फैशन की चकाचौंध ने स्त्रियों को भी काफी गुमराह कर, उन्हें घरों की चारदीवारी से बाहर निकाल इतना उलझा दिया है कि वह खुद भी समझ नहीं पाती कि कौन-सा रास्ता नारी की आजादी का है और कौन-सा नारी-अस्तित्व की पहचान का।
अरविन्द जैन के पास नये बिम्ब तथा प्रतीक हैं, जिनके माध्यम से वह पात्र संरचना करते है। 'घूस-यार्ड', 'भेड़-भेड़िए' आदि शीर्षक न्याय व्यवस्था पर व्यंग्य करते हैं तो शिकार, लापता, स्लीपिंग पार्टनर आदि शीर्षक औरत के प्रति मानसिकता की गिरावट को दर्शाते हैं।
समय अवश्य बदलेगा और नारी की स्थिति ही नहीं, उससे संबंधित संबोधन भी बदलेंगे और वह लापता भी नहीं रहेगी।" 
http://mobile.aksharparv.com/artcile_desc.php?issue_no=168&article_id=239#.U_SMbqMR4Zl
पुस्तक का नाम- 'लापता लड़की' ,लेखक- अरविन्द जैन
प्रकाशक- राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली. पृष्ठ- 100,,मूल्य- 195 रुपए
जसविंदर कौर बिन्द्रा
संपर्क- मो. 09868182835
 
समीक्षा-2
Written by मीडिया सरकार on Tuesday, 27 August 2013 03:34

"अरविन्द जैन कभी-कभार कहानियां लिखते हैं, पर अकसर अपनी हर कहानी में वे औरत को नये ढंग से तलाशते हैं। वे मकडज़ाल-सी बनती चली जाती हैं। आलोच्य कहानी-संग्रह ‘लापता लड़की’ में कुल दस कहानियां हैं। सांकेतिक भाषा में लिखी गई इन कहानियों की अद्ïभुत शैली कहानी के मध्य कहानी की परतें खोलती है। संग्रह की सभी कहानियां इसी विशिष्ट शैली में हैं।

पहली कहानी ‘घूस-यार्ड’ का केंद्रीय आश्रय कोर्ट-कैंटीन है जहां चूहे, मूसे, बिलाव-बिल्ली और कुत्ते अपनी उदरपूर्ति करते विचरते हैं। इन जीवों के माध्यम से भ्रष्टाचार की पोलें खुलती चली जाती हैं। कहना गलत नहीं होगा कि कथाकार ने न सिर्फ इन जीवों की जीवनशैली को बारीकी से निरखा है बल्कि इनके माध्यम से देश की अनचाही दीमकों की भक्षण-पद्धति को भी परखा है। उदाहरणार्थ, थोड़े दिन बाद उसे ऐसा लगने लगा जैसे वह जहां कहीं भी जाता है, कोई-न-कोई बिलाव या बिल्ली नजर आ ही जाती है। …कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कोई बिलाव अकेले किसी चूहे को नहीं मार पाता, तब वह बाहरी बिलावों की मदद लेता है और बदले में थोड़ा हिस्सा उन्हें भी दे देता है।
अरविन्द जैन की महिला-पात्रों की मानसिक परिस्थितियां उनकी अत्याधुनिक जीवन शैली का अभिशाप लगती हैं, जो नारी-मुक्ति की गलत अवधारणा की शिकार हैं। पुरुष की बराबरी का अहं पालती ये सिगरेट-बीड़ी के छल्ले उड़ाने से गुरेज नहीं करतीं। चाहे वह ‘कार्बन-कापी’ की अंकिता हो, ‘शिकार’ की सपना, ‘बुलेट प्रूफ’ की प्रदर्शन सुंदरियां या फिर कोई ‘लापता लड़र्की।’ ‘अनुवाद’ कहानी उस असफल प्रेम का दृष्टांत है जहां पुरुष पलायनवादी की भूमिका निभाता है। ‘स्लीपिंग पार्टनर’ उच्छृंखल युवती की अत्याधुनिक सोच की ओर इशारा करती है तो ‘यश पापा’ द्विखंडित मानसिकता की तरफ।
इन कहानियों का तात्विक विवेचन कथाकार अंतिम कहानी ‘भेड़-भेडि़ए’ के माध्यम से पाठकों पर छोड़ता है जहां उसे मौजूदा न्याय-व्यवस्था से असंतोष है।  एक बाड़े में भेड़ों के सिर पर काली पट्टी बंधी दिखती है और ठीक उसके सामने मोटे से ल_े पर खून में लथपथ भेड़ पड़ी है। इस तरह ये कहानियां फुर्सती लम्हों की बजाय चिन्तन-मनन की स्थिति में ले जाती हैं।"
०पुस्तक : लापता लड़की (कहानी-संग्रह) ०कहानीकार: अरविन्द जैन ०प्रकाशक: राजकमल  प्रकाशन, नयी दिल्ली, ०पृष्ठ संख्या : 100 ०मूल्य : रुपये 195

.http://mediasarkar.com/hi/index.php?option=com_content&view=article&id=4706%3A2013-08-27-03-36-47&catid=133%3A2010-01-27-13-15-12%E0%A4%85%E0%A4%B0%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6

समीक्षा-3

दैनिक हिंदुस्तान (26.01.2013)
कहानी के बहाने जिरह
"अरविंद जैन का यह पहला कहानी संग्रह है। वर्षों पहले उन्होंने औरत होने की सजाजैसी पुस्तक उन्होंने लिखी थी, जिसकी बड़ी चर्चा रही थी। वैसे उसमें स्त्रियों से जुड़े कानूनी मसलों और पहलुओं की चर्चा थी, लेकिन जो दृष्टिकोण वहां मौजूद था, उसका सार्थक विस्तार इस संग्रह में देखा जा सकता है। विडम्बना यह है कि लापता लड़कीहमारे समाज में हर जगह उपस्थित है। जैन की ये कहानियां औरत की बेचैनी के दस्तावेज हैं। इन कहानियों में व्यक्त यथार्थ को स्त्रियों के प्रति सहानुभूति तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता। लेखक की संवेदनशील दृष्टि व्यापक है जो पुरुषों के वर्चस्व की जबरदस्त तरीके से पोल खोलती है। साथ ही उतनी ही मजबूती से तरफदारी करती है।"
लापता लड़की, लेखक: अरविंद जैन, प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली-2, मूल्य: 195 रु.

कहानी "भेड़-भेड़िये" http://www.shabdankan.com/2013/09/arvindjain.html#.U_Sj6aMR4Zl

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