दहेज उत्पीड़न विरोधी कानून की मूल विडंबना है कि यह स्त्रियों को 
सुरक्षा कम देता है, आतंकित और भयभीत ज्यादा करता है. आज तक इसका लाभ, 
वास्तविक पीड़िताओं को कम ही मिल पाया है. ईमानदारी से कहूँ तो साफ़ तौर पर 
कारण यह है कि कानून की भाषा में दहेज़ माँगना, लेना या देना किसी भी तरह 
‘अपराध’ नहीं है, दहेज़ हत्या ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ मामला नहीं, दहेज़ 
उत्पीड़न ‘मृत्यु से ठीक पहले’ होना सिद्ध करो और अब दहेज़ अपराधियों की 
गिरफ्तारी पर भी रोक या अंकुश. नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो 2013 की 
रिपोर्ट के मुताबिक, देश में हर घंटे एक महिला दहेज हत्या का शिकार हो रही 
है लेकिन दहेज प्रताड़ना के अधिकाँश मामले तो दर्ज ही नहीं होते. कानूनी 
जाल-जंजाल या समाज में बदनामी के भय से, उत्पीड़ित महिलाएं सामने नहीं आतीं 
और घुट-घुटकर जीती-मरती रहती हैं. इस सब के बावजूद देश की सब से बड़ी अदालत 
का कहना है कि महिलाएं कानून का ‘नाजायज इस्तेमाल’ ढाल की बजाय, हथियार के 
तरह कर रही हैं. सच यह है कि इस देश में बहुत से कानून हैं, मगर महिलाओं के
 लिए कोई कानून नहीं है और जो हैं वो अंततः स्त्री विरोधी हैं. 
दहेज कानून का ‘दुरुपयोग’: गिरफ़्तारी पर अंकुश 
2 जुलाई 2014 को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति चंद्रमौली कुमार प्रसाद और पिनाकी चन्द्र घोष की खंड पीठ ने, 
अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य  ( क्लिक करे) के
 मामले में दहेज कानून का ‘दुरुपयोग’ रोकने के लिए महत्वपूर्ण व्यवस्था दी 
है. सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि जिन मामलों में 7 साल तक की सजा हो
 सकती है, उनमें गिरफ्तारी सिर्फ इस आधार पर नहीं की जा सकती कि आरोपी ने 
वह अपराध किया ही होगा. 
गिरफ्तारी तभी की जाए, जब पर्याप्त सबूत हों, आरोपी की गिरफ्तारी ना करने 
से जांच प्रभावित हो, और अपराध करने या फरार होने की आशंका हो. अदालत के 
निर्देश यह भी हैं कि दहेज मामले में गिरफ्तारी से  पहले केस डायरी में 
कारण दर्ज करना अनिवार्य होगा, जिस पर मजिस्ट्रेट जरूरी समझे तो गिरफ्तारी 
का आदेश दे सकता है. इस आदेश की अनदेखी करने पर अधिकारी के विरुद्ध विभागीय
 कार्रवाई की जानी चाहिए. माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश जारी किया है 
कि दहेज उत्पीड़न के मामलों में भी आरोपी को बहुत जरूरी होने पर ही  
गिरफ्तार किया जाना चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय दंड 
संहिता, 1860 की धारा 498 ए या दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम की धारा 4 तक ही 
सीमित नहीं है, बल्कि ऐसे सभी मामलों के लिए है जिनमे अपराध की सजा सात 
वर्ष से कम हो या अधिकतम सात साल तक हो. उल्लेखनीय है कि इस निर्णय द्वारा 
पति के सम्बन्धियों को भी ‘रक्त-विवाह और गोद संबंधों’ तक ही सीमित कर दिया
 गया है. शेष किसी सम्बन्धी के खिलाफ मामला नहीं चल सकता. 
सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर से महिलाओं द्वारा दहेज़ कानून के 
‘दुरूपयोग’  पर ‘गहरी चिंता’ जताते हुए कहा है कि यह कानून बनाया तो इसलिए 
गया था कि महिलाओं को दहेज़ प्रताड़ना से बचाया जा सके, परन्तु कुछ औरतों ने
 इसका ‘नाजायज इस्तेमाल’ किया और दहेज उत्पीड़न की झूठी शिकायतें दर्ज 
कराईं हैं. उल्लेखनीय है कि यह सर्वोच्च न्यायालय का ऐसा पहला या आखिरी 
निर्णय नहीं है, जिसे किसी न्यायमूर्ति विशेष का पूर्वग्रह या दुराग्रह 
मान-समझ कर नज़र अंदाज़ किया जा सके. हिंसा, यौन-हिंसा, घरेलू  हिंसा से लेकर
 सहजीवन में सहमति के संबंधों तक पर, उच्च न्यायालयों समेत और भी न्यायालय 
विवादस्पद सवाल उठा चुके हैं. दहेज़ कानूनों से परेशान ‘पति बचाओ’ या 
‘परिवार बचाओ’ आन्दोलन भी सक्रिय है.
कानून अधिकार या हथियार?
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के 
‘दुरुपयोग’ पर दिशा-निर्देश महिला संगठनों को बेहद चौंकाने वाले हैं. 
विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में ही स्त्रियों द्वारा दहेज़ 
कानूनों का ‘दुरूपयोग’ किया जा रहा है या पुलिस-अभियोग पक्ष की कमजोरियों 
के कारण सजा नहीं हो पाती ? क्या अपराधियों को गिरफ्तारी में असीमित छूट से
 पुलिस की निरंकुशता और भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं मिलेगा? सही है कि 
स्त्री-पुरुष के लिए एक जैसा होना चाहिए, मगर क्या दोनों की 
सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थिति समान है? यह भी सही है कि निर्दोष की 
अविवेकपूर्ण गिरफ़्तारी या सजा नहीं होनी चाहिए, परन्तु यह काम तो पुलिस 
अधिकारी का है ना कि जांच-पड़ताल से पता लगाए- कौन-कौन अपराध में शामिल थे 
या नहीं थे? न्याय व्यवस्था का मूल सिद्धांत ही है कि भले ही ‘हजारों 
निर्दोष छूट जांए, पर किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए.’ ‘न्यायिक 
बुद्धिमता’ और ‘विवेक’ के कैसे-कैसे सिद्धान्त गढे-मढे जा रहे हैं, जो 
सचमुच अन्याय, शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ उठने वाली हर आवाज़ का गर्भ में ही 
गला घोंट देना चाहते हैं.  
हम क्यों और कैसे भूल जाते हैं कि दहेज अपराध में सजा की दर इसलिए भी बेहद 
कम है कि अपराध घर की चारदीवारी के भीतर होते हैं, जिनके पर्याप्त सबूत 
नहीं होते या नहीं हो नहीं सकते. कौन देगा ‘बहू’ के पक्ष में गवाही? ऊपर से
 कानून में इतने गहरे गढ्ढे हैं, कानून के रखवाले भ्रष्टाचार से मुक्त 
नहीं, साधन-संपन वर्ग में दहेज के चलन का पहले से अधिक बढ़ा है, कानून ऊपरी 
तौर पर बेहद प्रगतिशील दिखते हैं पर दरअसल बेजान और नख-दन्त विहीन हैं. कहा
 यह जा रहा है कि महिलाएं कानून का ‘नाजायज इस्तेमाल’ हथियार के तरह कर रही
 हैं, ना कि ढाल के रूप में. कानून अगर हथियार ही है तो क्या सिर्फ महिलाएं
 ही इसका ‘नाजायज इस्तेमाल’ कर रही हैं? बाकी कानूनों के ‘दुरूपयोग’ और 
बढ़ते अपराधों के बारे में, आपका क्या विचार है? 
सजग और चेतना संपन्न महिलाएं पूछ रही हैं “कहीं दहेज़ कानून के ‘दुरूपयोग’ 
की आड़ में असली मकसद, उन सत्ताधीशों, उच्च पदों पर आसीन अफसरों, संपादकों 
और भूत-पूर्व अपराधियों को बचाना तो नहीं- जिन पर गंभीर यौनाचार, शोषण या 
उत्पीड़न के आरोप लगते रहे (रहते) हैं.” निश्चय ही यह ‘ऐतिहासिक फैसला’ मेरे
 देश की ‘आधी आबादी’ को ‘कटघरे’ में खड़ा करके, स्वयं बहुत से संदेहास्पद 
सवालों में घिरा नज़र आता है. संदेह की सुई ना जाने कहाँ जा कर टिकेगी.  
