Thursday, January 29, 2015

संविधान, देश और अध्यादेश



                                                     अरविन्द जैन
दिल्ली से आते हैं-
आदेश !
अध्यादेश !!

आठ महीने में, आठ अध्यादेश. संसद में बिना विचार विमर्श के कानून! देश में कानून का राज है या ‘अध्यादेश राज’? बीमा, भूमि अधिग्रहण  हो या कोयला खदान. यह सब तो पहले से ही संसदीय समितियों के विचाराधीन पड़े हुए हैं. क्या यही है आर्थिक सुधारों के प्रति ‘प्रतिबद्धता’ और ‘मजबूत इरादे’? क्या यही है संसदीय जनतांत्रिक व्यवस्था की  नैतिकता? क्या यही है लोकतंत्र की परम्परा, नीति और मर्यादा? क्या यह ‘अध्यादेश राज’ और शाही निरंकुशता नहीं? क्या ये अध्यादेश अंग्रेजी हकुमत की विरासत का विस्तार नहीं? क्या ऐसे ही होगा राष्ट्र का नवनिर्माण? देश की जनता ही नहीं, खुद राष्ट्रपति हैरान...परेशान हैं.
संविधानानुसार तो अध्यादेश ‘असाधारण परिस्थितियों’ में ही, जारी किये जा सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट तक कह चुकी है कि ‘अध्यादेशों’ के माध्यम से सत्ता बनाए-बचाए रखना, संवैधानिक धोखाधड़ी है’. राज्यसभा में बहुमत नहीं है तो, संसद का संयुक्त सत्र बुलाया जा सकता था/है. हालांकि 1952 से आज तक केवल चार बार, संयुक्त सत्र के माध्यम से विधेयक पारित किए गए है. संयुक्त सत्र बुला कर विधेयक पारित कराना, भले ही संवैधानिक है लेकिन व्यावहारिक बिलकुल नहीं. जानते हो ना! संविधान के अनुच्छेद 123 (दो) के तहत छह महीने के भीतर ‘अध्यादेश’ के स्थान पर विधेयक पारित करवाना पड़ेगा और अनुच्छेद 85 के तहत छह महीने की अवधि संसद सत्र के अंतिम दिन से लेकर, अगले सत्र के पहले दिन से अधिक नहीं होनी चाहिए. लोकसभा और राज्यसभा से मंजूरी नहीं मिली तो?

निश्चय ही संसद का कामकाज ठप होने की बढ़ती घटनायें, गहरी चिन्ता का विषय हैं. विपक्ष को विरोध का अधिकार है, पर संसद में हंगामा करके बहुमत को दबाया नहीं जा सकता. सत्तारूढ़ दल और विपक्ष की जिम्मेदारी है कि मिल बैठ कर आम सहमती बनायें. विपक्षी हंगामे या हस्तक्षेप से बचने के लिए, अध्यादेश का रास्ता बेहद जोखिमभरा है. अपनी भूमिका और विवेक के माध्यम से विपक्ष का सहयोग जुटाते. क्या आये दिन अध्यादेश जारी करने का, कोई व्यावहारिक समाधान या विकल्प नहीं? भूमि अधिग्रहण से जुड़े अध्यादेश को लाने की तत्काल जरूरत पर सवाल खड़े हुए मगर फिर अध्यादेश...क्यों? 

