Friday, August 8, 2014

News Express discusses changes made in Juvenile act

Thursday, August 7, 2014

औरत होने की सजा :अरविन्द जैन 
http://books.google.co.in/books?id=09tJkQH_4-AC&printsec=frontcover&dq=aurat+hone+ki+saza&hl=en&sa=X&ei=IUHEUdavAoPnrAeYiIDIBg&ved=0CC0Q6AEwAA#v=onepage&q=aurat%20hone%20ki%20saza&f=true

न्याय व्यवस्था में दहेज़ का नासूर

दहेज उत्पीड़न विरोधी कानून की मूल विडंबना है कि यह स्त्रियों को सुरक्षा कम देता है, आतंकित और भयभीत ज्यादा करता है. आज तक इसका लाभ, वास्तविक पीड़िताओं को कम ही मिल पाया है. ईमानदारी से कहूँ तो साफ़ तौर पर कारण यह है कि कानून की भाषा में दहेज़ माँगना, लेना या देना किसी भी तरह ‘अपराध’ नहीं है, दहेज़ हत्या ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ मामला नहीं, दहेज़ उत्पीड़न ‘मृत्यु से ठीक पहले’ होना सिद्ध करो और अब दहेज़ अपराधियों की गिरफ्तारी पर भी रोक या अंकुश. नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में हर घंटे एक महिला दहेज हत्या का शिकार हो रही है लेकिन दहेज प्रताड़ना के अधिकाँश मामले तो दर्ज ही नहीं होते. कानूनी जाल-जंजाल या समाज में बदनामी के भय से, उत्पीड़ित महिलाएं सामने नहीं आतीं और घुट-घुटकर जीती-मरती रहती हैं. इस सब के बावजूद देश की सब से बड़ी अदालत का कहना है कि महिलाएं कानून का ‘नाजायज इस्तेमाल’ ढाल की बजाय, हथियार के तरह कर रही हैं. सच यह है कि इस देश में बहुत से कानून हैं, मगर महिलाओं के लिए कोई कानून नहीं है और जो हैं वो अंततः स्त्री विरोधी हैं.

दहेज कानून का ‘दुरुपयोग’: गिरफ़्तारी पर अंकुश

2 जुलाई 2014 को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति चंद्रमौली कुमार प्रसाद और पिनाकी चन्द्र घोष की खंड पीठ ने, अरनेश कुमार बनाम बिहार राज्य  ( क्लिक करे) के मामले में दहेज कानून का ‘दुरुपयोग’ रोकने के लिए महत्वपूर्ण व्यवस्था दी है. सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा कि जिन मामलों में 7 साल तक की सजा हो सकती है, उनमें गिरफ्तारी सिर्फ इस आधार पर नहीं की जा सकती कि आरोपी ने वह अपराध किया ही होगा.
गिरफ्तारी तभी की जाए, जब पर्याप्त सबूत हों, आरोपी की गिरफ्तारी ना करने से जांच प्रभावित हो, और अपराध करने या फरार होने की आशंका हो. अदालत के निर्देश यह भी हैं कि दहेज मामले में गिरफ्तारी से  पहले केस डायरी में कारण दर्ज करना अनिवार्य होगा, जिस पर मजिस्ट्रेट जरूरी समझे तो गिरफ्तारी का आदेश दे सकता है. इस आदेश की अनदेखी करने पर अधिकारी के विरुद्ध विभागीय कार्रवाई की जानी चाहिए. माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश जारी किया है कि दहेज उत्पीड़न के मामलों में भी आरोपी को बहुत जरूरी होने पर ही  गिरफ्तार किया जाना चाहिए. सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498 ए या दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम की धारा 4 तक ही सीमित नहीं है, बल्कि ऐसे सभी मामलों के लिए है जिनमे अपराध की सजा सात वर्ष से कम हो या अधिकतम सात साल तक हो. उल्लेखनीय है कि इस निर्णय द्वारा पति के सम्बन्धियों को भी ‘रक्त-विवाह और गोद संबंधों’ तक ही सीमित कर दिया गया है. शेष किसी सम्बन्धी के खिलाफ मामला नहीं चल सकता.

