Wednesday, August 10, 2011

आनर किल्लिंग:शादी की आज़ादी



आनर किल्लिंग:शादी की आज़ादी
अरविन्द जैन
(राष्ट्रीय सहारा आधी दुनिया १०.८.२०११)

अगर न्याय के पहरेदारों और कानून के बीच टकराहट होती रहेगी, तो जाति और धर्म के सांकल में जकड़ी शादियां आजाद कैसे हो पाएंगी? अराजक निजी कानूनों और न्यायिक व्याख्याओं में बदलावों के बिना अंतर्जातीय/अंतर्धार्मिक शादियों से जुड़े सामाजिक-आर्थिक-राजनीति का गतिविज्ञान तेजी से नहीं बदलेगा।

सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति मार्कडेय काटजू और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा ने 19 अप्रैल, 2011 को सभी राज्यों सरकारों को निर्देश दिया कि वे ऑनर किलिंग्स को सख्ती से दबा दें। कोर्ट ने अधिकारियों को आगाह किया कि इस प्रथा को रोक पाने में नाकाम अधिकारियों को दंडित किया जाएगा। पिछले साल गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने भी भरोसा जताया था कि ऐसी हत्याओं को रोकने के लिए वह संसद में विधेयक पेश कर उसमें विशिष्ट तौर पर सख्त दंड की व्यवस्था करेंगे।

सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति मार्कडेय काटजू और न्यायमूर्ति अशोक भान ने 2006 में व्यवस्था दी कि ‘ किसी देश के लिए जाति व्यवस्था अभिशाप है और बेहतरी के लिए शीघ्रता से इसे खत्म करना होगा। वास्तव में, यह ऐसे समय में देश को बांट रहा है कि जब देश एकजुट होकर कई तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है। राष्ट्रीय हित में अंतर्जातीय शादियां हकीकत बन चुकी हैं, क्योंकि ये जाति व्यवस्था को नष्ट करने का नतीजा है। हालांकि, देश के विभिन्न हिस्सों से दुखदायी खबरें आती रहती हैं कि अंतर्जातीय शादियां करने के बाद युवा पुरुष और महिलाओं को धमकियां, यातनाएं या फिर हिंसक हो उठने जैसी घटनाएं हो रही हैं।’ मेरे विचार से, हिंसा, यातना और धमकी संबंधी ऐसा कृत्य पूरी तरह गैरकानूनी है और जो भी इसमें लिप्त हैं, उन्हें कड़ी सजा दी जानी चाहिए। भारत स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश है, और कोई लड़का या लड़की अपने पसंद से शादी कर सकता है। यदि उनके अभिभावक अंतर्जातीय या अंतर्धार्मिक शादी को मंजूरी नहीं देते, तो ज्यादा से ज्यादा यह मुमकिन है कि उनसे सामाजिक रिश्ता तोड़ लिया जाता है, लेकिन उनके खिलाफ हिंसा या उसे धमकाया नहीं किया जा सकता। इसीलिए, हम निर्देश देते हैं कि समूचे देश के प्रशासन/पुलिस को देखना होगा कि अंतर्धार्मिक या अंतर्जातीय शादियां किये हुए लड़के या लड़की के खिलाफ कोई यातना, धमकी, हिंसा या इसके लिए उकसाने जैसी कार्रवाई न होने पाये। अगर कोई ऐसा करता पाया जाए तो पुलिस ऐसे लोगों के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई करे और कानून के तहत आगे कड़ी कार्रवाई संबंधी कदम उठाये। कभी- कभी, हम अंतर्धार्मिक या अंतर्जातीय शादियों को लेकर ऑनर किलिंग संबंधी घटनाओं के बारे सुनते हैं। ये शादियां अपनी मर्जी से की जाती हैं। ऐसे में, किसी तरह के मौत देने का कोई अच्छा मामला नहीं होता और वास्तव में, ऐसा कृत्य करने वाले बर्बर और शर्मनाक कृत्य कर बैठते हैं। यह बर्बर, सामंती मानसिकता के लोग हैं, जिन्हें कड़ा दंड दिये जाने की जरूरत है। सिर्फ ऐसा करके ही हम ऐसे बर्बरता संबंधी व्यवहार को खत्म कर सकते हैं। मां का नहीं पिता का नाम यह स्पष्ट नहीं है कि जाति व्यवस्था अभिशाप है, इसलिए जितनी जल्दी इसे खत्म कर दिया जाएगा, उतना ही बे हतर होगा क्योंकि इससे ऐसे समय में देश बंटता है, जब भारत को एक रखने के रास्ते में कई चुनौतियां हैं। इसलिए अंतर्जातीय शादियां राष्ट्रीय हित में हकीकत है। ऐसी शादियों के होते रहने से जाति व्यवस्था टूटेगी।

दूसरी ओर, सर्वोच्च अदालत ने कहा कि भारत में जाति व्यवस्था भारतीयों के दिमाग में रचा-बसा है। किसी कानूनी प्रावधान के न होने की सूरत में अंतर्जातीय शादियों होने पर कोई भी व्यक्ति अपने पिता की जाति का सहारा विरासत में लेता है, न कि मां का। (एआईआर सु. को. 2003, 5149 पैरा 27) सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एच. के. सीमा और डॉ. ए आर लक्ष्मणन ने अर्जन कुमार मामले में स्पष्ट कहा कि ‘यह मामला आदिवासी महिला की एक गैर आदिवासी पति से शादी करने का है। पति कायस्थ है, इसलिए वह अनुसूचित जनजाति के होने का दावा नहीं कर सकता।’ (एआईआर सु. को. 2006, 1177) एक भारतीय बच्चे की जाति उसके पिता से विरासत में मिलती है, न कि मां से। अगर वह बिन ब्याही है और बच्चे के पिता का नाम नहीं जानती, तो वह क्या करे? महिला अपने पिता की जाति से होगी और शादी के बाद पति की जाति की। आपकी जाति और धर्म आपके पिता के धर्म/ जाति से जुड़ी होती है। कोई अपना धर्म बदल सकता है लेकिन जाति नहीं।

दुर्भाग्य से, भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में विशेष विवाह कानून, 1954 के तहत अंतर्जातीय विवाह को संचालित करने वाले बुनियादी कानून प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इस कानून के तहत शादी के अंजाम संबंधी चौथे अध्याय में अंतर्जातीय विवाह को हतोत्साहित करते हैं। धारा-19 के मुताबिक, इस कानून के तहत शादी किसी अविभक्त हिंदू, बौद्ध, सिख या जैन अन्य धर्मावलंबी परिवार में आयोजित होती है, तो ऐसे परिवार से उन्हें अलग कर दिया जाएगा। कानून ऐसे हिंदू बौद्ध, सिख या जै न को आजादी देता है, जो अविभक्त परिवार के सदस्य हैं। ऐसे लोग अन्य धर्मो में शादी करते हैं तो शादी के दिन से उनके अपने परिवार के साथ रिश्ते अपने आप टूट जाएंगे। यह परोक्ष रूप से अवरोध निर्मित करता है और ऐलान करता है कि हम आपको गैर हिंदू पत्नी या पति को अपने परिवार में कबूल नहीं करेंगे। आप अपने विभक्त परिवार की संपत्ति में अपना हिस्सा, यदि कोई हो, लेते हैं तो परिवार से भी हाथ धोना पड़ेगा।

सुप्रीम कोर्ट ने इस बात की भी ताकीद कर दी है कि अगर लड़के या लड़की के माता-पिता ऐसी अंतर्जातीय या अंतर्धार्मिक शादी को मंजूरी नहीं देते, तो वे अपने पुत्र या पुत्री से सामाजिक रिश्ते तोड़ सकते हैं। कोर्ट ने ठीक ही आगाह किया है कि ऐसी शादियां कर चुके लोगों को घर वाले किसी तरह की न तो धमकी दे सकते हैं और न ही मारपीट कर सकते हैं। वे इन्हें यातना भी नहीं दे सकते। जाति व्यवस्था वाले ऐसे पारंपरिक समाज में, शादी के लिए चुनाव काफी अहम हो जाता है। ऐसे में, अपनी जाति या धर्म से हटकर शादी के बारे में सोच पाना नामुमकिन है। हालांकि, भारत में शादी के तरीके में आया हाल का बदलाव अंतर्जातीय शादियों, खासकर आर्थिक रूप से मजबूत दज्रे के चलते बढ़त दर्शा रहा है। पंजाब, हरियाणा, असम और महाराष्ट्र में फिर भी अंतर्धार्मिक शादियों को अब भी प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान जैसे राज्यों में पारंपरिक और सामंती माइंडसेट में बदलाव काफी कम देखा गया है इसलिए हमें निदरेष युवा लड़के और लड़कियों को ऑनर किलिंग से बचाने के लिए एकजुट होने की जरूरत है। ये वे युवा हैं, जो जाति और वर्ग रंिहत समाज में जीने की इच्छा रखते हैं।

अगर न्यायिक व्याख्याएं लिंग न्याय को स्वीकार नहीं करतीं, तो वक्त बीतने के साथ सामाजिक न्याय के बीज कैसे अंकुरित होंगे?
http://www.shabdankan.com/2013/09/honor-killing.html#.U_WF7aMR4Zl