हाँ! हाँ! हम जानते हैं कि जिस दिन (26 जनवरी,1950) संविधान लागू हुआ, उसी दिन तीन और उसी साल 18 अध्यादेश जारी करने पड़े. नेहरु जी ‘जब तक रहे प्रधानमंत्री रहे’ और उन्होंने अपने कार्यकाल में 102 अध्यादेश जारी किये. इंदिरा गाँधी ने अपने कार्यकाल में 99, मोरार जी देसाई ने 21, चरण सिंह ने 7, राजीव गाँधी ने 37, वी.पी.सिंह ने 10, गुजराल ने 23, वाजपेयी ने 58, नरसिम्हा राव ने 108 और मनमोहन सिंह ने (2009 तक) 40 अध्यादेश जारी करे-करवाए. सत्ताधारी दलों के सभी नेता संविधान को ताक पर रख, अनुच्छेद 123 का ‘राजनीतिक दुरूपयोग’ करते रहे हैं. क्या ‘अध्यादेश राज’ कभी खत्म नहीं होगा?
क्या राष्ट्रपति महोदय के ‘संकेत’ काफी नहीं है कि अगली बार  किसी भी अध्यादेश पर, महामहिम अपने संवैधानिक अधिकारों, राष्ट्रीय हितों, राजनीतिक दायित्वों और संसदीय परम्पराओं का हवाला देकर गंभीर सवाल खड़े कर सकते हैं. एक बार किसी भी विधेयक, अध्यादेश या मंत्रीमंडल की सलाह को मानने से इनकार भी कर सकते हैं या पुनर्विचार के लिए भेज सकते हैं. अगर ऐसा होता है तो, यह मौजूदा सरकार के लिए सचमुच मुश्किल की घड़ी होगी. आखिर राष्ट्रपति कब तक ‘रबर की मोहर’ बने रहेंगे? 

बताने की जरुरत नहीं कि आर.सी. कूपर बनाम भारतीय संघ (1970) में संविधान के अनुच्छेद 123 की वैधता को चुनौती दी गई तो, सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करने से ही मन कर दिया और ‘तत्काल आवश्यकता’ के सवाल पर निर्णय लेने के काम राजनेताओं पर छोड़ दिया. अध्यादेशों को लेकर राज्यपालों की भूमिका पर अनेक बार गंभीर प्रश्न खड़े हुए हैं. इस संदर्भ में डॉ. डी.सी. वाधवा बनाम बिहार राज्य (ए.आई.आर. 1987 सुप्रीम कोर्ट 579) में सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ऐतिहासिक दस्तावेज है, जिसमें कहा गया है कि बार-बार ‘अध्यादेश’ जारी करके कानून बनाना अनुचित और गैर संवैधानिक है. अध्यादेश का अधिकार असामान्य स्थिति में ही अपनाना चाहिए और राजनीतिक उदेश्य से इसके इस्तेमाल की अनुमति नहीं दी जा सकती. कार्यपालिका ऐसे अध्यादेश जारी करके, विधायिका का अपहरण नहीं कर सकती. 

लगता है कि विपक्ष हाशिए से बाहर हो गया है और देश के बुद्धिजीवी चुप हैं. सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर, कहीं कोई हस्तक्षेप नजर नहीं आ रहा. मिडिया-टेलीविज़न सनसनीखेज ख़बरों, बेतुकी बहसों और ‘व्यक्ति विशेष’ की छवि संवारने-सुधरने में व्यस्त है. मगर मज़दूरों में असंतोष और दलितों, आदिवासीयों और किसानों में जनाक्रोश बढ़ रहा है. खेत-खलियान सुलग रहे हैं. राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पूँजी, देश के तमाम संसाधनों पर कब्ज़ा करने में लगी है. आर्थिक सुधार और विकास के सारे दावे अर्थहीन सिद्ध हो रहे हैं. काला धन अभी भी देशी-विदेशी बैंकों या जमीनों  में गडा है. सपनों के घर हवा में झूल रहे हैं. ना जाने कितने ‘बेघर’ ठिठुरती सर्दियों में मारे गए. चुनावी राजनीति लगातार मंहगी हो गई है. न्यायपालिका मुकदमों के बोझ तले दबी है और राष्ट्रीय न्यायधीश नियुक्ती विधेयक अधर में लटका है. धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान का संकट, निरंतर गहरा रहा है. ऐसे में सरकार के सामने अनंत चुनौतियाँ और चेतावनियाँ हैं. निसंदेह ‘अध्यादेशों’ के सहारे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को चलाना-बचाना मुश्किल है. राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना, समय और समाज की अपेक्षाएँ पूरी कर पाना असंभव है.

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