सर्वोच्च न्यायालय ने एक बार फिर से महिलाओं द्वारा दहेज़ कानून के ‘दुरूपयोग’  पर ‘गहरी चिंता’ जताते हुए कहा है कि यह कानून बनाया तो इसलिए गया था कि महिलाओं को दहेज़ प्रताड़ना से बचाया जा सके, परन्तु कुछ औरतों ने इसका ‘नाजायज इस्तेमाल’ किया और दहेज उत्पीड़न की झूठी शिकायतें दर्ज कराईं हैं. उल्लेखनीय है कि यह सर्वोच्च न्यायालय का ऐसा पहला या आखिरी निर्णय नहीं है, जिसे किसी न्यायमूर्ति विशेष का पूर्वग्रह या दुराग्रह मान-समझ कर नज़र अंदाज़ किया जा सके. हिंसा, यौन-हिंसा, घरेलू  हिंसा से लेकर सहजीवन में सहमति के संबंधों तक पर, उच्च न्यायालयों समेत और भी न्यायालय विवादस्पद सवाल उठा चुके हैं. दहेज़ कानूनों से परेशान ‘पति बचाओ’ या ‘परिवार बचाओ’ आन्दोलन भी सक्रिय है.

कानून अधिकार या हथियार?


सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए के ‘दुरुपयोग’ पर दिशा-निर्देश महिला संगठनों को बेहद चौंकाने वाले हैं. विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या वास्तव में ही स्त्रियों द्वारा दहेज़ कानूनों का ‘दुरूपयोग’ किया जा रहा है या पुलिस-अभियोग पक्ष की कमजोरियों के कारण सजा नहीं हो पाती ? क्या अपराधियों को गिरफ्तारी में असीमित छूट से पुलिस की निरंकुशता और भ्रष्टाचार को बढ़ावा नहीं मिलेगा? सही है कि स्त्री-पुरुष के लिए एक जैसा होना चाहिए, मगर क्या दोनों की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक स्थिति समान है? यह भी सही है कि निर्दोष की अविवेकपूर्ण गिरफ़्तारी या सजा नहीं होनी चाहिए, परन्तु यह काम तो पुलिस अधिकारी का है ना कि जांच-पड़ताल से पता लगाए- कौन-कौन अपराध में शामिल थे या नहीं थे? न्याय व्यवस्था का मूल सिद्धांत ही है कि भले ही ‘हजारों निर्दोष छूट जांए, पर किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए.’ ‘न्यायिक बुद्धिमता’ और ‘विवेक’ के कैसे-कैसे सिद्धान्त गढे-मढे जा रहे हैं, जो सचमुच अन्याय, शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ उठने वाली हर आवाज़ का गर्भ में ही गला घोंट देना चाहते हैं. 

हम क्यों और कैसे भूल जाते हैं कि दहेज अपराध में सजा की दर इसलिए भी बेहद कम है कि अपराध घर की चारदीवारी के भीतर होते हैं, जिनके पर्याप्त सबूत नहीं होते या नहीं हो नहीं सकते. कौन देगा ‘बहू’ के पक्ष में गवाही? ऊपर से कानून में इतने गहरे गढ्ढे हैं, कानून के रखवाले भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं, साधन-संपन वर्ग में दहेज के चलन का पहले से अधिक बढ़ा है, कानून ऊपरी तौर पर बेहद प्रगतिशील दिखते हैं पर दरअसल बेजान और नख-दन्त विहीन हैं. कहा यह जा रहा है कि महिलाएं कानून का ‘नाजायज इस्तेमाल’ हथियार के तरह कर रही हैं, ना कि ढाल के रूप में. कानून अगर हथियार ही है तो क्या सिर्फ महिलाएं ही इसका ‘नाजायज इस्तेमाल’ कर रही हैं? बाकी कानूनों के ‘दुरूपयोग’ और बढ़ते अपराधों के बारे में, आपका क्या विचार है?
सजग और चेतना संपन्न महिलाएं पूछ रही हैं “कहीं दहेज़ कानून के ‘दुरूपयोग’ की आड़ में असली मकसद, उन सत्ताधीशों, उच्च पदों पर आसीन अफसरों, संपादकों और भूत-पूर्व अपराधियों को बचाना तो नहीं- जिन पर गंभीर यौनाचार, शोषण या उत्पीड़न के आरोप लगते रहे (रहते) हैं.” निश्चय ही यह ‘ऐतिहासिक फैसला’ मेरे देश की ‘आधी आबादी’ को ‘कटघरे’ में खड़ा करके, स्वयं बहुत से संदेहास्पद सवालों में घिरा नज़र आता है. संदेह की सुई ना जाने कहाँ जा कर टिकेगी.  