Wednesday, July 6, 2011

डिजर्ट ऑफ जस्टिस

राष्ट्रीय सहारा , आधी दुनिया 6.7.2011
डिजर्ट ऑफ जस्टिस
अरविंद जैन
“आखिर अजन्मी बच्ची आधुनिक समाज का मुकाबला कै से करेगी? ईर या मानवता को आधुनिक समाज के आतंकों से कैसे बच पाएगी? वह एक शिक्षित इंसान का किस तरह सामना करेगी और कैसे वह ईर या मानवता के इन खून चूसने वाले चमगादड़ों यानी आधुनिक समाज के चमगादड़ों से सुरक्षित करेगी.”
मंजू बनाम राज्य (2010 सीआरएल. एल. जे. 2307) केस में एक मां ने अपनी ही कन्या की भ्रूणहत्या जैसे दिल दहला देने वाला जुर्म किया। इसमें दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति प्रदीप नंद्रजोग और न्यायमूर्ति सुरेश कैत ने फैसले में सहानुभूतिपूर्वक लिखा, ‘वह नवजात कन्या थी और उसका इस धरती पर आना उनके लिए आफत थी। माता-पिता के लिए चिंता का सबसे बड़ा मुद्दा उसकी शादी थी। नवजात कन्या उनके लिए मजबूरी के सिवाय कुछ नहीं थी। उसकी शादी का ख्याल जैसे उन्हें बर्बाद करने के लिए काफी था। गरीब होना मामूली चीज थी। समाज ने भी पैदा होने से पहले ही उनकी मृत्यु को शोकपत्र पहले ही लिख डाला था। उसकी मां ने तो सिर्फ उसे जगजाहिर किया था। यह एक बेनाम नवजात की दास्तान है। संभवत: यह पहला फैसला है, जिसमें किसी पीड़ित को उसके नाम से संबोधित नहीं किया जा सकता है।’न्यायमूर्ति नंद्रजोग ईमानदारी से मानते हैं, ‘मानवता इंसानी जिंदगी से भी बढ़कर है, इसका हमें पता नहीं। मरने के बाद क्या होता है, इसका भी हमें कुछ नहीं पता पर यह मान्यता है और स्वीकृति भी कि मानवीय व्यक्तित्व इंसानी जाति के रूप में आगे तक जाती है। लेकिन कन्या के लिए तो यह भी अस्वीकार्य है।
कुछ तथ्य संक्षेप में
अपीलकर्ता मंजू (मां) लेडी हार्डिग मेडिकल कॉलेज के मैटर्निटी वॉर्ड में भर्ती थी। उसने 24 अगस्त 2007 को दोपहर करीब 12:10 बजे कन्या को जन्म दिया। उसी दिन वॉर्ड में बतौर असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट शकुंतला अरोड़ा थीं। वे कन्या के जन्म की गवाह थीं। अपीलकर्ता मंजू को लेबर रूम से निकालकर वॉर्ड में शिफ्ट किया गया। शाम करीब 4:30 बजे बच्ची को मैटर्निटी वॉर्ड में तैनात स्टाफ नर्स बिंदू जॉर्ज ने जच्चा को सौंप दिया। सायं लगभग साढ़े छह बजे बच्ची संबंधित खबर से अस्पताल में खलबली मच गई। नर्स संगीता रानी कहती है, मुझे डय़ूटी पर मौजूद इंटर्न डॉक्टर ने फोन पर बताया- ‘सिस्टर! जल्दी आओ, बच्ची बीमार है।’ पीएनसी इंटर्न ने दोषी मंजू की बच्ची को उठाया और जल्दी-जल्दी उसे ठीक करने में जुट गई। मैंने एक स्टूडेंट नर्स के जरिए सीनियर रेसिडेंट डॉ. निधि को भी बुलवाया। डॉक्टर ने बच्ची के गर्दन और नाक पर लाल व नीले रंग का निशान दिखाते हुए मुझे और सभी स्टाफ नर्स को दिखाया। उसके बाद डॉक्टर निधि ने पाया कि कन्या जीवित नहीं है। उसके बाद पुलिस को सूचना दी गई।
पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट
पुलिस को सूचना देने के बाद इंवेस्टिगेटिंग ऑफीसर ने कन्या के मृत शरीर को कब्जे में ले लिया और तहकीकात करने वाले दस्तावेजों को भरने के बाद हॉस्पिटल के मुर्दाघर में पोस्ट-मॉर्टम के लिए भेज दिया। डॉ. अभिषेक यादव ने 26 अगस्त, 2007 की सुबह कन्या के मृत शरीर का पोस्ट-मॉर्टम किया और रिपोर्ट तैयार की। डॉ. यादव ने कन्या के शरीर पर आठ बाहरी चोट का पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट में उल्लेख किया। उसमें मस्तिष्क में भारी मात्रा में फ्लूड्स के जमाव से सूजन आने के साथ कंजस्टेड भी बताया गया। इसके अलावा गर्दन में खून का परिस्त्रवन (एक्स्ट्रावैशन), कारोटिडशेथ के आसपास सॉफ्ट टिशू और लैरिंक्स मसल्स भी क्षतिग्रस्त पाई गई। ास नली और ब्रॉन्की भी कंजस्टेड बतायी गयी। दोनों फेफड़े कंजस्टेड होने के साथ पैटेशियल हैमरेज इंटर लेबर सर्फेस पर पाया गया। पैटेशियल हैमरेज हार्ट के वेंट्रिकुलर सर्फेस में था। लिवर, स्प्लीन और किडनी भी कंजस्टेड थी और डॉक्टरों की राय थी कि इस तरह की मौत गला घोंटने (एस्फिक्सिया) से होती है।
सत्यमेव जयते बनाम यतो धर्मस्ततो जय:
न्यायमूर्ति नंद्रजोग और न्यायमूर्ति कैत को इस तथ्य का बखूबी पता था कि न्यायिक दायरे में ‘सत्यमेव जयते’ का बड़ा असर होता है और सुप्रीम कोर्ट अपने न्यायिक क्षेत्राधिकार के तहत ‘यतो धर्मस्ततो जयते’ यानी ‘सिर्फ सच्चाई ही टिकती है’ को मानकर काम करता है। न्यायाधीश नंद्रजोग ने फैसला लिखते हुए स्पष्ट किया कि हमारे न्यायिक अधिकार क्षेत्र के दूसरे शब्द नीति से जुड़े हैं और सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्राधिकार ‘न्याय करने’ से जुड़ा है। इसलिए सिर्फ सुप्रीम कोर्ट को ही भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 142 के तहत संपूर्ण न्यायिक अधिकार प्राप्त हैं। इसलिए जहां तक माफी वाली एलिजाबेथ बुमिलर रचित पुस्तक है- ‘आप सौ बेटों की मां हो सकती हैं।’ दहेज, बहू जलाना, कन्या भ्रूणहत्या- निजी अनुभवों के आधार पर शोधपरक दस्तावेज होते हैं। वास्तव में, ये उत्तेजित करते और विचारों में हलचल पैदा करने वाली पुस्तक है। 1986 से 2001 के बीच 50 लाख कन्या भ्रूणहत्याएं हुई, क्योंकि ये सब लिंग परीक्षण संबंधी मेडिकल से जुड़े पेशेवरों के हाथ में था। 1994 में संसद ने पीएनडीटी (प्रीनेटल डायग्नोस्टिक टेक्नीक) कानून बनाया, जो पैदा होने से पहले परीक्षण तकनीकों के दुरुपयोग का जवाब था। बावजूद इसके, सुप्रीम कोर्ट ने मई, 2001 में सरकार को इसे लागू करने का निर्देश दिया। फिर भी हालात की पहले जैसे हैं। कितने अपराधियों को सजा मिली? कानून बेमानी साबित हुआ है।
कन्या का हत्यारा कौन?
आत्मा में झांकने के क्रम में न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने खुद से सवाल किया, ‘लेकिन, क्या अपील करने वाली मां एक ऐसे अपराध की जननी नहीं मानी जानी चाहिए, जिसे समाज ने निर्मित किया है। कन्या भ्रूणहत्या, मोहरे बनकर किया जाने वाली कृत्य है। क्या समाज के पापों का यही भुगतान है? क्योंकि, वह मां अनभिज्ञ है, गरीबी-रेखा से नीचे दयनीय माहौल में रह रही है। उसने अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा- 313 के तहत बांये हाथ के अंगूठे से अपनी निरक्षरता साबित की है। गरीबी-रेखा से नीचे बसर करती वह अपना झुग्गी-झोंपड़ी का पता बताती है। शायद ही वह अपनी आत्मा और शरीर को खंडित होने से बचा पायी हो या यह हकीकत साबित कर पायी हो कि उसका पति दैनिक वेतनभोगी है। हमारे सामने सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि यदि वह अपराध करने वाली नहीं है, तो समाज के पापों का वह भुगतान क्यों करे?’
भारतीय समाज में कानूनी, सामाजिक और नैतिक माहौल पर गौर करने के बाद न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने लाचार स्वर में कहा, ‘प्रतिक्रिया की प्रक्रिया खुद में इतनी अविवेकपूर्ण और एकतरफा है, जिसमें एक अनभिज्ञ और कमजोर के खिलाफ काफी कुछ हो जाता है।’ इस तरह एक अविवेकपूर्ण प्रक्रिया में कैसे एक अनभिज्ञ और कमजोर न्याय पर भरोसा और उससे उम्मीद करे?
खुद मां शिशु की हत्यारिन
अंतत: न्यायमूर्ति नंद्रजोग और न्यायमूर्ति कैत ने वकीलों के तर्क सुनने और गवाही से जुड़े सबूतों पर गौर करने के बाद नतीजा निकाला कि यहां शक की कोई वजह नहीं। कारण, दुर्भाग्य से कई उम्र की लड़कियों का गला दबाया जाता है और याचिकाकर्ता मां ने खुद कन्या भ्रूणहत्या संबंधी गुनाह किया और अपनी बच्ची की हत्या की।
पैदा होने से पहले प्रार्थना
ऐसे जटिल और उलझे हालात में शायद कुछ सांत्वना देने के लिए न्याय की बेड़ियों और जेल संबंधी उदाहरणों का उल्लेख करते हुए न्यायमूर्ति नंद्रजोग और न्यायमूर्ति कैत ने लुइस मैक्नीस की लिखी ‘प्रेयर बिफोर बर्थ’ कविता की तीन पंक्तियां सुनायीं- ‘मैं अभी तक जन्मा नहीं हूं, सांत्वना दीजिए; मैं डरा हुआ हूं क्योंकि मानव जाति मेरा आगे ऊंची दीवार चिना देगी, जिसमें काफी शक्तिशाली दवाएं होंगी, उनकी बुद्धिमानी मुझे ललचाने के लिए होगी। काले रंग की खूं टी मुझे कंपा रही है, मुझे खून से नहलाया जा रहा है।’
‘मैं अभी तक जन्मी नहीं हूं, दुनिया में आने का मैं पाप कर रही हूं, इसके लिए मुझे माफी कर दीजिए। मेरे लिए जो शब्द वे कहें, मेरे विचार जो मेरे लिए वे सोचते हैं, मे रा लिंग मेरे नियंतण्रसे बाहर है, उसके खिलाफ विासघाती हैं वे, मेरी जिंदगी जिसे वे मेरे हाथों से ही मार देंगे, मेरी मृत्यु होगी, उसी समय वे मेरे पास रहेंगे।’
‘मैं अभी तक जन्मी नहीं हूं। जब मैं खेलूं, तो मेरा अंग सहलाओ, जब मैं इशारा करूं तो बूढ़े आदमी की तरह मुझे सिखाओ, नौकरशाह मुझ पर धौंस दिखायें, पहाड़ बनकर मेरी रक्षा करो, प्रेमीजन मुझ पर हंसें, सफेद कॉलर वाले मुझे मूर्ख समझें और मुझे पराया कहें और भिखारी भेंट स्वरूप मुझे लेने से इंकार करें। यहां तक कि मेरे बच्चे अभिशाप कहकर दोष मढ़ें। दरअसल, समाज में रह रहा इंसान पापों को अंजाम देता है। दिल की गहराई से महसूस हुआ कि अजन्मी बच्ची की हालत संबंधी चिंता आत्मप्रवंचना है। आखिर वह आधुनिक समाज का मुकाबला कैसे करेगी? ईर या मानवता को आधुनिक समाज के आतंकों से कैसे बचाएगी? वह आधुनिक मानवता का किस तरह सामना करेगी और कैसे वह ईर या मानवता को इन खून चूसने वाले चमगादड़ों यानी आधुनिक समाज के चमगादड़ों से सुरक्षित करेगा या डंडा मारने वाले पिशाच से बचाएगा? इसी तरह के दूसरे भय समाज में हैं, इसी तरह के और अवरोधक समाज में ही हैं- ड्रग, झूठ, यातना और हिंसा इन्हीं की कई शक्लें हैं। अजन्मी बच्ची सुरक्षित होना चाहती है। धरती विकृत हो रही है और अजन्मी बच्ची ईर से प्रार्थना कर रही है कि वे उसे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से सेहतमंद रखें। अजन्मी बच्ची का महसूसना है कि आधुनिक समाज अपनी पहचान खो रहा है क्योंकि वहीं उसे पापों का पिटारा मिल रहा है। समाज ही मर्द और औरत में पाप उड़ेल रहा है। चूंकि बच्ची दुनिया का एक हिस्सा होगी, इसलिए उनके पाप कर्म में लिप्त होने की संभावना है। उसे जो भी पढ़ाया जाएगा, वही वह बोलेगी, उसे जिस तरह प्रशिक्षित किया जाएगा, वैसा ही सोचेगी और क्षमा भी वैसे ही मांगेगी। वास्तव में, एक मां की दलील भी वच्चे जैसी ही तो होती है। (बाकी पेज 2 पर)
