Wednesday, July 6, 2011

डिजर्ट ऑफ जस्टिस

राष्ट्रीय सहारा , आधी दुनिया 6.7.2011
डिजर्ट ऑफ जस्टिस
अरविंद जैन
“आखिर अजन्मी बच्ची आधुनिक समाज का मुकाबला कै से करेगी? ईर या मानवता को आधुनिक समाज के आतंकों से कैसे बच पाएगी? वह एक शिक्षित इंसान का किस तरह सामना करेगी और कैसे वह ईर या मानवता के इन खून चूसने वाले चमगादड़ों यानी आधुनिक समाज के चमगादड़ों से सुरक्षित करेगी.”
मंजू बनाम राज्य (2010 सीआरएल. एल. जे. 2307) केस में एक मां ने अपनी ही कन्या की भ्रूणहत्या जैसे दिल दहला देने वाला जुर्म किया। इसमें दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति प्रदीप नंद्रजोग और न्यायमूर्ति सुरेश कैत ने फैसले में सहानुभूतिपूर्वक लिखा, ‘वह नवजात कन्या थी और उसका इस धरती पर आना उनके लिए आफत थी। माता-पिता के लिए चिंता का सबसे बड़ा मुद्दा उसकी शादी थी। नवजात कन्या उनके लिए मजबूरी के सिवाय कुछ नहीं थी। उसकी शादी का ख्याल जैसे उन्हें बर्बाद करने के लिए काफी था। गरीब होना मामूली चीज थी। समाज ने भी पैदा होने से पहले ही उनकी मृत्यु को शोकपत्र पहले ही लिख डाला था। उसकी मां ने तो सिर्फ उसे जगजाहिर किया था। यह एक बेनाम नवजात की दास्तान है। संभवत: यह पहला फैसला है, जिसमें किसी पीड़ित को उसके नाम से संबोधित नहीं किया जा सकता है।’न्यायमूर्ति नंद्रजोग ईमानदारी से मानते हैं, ‘मानवता इंसानी जिंदगी से भी बढ़कर है, इसका हमें पता नहीं। मरने के बाद क्या होता है, इसका भी हमें कुछ नहीं पता पर यह मान्यता है और स्वीकृति भी कि मानवीय व्यक्तित्व इंसानी जाति के रूप में आगे तक जाती है। लेकिन कन्या के लिए तो यह भी अस्वीकार्य है।
कुछ तथ्य संक्षेप में
अपीलकर्ता मंजू (मां) लेडी हार्डिग मेडिकल कॉलेज के मैटर्निटी वॉर्ड में भर्ती थी। उसने 24 अगस्त 2007 को दोपहर करीब 12:10 बजे कन्या को जन्म दिया। उसी दिन वॉर्ड में बतौर असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट शकुंतला अरोड़ा थीं। वे कन्या के जन्म की गवाह थीं। अपीलकर्ता मंजू को लेबर रूम से निकालकर वॉर्ड में शिफ्ट किया गया। शाम करीब 4:30 बजे बच्ची को मैटर्निटी वॉर्ड में तैनात स्टाफ नर्स बिंदू जॉर्ज ने जच्चा को सौंप दिया। सायं लगभग साढ़े छह बजे बच्ची संबंधित खबर से अस्पताल में खलबली मच गई। नर्स संगीता रानी कहती है, मुझे डय़ूटी पर मौजूद इंटर्न डॉक्टर ने फोन पर बताया- ‘सिस्टर! जल्दी आओ, बच्ची बीमार है।’ पीएनसी इंटर्न ने दोषी मंजू की बच्ची को उठाया और जल्दी-जल्दी उसे ठीक करने में जुट गई। मैंने एक स्टूडेंट नर्स के जरिए सीनियर रेसिडेंट डॉ. निधि को भी बुलवाया। डॉक्टर ने बच्ची के गर्दन और नाक पर लाल व नीले रंग का निशान दिखाते हुए मुझे और सभी स्टाफ नर्स को दिखाया। उसके बाद डॉक्टर निधि ने पाया कि कन्या जीवित नहीं है। उसके बाद पुलिस को सूचना दी गई।
पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट
पुलिस को सूचना देने के बाद इंवेस्टिगेटिंग ऑफीसर ने कन्या के मृत शरीर को कब्जे में ले लिया और तहकीकात करने वाले दस्तावेजों को भरने के बाद हॉस्पिटल के मुर्दाघर में पोस्ट-मॉर्टम के लिए भेज दिया। डॉ. अभिषेक यादव ने 26 अगस्त, 2007 की सुबह कन्या के मृत शरीर का पोस्ट-मॉर्टम किया और रिपोर्ट तैयार की। डॉ. यादव ने कन्या के शरीर पर आठ बाहरी चोट का पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट में उल्लेख किया। उसमें मस्तिष्क में भारी मात्रा में फ्लूड्स के जमाव से सूजन आने के साथ कंजस्टेड भी बताया गया। इसके अलावा गर्दन में खून का परिस्त्रवन (एक्स्ट्रावैशन), कारोटिडशेथ के आसपास सॉफ्ट टिशू और लैरिंक्स मसल्स भी क्षतिग्रस्त पाई गई। ास नली और ब्रॉन्की भी कंजस्टेड बतायी गयी। दोनों फेफड़े कंजस्टेड होने के साथ पैटेशियल हैमरेज इंटर लेबर सर्फेस पर पाया गया। पैटेशियल हैमरेज हार्ट के वेंट्रिकुलर सर्फेस में था। लिवर, स्प्लीन और किडनी भी कंजस्टेड थी और डॉक्टरों की राय थी कि इस तरह की मौत गला घोंटने (एस्फिक्सिया) से होती है।
सत्यमेव जयते बनाम यतो धर्मस्ततो जय:
न्यायमूर्ति नंद्रजोग और न्यायमूर्ति कैत को इस तथ्य का बखूबी पता था कि न्यायिक दायरे में ‘सत्यमेव जयते’ का बड़ा असर होता है और सुप्रीम कोर्ट अपने न्यायिक क्षेत्राधिकार के तहत ‘यतो धर्मस्ततो जयते’ यानी ‘सिर्फ सच्चाई ही टिकती है’ को मानकर काम करता है। न्यायाधीश नंद्रजोग ने फैसला लिखते हुए स्पष्ट किया कि हमारे न्यायिक अधिकार क्षेत्र के दूसरे शब्द नीति से जुड़े हैं और सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्राधिकार ‘न्याय करने’ से जुड़ा है। इसलिए सिर्फ सुप्रीम कोर्ट को ही भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 142 के तहत संपूर्ण न्यायिक अधिकार प्राप्त हैं। इसलिए जहां तक माफी वाली एलिजाबेथ बुमिलर रचित पुस्तक है- ‘आप सौ बेटों की मां हो सकती हैं।’ दहेज, बहू जलाना, कन्या भ्रूणहत्या- निजी अनुभवों के आधार पर शोधपरक दस्तावेज होते हैं। वास्तव में, ये उत्तेजित करते और विचारों में हलचल पैदा करने वाली पुस्तक है। 1986 से 2001 के बीच 50 लाख कन्या भ्रूणहत्याएं हुई, क्योंकि ये सब लिंग परीक्षण संबंधी मेडिकल से जुड़े पेशेवरों के हाथ में था। 1994 में संसद ने पीएनडीटी (प्रीनेटल डायग्नोस्टिक टेक्नीक) कानून बनाया, जो पैदा होने से पहले परीक्षण तकनीकों के दुरुपयोग का जवाब था। बावजूद इसके, सुप्रीम कोर्ट ने मई, 2001 में सरकार को इसे लागू करने का निर्देश दिया। फिर भी हालात की पहले जैसे हैं। कितने अपराधियों को सजा मिली? कानून बेमानी साबित हुआ है।
कन्या का हत्यारा कौन?
आत्मा में झांकने के क्रम में न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने खुद से सवाल किया, ‘लेकिन, क्या अपील करने वाली मां एक ऐसे अपराध की जननी नहीं मानी जानी चाहिए, जिसे समाज ने निर्मित किया है। कन्या भ्रूणहत्या, मोहरे बनकर किया जाने वाली कृत्य है। क्या समाज के पापों का यही भुगतान है? क्योंकि, वह मां अनभिज्ञ है, गरीबी-रेखा से नीचे दयनीय माहौल में रह रही है। उसने अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा- 313 के तहत बांये हाथ के अंगूठे से अपनी निरक्षरता साबित की है। गरीबी-रेखा से नीचे बसर करती वह अपना झुग्गी-झोंपड़ी का पता बताती है। शायद ही वह अपनी आत्मा और शरीर को खंडित होने से बचा पायी हो या यह हकीकत साबित कर पायी हो कि उसका पति दैनिक वेतनभोगी है। हमारे सामने सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि यदि वह अपराध करने वाली नहीं है, तो समाज के पापों का वह भुगतान क्यों करे?’