दहेज़ माँगना, लेना या देना ‘अपराध’ नहीं

निस्संदेह दहेज़ विरोधी कानून तो 1961 में ही बन गया, लेकिन इस पर लगाम लगने की बजाय, समस्या निरंतर जटिल और भयंकर होती गई. इसलिए 1983 में संशोधन करके भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498A जोड़ा गया, साक्ष्य अधिनियम में बदलाव किये. कारण कानून की भाषा में दहेज़ माँगना, लेना या देना किसी भी तरह ‘अपराध’ नहीं माना-समझा गया. परिणाम स्वरुप दहेज़ उत्पीड़न और दहेज़ हत्याओं के आंकड़े, साल-दर-साल बढ़ते ही चले गए और आज तक दहेज़ हत्या किसी भी मामले में फाँसी की सज़ा नहीं हुई. जिन मामलों में हुई भी तो वो उच्च अदालतों ने, आजीवन कारावास में बदल दी. सर्वोच्च न्यायालय से उम्रकैद की सजा पाए हत्यारे, फाइलें गायब करवा के तब तक बाहर घुमते रहे जबतक अखबारों में “भंडाफोड़” नहीं हुआ. सुधा गोयल (State Delhi (Administration) vs Laxman Kumar & Ors,1986) और शशिबाला केस में “चौथी दुनिया” और टाइम्स ऑफ़ इंडिया में सनसनीखेज रिपोर्ट-सम्पादकीय छपने के बाद ही, हत्यारों को जेल भेजा जा सका. इस बारे में मैंने विस्तार से ‘वधुओं को जलाने की संस्कृति’ (‘औरत होने की सज़ा’ क्लिक करें ) में लिखा है.

दहेज़ हत्या : फाँसी नहीं उम्रकैद 

आश्चर्यजनक तो यह है कि जब दहेज़-हत्या के मामलों में फाँसी की सजा के मामले सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचने लगे, तो भारतीय संसद को 1986 में कानून बदलना पड़ा. सैंकड़ों मामले हैं, किस-किस के नाम गिनवाएं. भारतीय दंड संहिता, 1860 में, दहेज़ हत्याओं के लिए चालाकी पूर्ण ढंग से विशेष प्रावधान धारा 304B पारित किया. इस कानून में यह कहा गया कि शादी के 7 साल बाद तक अगर वधु की मृत्यु अस्वाभाविक स्थितियों में हुई है और ‘मृत्यु से ठीक पहले’ (‘soon before death’) दहेज़ के लिए प्रताड़ित किया गया है, तो अपराध सिद्ध होने पर उम्रकैद तक की सजा हो सकती है. इससे पहले दहेज़ हत्या के केस भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 302 के तहत दर्ज़ होते थे और अधिकतम सजा फाँसी हो सकती थी. मगर संशोधन द्वारा यह पुख्ता इंतजाम कर दिया गया कि दहेज़ हत्या के जघन्य, बर्बर और अमानवीय अपराधों में भी, फाँसी का फंदा ‘पिता-पुत्र-पति’ के गले तक ना पहुँच सके और अगर सजा हो भी तो, सात साल से लेकर अधिकतम सजा ‘उम्रकैद’ ही हो.
मीडिया में प्रचारित-प्रसारित यह किया गया कि महिलाओं की रक्षा-सुरक्षा के लिया सख्त कानून बनाए गए हैं. ऐसे अनेक मामले हैं, जिनमे सर्वोच्च न्यायालय सहित विभिन्न अदालतों ने अपराधियों को, इसी आधार पर बाइज्ज़त रिहा किया कि पीडिता को ‘मृत्यु से ठीक पहले’     (‘soon before death’) दहेज़ के लिए प्रताड़ित नहीं किया गया था.