जहां कन्या को मारना बड़ा पाप नहीं
न्यायाधीश नंद्रजोग ने साफ कहा कि भारत की जनता का नैतिक पतन होने का मतलब है कि भारत में सजा-संबंधी कानून कारगर नहीं है। इस तरह समझाने- बु झाने की नीति नाकाम हो चुकी है और कुशलता और काव्यमय ढंग से समझाया गया है कि दुनिया की उम्र काफी कम हो गयी है, इसके लिए महज आंकड़ों से इस तरह समझाया जा रहा है- दुनिया की आबादी बढ़ने में सिर्फ एक संख्या ही तो जोड़ी जाती है, दुनिया में औरत की आबादी में सिर्फ एक संख्या ही तो जोड़ने से काम चल जाता है, इस तरह एक संख्या कम करने से दुनिया की आबादी में वह कम हो जाती है, भारत में पुरुष-महिला के औसत आगे भी असंतुलित होना है, पैदा होने वालों के रजिस्टर में एक एंट्री भर ही तो हुई, इस तरह मृत्यु संबंधी रजिस्टर में एक ही तो कम हुआ! एक मुस्कराहट ही तो हमेशा के लिए छिन गयी!
अजन्मा बच्चा सुरक्षित होना चाहता है। धरती विकृत हो रही है और अजन्मा बच्चा ईर से प्रार्थना कर रहा है कि वे उसे शारीरिक, मानसिक और भावनत्मक रूप से सेहतमंद रखें
सामाजिक सोच के दुखद अक्स
न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने टिप्पणी की, ‘कोई तार्किक व्यक्ति कन्या भ्रूणहत्या की तरफदारी नहीं करेगा। यह न सिर्फ दंडनीय अपराध है बल्कि ईर के प्रति पाप भी है। जिंदगी रूपी तोहफा मानवता के प्रति ईर का महानतम उपहार है। बच्ची की पैदाइश जीवन की पैदाइश है, यह अभिभावकों की ओर से दिया गया जीवन नहीं है लेकिन अभिभावक द्वारा दिया गया जीवन अवश्य है। व्यापक रूप से सामाजिक तरंगों पर गौर करें तो आने वाली ज्यादातर याचिकाओं में कन्या के खिलाफ क्रूरता ज्यादा दिखती है। इससे पता चलता है कि पुरुष के खिलाफ काफी कम मामले हैं : औसतन औरतों का सेक्स जैविक रूप से ज्यादा सशक्त है, फिर भी वह अल्पसंख्यक है। आजादी के साठ साल बीतने के बाद भी तथाकथित आधुनिक समाज कन्याओं को लेकर अपना रवैया नहीं बदल पाया है। चाहे गांव हो या शहर, शिक्षित हो या बेपढ़ा, धनी हो या निर्धन, हर जगह कन्या को लेकर प्रतिकूल हालात हैं। 21 वीं सदी में भी सामाजिक सोच का यह दुखद पहलू है।’
आगे चलकर न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने यह भी कहा, ‘इसका कारण कन्या की शादी के दौरान दहेज है। इसीलिए कन्या के साथ ऐसा बर्ताव होता है और पुत्र को इसीलिए पूंजी की तरह देखा जाता है। समाज भूल जाता है कि एक पुत्र तभी तक पुत्र है जब तक उसकी शादी नहीं हुई रहती लेकिन एक पुत्री ताउम्र पुत्री होती है।’
अगर ‘कन्या को लेकर आजादी के 60 साल की समयावधि में समाज का तथाकथित आधुनिकीकरण होने के बावजूद सामाजिक रवैये में बदलाव नहीं आया, तो फिर क्या रास्ता है?’ क्या न्यायिक तौरतरीकों में सामाजिक बर्ताव शामिल नहीं है? क्या न्याय दिलाने की संस्कृति में कोई अहम बदलाव आया है? इस अन्याय को होने से कैसे रोका जाए और वह भी तब, जब कानून के चीलों ने भी लाचारी से सवरेत्तम क्रिया-प्रतिक्रिया दी हो!
बहनों के प्रति दोयम बर्ताव
इस मोड़ पर आकर माननीय न्यायाधीशों को आश्चर्य हुआ कि ‘अपनी समस्त प्रतिभाओं के बावजूद इंडिया या भारत देशों के समुदाय के साथ कदम से कदम मिलाकर चल पाने में क्यों अक्षम है और वह भी तब, जब हमारा सिर बिल्कुल ऊंचा है? शायद इसका कारण यह है कि हम अपने 50 प्रतिशत नागरिकों के साथ ऐसा बर्ताव करते हैं, इनमें हमारी बहनें भी हैं जिन्हें दोयम दज्रे का और जूनियर पार्टनर माना जाता है, बिना यह सोचे कि कदमताल करने के दौरान अगर आपका सहयोगी थोड़ा पीछे रह गया है, तो आपकी ही प्रगति धीमी होगी।’
बाल विवाह प्रतिबंधित फिर भी कायम
माननीय न्यायमूर्तियों ने विश्लेषण किया कि अपीलकर्ता (मां) से संबंधित मेडिकल पेपर्स दर्शाते हैं कि उसके माता-पिता ने उसकी शादी मात्र 15 वर्ष की कच्ची उम्र में कर दी थी। इस अपरिपक्व उम्र में अपीलकर्ता (मां) बतौर गृहिणी और मां की भूमिका उसी सूरत में निभा सकती है, जब उसे कुछ सिखाया जाए और किसी दूसरे के कहे के अनुसार चला जाए। निस्संदेह, जब तक वह मां बनी होगी, कानून के मुताबिक वह वयस्कता की दहलीज पर पहुंच चुकी होगी। भले ही कहा जाए कि चाहे जिन भी परिस्थितियों में वह खुद के बारे में सोचने व आसपास के सामाजिक वातावरण से लड़ने के लिए परिपक्व हो गयी हो?ेनेशनल कैपिटल टेटीटरी ऑफ दिल्ली (एआईआर 2006 दिल्ली 37) के मनीष सिंह बनाम राज्य सरकार में दिल्ली हाई कोर्ट ने विवशतापूर्वक सुझाव दिया कि यह सिर्फ संसद के विमर्श के लिए है कि हिंदू विवाह कानून और बाल विवाह (निषेध) कानून के मौजूदा प्रावधान नाकाफी साबित हुए हैं या बाल विवाह को रोकने की कोशिश करने में नाकाम रहे हैं और उन्हें किसी उपचारात्मक या सुधारात्मक कदम उठाने की जरूरत है। सुशीला गोथाला बनाम राजस्थान सरकार (1995(1) डीएमसी 198) में राजस्थान हाईकोर्ट ने बाल विवाह (निषेध) संबंधी सलाह देते हुए कहा, ‘मेरे विचार से किसी भी सूरत में कानून के उल्लंघन के तहत तब तक बाल विवाह होने को रोका नहीं जा सकता, जब तक खुद समाज द्वारा इसे दूर न किया जाए और पुराने रिवाजों को जड़ से मिटा न दिया जाए। सर्वाधिक पीड़ादायक बात यह है कि सामाजिक बुराई के रूप में फैली इस प्रथा से इंकार करने के बजाय, समाज द्वारा इसे स्वीकृति मिली हुई है। इसमें भी कोई शक नहीं कि बाल विवाह के परिणाम कई रूपों में सामने आते हैं। जो बच्चे शादी का अर्थ नहीं समझते, उनकी कम उम्र में शादी कर दी जाती है। कितनी ही महिलाएं जिनकी शादी बचपन में हो चुकी है, वे अपने ही पति द्वारा निरक्षर होने या अन्य कारणों से वयस्क या बालिग होने पर छोड़ दी जाती हैं। इस सामाजिक बुराई की जमकर निन्दा करना बहुत जरूरी है। पर दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोई भी सामाजिक संगठन बाल विवाह जैसे दोषों व बुराइयों के प्रति जनता को जागरूक करने के लिए आगे नहीं आते।
‘मनहूस’ कहने से बचें
माननीय न्यायमूर्तियों ने इस हकीकत को स्वीकार किया कि कन्या के खिलाफ होने वाले अपराध विकृत सामाजिक पैमाने और वीभत्स सामाजिक सोच की देन हैं और अपीलकर्ता जो न सिर्फ झुग्गी में रहती बेपढ़ी- गरीब है और जिसकी शादी मात्र 15 साल में हो गई, वह कभी भी कोई जुर्म करने की साजिश खुद से नहीं रच सकती। वह तो उस शख्स के हाथों की कठपुतली भर है, जिसने उसे यह सब करने का हुक्म सुनाया या रास्ता दिखाया। आपराधिक न्याय पण्राली के जरिये कोई नियम क्यों नहीं तैयार किया जाता? माननीय न्यायमूर्तियों ने तब जानबूझकर क्रिमिनल रूल्स ऑफ प्रैक्टिस, केरल-1982 के नियम संख्या-131 को स्पष्ट कि उन सभी मामलों में, जिसमें कोई औरत नवजात शिशु की हत्या की दोषी बताई गई हो, हाई कोर्ट के जरिए सरकार को बताया गया है कि यहां सजा को कम करने या उससे जुड़े मामलों में रिकॉर्ड के लिए संबंधित कॉपियां गत्थी की जाएंगी। पर एक बार फिर हैरानी हुई कि केंद्रशासित क्षेत्र दिल्ली में आपराधिक मामलों में न्यायिक व्यवस्था की प्रभारी राज्य सरकार के रूप में ऐसी सरकार नहीं है और इसीलिए हमने दिल्ली सरकार को नवजात कन्या की हत्या की गुनाह महिला को कम से कम केरल राज्य में बने नियमों के मुताबिक मानने संबंधी सलाह दी।
गंभीर अपराध, दोषी के प्रति सहानुभूति नहीं
किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले माननीय न्यायमूर्तियों ने एक बार दोहराया- ‘हमारे अनुरोध को बतौर मैनडमस के तौर पर नहीं लेना चाहिए..। हमने साफ कहाहै कि अपीलकर्ता के प्रति सहानुभूति जैसी चिंता दर्शाने का अर्थ हमारी ओर से यह नहीं है कि हम कन्या शिशुहत्या को मानते हैं न कि कोई संगीन जुर्म। हकीकत यह है कि यह संगीन जुर्म है और दोषी के प्रति किसी प्रकार की हमदर्दी नहीं दिखाई जा सकती, सिर्फ इस तथ्य पर गौर हो कि दोषी खुद ही अपने निरक्षर, गरीबी और सामाजिक वंचना के कारण समाज की उपेक्षा का शिकार थी।’ यदि यह कहना सही है कि ‘दोषी को सहानुभूति और दया की जरूरत नहीं तो क्यों, कैसे और किस आधार पर माननीय न्यायमूर्तियों ने अपने पूर्व के फैसलों में यह स्वीकारा कि ‘वह परित्यक्ता है, जो तकलीफदेह हालात में गरीबी रेखा के नीचे रहती है।’ धारा- 313 सीआर.पी.सी. के तहत उसके द्वारा दिए गए खुद के बयान में बाएं हाथ के अंगूठे की छाप ही उसके अनपढ़ होने का गवाह है। उसके पतेसे पता चलता है कि वह झुग्गी-झोंपड़ी में रहती है। माननीय न्यायमूर्तियों आगे साफ किया, ‘कन्या के प्रति अपराध विकृत सामाजिक दस्तूर और तंग नजरिये की ही देन हैं। इस तरह अशिक्षित, गरीब और झुग्गीवासी अपीलकर्ता की सिर्फ 15 वर्ष की उम्र में ही शादी हो गई हो, उसे अपराध को अंजाम देने जैसी भूमिका के लिए जिम्मेदारी नहीं ठहराया जा सकता।’