भारतीय समाज में कानूनी, सामाजिक और नैतिक माहौल पर गौर करने के बाद न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने लाचार स्वर में कहा, ‘प्रतिक्रिया की प्रक्रिया खुद में इतनी अविवेकपूर्ण और एकतरफा है, जिसमें एक अनभिज्ञ और कमजोर के खिलाफ काफी कुछ हो जाता है।’ इस तरह एक अविवेकपूर्ण प्रक्रिया में कैसे एक अनभिज्ञ और कमजोर न्याय पर भरोसा और उससे उम्मीद करे?
खुद मां शिशु की हत्यारिन
अंतत: न्यायमूर्ति नंद्रजोग और न्यायमूर्ति कैत ने वकीलों के तर्क सुनने और गवाही से जुड़े सबूतों पर गौर करने के बाद नतीजा निकाला कि यहां शक की कोई वजह नहीं। कारण, दुर्भाग्य से कई उम्र की लड़कियों का गला दबाया जाता है और याचिकाकर्ता मां ने खुद कन्या भ्रूणहत्या संबंधी गुनाह किया और अपनी बच्ची की हत्या की।
पैदा होने से पहले प्रार्थना
ऐसे जटिल और उलझे हालात में शायद कुछ सांत्वना देने के लिए न्याय की बेड़ियों और जेल संबंधी उदाहरणों का उल्लेख करते हुए न्यायमूर्ति नंद्रजोग और न्यायमूर्ति कैत ने लुइस मैक्नीस की लिखी ‘प्रेयर बिफोर बर्थ’ कविता की तीन पंक्तियां सुनायीं- ‘मैं अभी तक जन्मा नहीं हूं, सांत्वना दीजिए; मैं डरा हुआ हूं क्योंकि मानव जाति मेरा आगे ऊंची दीवार चिना देगी, जिसमें काफी शक्तिशाली दवाएं होंगी, उनकी बुद्धिमानी मुझे ललचाने के लिए होगी। काले रंग की खूं टी मुझे कंपा रही है, मुझे खून से नहलाया जा रहा है।’
‘मैं अभी तक जन्मी नहीं हूं, दुनिया में आने का मैं पाप कर रही हूं, इसके लिए मुझे माफी कर दीजिए। मेरे लिए जो शब्द वे कहें, मेरे विचार जो मेरे लिए वे सोचते हैं, मे रा लिंग मेरे नियंतण्रसे बाहर है, उसके खिलाफ विासघाती हैं वे, मेरी जिंदगी जिसे वे मेरे हाथों से ही मार देंगे, मेरी मृत्यु होगी, उसी समय वे मेरे पास रहेंगे।’
‘मैं अभी तक जन्मी नहीं हूं। जब मैं खेलूं, तो मेरा अंग सहलाओ, जब मैं इशारा करूं तो बूढ़े आदमी की तरह मुझे सिखाओ, नौकरशाह मुझ पर धौंस दिखायें, पहाड़ बनकर मेरी रक्षा करो, प्रेमीजन मुझ पर हंसें, सफेद कॉलर वाले मुझे मूर्ख समझें और मुझे पराया कहें और भिखारी भेंट स्वरूप मुझे लेने से इंकार करें। यहां तक कि मेरे बच्चे अभिशाप कहकर दोष मढ़ें। दरअसल, समाज में रह रहा इंसान पापों को अंजाम देता है। दिल की गहराई से महसूस हुआ कि अजन्मी बच्ची की हालत संबंधी चिंता आत्मप्रवंचना है। आखिर वह आधुनिक समाज का मुकाबला कैसे करेगी? ईर या मानवता को आधुनिक समाज के आतंकों से कैसे बचाएगी? वह आधुनिक मानवता का किस तरह सामना करेगी और कैसे वह ईर या मानवता को इन खून चूसने वाले चमगादड़ों यानी आधुनिक समाज के चमगादड़ों से सुरक्षित करेगा या डंडा मारने वाले पिशाच से बचाएगा? इसी तरह के दूसरे भय समाज में हैं, इसी तरह के और अवरोधक समाज में ही हैं- ड्रग, झूठ, यातना और हिंसा इन्हीं की कई शक्लें हैं। अजन्मी बच्ची सुरक्षित होना चाहती है। धरती विकृत हो रही है और अजन्मी बच्ची ईर से प्रार्थना कर रही है कि वे उसे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से सेहतमंद रखें। अजन्मी बच्ची का महसूसना है कि आधुनिक समाज अपनी पहचान खो रहा है क्योंकि वहीं उसे पापों का पिटारा मिल रहा है। समाज ही मर्द और औरत में पाप उड़ेल रहा है। चूंकि बच्ची दुनिया का एक हिस्सा होगी, इसलिए उनके पाप कर्म में लिप्त होने की संभावना है। उसे जो भी पढ़ाया जाएगा, वही वह बोलेगी, उसे जिस तरह प्रशिक्षित किया जाएगा, वैसा ही सोचेगी और क्षमा भी वैसे ही मांगेगी। वास्तव में, एक मां की दलील भी वच्चे जैसी ही तो होती है। (बाकी पेज 2 पर)