दहेज़ माँगना, लेना या देना ‘अपराध’ नहीं
निस्संदेह दहेज़ विरोधी कानून तो 1961 में ही बन गया, लेकिन इस पर 
लगाम लगने की बजाय, समस्या निरंतर जटिल और भयंकर होती गई. इसलिए 1983 में 
संशोधन करके भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498A जोड़ा गया, साक्ष्य 
अधिनियम में बदलाव किये. कारण कानून की भाषा में दहेज़ माँगना, लेना या देना
 किसी भी तरह ‘अपराध’ नहीं माना-समझा गया. परिणाम स्वरुप दहेज़ उत्पीड़न और 
दहेज़ हत्याओं के आंकड़े, साल-दर-साल बढ़ते ही चले गए और आज तक दहेज़ हत्या 
किसी भी मामले में फाँसी की सज़ा नहीं हुई. जिन मामलों में हुई भी तो वो 
उच्च अदालतों ने, आजीवन कारावास में बदल दी. सर्वोच्च न्यायालय से उम्रकैद 
की सजा पाए हत्यारे, फाइलें गायब करवा के तब तक बाहर घुमते रहे जबतक 
अखबारों में “भंडाफोड़” नहीं हुआ. सुधा गोयल (
State Delhi (Administration) vs Laxman Kumar & Ors,1986)
 और शशिबाला केस में “चौथी दुनिया” और टाइम्स ऑफ़ इंडिया में सनसनीखेज 
रिपोर्ट-सम्पादकीय छपने के बाद ही, हत्यारों को जेल भेजा जा सका. इस बारे 
में मैंने विस्तार से ‘वधुओं को जलाने की संस्कृति’ (
‘औरत होने की सज़ा’ क्लिक करें ) में लिखा है.
दहेज़ हत्या : फाँसी नहीं उम्रकैद  
आश्चर्यजनक तो यह है कि जब दहेज़-हत्या के मामलों में फाँसी की सजा 
के मामले सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचने लगे, तो भारतीय संसद को 1986 में 
कानून बदलना पड़ा. सैंकड़ों मामले हैं, किस-किस के नाम गिनवाएं. भारतीय दंड 
संहिता, 1860 में, दहेज़ हत्याओं के लिए चालाकी पूर्ण ढंग से विशेष प्रावधान
 धारा 304B पारित किया. इस कानून में यह कहा गया कि शादी के 7 साल बाद तक 
अगर वधु की मृत्यु अस्वाभाविक स्थितियों में हुई है और ‘मृत्यु से ठीक 
पहले’ (‘soon before death’) दहेज़ के लिए प्रताड़ित किया गया है, तो अपराध 
सिद्ध होने पर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है. इससे पहले दहेज़ हत्या के केस 
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 के तहत दर्ज़ होते थे और अधिकतम सजा 
फाँसी हो सकती थी. मगर संशोधन द्वारा यह पुख्ता इंतजाम कर दिया गया कि दहेज़
 हत्या के जघन्य, बर्बर और अमानवीय अपराधों में भी, फाँसी का फंदा 
‘पिता-पुत्र-पति’ के गले तक ना पहुँच सके और अगर सजा हो भी तो, सात साल से 
लेकर अधिकतम सजा ‘उम्रकैद’ ही हो. 
मीडिया में प्रचारित-प्रसारित यह किया गया कि महिलाओं की रक्षा-सुरक्षा के 
लिया सख्त कानून बनाए गए हैं. ऐसे अनेक मामले हैं, जिनमे सर्वोच्च न्यायालय
 सहित विभिन्न अदालतों ने अपराधियों को, इसी आधार पर बाइज्ज़त रिहा किया कि 
पीडिता को ‘मृत्यु से ठीक पहले’     (‘soon before death’) दहेज़ के लिए 
प्रताड़ित नहीं किया गया था. 