Wednesday, June 8, 2011

कैस्ट्रेशन सेशन!

कैस्ट्रेशन सेशन!
(राष्ट्रीय सहारा आधी दुनिया ८.६.२०११)
अरविन्द जैन, वरिष्ठ अधिवक्ता सुप्रीम कोर्ट


बच्चियों के साथ आए दिन होने वाले बलात्कार की घटना पर अपना गुस्सा जाहिर करते हुए दिल्ली की निचली अदालत की जज ने कुछ दिनों पहले बलात्कारी का कैस्ट्रेशन (बंध्याकरण) करने की बात की थी। इस पर बहस शुरू हो गयी कि क्या कैस्ट्रेशन से मनचले डरेंगे और बलात्कारों पर अंकुश लगेगा
न्याय कानून के मुताबिक दिया जाना जरूरी है, न कि इस संकल्पना के आधार पर कि ऐसे घृणित अपराधों पर अंकुश के लिए। किसी कानून में ऐसी व्यवस्था नहीं है कि अगर बलात्कार के मामले में कोई खास आरोपी स्वेच्छा से केस्ट्रेशन कराता है, तो विधि के मुताबिक कोई भी अदालत कम से कम दंड दे सकती है
दिल्ली में यौन अपराध और बलात्कार संबंधी आए दिन हो रही घटनाओं की गंभीरता को देखते हुए आशंका है कि मीडिया में इसे लेकर जबर्दस्त बहस हो। लेकिन दिल्ली एडिशनल सेशन जज (रोहिणी) कामिनी लॉ ने कहा है कि कानून निर्माताओं को इस संभावना पर ध्यान देना चाहिए कि क्या बलात्कार से जुड़े मामलों में अभियुक्त को रासायनिक या ऑपरेशन के जरिये दंड के रूप से बंध्याकरण (कैस्ट्रेशन) कर दिया जाए। अभियुक्त दिनेश यादव को 15 साल की अपनी सौतेली बेटी के साथ चार साल तक बलात्कार के जुर्म में 10 साल जेल की कठोर सजा का फैसला सुनाते हुए कामिनी लॉ ने कहा कि बलात्कार संबंधी मामलों में वैकल्पिक सजा की व्यवस्था करना वक्त की मांग होनी चाहिए। सुश्री लॉ ने इस आदेश की कॉपी कानून और न्याय मंत्रालय के सचिव, राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष और दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष को भेजी। कई विकसित देशों में केमिकल बंध्याकरण के साथ ही लंबे समय तक जेल में बंद रखने जैसा वैकल्पिक उपाय है। भारत सरकार का इस मुद्दे पर रवैया लचर है। इसके विपरीत, हमारे सांसदों और विधायकों को सर्वाधिक गंभीर इस मसले पर ध्यान देते हुए कम उम्र की लड़कियों, रह-रह कर ऐसे अपराध करने वालों..या प्रोबेशन की शर्त पर या सौदेबाजी पर उतारू लोगों के मामले में वैकल्पिक दंड का प्रावधान करना चाहिए। अदालत ने स्पष्ट कहा कि समूची दुनिया के न्यायाधीश इस मामले में एक नजरिया यह रखते हैं कि रासायनिक बंध्याकरण को व्यभिचारियों, आए दिन बलात्कार करने वाली विकृत मानसिकता के लोगों और छेड़छाड़ करने वालों के लिए बाध्यकारी कर देना चाहिए।
1995 में दिल्ली हाईकोर्ट ने कैस्ट्रेशन नकारा
करीब 20 साल पहले अतिरिक्त सेशन जज एस.एम. अग्रवाल ने हाईकोर्ट और दूसरे मामलों को स्वीकार करते हुए साढ़े तीन साल की लड़की के मामले में स्वैच्छिक कैस्ट्रेशन का जिक्र कर कैस्ट्रेशन की बात कही थी। दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति पी.के. बाहरी और न्यायमूर्ति एस.डी. पंडित ने जगदीश प्रसाद शर्मा बनाम राज्य (57-1995-डीएलटी 761 डीबी) मामले में व्यवस्था दी- ‘इस मामले से अलग होने से पहले, हम विचार कर सकते हैं कि जानकार अतिरिक्त सेशन जज द्वारा अपील करने वाले का हाईकोर्ट के आदेश के आलोक में और शेष दंड की छूट को देखते हुए स्वैच्छिक कैस्ट्रेशन उचित नहीं है क्योंकि अतिरिक्त सेशन जज के आदेश का यह हिस्सा पूरी तरह गैरकानूनी है। कानून के मुताबिक, फैसला सुनाया जाना जरूरी है, न कि इस संकल्पना के आधार पर कि ऐसे घृणित अपराधों पर अंकुश के लिए। किसी कानून में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि यदि बलात्कार के मामलों में कोई खास आरोपी स्वेच्छा से कैस्ट्रेशन कराता है, तो कानून के मुताबिक कोई भी अदालत कम से कम दंड तो दे ही सकती है। जनप्रतिनिधियों द्वारा निर्धारित कानूनी आधार पर न्यूनतम दंड कोई भी अदालत दे सकती है। विधायिका द्वारा बनाए कानून के अंतर्गत दंड दिया जाता है। अतिरिक्त सेशन जज को स्वयं ऐसी किसी भी कार्रवाई का प्रस्ताव देने में संयम बरतते हुए खुद पर नियंतण्ररखना चाहिए।’
हाईकोर्ट या तो पूर्व के फैसलों को दोहराए या प्रस्ताव करे मंजूर
ऐसा लगता है कि निचली अदालत के न्यायाधीश ने फैसला सु नाने से पहले दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व में दिए फैसले पर गौर नहीं किया। हाईकोर्ट ने 1995 में दिए अपने फैसले में इस मामले में गंभीर और दूरगामी प्रस्तावों पर काफी कुछ रोशनी डाली थी। इस कारण यह कहना जरूरी नहीं रह जाता कि उक्त न्यायाधीश का आदेश गैरकानूनी घोषित किया जाता है और कानून के जानकार श्री अग्रवाल को सलाह दी जाती है कि ‘वे स्वयं किसी तरह की कार्रवाई का प्रस्ताव न करें। यह कानून के मुताबिक, औचित्यपूर्ण भी नहीं है।’
यदि सुश्री लॉ के आदेश के विरुद्ध कोई उच्च अदालतों में अपील करता है तो यह किसी के आकलन से परे होगा क्योंकि हाईकोर्ट के न्यायाधीश पूर्व में सुनाए गए फैसलों का अनुकरण करेंगे या सुझाए गए किसी मौलिक प्रस्ताव को मंजूर करेंगे।
बंध्याकरण असंवैधानिक
यह विचारणीय है कि कैरोलिना की सुप्रीम कोर्ट ने भी बलात्कार के मामले में भी बंध्यकरण पर खामोशी अपनायी। दक्षिण कैरोलिना के सुप्रीम कोर्ट ने हाल में व्यवस्था दी कि अंगभंग के रूप में बंध्यकरण असंवैधानिक है और इस तरह उसने तीन अेत दोषियों को दोबारा दंडित करते हुए उन्हें 30 साल कैद की सजा सुनायी। न्यायाधीशों ने व्यवस्था दी कि सर्किट जज विक्टर पायले द्वारा सुनाई गई सजा कुछ भी नहीं है क्योंकि बंध्याकरण ‘क्रूर और असामान्य दंड’ देने से राज्य के संविधान ने मना किया है।
बलात्कारियों का अपराध : नपुंसकता
झानू पीएफ के तेजतर्रार सांसद सदस्य माग्रेट डोंगो की दलील है कि बलात्कार के अपराधी को नपुंसक किए जाने के मामले को संविधान के नए प्रावधानों से जोड़ा जाना चाहिए। डोंगो का कहना है, ‘कानून का कोई भी रूप जो शरीयत की तरह दिखता है, हटाया जाना चाहिए ताकि अपराधियों और बर्बर परंपराओं को रोका जा सके जो बलात्कार के दायरे में आते हैं।’
‘मैं सभी महिलाओं का आह्वान करता हूं कि वे इस बात के लिए आस्त रहें कि नए संविधान में बलात्कारियों की सजा के तौर पर नपुंसकता का प्रावधान हो। शायद, इसी तरह से बलात्कारियों की गतिविधियों पर अंकुश लगाया जा सकता है, जिसने कई जख्म दिए हैं जिम्बाब्वे के कई परिवारों को गहरी सदमा दिया। इस जघन्य घटना के बाद बलात्कार की शिकार दोबारा कभी भी अपनी जिंदगी नहीं जी सकी, जो इंसान के लिए सबसे जघन्य अपराध की श्रेणी है।
मैं सभी सांसदों से प्रार्थना करता हूं कि वे बच्चियों के साथ-साथ महिलाओं के हितों की रक्षा करें। कानून में परंपरा के तौर पर बदले की भावना है, जिसमें ऐसा चलन है जो पुरुषों को बलात्कार के लिए उकसाता है। मौजूदा कानून निष्प्रभावी साबित हो चुका है। कड़े दंड के तौर पर बधिया कर देने से दिक्कत कम नहीं होगी। हमें पूर्व में देखना होगा कि गलती कहां हुई। बलात्कार हमारे समाज की अनकही पीड़ा का कारण है। इसके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए और इसे कभी भी स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।’ यह कहते हुए डोंगो बेहद गुस्से में थे। नाबालिगों के साथ बढ़ रही बलात्कार-संबंधी घटनाओं को लेकर जिम्बाब्वे की महिलाएं अधिकार संगठन परेशान हैं, कहती हैं- ‘यह सोचना गलत नहीं है पुरुष इसे गलत ठहरा रहे हैं। इसका अर्थ बल प्रयोग, ताकत और नियंतण्रही नहीं है’ संगठन की प्रोग्राम मैनेजर बोंगी सिबांडा ने कहा। लड़कियों के अधिकार के लिए आवाज बुलंद करने वाले स्थानीय संगठन ‘गर्ल चाइल्ड नेटवर्क’ का कहना है, बलात्कार के करीब 95 फीसद मामले पुरुषों द्वारा युवा लड़कियों के मुकाबले छोटी बच्चियों के साथ के हैं। महिला, जेंडर और सामुदायिक विकास मामलों के मंत्री ओलिवा मुचेना हाल ही में बहस में बहस छेड़ी और कहा, ‘जो बच्चियों के साथ बलात्कार करते हैं, उनके कैस्ट्रेशन के विकल्प पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि इस मामले में सजा के कई स्तर हैं और बच्चों के साथ बलात्कार करने वालों पर भी यही प्रावधान लागू होना चाहिए। आप किसी बच्चे के साथ बलात्कार कैसे कर सकते हैं? यह तो सरासर हत्या करने जैसा व्यवहार माना जाना चाहिए और इसके लिए कैस्ट्रेशन की सजा दी जानी चाहिए।’
सिबांडा ने कहा, ‘इसलिए मेरा विास है कि बलात्कारियों का कैस्ट्रेशन की हमें जोर-शोर से आवाज उठानी चाहिए जिससे बलात्कार जैसी घृणित हरकतें न करने का संदेश जाए। यह खेदजनक है कि ज्यादातर मामलों में बच्चियां ही यौन शोषण की शिकार होती हैं और रिश्तेदार ही उनके लिए दोषी होते हैं। नतीजा यह होता है कि ऐसे मामलों को दबा दिया जाता है औ र शायद, घर से निकाल दिए जाने की आशंका से पीड़ित बच्ची अपना मुंह कभी नहीं खोलती। पीड़ित बच्ची की जिंदगी पर एक भावनात्मक घाव लग जाता है। ऐसे में, कोई क्यों पूरी जिंदगी भावनात्मक घाव लिये गुजारे? इसीलिए मैं कोई वजह नहीं देखता कि किसी के ऐसे कुकृत्य से किसी बच्ची पूरी जिंदगी भावना रूप से सदमा लिये क्यों जिये, कभी-कभी शारीरिक रूप से चोटिल हो जाती हैं, जिसका नतीजा यह होता है कि समूची जिंदगी में उन्हें वैसा सदमा न लगे।’
इसमें शक नहीं कि बलात्कार के बढ़ते मामले समाज के ढीले रवैये से सीधे तौर पर जुड़े हैं। इनमें समाज का उदासीन रवैया, उनके प्रति क्रूरता के मुताबिक कार्रवाई में असमर्थता और बेहद सख्त दंड दिया जाना इसके निषेध के तौर पर कार्य करते हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की दृष्टि से बलात्कारियों का कैस्ट्रेशन किया जाना गैरकानूनी, असंवैधानिक, निहायत कठोर, प्रतिशोधी और भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 21 के तहत अभियुक्त के मूलभूत अधिकार का हनन है। कानून में निश्चित रूप इसकी भाषा, व्याख्या, दूरदृष्टि और नजरिये की सुरक्षा और समाज के भेड़ियों से असहाय बच्चों को बचाने के स्तर पर आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है लेकिन सवाल वही है- बिल्ली के गले में घंटी कौन, कब और कैसे बांधेगा?