दहेज़ उत्पीड़न, ‘मृत्यु से ठीक पहले’ अनिवार्य 

5 अगस्त 2010 को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आर. एम. लोढ़ा (अब २०१४ में बने मुख्य न्यायाधीश) और पटनायक की खंड पीठ  ने अमर सिंह बनाम राजस्थान केस के फैसले में कहा कि दहेज़ हत्या के मामले में आरोप ठोस और पक्के होने चाहिए, महज अनुमान और अंदाजों के आधार पर ये आरोप नहीं ठहराए जा सकते . पति के परिजनों पर ये आरोप महज अनुमान के आधार पर सिर्फ इसलिए नहीं गढ़े-मढ़े जा सकते कि वे एक ही परिवार के है, सो उन्होंने ज़रूर  पत्नी को प्रताड़ित किया होगा. जस्टिस आर. एम. लोढ़ा (अब २०१४ में बने मुख्य न्यायाधीश) और पटनायक की  खंडपीठ ने यह कहते हुए पति की माँ और छोटे भाई के खिलाफ लगाये गए दहेज़ प्रताड़ना और दहेज़ हत्या के आरोपों को रद्द कर दिया. आरोपियों को बरी करते हुए खंडपीठ ने कहा "दहेज़ माँगना अपराध नहीं है और दहेज़ के लिए उत्पीड़न मृत्यु से ठीक पहले होना चाहिए, वरना सजा नहीं हो सकती. वधुपक्ष के लोग पति समेत उसके सभी परिजनों को अभियुक्त बना देते हैं, चाहे उनका दूर-दूर तक इससे कोई वास्ता ना हो. अनावश्यक रूप से परिजनों को अभियुक्त बनाने से असली अभियुक्त के छूट जाने का खतरा बना रहता है .
दहेज़ हत्या- ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ या नहीं?  
 दूसरी और 2010 में सुप्रीम कोर्ट जस्टिस मार्कंडेय काटजू और जस्टिस ज्ञान सुधा मिश्रा ने एक मामले में कहा कि दहेज हत्या के मामले में फांसी की सजा होनी चाहिए। ये केस ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ की श्रेणी में आते हैं। स्वस्थ समाज की पहचान है कि वह महिलाओं को कितना सम्मान देता है, लेकिन भारतीय समाज ‘बीमार समाज’ हो गया है। समय आ गया है कि वधु हत्या की कुरीति पर जोरदार वार कर इसे खत्म कर दिया जाए, इस तरह कि कोई ऐसा अपराध करने की सोच न पाए.सर्वोच्च न्यायालय की. खंड पीठ  ने कहा कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले और आदेश से असहमत होने का कोई कारण नहीं है. वास्तव में  में यह धारा 302 (नृशंस और बर्बरतापूर्ण हत्या) का केस है, जिसमें मौत की सजा होनी चाहिए. लेकिन आरोप  धारा 302 के तहत नहीं लगाया गया, सो हम ऐसा नहीं कर सकते। वरना मामला तो यह दुर्लभतम में दुर्लभ की श्रेणी में आता है और अपराधियों को मौत की सजा होनी चाहिए. होनी चाहिए मगर.......! इस मुद्दे पर विधि आयोग की २०२वी रिपोर्ट पढने लायक है. विधि आयोग ने भी कोई विशेष संशोधन की सिफारिश नहीं की.

हकीक़त यह भी है कि विधायिका ने जानबूझ कर ‘आधे-अधूरे’ कानून बनाए और कभी समीक्षा करने की चिंता ही नहीं की. जिनके लिए कानून बनाया गये, उनसे न्याय व्यवस्था का कोई सरोकार बन ही नहीं पाया. दहेज कानून के मौजूदा रूप-स्वरूप पर पुनर्विचार कब-कौन करेगा? लाखों पीड़ित-उत्पीड़ित स्त्रियां ना जाने कब से, सम्मानपूर्वक जीने-मरने का अधिकार पाने के लिए रोज़ कचहरी के चक्कर काटती घूम रही हैं. क्या विधि-विधान की देवी (देवता) की आँखों पर पड़ी पट्टी कभी नहीं खुलेगी? ‘महिला सशक्तिकरण’ और ‘न्यायिक सक्रियता’ के दौर में भी नहीं!


औरतों के कठघरे में खड़ी न्यायपालिका

इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि देश की सबसे ऊंची अदालत ने कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न रोकने के लिए 13 अगस्त 1997 को जो ऐतिहासिक दिशा-निर्देश (विशाखा गाइडलाइंस) जारी किए थे, उन्हें अपने ही ढांचे में लागू करने में उसे लगभग 17 साल लग गए। सरकार भी विधेयक बनाने के बारे में इतने साल तक सोचती-विचारती रही। आखिरकार, 22 अप्रैल 2013 को कानून बन पाया। कारण कई हो सकते हैं, पर इससे लिंग समानता और स्त्री सुरक्षा के सवाल पर विधायिका और न्यायपालिका की गंभीरता का एक अंदाजा तो लगाया ही जा सकता है।
 किस पर करें भरोसा
सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीशों पर यौन शोषण के आरोप, तहलका के संपादक तरुण तेजपाल पर अपनी एक सहकर्मी के यौन शोषण का मामला, यौन उत्पीड़न के कारण इंडिया टीवी की पत्रकार द्वारा आत्महत्या का प्रयास और आए दिन महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न के बावजूद समाज, मीडिया और न्यायपालिका की रहस्यमय खामोशी का मतलब क्या है? क्या इस देश की औरतें यह सब होने-देखने के लिए ही अभिशप्त हैं? न्यायपालिका में पारदर्शिता पर चल रही बहस के बीच में ही एक और ‘दुर्घटना’ हमारे सामने है। मध्य प्रदेश उच्च-न्यायालय (ग्वालियर) के न्यायमूर्ति एस.के. गंगेले द्वारा यौन उत्पीड़न से परेशान महिला सत्र-न्यायाधीश का इस्तीफा।

