Friday, September 24, 2010

असहमति के अधिकार का हनन

प्रख्यात समाजशास्त्री और लेखक आशीष नंदी ने 8 जनवरी, 2008 को अंग्रेजी के एक राष्ट्रीय अखबार में गुजरात पर एक लेख लिखा। गुजरात की एक स्वयंसेवी संस्था ने उस लेख को आधार बनाकर आशीष नंदी के खिलाफ यह शिकायत दर्ज कराई कि उन्होंने गुजरात की गलत छवि पेश की है। इस शिकायत के आधार पर गुजरात सरकार ने आशीष नंदी के खिलाफ धारा 153 (ए) और 153 (बी) के तहत मुकदमा दायर कर दिया। लेकिन तब सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को आशीष नंदी को गिरफ्तार न करने का आदेश दिया। अब 1 सितंबर को दिल्ली हाईकोर्ट ने आशीष नंदी की गुजरात सरकार के उक्त मुकदमे को रोकने संबंधी याचिका खारिज कर दी है। प्रस्तुत है इस मसले और अभिव्यक्ति की आजादी पर एक टिप्पणी :

आजादी के पहले इस किस्म के मुकदमे गांधी, नेहरू, तिलक आदि नेताओं के खिलाफ भी हुए। ब्रिटिश हुकूमत अपनी राजसत्ता को बचाए रखने के लिए यह गुनाह कर रही थी। दुर्भाग्यवश आज भी हमारे देश में यह कानून है। किसी राजसत्ता से किसी के असहमति जताने का यह मतलब नहीं कि वह देशद्रोही है। लोकतंत्र में यदि असहमति को मान्यता नहीं मिलेगी तो फिर लोकतंत्र का क्या मतलब, जबकि देश में अलग-अलग मत, सिद्धांत, विचारधाराएं, नीतियां, रीति-रिवाज हैं।

संसद में, सरकार या किसी दल की नीतियों के विरोध को क्या अपराध कहा जाएगा? सार्वजनिक जीवन में रहकर कोई यह सोचे कि उसके खिलाफ कोई असहमति या विरोध ही न हो, ऐसा संभव नहीं है। लोकतंत्र की बुनियाद है असहमति। यदि आप असहमति का गला घोंट रहे हैं तो आप लोकतंत्र का भी गला घोंट रहे हैं। लोकतांत्रिक सरकार को विवेक से काम लेना चाहिए। जो सरकार अपने लेखकों, विद्वानों, कलाकारों का सम्मान नहीं करती, वह अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारती है। दरअसल यह सारा मामला राजसत्ता के विरोध में खड़े बुद्धिजीवियों की आवाज को कुचलने का है और यह काम भाजपा, कांग्रेस, वामपंथी, लालू, मुलायम, मायावती सभी सरकारों ने किया है।

आज किसी भी सरकार में अपनी आलोचना सुनने की हिम्मत नहीं है। इसीलिए आज राजसत्ता के विरोध का मतलब है तसलीमा को देशनिकाला, एमएफ हुसैन पर मुकदमेबाजी ताकि वे देश छोड़ने पर मजबूर हो जाएं और आशीष नंदी पर सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का मुकदमा चलाकर जेल में बंद कर दो। यह आज आशीष नंदी के साथ हुआ है, कल मेधा पाटकर, महाश्वेता देवी आदि के साथ हो सकता है। डॉ. नंदी सारी उम्र अनेक विषयों पर जिस किस्म का लेखन करते रहे हैं, उन्हें पढ़ने के बाद यह सपने में भी नहीं सोचा जा सकता है कि लिखने के पीछे उनकी नीयत समाज में घृणा पैदा करना, दंगा-फसाद करवाना आदि होगा। यह हो ही नहीं सकता। सारा जीवन जिन्होंने समाज के लिए सामाजिक कल्याण के लिए न्योछावर कर दिया हो, उस पर इस किस्म का लांछन दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा।