जहां कन्या को मारना बड़ा पाप नहीं
न्यायाधीश नंद्रजोग ने साफ कहा कि भारत की जनता का नैतिक पतन होने का मतलब है कि भारत में सजा-संबंधी कानून कारगर नहीं है। इस तरह समझाने- बु झाने की नीति नाकाम हो चुकी है और कुशलता और काव्यमय ढंग से समझाया गया है कि दुनिया की उम्र काफी कम हो गयी है, इसके लिए महज आंकड़ों से इस तरह समझाया जा रहा है- दुनिया की आबादी बढ़ने में सिर्फ एक संख्या ही तो जोड़ी जाती है, दुनिया में औरत की आबादी में सिर्फ एक संख्या ही तो जोड़ने से काम चल जाता है, इस तरह एक संख्या कम करने से दुनिया की आबादी में वह कम हो जाती है, भारत में पुरुष-महिला के औसत आगे भी असंतुलित होना है, पैदा होने वालों के रजिस्टर में एक एंट्री भर ही तो हुई, इस तरह मृत्यु संबंधी रजिस्टर में एक ही तो कम हुआ! एक मुस्कराहट ही तो हमेशा के लिए छिन गयी!
अजन्मा बच्चा सुरक्षित होना चाहता है। धरती विकृत हो रही है और अजन्मा बच्चा ईर से प्रार्थना कर रहा है कि वे उसे शारीरिक, मानसिक और भावनत्मक रूप से सेहतमंद रखें
सामाजिक सोच के दुखद अक्स
न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने टिप्पणी की, ‘कोई तार्किक व्यक्ति कन्या भ्रूणहत्या की तरफदारी नहीं करेगा। यह न सिर्फ दंडनीय अपराध है बल्कि ईर के प्रति पाप भी है। जिंदगी रूपी तोहफा मानवता के प्रति ईर का महानतम उपहार है। बच्ची की पैदाइश जीवन की पैदाइश है, यह अभिभावकों की ओर से दिया गया जीवन नहीं है लेकिन अभिभावक द्वारा दिया गया जीवन अवश्य है। व्यापक रूप से सामाजिक तरंगों पर गौर करें तो आने वाली ज्यादातर याचिकाओं में कन्या के खिलाफ क्रूरता ज्यादा दिखती है। इससे पता चलता है कि पुरुष के खिलाफ काफी कम मामले हैं : औसतन औरतों का सेक्स जैविक रूप से ज्यादा सशक्त है, फिर भी वह अल्पसंख्यक है। आजादी के साठ साल बीतने के बाद भी तथाकथित आधुनिक समाज कन्याओं को लेकर अपना रवैया नहीं बदल पाया है। चाहे गांव हो या शहर, शिक्षित हो या बेपढ़ा, धनी हो या निर्धन, हर जगह कन्या को लेकर प्रतिकूल हालात हैं। 21 वीं सदी में भी सामाजिक सोच का यह दुखद पहलू है।’
आगे चलकर न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने यह भी कहा, ‘इसका कारण कन्या की शादी के दौरान दहेज है। इसीलिए कन्या के साथ ऐसा बर्ताव होता है और पुत्र को इसीलिए पूंजी की तरह देखा जाता है। समाज भूल जाता है कि एक पुत्र तभी तक पुत्र है जब तक उसकी शादी नहीं हुई रहती लेकिन एक पुत्री ताउम्र पुत्री होती है।’
अगर ‘कन्या को लेकर आजादी के 60 साल की समयावधि में समाज का तथाकथित आधुनिकीकरण होने के बावजूद सामाजिक रवैये में बदलाव नहीं आया, तो फिर क्या रास्ता है?’ क्या न्यायिक तौरतरीकों में सामाजिक बर्ताव शामिल नहीं है? क्या न्याय दिलाने की संस्कृति में कोई अहम बदलाव आया है? इस अन्याय को होने से कैसे रोका जाए और वह भी तब, जब कानून के चीलों ने भी लाचारी से सवरेत्तम क्रिया-प्रतिक्रिया दी हो!