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश आर. एम. लोढ़ा ने कहा है, ‘यह एकमात्र ऐसा पेशा है, जिसमें हम अपने सहयोगियों को भाई और बहन के रूप में देखते हैं। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। मेरे पास शिकायत आई है और मैं इस पर उचित कार्रवाई करूंगा।’ कब और क्या कार्यवाही होगी, अभी कहना कठिन है। जस्टिस गंगेले ने सभी आरोपों का खंडन करते हुए कहा है कि ‘आरोप सिद्ध हों तो फांसी पर लटका दें। किसी भी एजेंसी से जांच करवा लो। मैं निर्दोष हूं।’ हम सब जानते हैं कि आरोपों की जांच और सुनवाई के बिना तो कुछ होना नहीं है। पूर्व अतिरिक्त महाधिवक्ता ने न्यायमूर्ति पर ‘महाभियोग’ चलाने की मांग की है।




आश्चर्यजनक है कि समाज में संदेह से परे समझे जाने वाले क्षेत्रों (शिक्षा, चिकित्सा, न्यायपालिका, मीडिया आदि) से भी महिलाओं के देह-दमन के अशोभनीय समाचार निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। न्याय के प्रांगण से बचाओ-बचाओ की चीख-चिल्लाहट, अस्मत के बदले इंसाफ की दास्तान या किसी न्यायमूर्ति द्वारा नौकरी पाने-बचाने की ऐसी शर्मनाक शर्तें सचमुच गंभीर चेतावनी हैं। न्याय और कानूनविदों के चाक-चौबंद किले में ‘कुलद्रोहियों’ का क्या काम? पुनर्विचार करना पड़ेगा कि न्यायाधीशों की चुनाव प्रक्रिया में किस-किस खामी के कारण अनैतिकता और बीमार मानसिकता चोरी-छुपे प्रवेश कर रही है। चारों ओर से सवालों का घेरा गहराता जा रहा है।

दरअसल, शिक्षित और स्वावलंबी स्त्रियों को दोहरी भूमिका निभानी पड़ रही है। आजादी के बाद शिक्षा-दीक्षा के कारण स्त्रियां बदली हैं, बदल रही हैं, मगर भारतीय पुरुष अपनी मानसिक बनावट-बुनावट बदलने को तैयार नहीं। एक तरफ पुरुषों के लिए यह सत्ता से भी अधिक लिंग वर्चस्व की लड़ाई है। दूसरी ओर स्त्रियां अपने सम्मान और गरिमा पर हुए या होने वाले हमले का हर संभव विरोध करने लगी हैं। दमन और विरोध के इस दुश्चक्र में यौन शोषण, उत्पीड़न और हिंसा की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं।



समानता के संघर्ष में स्त्रियों का विरोध-प्रतिरोध या दबाव-तनाव बढ़ता है तो कुछ उदारवादी-सुधारवादी ‘मेक-अप’ या ‘कॉस्मेटिक सर्जरी’ की तरह नए विधि-विधान बना दिए जाते हैं। जब-तब कुछ अन्य सुधारों के सपने भी दिखा दिए जाते हैं। लेकिन सच यह है कि सिर्फ कानूनी प्रावधान बना देने भर से समस्या का समाधान नहीं होगा। विशाखा दिशा-निर्देशों की छांव में ढले-पले अधिनियम में अभी भी ढेरों अंतर्विरोध और विसंगतियां मौजूद हैं। इसमें मौजूद ‘कानूनी गड्ढों’ और चोर रास्तों के रहते स्त्री-विरोधी अपराधों पर लगाम लगा पाना मुश्किल होगा। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हक़ मांगने वाली आवाजों को चुप कराना या रख पाना अब नामुमकिन है। एक बार मीडिया को डरा-धमका कर झुका भी लें तो सोशल मीडिया का गला घोंटना असंभव है। संविधान के मौलिक अधिकारों का अर्थ स्त्री-पुरुष के लिए बराबर होना चाहिए। 1860 के न्याय-शास्त्रों और सिद्धांतों से इक्कीसवीं सदी के स्त्री-समाज को नहीं चलाया जा सकता।