Thursday, May 19, 2011

भेड़-भेड़िए कहानी

अरविन्द जैन

पता नहीं मुझे क्यों लगता है क़ि फ्रिज में रखा दूध फट गया होगा. डीपफ्रिज खोलते डर लगता है क़ि गले-सड़े संबंधों की लाशें बाहर निकल आएँगी. हर समय महसूस होता है कि रिश्तों क़ि तमाम पावनता-पवित्रता संदेह के घेरे में आ खड़ी हुई हैं. बाहर ही नहीं, दोस्तों या रिश्तेदारों से भी डर लगने लगा है कि कहीं कोई साजिश तो नहीं रच रहा. बड़े भाई ने जूस का गिलास लाकर दिया, तो दिमाग में संदेह के कीड़े कुलबुलाने लगे कि जरूर ज़हर मिला कर लाया होगा. आस्था और विश्वास- कांच के टुकड़ो की तरह, दिलो-दिमाग में बिखरे पड़े हैं और रह-रह कर चुभते रहते हैं. घर से दफ्तर के बीच का रास्ता, किसी सुनसान श्मशान सा लगता है. सारी रात सपने में कभी भूखा-प्यासा और लहूलुहान, दूर तक पसरे थार, बीहड़ जंगल या दुर्गम पहाड़ियों में चीखता-चिल्लाता घूमता रहता हूँ, कभी किसी तूफानी नदी में कागज़ कि किश्तियाँ चलाते-चलाते डूब जाता हूँ. मैं उस घटना-दुर्घटना को भूलना चाह कर भी, भूल ही नहीं पाता.
हमारा घर माणिक कि हवेली से थोड़ी ही दूर था , सो आना-जाना लगा ही रहता था. जन्मदिन की पार्टी से लेकर पिकनिक तक में अक्सर माणिक, हमारे साथ ही रहता. धीरे-धीरे माणिक, मधु के प्रेम के चक्कर में पड़ गया था. न जाने कब, क्यों और कैसे? संभवत मधु का सपना था, अपना एक 'ब्यूटी पार्लर' खोलना और माणिक ने उस सपने को हकीक़त में बदलने के,ख्वाब दिखाने शुरू कर दिए थे.
माणिक की हवेली, किसी आलिशान किले से कम न थी. हवेली के बाहर चमचमाती देशी-विदेशी मंहगी गाड़िया खड़ी रहती थी और बड़ी-बड़ी मूंछों वाले चौकीदार. हवेली के चारों तरफ हमेशा पेड़, पौधे और रंग-बिरंगे फूल खिले रहते थे. दो-तीन माली सुबह से शाम तक इनकी, बच्चों से भी ज्यादा देखभाल जो करते थे. हर कमरे में एयर कंडीशनर और फर्श पर ईरानी कालीन. दिवाली के दिन तो हवेली, दुल्हन सी सजी दिखाई देती थी.
आये दिन हवेली में कोई न कोई पार्टी या जश्न होता और मेहमान (युवा स्त्री-पुरुष) देर रात गए तक शराब पीते, मादक संगीत की धुनों पर नाचते-गाते, खूब मौज-मस्ती करते और सुबह होने से पहले ही गायब हो जाते. हर महीनें कबाड़ी आता तो अखबार, चिकने पन्नों वाली फ़िल्मी मैगज़ीन, अंग्रेजी नॉवेल और शराब की सैंकड़ों खाली बोतलें (टीचर, जॉनी वाकर, शिवास रिगल, ब्लैक डॉग) बोरी में भर कर ले जाता.

माणिक कोई बहुत बड़ा उद्योगपति या कारोबारी नहीं बल्कि 'प्रोपर्टी डीलर' था यानि दोनों तरफ से दो प्रतिशत कमिशन पर जमीन, कोठी, बंगले, फ्लैट खरीदवाने-बिकवाने का काम करता था. दरअसल उन दिनों गली-गली में 'प्रोपर्टी डीलर', 'ब्यूटी पार्लर' और 'एन. जी. ओ.' के बोर्ड लगने शुरू हो गए थे. देखते-देखते लोगों के लिए दलाली से अच्छा और कोई काम नहीं रह गया था. दलाली चाहे जमीन जायदाद की हो या किसी भी सरकारी खरीद की. यहाँ तक कि बहुत से लोग तो कोटा, परमिट, पेट्रोल पम्प का लायसेंस, चुनावी टिकेट और हवाई जहाज से लेकर तोपों कि खरीद तक कि दलाली करने लग गए थे. हिंग लगे न फिटकरी रंग चोखा ही चोखा. अदालतों की बाहरी दीवारों पर तो एक बड़ा सा बोर्ड टंगा रहता "दलाओं से सावधान, अपने वकील से सीधे संपर्क करें". दिन-रात दलालों कि गाड़ियाँ, लाल बत्ती वाली गाड़ियों के इलाके से लेकर एयर पोर्ट तक ही घूमती रहती थी.

