Wednesday, June 8, 2011

कैस्ट्रेशन सेशन!

कैस्ट्रेशन सेशन!
(राष्ट्रीय सहारा आधी दुनिया ८.६.२०११)
अरविन्द जैन, वरिष्ठ अधिवक्ता सुप्रीम कोर्ट


बच्चियों के साथ आए दिन होने वाले बलात्कार की घटना पर अपना गुस्सा जाहिर करते हुए दिल्ली की निचली अदालत की जज ने कुछ दिनों पहले बलात्कारी का कैस्ट्रेशन (बंध्याकरण) करने की बात की थी। इस पर बहस शुरू हो गयी कि क्या कैस्ट्रेशन से मनचले डरेंगे और बलात्कारों पर अंकुश लगेगा
न्याय कानून के मुताबिक दिया जाना जरूरी है, न कि इस संकल्पना के आधार पर कि ऐसे घृणित अपराधों पर अंकुश के लिए। किसी कानून में ऐसी व्यवस्था नहीं है कि अगर बलात्कार के मामले में कोई खास आरोपी स्वेच्छा से केस्ट्रेशन कराता है, तो विधि के मुताबिक कोई भी अदालत कम से कम दंड दे सकती है
दिल्ली में यौन अपराध और बलात्कार संबंधी आए दिन हो रही घटनाओं की गंभीरता को देखते हुए आशंका है कि मीडिया में इसे लेकर जबर्दस्त बहस हो। लेकिन दिल्ली एडिशनल सेशन जज (रोहिणी) कामिनी लॉ ने कहा है कि कानून निर्माताओं को इस संभावना पर ध्यान देना चाहिए कि क्या बलात्कार से जुड़े मामलों में अभियुक्त को रासायनिक या ऑपरेशन के जरिये दंड के रूप से बंध्याकरण (कैस्ट्रेशन) कर दिया जाए। अभियुक्त दिनेश यादव को 15 साल की अपनी सौतेली बेटी के साथ चार साल तक बलात्कार के जुर्म में 10 साल जेल की कठोर सजा का फैसला सुनाते हुए कामिनी लॉ ने कहा कि बलात्कार संबंधी मामलों में वैकल्पिक सजा की व्यवस्था करना वक्त की मांग होनी चाहिए। सुश्री लॉ ने इस आदेश की कॉपी कानून और न्याय मंत्रालय के सचिव, राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष और दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष को भेजी। कई विकसित देशों में केमिकल बंध्याकरण के साथ ही लंबे समय तक जेल में बंद रखने जैसा वैकल्पिक उपाय है। भारत सरकार का इस मुद्दे पर रवैया लचर है। इसके विपरीत, हमारे सांसदों और विधायकों को सर्वाधिक गंभीर इस मसले पर ध्यान देते हुए कम उम्र की लड़कियों, रह-रह कर ऐसे अपराध करने वालों..या प्रोबेशन की शर्त पर या सौदेबाजी पर उतारू लोगों के मामले में वैकल्पिक दंड का प्रावधान करना चाहिए। अदालत ने स्पष्ट कहा कि समूची दुनिया के न्यायाधीश इस मामले में एक नजरिया यह रखते हैं कि रासायनिक बंध्याकरण को व्यभिचारियों, आए दिन बलात्कार करने वाली विकृत मानसिकता के लोगों और छेड़छाड़ करने वालों के लिए बाध्यकारी कर देना चाहिए।
1995 में दिल्ली हाईकोर्ट ने कैस्ट्रेशन नकारा
करीब 20 साल पहले अतिरिक्त सेशन जज एस.एम. अग्रवाल ने हाईकोर्ट और दूसरे मामलों को स्वीकार करते हुए साढ़े तीन साल की लड़की के मामले में स्वैच्छिक कैस्ट्रेशन का जिक्र कर कैस्ट्रेशन की बात कही थी। दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति पी.के. बाहरी और न्यायमूर्ति एस.