मुखिया की जिम्मेदारी
सार्वजनिक आस्था और विश्वास के दायरे में हाईकोर्ट के हर न्यायमूर्ति से यह अपेक्षा रहती है कि वह निष्ठा और नैतिक मानदंडों पर खरा उतरेगा। आम व्यक्ति की आखिरी उम्मीद हैं न्यायाधीश। यह बहाना नहीं चलेगा कि समाज का नैतिक पतन हो रहा है, और वे भी उसी समाज से आते हैं, लिहाजा आदर्श व्यवहार की आशा नहीं करनी चाहिए। अगर संविधान के रक्षकों पर ही स्त्री अस्मिता के भक्षक बनने के गंभीर आरोप (सही या गलत) लग रहे हैं, तो यह अपने आप में बेहद संगीन है। न्याय मंदिरों के ‘स्वर्ण कलश’ ही कलुषित होने लगे तो फिर ‘लज्जा’ कहां फरियाद करेगी? समय रहते इस महामारी का समुचित समाधान ढूंढ़ने और उसे कारगर रूप से लागू करने की मुख्य जिम्मेदारी निस्संदेह न्यायिक परिवार के मुखिया की है। देश की आधी आबादी बड़ी उत्सुकता और बेचैनी से निर्णायक फैसले और संपूर्ण न्याय के इंतजार में बाट जोह रही है। उसके धैर्य की परीक्षा नहीं ली जानी चाहिए।





Saturday, August 3, 2013

'औरत होने की सजा' (1994) का बीसवां साल

'औरत होने की सजा' (1994) का बीसवां साल.
More than 25 editions.
Translated in Punjabi in 2012 by Unistar Publications, Chandigarh.
http://books.google.co.in/books?id=09tJkQH_4-AC&printsec=frontcover&dq=aurat+hone+ki+saza&hl=en&sa=X&ei=IUHEUdavAoPnrAeYiIDIBg&ved=0CC0Q6AEwAA#v=onepage&q=aurat%20hone%20ki%20saza&f=fa

हंस विशेषांक 2000 'अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य'
लेख 'यौन हिंसा और न्याय की भाषा'- अरविन्द जैन

















स्त्री: मुक्ति का सपना
'वसुधा' का स्त्री विशेषांक 2004
संपादन अरविन्द जैन और लीलाधर मंडलोई

books.google.co.in
When law strips naked: justice(s) flees
(Outraging the modesty of women) ARVIND JAIN http://indianmuslimobserver.com/.../indian-muslim-news.../


indianmuslimobserver.com
Hon’ble Justice Fazal Ali and Sabyasachi Mukharjee rightly confessed that “Sometimes the law which is meant to import justice and fair play to the citizens or people of the country is so torn and twisted by a morbid interpretative process that instead of giving haven to the disappointed and dejected…