दोनों के बीच चल रहे प्रेम-प्रसंगों की भनक लगी या शक होने लगा, तो मैंने अपना घर बेच हवेली से थोड़ी दूर जा बसा. लेकिन अक्सर मधु और माणिक गायब हो जाते और दो-तीन दिन घूम-घूमा कर वापिस आ जाते. माणिक और मधु के बीच पांच सितारा होटलों में होने वाली रंगरेलियों के बारे में, अनुमान लगाया जा सकता हैं.
मधु और माणिक के बीच अवैध संबंधों के हिंसक और जंगली घोड़े हिनहिनाने लगे, तो दूर-दूर तक अनहोनी ने भी अपने पाँव पसारने शुरू कर दिए. प्रेम के पागलपन में आवारा और उद्दाम आकाक्षाएं, निरंतर क्रूर और वहशी होने लगी. ऐसे में वासना की गोद में लेटी कामनाओं ने, सच के संभावित चशमदीद गवाहों को हमेशा के लिए चुप्प करने-कराने का षड़यंत्र रचा होगा.
उस दिन सात साला बेटा और चार साल की बेटी टूयशन पढने क्या गए, कि फिर लौट कर ही नहीं आये. रास्ते में ही माणिक ने बच्चों को उठाया, गाड़ी में बैठाया और शहर के सुनसान पहाड़ी जंगल में ले जाकर, जिन्दा जला दिया. बच्चों को बचाने कि तमाम कोशिशें, व्यर्थ साबित हुई.

उनके पास और भी तो विकल्प थे. बच्चों को छोड़ कर, भाग जाते देश-विदेश कहीं भी. कहते तो मैं खुद ही तलाक दे देता.पर कैसे भाग जाते? अनहोनी तो सिर पर, नंगी हो कर नाच रही थी. मन में अक्सर यह सवाल कोंधता है कि फूल से अबोध-निर्दोष बच्चों को पेट्रोल छिड़क कर जलाते समय, क्या माणिक कि आत्मा ने एक बार भी नहीं रोका-टोका होगा? ऐसे तो कोई जानवरों को भी नहीं मारता.

कुछ ही महीने बाद, मधु को स्त्री होने और मुकदमें में सालों लगने कि वजह से, जमानत पर रिहा कर दिया गया और अन्तत: बरी भी हो गयी थी. न मालूम क्यों, मधु क़ी ज़मानत करवाने वाले वकील साब क़ी कुछ ही समय बाद दिन-दिहाड़े हुई हत्या भी मुझे आश्चर्यजनक सी लगती है. बार-बार शक़ होता है कि कहीं इसमें, मधु या माणिक या दोनों का हाथ तो नहीं.
इसके बाद तो मुझे हर जगह वह ही घूमती नज़र आने लगी. बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन से लेकर एयर पोर्ट तक. हस्पताल, बाज़ार, होटल, पुलिस स्टेशन और मंदिर से लेकर माल तक. मोटरसाइकिल पर पीछे बैठे दो बच्चे देखते ही सायरन सा बजता कि यह इन्हें पहाड़ी जंगल ले जाकर जिन्दा जला देगा. मैं जब तक चीखता, तब तक वह बहुत दूर जा चुका होता. रेलवे स्टेशन पर, लावारिस सा बैग देख कर लगता कि इसमें दोनों बच्चों कि लाश होगी. पेट्रोल पम्प पर किसी को प्लास्टिक क़ी बोतल में पेट्रोल लेते देखता, तो सोचता कि माणिक बच्चों को जलाने के लिए ले जा रहा है. सालों डाक्टरी इलाज़ के बाद, थोड़ा ठीक होने लगा था कि फिर से अखबार में छपी खबर 'माणिक को सजा-ए-मौत' पढ़ कर सारे शरीर में संदेह कि ज़हर बुझी सुइयां चुभने लगी. बच्चों कि अनसुनी चीखें अब भी अदालत के उन गलियारों में सुनाई पड़ती हैं, जहाँ मुकदमें कि सालों सुनवाई होती रही.

दस साल बाद अखबारों में समाचार छपा था कि तमाम गवाहों, तथ्यों-सत्यों को देखते हुए और दोनों पक्ष के विद्वान वकीलों कि बहस सुनने के बाद, सेशन जज ने माणिक को ‘सजा-ए-मौत’ का हुकुम दिया है, बशर्ते कि उच्च न्यायालय फैसले कि पुष्टि कर दे.
‘सजा-ए-मौत’ तो ठीक लगी, बहुत खुश भी हुआ मगर 'बशर्ते कि उच्च न्यायालय फैसले कि पुष्टि कर दे' को लेकर मन में सैंकड़ों सवाल उमड़ते-घुमड़ते रहते. उच्च न्यायालय ने पुष्टि नहीं कि तो? क्या बरी कर देगी....क्या उम्र कैद में बदल देगी? माणिक बच जायेगा, तो फिर से बच्चों को जलाएगा. नहीं...नहीं....नहीं....ऐसा नहीं हो सकता... अगर हुआ तो...तो..तो...मैं ??????
उच्च न्यायालय का फैसला आने तक, मेरी हालत पहले से भी ज्यादा खराब होने लगी. कभी कहीं बम्ब विस्फोट में बच्चे मारे जाते और कभी किसी ट्रेन में आग लगने-लगाने से. कभी स्कूल कि छत गिरने से मासूम बच्चों कि मौत तो कभी बस दुर्घटना से. कभी नाबालिग बच्चियों की बलात्कार के बाद, गला घोंट कर हत्या कर-करवा दी जाती तो कभी किसी गंदे नाले या नहर से किसी अनाम बच्चे या बच्ची क़ी सड़ी-गली लाश बरामद होती.
अब तो अखबारों से बहुत पहले, टी.वी. चैंनलों के कैमरा घटनास्थल पर पहुँच कर आँखों देखा हाल सुनाने लगते हैं. ऐसी खबरे पढने-सुनने के बाद तो सचमुच दिमाग भनाने लगता है और ऐसे महसूस होता है, जैसे हर जगह शिकारी गश्त लगा रहे हैं. मैं जब तक सारे अखबार फाड़-फाड़ कर कचरे का ढेर लगाता हूँ, तब तक नए अखबार ‘आज की ताजा खबर’ के साथ दरवाजे पर घंटी बजाने लगते हैं.

टी. वी. बंद ....अखबार बंद.....और दिमाग बंद कर हफ़्तों गुमसुम अपने कमरे में ही पड़ा-पड़ा, न जाने क्या-क्या सोचता-समझता रहता हूँ. सबने पागल कहना शुरू कर दिया है. कोई 'फिलास्फर' कहता है और कोई सिरफिरा या सनकी. ब्रेकिंग न्यूज़ यह है कि ‘देश और समाज के बारे में सोचने को, दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया है’. सूचना के अधिकार के तहत जो कोई भी सूचना मांगेगा, उसे गोली मार दी जाएगी.
मैं अपने आप को बहुत समझाता-बुझाता हूँ "कल से दफ्तर जाऊँगा, मन लगा कर काम करूंगा, कुछ भी उलटा-पुल्टा नहीं सोचूंगा, और...और.... कोई फिजूल पंगा नहीं.... परन्तु दोपहर होते-होते दिमाग में फिर से वही गर्मी और फितूर करवटें लेने लगता है. मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊं....किससे कहूं?

लगभग दो साल बाद वही हुआ, जिसकी आशंका थी. अखबारों में छोटी सी खबर थी कि उच्च न्यायालय की माननीय न्यायमूर्ति सुश्री (क्षमा करें याद नहीं आ रहा, न जाने क्या नाम था जजसाहिबा का) ने गंभीरतापूर्वक वरिष्ठ वकीलों कि बहस सुनने और तमाम मुद्दों पर विचार करने के बाद, सजा फांसी की बजाय, बीस साल उम्र कैद में बदलते हुए कहा है कि यह 'दुर्लभतम में दुर्लभ' मामला नहीं है.

खबर बहुत ही छोटी सी छपी या छापी गई थी मगर मेरे लिए तो यह किसी भयंकर भूकंप जैसी थी, जिसमें बहुत कुछ तहस-नहस हो गया या होने वाला था. खबर पढ़ते-पढ़ते ही दिमाग सुन्न सा हो गया.चाय का कप फर्श पर गिरा और टूट गया. चश्मा उतारने लगा, तो हाथ फूलदान से जा टकराया. ना चश्मा बचा और ना ही फूलदान. शाम तक शायद कुछ भी साबुत नहीं बच पाया. रही-सही आशा, उम्मीद और विश्वास को पिछले प्रांगन में दफ़न कर दिया. दिल,दिमाग और आत्मा किसी ऐसे गहरे अंधे कुंए में भटक रहे हैं, जिससे फिलहाल बाहर निकलने का कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा.

ऐसी ही मनः स्थिति में दिन...महीने....साल बीतते गए. निरंतर धर्म-ध्यान-योग-साधना-और चिंतन के बावजूद, ना कोई फायदा हुआ और ना होने कि कोई गुंजाइश दिखती है.
सुबह घर से दफ्तर जाते समय, राजघाट से लेकर राजपथ तक ट्रैफिक जाम था. रास्ते में देखा कि न्याय के सबसे बड़े मंदिर के सामने दुनिया भर के टी.वी. चैंनलों क़ी गाड़ियाँ खड़ी हैं और रोजाना क़ी अपेक्षा कुछ ज्यादा ही भीड़ है. भीड़ में आम आदमी कम, काले-काले लम्बे चोगे वाले अधिक दिखाई दे रहे हैं. मन में यह ख्याल भी आया कि माणिक के खिलाफ दायर, सरकार कि अपील पर क्या कोई निर्णय हुआ या नहीं? मैंने हमेशा कि तरह निराशावादी ढंग से अनुमान लगाया कि कुछ नहीं होगा.....कुछ भी नहीं होगा..... सिवा तारीख....तारीख.....तारीख.