डी. पंडित ने जगदीश प्रसाद शर्मा बनाम राज्य (57-1995-डीएलटी 761 डीबी) मामले में व्यवस्था दी- ‘इस मामले से अलग होने से पहले, हम विचार कर सकते हैं कि जानकार अतिरिक्त सेशन जज द्वारा अपील करने वाले का हाईकोर्ट के आदेश के आलोक में और शेष दंड की छूट को देखते हुए स्वैच्छिक कैस्ट्रेशन उचित नहीं है क्योंकि अतिरिक्त सेशन जज के आदेश का यह हिस्सा पूरी तरह गैरकानूनी है। कानून के मुताबिक, फैसला सुनाया जाना जरूरी है, न कि इस संकल्पना के आधार पर कि ऐसे घृणित अपराधों पर अंकुश के लिए। किसी कानून में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि यदि बलात्कार के मामलों में कोई खास आरोपी स्वेच्छा से कैस्ट्रेशन कराता है, तो कानून के मुताबिक कोई भी अदालत कम से कम दंड तो दे ही सकती है। जनप्रतिनिधियों द्वारा निर्धारित कानूनी आधार पर न्यूनतम दंड कोई भी अदालत दे सकती है। विधायिका द्वारा बनाए कानून के अंतर्गत दंड दिया जाता है। अतिरिक्त सेशन जज को स्वयं ऐसी किसी भी कार्रवाई का प्रस्ताव देने में संयम बरतते हुए खुद पर नियंतण्ररखना चाहिए।’
हाईकोर्ट या तो पूर्व के फैसलों को दोहराए या प्रस्ताव करे मंजूर
ऐसा लगता है कि निचली अदालत के न्यायाधीश ने फैसला सु नाने से पहले दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व में दिए फैसले पर गौर नहीं किया। हाईकोर्ट ने 1995 में दिए अपने फैसले में इस मामले में गंभीर और दूरगामी प्रस्तावों पर काफी कुछ रोशनी डाली थी। इस कारण यह कहना जरूरी नहीं रह जाता कि उक्त न्यायाधीश का आदेश गैरकानूनी घोषित किया जाता है और कानून के जानकार श्री अग्रवाल को सलाह दी जाती है कि ‘वे स्वयं किसी तरह की कार्रवाई का प्रस्ताव न करें। यह कानून के मुताबिक, औचित्यपूर्ण भी नहीं है।’
यदि सुश्री लॉ के आदेश के विरुद्ध कोई उच्च अदालतों में अपील करता है तो यह किसी के आकलन से परे होगा क्योंकि हाईकोर्ट के न्यायाधीश पूर्व में सुनाए गए फैसलों का अनुकरण करेंगे या सुझाए गए किसी मौलिक प्रस्ताव को मंजूर करेंगे।
बंध्याकरण असंवैधानिक
यह विचारणीय है कि कैरोलिना की सुप्रीम कोर्ट ने भी बलात्कार के मामले में भी बंध्यकरण पर खामोशी अपनायी। दक्षिण कैरोलिना के सुप्रीम कोर्ट ने हाल में व्यवस्था दी कि अंगभंग के रूप में बंध्यकरण असंवैधानिक है और इस तरह उसने तीन अेत दोषियों को दोबारा दंडित करते हुए उन्हें 30 साल कैद की सजा सुनायी। न्यायाधीशों ने व्यवस्था दी कि सर्किट जज विक्टर पायले द्वारा सुनाई गई सजा कुछ भी नहीं है क्योंकि बंध्याकरण ‘क्रूर और असामान्य दंड’ देने से राज्य के संविधान ने मना किया है।
बलात्कारियों का अपराध : नपुंसकता
झानू पीएफ के तेजतर्रार सांसद सदस्य माग्रेट डोंगो की दलील है कि बलात्कार के अपराधी को नपुंसक किए जाने के मामले को संविधान के नए प्रावधानों से जोड़ा जाना चाहिए। डोंगो का कहना है, ‘कानून का कोई भी रूप जो शरीयत की तरह दिखता है, हटाया जाना चाहिए ताकि अपराधियों और बर्बर परंपराओं को रोका जा सके जो बलात्कार के दायरे में आते हैं।’
‘मैं सभी महिलाओं का आह्वान करता हूं कि वे इस बात के लिए आस्त रहें कि नए संविधान में बलात्कारियों की सजा के तौर पर नपुंसकता का प्रावधान हो। शायद, इसी तरह से बलात्कारियों की गतिविधियों पर अंकुश लगाया जा सकता है, जिसने कई जख्म दिए हैं जिम्बाब्वे के कई परिवारों को गहरी सदमा दिया। इस जघन्य घटना के बाद बलात्कार की शिकार दोबारा कभी भी अपनी जिंदगी नहीं जी सकी, जो इंसान के लिए सबसे जघन्य अपराध की श्रेणी है।