Aurat Hon Di Sazaa

"ਇਸ ਪੁਸਤਕ ਵਿਚ ਲਗਭਗ 37 ਲੇਖ ਹਨ ਭਿੰਨ-ਭਿੰਨ ਪੱਖਾਂ ਉਤੇ ਚਾਨਣਾ ਪਾਉਂਦੇ ਹੋਏ, ਕਾਨੂੰਨਾਂ ਦੀ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਪਰਿਭਾਸ਼ਾ ਸਥਾਪਿਤ ਕਰਦੇ ਹੋਏ, ਸਮਾਜ ਵਿਚ ਔਰਤ ਦਾ ਵੱਖ-ਵੱਖ ਸਥਾਨ ਨਿਸਚਿਤ ਕਰਦੇ ਹੋਏ, ਗੁਲਾਮੀ ਦਾ ਹਰ ਰੂਪ ਦਰਸਾਉਂਦੇ ਹੋਏ। ਮਿਸਾਲ ਦੇ ਤੌਰ 'ਤੇ ਉਹੀ ਹੋਏਗਾ ਜੋ ਪੁਰਸ਼ ਚਾਹੇਗਾ, ਲਿੰਗ ਜਾਂਚ ਦੀ ਦੋਧਾਰੀ ਤਲਵਾਰ, ਬਾਲ ਵਿਆਹ ਕਾਨੂੰਨ 'ਚ ਛੇਦ, ਕੰਨਿਆਦਾਨ ਜ਼ਰੂਰੀ ਨਹੀਂ, ਕੰਮਕਾਜੀ ਔਰਤਾਂ ਦਾ ਯੌਨ ਸ਼ੋਸ਼ਣ, ਬਦਨਾਮੀ ਦਾ ਡਰ ਅਤੇ ਖਾਮੋਸ਼ੀ ਦੇ ਖ਼ਤਰੇ ਆਦਿ। ਇਹ ਹੀ ਨਹੀਂ, ਇਨ੍ਹਾਂ ਨਾਲ ਜੁੜੀਆਂ ਹਨ ਅਨੇਕਾਂ ਸਮੱਸਿਆਵਾਂ ਜੋ ਪਰਿਵਾਰਾਂ ਨੂੰ ਤੋੜ ਰਹੀਆਂ ਤੇ ਔਰਤ ਨੂੰ ਹੋਰ ਵਧੇਰੇ ਗੁਲਾਮ ਬਣਾ ਰਹੀਆਂ ਹਨ। ਲੇਖਕ ਨੇ ਕੁਝ ਵਿਸ਼ੇ ਅਜਿਹੇ ਵੀ ਉਲੀਕੇ ਹਨ-ਬਣਦੇ ਕਾਨੂੰਨ-ਟੁੱਟਦੇ ਪਰਿਵਾਰ, ਬੱਚੇ ਦਾ ਦਾਅਵਾ, ਬੱਚੇ ਉਤੇ ਮਾਂ ਦਾ ਅਧਿਕਾਰ, ਕੁੱਖ, ਕਾਨੂੰਨ ਅਤੇ ਕਰੂਰਤਾ, ਗੁਜ਼ਾਰਾ ਭੱਤੇ ਦੀ ਸਮੱਸਿਆ, ਦੂਜੀ ਔਰਤ ਹੋਣ ਦੀ ਸਜ਼ਾ, ਮਤਰੇਆ ਹੋਣ ਦਾ ਮਤਲਬ, ਆਤਮ-ਹੱਤਿਆ ਦਾ ਮੌਲਿਕ ਅਧਿਕਾਰ, ਅਸ਼ਲੀਲਤਾ-ਦੇਹ ਦੇ ਚੌਰਾਹੇ, ਦੁਰਾਚਾਰੀ ਕੌਣ, ਬਚਪਨ ਤੋਂ ਬਲਾਤਕਾਰ, ਗਰੀਬੀ ਚਰਿੱਤਰਹੀਣਤਾ ਹੈ, ਗ਼ੈਰ-ਕੁਦਰਤੀ ਯੌਨ ਸ਼ੋਸ਼ਣ, ਯੌਨ ਹਿੰਸਾ ਤੇ ਨਿਆਂ ਦੀ ਭਾਸ਼ਾ ਅਤੇ ਉਤਰਾਧਿਕਾਰ ਜਾਂ ਪੁੱਤਰ ਅਧਿਕਾਰ ਆਦਿ। ਇਨ੍ਹਾਂ ਵਿਸ਼ਿਆਂ ਨੂੰ 
ਕਾਨੂੰਨ ਦੀਆਂ ਧਾਰਾਵਾਂ ਦੀਆਂ ਉਦਾਹਰਨਾਂ ਦੇ ਕੇ ਉਸ ਸੰਦਰਭ ਵਿਚ ਪੇਸ਼ ਕੀਤਾ ਹੈ।
ਕਾਨੂੰਨੀ ਨੁਕਤਿਆਂ ਦੀ ਚੀਰ-ਫਾੜ ਕਰਦੇ ਤੇ ਅਦਾਲਤੀ ਫ਼ੈਸਲਿਆਂ 'ਤੇ ਪ੍ਰਸ਼ਨ-ਚਿੰਨ੍ਹ ਲਾਉਂਦੇ ਇਹ ਲੇਖ ਪ੍ਰਮਾਣਿਕ ਖੋਜੀ ਦਸਤਾਵੇਜ਼ ਹਨ।
ਲੇਖਕ ਨੇ ਇਨ੍ਹਾਂ ਲੇਖਾਂ ਨੂੰ ਪ੍ਰਮਾਣਿਕਤਾ ਸਹਿਤ ਪੇਸ਼ ਕਰਦੇ ਹੋਏ ਕਾਨੂੰਨੀ ਬਾਰੀਕੀਆਂ ਨੂੰ ਸਰਲ, ਸੰਖੇਪ ਤੇ ਸਹਿਜ ਭਾਸ਼ਾ ਵਿਚ ਹੀ ਪੇਸ਼ ਨਹੀਂ ਕੀਤਾ, ਬਲਕਿ ਰੌਚਕਤਾ ਤੇ ਕਹਾਣੀ ਰਸ ਦੀ ਪੁੱਠ ਵੀ ਦਿੱਤੀ ਹੈ।"

-ਡਾ: ਜਗਦੀਸ਼ ਕੌਰ ਵਾਡੀਆ 

ਮੋ: 98555-84298


Monday, April 22, 2013

बलात्कारियों को फांसी देंगें.. अभी नहीं... कभी नहीं....