बहनों के प्रति दोयम बर्ताव
इस मोड़ पर आकर माननीय न्यायाधीशों को आश्चर्य हुआ कि ‘अपनी समस्त प्रतिभाओं के बावजूद इंडिया या भारत देशों के समुदाय के साथ कदम से कदम मिलाकर चल पाने में क्यों अक्षम है और वह भी तब, जब हमारा सिर बिल्कुल ऊंचा है? शायद इसका कारण यह है कि हम अपने 50 प्रतिशत नागरिकों के साथ ऐसा बर्ताव करते हैं, इनमें हमारी बहनें भी हैं जिन्हें दोयम दज्रे का और जूनियर पार्टनर माना जाता है, बिना यह सोचे कि कदमताल करने के दौरान अगर आपका सहयोगी थोड़ा पीछे रह गया है, तो आपकी ही प्रगति धीमी होगी।’
बाल विवाह प्रतिबंधित फिर भी कायम
माननीय न्यायमूर्तियों ने विश्लेषण किया कि अपीलकर्ता (मां) से संबंधित मेडिकल पेपर्स दर्शाते हैं कि उसके माता-पिता ने उसकी शादी मात्र 15 वर्ष की कच्ची उम्र में कर दी थी। इस अपरिपक्व उम्र में अपीलकर्ता (मां) बतौर गृहिणी और मां की भूमिका उसी सूरत में निभा सकती है, जब उसे कुछ सिखाया जाए और किसी दूसरे के कहे के अनुसार चला जाए। निस्संदेह, जब तक वह मां बनी होगी, कानून के मुताबिक वह वयस्कता की दहलीज पर पहुंच चुकी होगी। भले ही कहा जाए कि चाहे जिन भी परिस्थितियों में वह खुद के बारे में सोचने व आसपास के सामाजिक वातावरण से लड़ने के लिए परिपक्व हो गयी हो?ेनेशनल कैपिटल टेटीटरी ऑफ दिल्ली (एआईआर 2006 दिल्ली 37) के मनीष सिंह बनाम राज्य सरकार में दिल्ली हाई कोर्ट ने विवशतापूर्वक सुझाव दिया कि यह सिर्फ संसद के विमर्श के लिए है कि हिंदू विवाह कानून और बाल विवाह (निषेध) कानून के मौजूदा प्रावधान नाकाफी साबित हुए हैं या बाल विवाह को रोकने की कोशिश करने में नाकाम रहे हैं और उन्हें किसी उपचारात्मक या सुधारात्मक कदम उठाने की जरूरत है। सुशीला गोथाला बनाम राजस्थान सरकार (1995(1) डीएमसी 198) में राजस्थान हाईकोर्ट ने बाल विवाह (निषेध) संबंधी सलाह देते हुए कहा, ‘मेरे विचार से किसी भी सूरत में कानून के उल्लंघन के तहत तब तक बाल विवाह होने को रोका नहीं जा सकता, जब तक खुद समाज द्वारा इसे दूर न किया जाए और पुराने रिवाजों को जड़ से मिटा न दिया जाए। सर्वाधिक पीड़ादायक बात यह है कि सामाजिक बुराई के रूप में फैली इस प्रथा से इंकार करने के बजाय, समाज द्वारा इसे स्वीकृति मिली हुई है। इसमें भी कोई शक नहीं कि बाल विवाह के परिणाम कई रूपों में सामने आते हैं। जो बच्चे शादी का अर्थ नहीं समझते, उनकी कम उम्र में शादी कर दी जाती है। कितनी ही महिलाएं जिनकी शादी बचपन में हो चुकी है, वे अपने ही पति द्वारा निरक्षर होने या अन्य कारणों से वयस्क या बालिग होने पर छोड़ दी जाती हैं। इस सामाजिक बुराई की जमकर निन्दा करना बहुत जरूरी है। पर दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोई भी सामाजिक संगठन बाल विवाह जैसे दोषों व बुराइयों के प्रति जनता को जागरूक करने के लिए आगे नहीं आते।