दहेज़ उत्पीड़न, ‘मृत्यु से ठीक पहले’ अनिवार्य 
5 अगस्त 2010 को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आर. एम. लोढ़ा (अब २०१४ में बने मुख्य न्यायाधीश) और पटनायक की खंड पीठ  ने 
अमर सिंह बनाम राजस्थान केस
 के फैसले में कहा कि दहेज़ हत्या के मामले में आरोप ठोस और पक्के होने 
चाहिए, महज अनुमान और अंदाजों के आधार पर ये आरोप नहीं ठहराए जा सकते . पति
 के परिजनों पर ये आरोप महज अनुमान के आधार पर सिर्फ इसलिए नहीं गढ़े-मढ़े 
जा सकते कि वे एक ही परिवार के है, सो उन्होंने ज़रूर  पत्नी को प्रताड़ित 
किया होगा. जस्टिस आर. एम. लोढ़ा (अब २०१४ में बने मुख्य न्यायाधीश) और 
पटनायक की  खंडपीठ ने यह कहते हुए पति की माँ और छोटे भाई के खिलाफ लगाये 
गए दहेज़ प्रताड़ना और दहेज़ हत्या के आरोपों को रद्द कर दिया. आरोपियों को
 बरी करते हुए खंडपीठ ने कहा "दहेज़ माँगना अपराध नहीं है और दहेज़ के लिए 
उत्पीड़न मृत्यु से ठीक पहले होना चाहिए, वरना सजा नहीं हो सकती. वधुपक्ष के
 लोग पति समेत उसके सभी परिजनों को अभियुक्त बना देते हैं, चाहे उनका 
दूर-दूर तक इससे कोई वास्ता ना हो. अनावश्यक रूप से परिजनों को अभियुक्त 
बनाने से असली अभियुक्त के छूट जाने का खतरा बना रहता है . 
दहेज़ हत्या- ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ या नहीं?  
 दूसरी और 2010 में सुप्रीम कोर्ट जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस 
ज्ञान सुधा मिश्रा ने एक मामले में कहा कि दहेज हत्या के मामले में फांसी 
की सजा होनी चाहिए। ये केस ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ की श्रेणी में आते हैं। 
स्वस्थ समाज की पहचान है कि वह महिलाओं को कितना सम्मान देता है, लेकिन 
भारतीय समाज ‘बीमार समाज’ हो गया है। समय आ गया है कि वधु हत्या की कुरीति 
पर जोरदार वार कर इसे खत्म कर दिया जाए, इस तरह कि कोई ऐसा अपराध करने की 
सोच न पाए.सर्वोच्च न्यायालय की. खंड पीठ  ने कहा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के
 फैसले और आदेश से असहमत होने का कोई कारण नहीं है. वास्तव में  में यह 
धारा 302 (नृशंस और बर्बरतापूर्ण हत्या) का केस है, जिसमें मौत की सजा होनी
 चाहिए. लेकिन आरोप  धारा 302 के तहत नहीं लगाया गया, सो हम ऐसा नहीं कर 
सकते। वरना मामला तो यह दुर्लभतम में दुर्लभ की श्रेणी में आता है और 
अपराधियों को मौत की सजा होनी चाहिए. होनी चाहिए मगर.......! इस मुद्दे पर 
विधि आयोग की २०२वी रिपोर्ट पढने लायक है. विधि आयोग ने भी कोई विशेष 
संशोधन की सिफारिश नहीं की.
हकीक़त यह भी है कि विधायिका ने जानबूझ कर ‘आधे-अधूरे’ कानून बनाए और
 कभी समीक्षा करने की चिंता ही नहीं की. जिनके लिए कानून बनाया गये, उनसे 
न्याय व्यवस्था का कोई सरोकार बन ही नहीं पाया. दहेज कानून के मौजूदा 
रूप-स्वरूप पर पुनर्विचार कब-कौन करेगा? लाखों पीड़ित-उत्पीड़ित स्त्रियां 
ना जाने कब से, सम्मानपूर्वक जीने-मरने का अधिकार पाने के लिए रोज़ कचहरी के
 चक्कर काटती घूम रही हैं. क्या विधि-विधान की देवी (देवता) की आँखों पर 
पड़ी पट्टी कभी नहीं खुलेगी? ‘महिला सशक्तिकरण’ और ‘न्यायिक सक्रियता’ के 
दौर में भी नहीं!