बलात्कारियों को फांसी देंगें.. अभी नहीं... कभी नहीं....

शराब, ड्रग्स,पोर्नोग्राफी, छोटे पर्दे से बड़े पर्दे तक पसरी अश्लीलता, विज्ञापनों में नग्न-अर्धनग्न औरतें और अपराधियों को मिले राजनीतिक संरक्षण से समाज में खौफनाक कामुक, उतेजक और हिंसक माहौल बना-बनाया गया है, उसमें यौनहिंसा होना अनहोनी नहीं है। जब कानून 'नपुंसक' , पुलिस भ्रष्ट, न्याय प्रहरी असंवेदनशील, समाज आत्मकेंद्रित और पारिवारिक सम्बन्ध भयंकर शीतयुद्ध की चपेट में हों, तो अबोध बच्चों की सुरक्षा कैसे संभव होगी? पिछले कई सालों से बच्चियों से बलात्कार के मामलों में मध्य प्रदेश सबसे आगे रहता है- क्या हमने कभी सोच-विचार किया कि क्यों? १ ५ से २ ० साल तक अदालती फैसलों के इंतजार का मतलब क्या घोर अंधेर नहीं? बलात्कारियों को फांसी देंगें.... अभी नहीं... कभी नहीं.....I बहस करना बेकार है।

Saturday, April 20, 2013

स्त्री के विरुद्ध हिंसा-यौन हिंसा

20.3.2013 के राष्ट्रीय सहारा, आधी दुनिया के पहले पन्ने पर कविता कृष्णन के लेख "18 पर फिर वापसी" में छपा है "मालूम हो कि भारत में सहमती की उम्र 1983 से लेकर अभी कुछ महीनें पहले तक 16 वर्ष ही थी"। सादर सम्मान सहित- शुक्र है आपने देश के कानून मंत्री की तरह यह नहीं कहा कि भारत में सहमती की उम्र 1860 से ही 16 वर्ष है।

उल्लेखनीय है कि 1860 में सहमती की उम्र सिर्फ 10 साल थी जो 1891 में 12 साल, 1925 में 14 साल और 1949 में 16 साल की गई थी। 1949 के बाद इस पर कभी कोई विचार ही नहीं किया गया। अध्यादेश (3.2.2013) में इसे 16 से बढ़ा कर 18 किया गया था। नए विधेयक में जो किया जा रहा है, वो आपको सामने है। 

विवाह के लिए लड़की की उम्र 18 साल होनी चाहिए मगर 18 से कम होने पर भी विवाह "गैरकानूनी" नहीं माना-समझा जाता और भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अपवाद अनुसार "15 वर्ष से अधिक उम्र की पत्नी के साथ यौन संबंध किसी भी स्थिति में बलात्कार नहीं है"।
दांपत्य में यौन संबंधों के बारे में सदियों पुरानी सामंती सोच और संस्कार में कोई बदलाव नहीं हो पा रहा।कविता जी तो वैवाहिक बलात्कार पर बहुत बोलती हुई सुनाई देती थी। मालूम नहीं अब क्यों 'मौनव्रत' धारण कर लिया है। 

सवाल यह है कि क्या ऐसे ही कानूनों से रुकेगा 'बाल विवाह', 'बाल तस्करी', 'बाल वेश्यव्रती' और स्त्री विरोधी हिंसा-यौन हिंसा? वैधानिक प्रावधानों में अंतर्विरोधी और विसंगतिपूर्ण 'सुधारवादी मेकअप' से, स्त्री के विरुद्ध हिंसा-यौन हिंसा, कम होने की बजाये बढ़ी है, बढती रही है और बढती रहेगी। 

कविता जी देश के नागरिक हमेशा " याद रखें (गे) कि यह विधेयक सिर्फ महिलों के संघर्ष का परिणाम है"। निश्चित ही, महिलाओं के मुद्दों पर नारी समुदाय की राय ही अहम है। मर्दों की कोई भूमिका नहीं हो सकती - सिवा विरोध-प्रतिरोध के।