मैं सभी सांसदों से प्रार्थना करता हूं कि वे बच्चियों के साथ-साथ महिलाओं के हितों की रक्षा करें। कानून में परंपरा के तौर पर बदले की भावना है, जिसमें ऐसा चलन है जो पुरुषों को बलात्कार के लिए उकसाता है। मौजूदा कानून निष्प्रभावी साबित हो चुका है। कड़े दंड के तौर पर बधिया कर देने से दिक्कत कम नहीं होगी। हमें पूर्व में देखना होगा कि गलती कहां हुई। बलात्कार हमारे समाज की अनकही पीड़ा का कारण है। इसके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए और इसे कभी भी स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।’ यह कहते हुए डोंगो बेहद गुस्से में थे। नाबालिगों के साथ बढ़ रही बलात्कार-संबंधी घटनाओं को लेकर जिम्बाब्वे की महिलाएं अधिकार संगठन परेशान हैं, कहती हैं- ‘यह सोचना गलत नहीं है पुरुष इसे गलत ठहरा रहे हैं। इसका अर्थ बल प्रयोग, ताकत और नियंतण्रही नहीं है’ संगठन की प्रोग्राम मैनेजर बोंगी सिबांडा ने कहा। लड़कियों के अधिकार के लिए आवाज बुलंद करने वाले स्थानीय संगठन ‘गर्ल चाइल्ड नेटवर्क’ का कहना है, बलात्कार के करीब 95 फीसद मामले पुरुषों द्वारा युवा लड़कियों के मुकाबले छोटी बच्चियों के साथ के हैं। महिला, जेंडर और सामुदायिक विकास मामलों के मंत्री ओलिवा मुचेना हाल ही में बहस में बहस छेड़ी और कहा, ‘जो बच्चियों के साथ बलात्कार करते हैं, उनके कैस्ट्रेशन के विकल्प पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि इस मामले में सजा के कई स्तर हैं और बच्चों के साथ बलात्कार करने वालों पर भी यही प्रावधान लागू होना चाहिए। आप किसी बच्चे के साथ बलात्कार कैसे कर सकते हैं? यह तो सरासर हत्या करने जैसा व्यवहार माना जाना चाहिए और इसके लिए कैस्ट्रेशन की सजा दी जानी चाहिए।’
सिबांडा ने कहा, ‘इसलिए मेरा विास है कि बलात्कारियों का कैस्ट्रेशन की हमें जोर-शोर से आवाज उठानी चाहिए जिससे बलात्कार जैसी घृणित हरकतें न करने का संदेश जाए। यह खेदजनक है कि ज्यादातर मामलों में बच्चियां ही यौन शोषण की शिकार होती हैं और रिश्तेदार ही उनके लिए दोषी होते हैं। नतीजा यह होता है कि ऐसे मामलों को दबा दिया जाता है औ र शायद, घर से निकाल दिए जाने की आशंका से पीड़ित बच्ची अपना मुंह कभी नहीं खोलती। पीड़ित बच्ची की जिंदगी पर एक भावनात्मक घाव लग जाता है। ऐसे में, कोई क्यों पूरी जिंदगी भावनात्मक घाव लिये गुजारे? इसीलिए मैं कोई वजह नहीं देखता कि किसी के ऐसे कुकृत्य से किसी बच्ची पूरी जिंदगी भावना रूप से सदमा लिये क्यों जिये, कभी-कभी शारीरिक रूप से चोटिल हो जाती हैं, जिसका नतीजा यह होता है कि समूची जिंदगी में उन्हें वैसा सदमा न लगे।’
इसमें शक नहीं कि बलात्कार के बढ़ते मामले समाज के ढीले रवैये से सीधे तौर पर जुड़े हैं। इनमें समाज का उदासीन रवैया, उनके प्रति क्रूरता के मुताबिक कार्रवाई में असमर्थता और बेहद सख्त दंड दिया जाना इसके निषेध के तौर पर कार्य करते हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की दृष्टि से बलात्कारियों का कैस्ट्रेशन किया जाना गैरकानूनी, असंवैधानिक, निहायत कठोर, प्रतिशोधी और भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 21 के तहत अभियुक्त के मूलभूत अधिकार का हनन है। कानून में निश्चित रूप इसकी भाषा, व्याख्या, दूरदृष्टि और नजरिये की सुरक्षा और समाज के भेड़ियों से असहाय बच्चों को बचाने के स्तर पर आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है लेकिन सवाल वही है- बिल्ली के गले में घंटी कौन, कब और कैसे बांधेगा?

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