रात को खाना खाने के बाद थोड़ी देर अमर्त्य सेन क़ी पुस्तक 'एन आईडिया ऑफ़ जस्टिस' के पन्ने पलटता रहा और ना जाने कब गहरी नींद सो गया. पिछले पुस्तक मेले में खरीदी इस किताब को, आज तक खोल कर भी नहीं देखा. सुबह-सवेरे आँख खुल गयी तो मन हुआ कि पहले कि तरह, आज से पार्क घूमने जरूर जाया करूंगा. उस दिन वैसे भी छुट्टी थी, सो चुपचाप कपडे और जूते पहन सैर करने निकल पड़ा.

पार्क में घंटा भर चक्कर काटने के बाद इच्छा हुई क़ि एक कप चाय पी जाये तो मज़ा आ जायेगा. चाय का आर्डर देकर मैं पास पड़े बेंच पर बैठ गया. सोचा जब तक चाय आती है, तब तक सामने पड़ा अखबार ही देख लेता हूँ. हाथ बढा अखबार उठाया और एक के बाद एक खबर पढने लगा.

पढ़ते-पढ़ते अचानक कानूनी पन्ना सामने था. सबसे नीचे एक कालम में मुश्किल से दस लाइनो का समाचार. सुप्रीम कोर्ट द्वारा माणिक केस में दायर, राज्य सरकार की याचिका खारिज.फैसले में कहा गया है ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादी को फांसी कि सजा सुनाई मगर हाई कोर्ट ने इसे २० साल कैद में बदल दिया. हाई कोर्ट के फैसले के विरुद्ध राज्य सरकार ने विशेष अनुमति याचिका दायर की, जिसे दो साल बाद सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया गया. स्वीकार करने के छः साल बाद, अब यह अपील अंतिम सुनवाई पर आई है. सभी पक्षों ने माना कि इस बीच बीस साल की सजा पूरी होने के कारण, माणिक को जेल से रिहा कर दिया गया है. इस हालात में अपील मंजूर करके, सजा-ए-मौत का आदेश देना सचमुच न्याय का मज़ाक उड़ाने के समान होगा. हालांकि हम ट्रायल कोर्ट के फैसले को सही मानते हैं, जिसमें कहा गया है कि प्रतिवादी द्वारा किया अपराध वास्तव में बेहद बर्बर है और किसी रहम के काबिल नहीं है.

माणिक जेल से कब रिहा हुआ....मुझे पता भी नहीं चला. उफ़....पता नहीं लड़का कब, चाय का कप रख कर चला गया और चाय रखी-रखी ठंडी हो गई या खबर पढ़ते-पढ़ते कब, कैसे और क्यों बेहोश हुआ और कोन मुझे उठा कर हस्पताल लाया. होश आया तो मैं किसी विशालकाय अदालत के खंडहरनुमा संग्राहलय में घुन्न या दीमग लगी मेज-कुर्सियों और किताबों के ढेर में आग लगा, जोर-जोर से बोलता जा रहा था 'आर्डर....आर्डर….जस्टिस........हाज़िर हों'.
आग कि रौशनी में सामने बनी मीनार के पत्थर पर बनी, सदियों पुरानी कोई कलाकृति दिखाई दी तो पास जाकर देखने लगा और देखता ही रह गया. किसी भेड़िएनुमा आदमी के एक हाथ में भारी सी तलवार थी और दूसरे में तराजू. उसके पीछे एक बड़े से पेड़ पर बैठे बन्दर अजीब-अजीब सा मुंह बना रहे थे और बेहद भयभीत नज़र आ रहे थे. दांई तरफ बाड़े में बंद भेड़ों के सिर पर, काली पट्टी बँधी थी. उसके ठीक सामने काठ का काफी मोटा सा लट्ठा रखा था, जिसपर खून से लथपथ कटी हुई भेड़ पड़ी थी. मुझे ऐसा लगा जैसे तराजू के एक पलड़े में भेड़ का मांस है और दूसरे में सोने-चांदी के सिक्के. भेड़िएनुमा आदमी के चेहरे पर रहस्यमयी सी मुस्कान और अपार संतोष नज़र आ रहा था.

दोस्तों! मुझे तो आज तक उस कलाकृति का सही-सही मतलब समझ नहीं आया. आपको कुछ समझ आये, तो मुझे जरूर बताना. मैं सचमुच आपका आभारी हूँगा.

CREDIBILITY OF JUDICIAL INSTITUTIONS

ARVIND JAIN
Why faith and confidence of ‘we the people of India’ in the judicial system is eroding? Who is responsible for damaging the image of judiciary and how to preserve and enhance people's faith in the institution and the rule of law? Impeachment on Dinakaran, sex scandal of Karnatka judges, arrest of Delhi High Court Judge Shamit Mukharjee, sexual demand by Rajasthan High Court Judge, Arun Madan who was later forced to resign, Provident fund scam in Uttar Pradesh, cash at the door step of a sitting judge of Punjab and Haryana High court, disproportionate assets of relatives of ex-Chief Justice of India K.G. Balakrishanan etc has raised various questions in the minds of the people about image of judiciary and credibility of judges. Inordinate delay and People’s faith in judiciary
Hon’ble Justice A.K. Mathur & Markandey Katju of Apex Court expressing their anguish said “people in India are simply disgusted with this state of affairs, and are fast losing faith in the judiciary because of the inordinate delay in disposal of cases. We request the concerned authorities to do the needful in the matter urgently to ensure speedy disposal of cases if the people's faith in the judiciary is to remain.” (Rajindera Singh (Dead) through Lrs. & others Vs Prem Mai and others, (2007) 11 SCC 37)
Justice Mathur observed about delay in disposal of cases in law courts and said “the present case is a typical illustration. A suit filed in 1957 has rolled on for half a century. It reminds one of the cases Jarndyce v. Jarndyce in Charles Dickens' novel 'Bleak House' which had rolled on for decades, consuming litigants and lawyers alike.” (Supra)
Honestly speaking, people are not ‘simply disgusted’ and ‘losing faith’ just because of the ‘inordinate delay’ in disposal of cases. Common men apprehends that now a days, no ‘concerned authorities’ can do the ‘needful urgently’ and ensure speedy justice. The courts are overcrowded with pending cases and when matters in higher courts come on board for final hearing after decades, (poor) accused find that he has already completed maximum term in jail.
Benchmark of honesty, accountability and good conduct
Hon’ble Justice Dr. M.K.Sharma and Anil R. Dave of Supreme Court has emphasized that “Upright and honest judicial officers are needed not only to bolster the image of the judiciary in the eyes of litigants, but also to sustain the culture of integrity, virtue and ethics among judges. The public's perception of the judiciary matters just as much as its role in dispute resolution. The credibility of the entire judiciary is often undermined by isolated acts of transgression by a few members of the Bench, and therefore it is imperative to maintain a high benchmark of honesty, accountability and good conduct.” (Rajesh Kohli Vs High Court of J. & K. & Anr., 2010 (12) SCC 783)
No doubt, ‘upright and honest’ judges may ‘bolster the image’ and ‘sustain the culture of integrity, virtue and ethics’ in judiciary. It’s debatable whether the ‘credibility’ of the entire judiciary is ‘undermined’ by isolated acts by few judges only. The lift of ‘justice delivery system’ is substantially ‘out of order’ and needs complete overhauling.
Violation of judicial discipline
Hon’ble Justice B.N. Agrawal, Harjit Singh Bedi and G.S. Singhvi of Supreme Court pointed out that “there have been several instances of different Benches of the High Courts not following the judgments/orders of coordinate and even larger Benches. In some cases, the High Courts have gone to the extent of ignoring the law laid down by this Court without any tangible reason. Likewise, there have been instances in which smaller Benches of this Court have either ignored or bypassed the ratio of the judgments of the larger Benches including the Constitution Benches. These cases are illustrative of non-adherence to the rule of judicial discipline which is sine qua non for sustaining the system.” (Official Liquidator Vs Dayanand and Others (2008) 10 SCC 1)
Hon’ble Justice G.S. Singhvi further explained “We are distressed to note that despite several pronouncements on the subject, there is substantial increase in the number of cases involving violation of the basics of judicial discipline. The learned Single Judges and Benches of the High Courts refuse to follow and accept the verdict and law laid down by coordinate and even larger Benches by citing minor difference in the facts as the ground for doing so. Therefore, it has become necessary to reiterate that disrespect to constitutional ethos and breach of discipline have grave impact on the credibility of judicial institution and encourages chance litigation. It must be remembered that predictability and certainty is an important hallmark of judicial jurisprudence developed in this country in last six decades and increase in the frequency of conflicting judgments of the superior judiciary will do incalculable harm to the system inasmuch as the courts at the grass root will not be able to decide as to which of the judgment lay down the correct law and which one should be followed. We may add that in our constitutional set up every citizen is under a duty to abide by the Constitution and respect its ideals and institutions. Those who have been entrusted with the task of administering the system and operating various constituents of the State and who take oath to act in accordance with the Constitution and uphold the same, have to set an example by exhibiting total commitment to the Constitutional ideals. This principle is required to be observed with greater rigour by the members of judicial fraternity who have been bestowed with the power to adjudicate upon important constitutional and legal issues and protect and preserve rights of the individuals and society as a whole. Discipline is sine qua non for effective and efficient functioning of the judicial system. If the Courts command others to act in accordance with the provisions of the Constitution and rule of law, it is not possible to countenance violation of the constitutional principle by those who are required to lay down the law.” (2008 (10) SCC 1)
Two-Judges questioned the seven-Judges Bench judgment
It is worth mentioning that in Coir Board, Ernakulam vs. Indira Devi P.S. (1998 (3) SCC 259), a two-Judges Bench doubted the correctness of the seven-Judges Bench judgment in Bangalore Water Supply & Sewerage Board vs. A. Rajappa (1978 (2) SCC 213) and directed the matter to be placed before Hon'ble the Chief Justice of India for constituting a larger Bench. However, a three-Judges Bench headed by Dr. A.S. Anand, C.J., refused to entertain the reference and observed that the two-Judges Bench is bound by the judgment of the larger Bench - Coir Board, Ernakulam, Kerala State vs. Indira Devai P.S. (2000 (1) SCC 224).
Authoritarian anxiety to do (in)justice
Hon’ble Justice R. Raveendran and P. Sathasivam of Supreme Court has advised that “courts should avoid the temptation to become authoritarian. We have been coming across several instances, where in their anxiety to do justice; courts have gone overboard, which results in injustice, rather than justice. It is said that all power is trust and with greater power comes greater responsibility.”(S.Palani Velayutham & Ors. Vs Dist.Collector,Tirunvelveli,T.Nadu, 2009 (9) SCC 664)
When ‘temptations’ takes over courts/ judges are bound to be authoritarian and even in anxiety to do justice, they often breed injustice in the process of satisfying their super and inflated ego or illusion of supremacy.
Quality and certainty is soul-mate of law
Judicial discipline is self-discipline. Judicial propriety and decorum demands that if a Single Judge or Division Bench is inclined to take a different view, than earlier decisions of the same court (High Court or Supreme Court), he/ they should place the relevant papers before the Chief Justice to constitute a larger bench to examine the question of law. This is the minimum discipline and decorum to be maintained by judicial fraternity. That is the only proper way to deal, which is founded on basic principles of judicial decorum and propriety. Without certainty and consistency in enunciation of legal principle in judicial decisions, organic development of law is impossible.
Quality and certainty is soul-mate of law. Certainty of law can’t be sacrificed and judicial decorum or legal propriety must be respected at all costs. The quality would totally disappear, if Judges start overruling one another's decisions. It will create utter confusion for lawyers and litigants and embarrassing position for other judges which would certainly be detrimental to justice delivery system. The lawyers would be in a predicament, Sub-ordinate courts in an embarrassing position and the general public in a dilemma.