हमारे सामने उनका जो विवादित लेख है, उस लेख को पूरा पढ़ा जाना चाहिए और उसकी पूरी पृष्ठभूमि के साथ पढ़ा जाना चाहिए। साथ ही उसमें जिन राजनीतिक स्थितियों का मूल्यांकन किया गया है, उसे भी समझने की जरूरत है। किसी लेख से दो लाइनें निकालकर उसके लेखक के खिलाफ मुकदमा दायर करना सही नहीं कहा जा सकता। भारतीय न्यायालयों के सामने इस तरह के बहुत सारे मामले पहले भी आए हैं (गुलाम सरवर, 1965, पटना हाईकोर्ट, ईश्वरी प्रसाद शर्मा, 1927, लाहौर हाईकोर्ट, ललाई सिंह यादव, 1971, इलाहाबाद हाईकोर्ट) जिनमें न्यायालय ने कहा है कि पूरे लेख या पूरी पुस्तक को पढ़कर ही निर्णय दिया जाना चाहिए।

यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने, अभिव्यक्ति का गला घोंटने और बुद्धिजीवियों को चुप कराने की कोशिश है। कानून को एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना गलत है। यह नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि जब हम अपनी सत्ता को बचाने के लिए कानून या राजसत्ता या अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हैं तो वह अपने आप में एक गैर-कानूनी और असंवैधानिक काम है।

मेरे हिसाब से यह कहना भी गड़बड़झाला है कि किसी लेखक को कह दिया जाए कि उसका लेख घृणा फैलाने वाला है और उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करवा दिया जाए। फिर न्यायिक व्यवस्था के तहत उसकी पुलिस जांच, गिरफ्तारी, कोर्ट-कचहरी की भागदौड़ आदि में सालों तक उलझा रहे लेखक। इतना ही नहीं, कानून की अपनी जअिलताएं हैं, जैसे कहां अपराध हुआ, कहां एफआईआर होगा, वगैरह। जिस राष्ट्रीय अखबार में लेख छपा, वह देश में दर्जनों जगहों से छपता है। देश में जहां-जहां भी वह पढ़ा गया, कानून के हिसाब से वहां-वहां एफआईआर होना चाहिए। अब लेखक एक ही लेख पर देश के हजारों शहरों में मुकदमे लड़ता रहे या फिर सुप्रीम कोर्ट में उन सारे मुकदमों को ट्रांसफर करवाए।

एक एनजीओ जब किसी लेखक के खिलाफ एफआईआर दर्ज करता है, तब उस पर जांच का आदेश देने से पहले सरकार का फर्ज नहीं बनता कि वह इस मामले की तहकीकात करे कि यह आपराधिक मामला बनता भी है या नहीं? काफी सोच-विचार के बाद ऐसा फैसला लिया जाना चाहिए। आशीष नंदी के इस लेख पर मुकदमा चलने की इजाजत देने से पहले क्या गुजरात सरकार ने किसी लीगल एक्सपर्ट से राय ली थी? मुकदमा चलाने के पहले उस लेख के पूरे आशय को पढ़ने की जरूरत थी।

अगर यह एफआईआर गलत दर्ज हुई है, कोई अपराध बनता है या नहीं, यह तो अदालत तय करेगी, लेकिन कानूनी प्रक्रिया से तो गुजरना ही पड़ेगा, जो बेहद तकलीफदेह हो सकती है। इसीलिए इस कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग के खिलाफ प्रेस और बुद्धिजीवियों को लड़ना पड़ेगा। इस लड़ाई का अंतिम फैसला सुप्रीम कोर्ट में होगा। हालांकि लेखकों को भी राजनीतिक टिप्पणियां करते समय भाषा का संयम बनाए रखना चाहिए ताकि कानूनी झमेला ना खड़ा हो। मैं समझता हूं कि आशीष नंदी के संपूर्ण लेखकीय योगदान और सामाजिक कार्यकलापों को देखते हुए इस मामले को उनकी पृष्ठभूमि, पूरे संदर्भ और खुली निगाह के साथ देखने की जरूरत है।(शनिवार,04 सितंबर, 2010 DAINIK BHASKAR)

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