‘मनहूस’ कहने से बचें
माननीय न्यायमूर्तियों ने इस हकीकत को स्वीकार किया कि कन्या के खिलाफ होने वाले अपराध विकृत सामाजिक पैमाने और वीभत्स सामाजिक सोच की देन हैं और अपीलकर्ता जो न सिर्फ झुग्गी में रहती बेपढ़ी- गरीब है और जिसकी शादी मात्र 15 साल में हो गई, वह कभी भी कोई जुर्म करने की साजिश खुद से नहीं रच सकती। वह तो उस शख्स के हाथों की कठपुतली भर है, जिसने उसे यह सब करने का हुक्म सुनाया या रास्ता दिखाया। आपराधिक न्याय पण्राली के जरिये कोई नियम क्यों नहीं तैयार किया जाता? माननीय न्यायमूर्तियों ने तब जानबूझकर क्रिमिनल रूल्स ऑफ प्रैक्टिस, केरल-1982 के नियम संख्या-131 को स्पष्ट कि उन सभी मामलों में, जिसमें कोई औरत नवजात शिशु की हत्या की दोषी बताई गई हो, हाई कोर्ट के जरिए सरकार को बताया गया है कि यहां सजा को कम करने या उससे जुड़े मामलों में रिकॉर्ड के लिए संबंधित कॉपियां गत्थी की जाएंगी। पर एक बार फिर हैरानी हुई कि केंद्रशासित क्षेत्र दिल्ली में आपराधिक मामलों में न्यायिक व्यवस्था की प्रभारी राज्य सरकार के रूप में ऐसी सरकार नहीं है और इसीलिए हमने दिल्ली सरकार को नवजात कन्या की हत्या की गुनाह महिला को कम से कम केरल राज्य में बने नियमों के मुताबिक मानने संबंधी सलाह दी।
गंभीर अपराध, दोषी के प्रति सहानुभूति नहीं
किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले माननीय न्यायमूर्तियों ने एक बार दोहराया- ‘हमारे अनुरोध को बतौर मैनडमस के तौर पर नहीं लेना चाहिए..। हमने साफ कहाहै कि अपीलकर्ता के प्रति सहानुभूति जैसी चिंता दर्शाने का अर्थ हमारी ओर से यह नहीं है कि हम कन्या शिशुहत्या को मानते हैं न कि कोई संगीन जुर्म। हकीकत यह है कि यह संगीन जुर्म है और दोषी के प्रति किसी प्रकार की हमदर्दी नहीं दिखाई जा सकती, सिर्फ इस तथ्य पर गौर हो कि दोषी खुद ही अपने निरक्षर, गरीबी और सामाजिक वंचना के कारण समाज की उपेक्षा का शिकार थी।’ यदि यह कहना सही है कि ‘दोषी को सहानुभूति और दया की जरूरत नहीं तो क्यों, कैसे और किस आधार पर माननीय न्यायमूर्तियों ने अपने पूर्व के फैसलों में यह स्वीकारा कि ‘वह परित्यक्ता है, जो तकलीफदेह हालात में गरीबी रेखा के नीचे रहती है।’ धारा- 313 सीआर.पी.सी. के तहत उसके द्वारा दिए गए खुद के बयान में बाएं हाथ के अंगूठे की छाप ही उसके अनपढ़ होने का गवाह है। उसके पतेसे पता चलता है कि वह झुग्गी-झोंपड़ी में रहती है। माननीय न्यायमूर्तियों आगे साफ किया, ‘कन्या के प्रति अपराध विकृत सामाजिक दस्तूर और तंग नजरिये की ही देन हैं। इस तरह अशिक्षित, गरीब और झुग्गीवासी अपीलकर्ता की सिर्फ 15 वर्ष की उम्र में ही शादी हो गई हो, उसे अपराध को अंजाम देने जैसी भूमिका के लिए जिम्मेदारी नहीं ठहराया जा सकता।’

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