Monday, May 2, 2011

CASTRATION & OFFENDERS OF SEXUAL VIOLENCE

CASTRATION & OFFENDERS OF SEXUAL VIOLENCE
ARVIND JAIN
Expressing serious concerns over the spurt in rape and sexual abuse cases in Delhi, which is likely to spark a debate in media Additional Sessions Judge (Rohini) Kumari Kamini Lau has said that the lawmakers should explore the possibility of awarding punishment in form of surgical or chemical castration in rape cases.
Sentencing a man Dinesh Yadav to 10 years’ rigorous imprisonment for raping her 15 years old step-daughter over four years, she said an alternative punishment for rape should be put in place as it is the “crying need of the hour”.
ASJ Lau also directed that a copy of the order be sent to the Secretary, Ministry of Law & Justice, chairpersons of the National Commission for Women and the Delhi Commission for Women.
While many developed countries use chemical castration as an alternative to life-long imprisonment, the Indian government has neglected the issue. Ironically, the Indian legislatures are yet to take ... address the issue with all seriousness by exploring the possibility of permitting the imposition of alternative sentences of surgical castration or chemical castration in cases involving rape of minors, serial offenders ...or as a condition for probation, or as an alternative sentence in case of plea bargaining...jurists the world over are undivided in their view that chemical castration is required to be mandated for incestuous offenders, repeat sex offenders, pedophiles and molesters,” the court said.
DELHI HIGH COURT REJECTED CASTRATION IN 1995
Around 20 years back Shri S.M.Aggarwal, ASJ in a case of raping a three and a half years old girl also proposed for voluntarily castration under order from the Hon’ble High Court and for remission of the remaining sentence. In appeal Hon’ble Justice P.K.Bahari and S.D.Pandit of Delhi High Court [Jagdish Prasad Sharma Vs State [57 (1995) DLT 761 DB] rightly observed “Before we part with this case, we may mention that learned Additional Session Judge was not right in proposing voluntary castration of appellant under the orders of the High Court and for remission of his remaining sentence because this part of the order of the Additional Session Judge is totally illegal. The justice has to be administered according to the Law as it prevails and not on the hypothesis as to what should be the law for curbing such heinous crimes. There is no provision in any law that if a particular accused of a rape case voluntarily undergoes castration, then the minimum sentence prescribed by the statute is to be remitted by any court. The sentences have to be given as laid down by the Legislature. The Additional Session Judge ought to have restrained himself from proposing any such action which not in consonance with law.”
HIGH COURT WILL FOLLOW PRECEDENT OR ENDORSE PROPOSAL?
It seems that learned ASJ was not apprised with the aforesaid judgment of Hon’ble Delhi High Court before delivering such order.1995 judgment of high court has shed enough light on such serious and ambitious proposals. Needless to state that ASJ’s order was declared ‘illegal’ and Mr. Aggarwal, learned ASJ was advised to ‘have restrained himself from proposing any such action, which not in consonance with law’. Its beyond anybody’s guess that if an appeal is preferred against the order of Ms. Lao, the Hon’ble judges of High Court will follow its old precedent or endorse the suggested ‘innovative proposal’.
CASTRATION IS UNCONSTITUTIONAL
It is worth mentioning that Supreme Court of Carolina also voids castration in rape case .The South Carolina Supreme Court ruled recently that castration is unconstitutional form of “mutilation” and ordered three black convicted rapists to be resentenced because they had been given the choice of castration or 30 years of imprisonment. The Justices ruled that circuit Judge Victor Pyle’s sentence was void because castration was ‘cruel and unusual punishment’ prohibited by state constitution.
CASTRATE PERPETRATORS OF RAPE
Firebrand former Zanu PF Member of Parliament, Margaret Dongo, pleaded that the new constitution should include provisions to castrate perpetrators of rape. Dongo said “any form of law that resembles shariah should be pushed through to deter would be offenders and unrepentant traditionalists who are complicit in the commission of rape.”

“I am calling upon all women to make sure that they put pressure on the new constitution to include castration of rapists. Perhaps the move could deter rapists from engaging in such activities that have left many scarred and traumatized families in Zimbabwe. Rape victims will never regain their lives after the dastard act which ranks among the most heinous crimes ever committed on human beings. I implore the Parliamentarians to make sure that the girl child interests and indeed the interests of the women are protected. The law should also include traditional healers involved in rituals that influence men to go out and rape. The current laws have proved to be ineffective. Stiffer penalties in the form of castration will mitigate the problem. We should look back and see where we are going wrong. Rape has caused untold suffering in our society. It has no place and should never be allowed,’’ said the fiery Dongo.
Zimbabwean women cry over rising rape cases of minors
“It’s not a bad idea, men are abusing the tool that is not meant for force, power and control.” said Bongi Sibanda, programmes manager for a women’s rights group. Girl Child Network, a local organisation that promotes the rights of girls, says 95 per cent of all rape cases involving minors are perpetrated by men against young girls. The minister of women’s affairs, gender and community development, Olivia Muchena, initiated the debate recently and said “we need to seriously look at the option of castration for those who rape minors just as we have different levels of punishment, the same should be applied on those who rape children. How do you rape a child? It should be treated like first degree murder and have castration as part of punishment.”
She said “I therefore believe that castrating these rapists is the way to go so that we send a loud and clear message to those contemplating rape to refrain from the evil act. It is regrettable that in most cases of sexual abuse of minors, close relatives are the culprits. As a result, cases are often covered up and the abused minor seldom speaks out for fear of being thrown out of their home. Rape leaves an emotional scar on the victim for life and I see no reason why someone who causes a lifelong emotional, sometimes physical injury on a minor cannot be made to suffer for life as well.”
Conclusion
No doubt that the increase in rape cases are directly linked to the lax attitude of society; failing to translate their outrage into action and coming up with the kind of extreme penalty that would serve as a deterrent but according to our superior courts the proposal to castrate rapists is illegal, unconstitutional, too harsh, vindictive and violation of the basic fundamental rights of convicts enshrined under Article 21 of the Constitution of India. Certainly law needs radical change in language, its interpretation, prospective, vision and farsightedness to protect and grant security to helpless children from wolves in the society but who will bell the cat? When and how?

Wednesday, April 27, 2011

शादी का झूठा आश्वासन यौन शोषण

राष्ट्रीय सहारा (आधी दुनिया) २७.४.२०११
शादी का झूठा आश्वासन यौन शोषण


अरविंद जैन
अधिकतर रेप के मामले अनियंत्रित यौन-वासना को संतुष्ट करने के लिए सावधानी से रचे होते हैं और कामुक फिल्मी छवियों का एहसास और फैंटेसी का एकमात्र उद्देश्य महिलाओं पर हावी होना है। दरअसल, वास्तविक बलात्कार या 'डेट रेप' करने से पहले बलात्कारी के दिमाग में नशे की तरह कई बार रिहर्सल होता है। सदा ही पीड़िता को ही दोषी ठहराया और अपमानित किया जाता है और खुद के परिजनों द्वारा 'कथित फेमिली ऑनर एंड रिप्यूटेशन' के लिए भी अपमानित किया जाता है। शादी का झांसा देकर किसी लड़की के साथ शारीरिक रिश्ते बनाना और बाद में शादी के बंधन में बंधने से मना करना बलात्कार के दायरे में जाता है, वह भी तब जब लड़के का लड़की से शादी करने का कोई इरादा न हो। हम इसे 'शादी की आड़ में यौन शोषण' कह सकते हैं। अधिकतर लड़के शादी का झांसा देकर शारीरिक रिश्ते बनाते हैं और तब तक बनाते रहते हैं जब तक लड़की गर्भवती नहीं हो जाती। कुछ समय बाद गर्भपात कराना भी मुश्किल हो जाता है और फिर ये बातें परिवार और पड़ोसियों की नजर में आ ही जाती हैं। बाद के अधिकतर मामलों में दोषियों के खिलाफ मामले दर्ज होते हैं। भारतीय अदालतों ने कई बार सवाल उठाए हैं- 'किसी लड़की से शादी का झूठा वायदा करके शारीरिक रिश्ते बनाना गलत सहमति है या नहीं? यदि वह बलात्कार नहीं है तो यह धोखेबाजी है या नहीं?'
शादी के झूठे वादे देकर बालिग लड़की की सहमति से तब तक शारीरिक रिश्ते कायम करना, जब तक कि वह गर्भवती न हो जाए, तो इसे स्वच्छंद संभोग कहा जाएगा
जयंती रानी पांडा बनाम पश्चिम बंगाल सरकार और अन्य के मामले में कलकत्ता हाईकोर्ट ने स्थानीय गांव के उस स्कूल शिक्षक को दोषी ठहराया, जो पीड़िता के घर जाता था। पीड़िता के मां-बाप की अनुपस्थिति में उसने उसके करीब जाकर अपने प्यार का इजहार किया और शादी करने की इच्छा जताई। पीड़िता भी तैयार हो गयी और उसने आरोपी से वायदा किया कि अपने माता-पिता की समर्थन मिल जाने के साथ ही वह उससे शादी कर लेगा। इस आश्वासन के बाद आरोपी पीड़िता के साथ शारीरिक रिश्ते बनाने लगा। यह सिलसिला कई महीनों तक चला। इस अवधि में आरोपी ने कई रातें उसके साथ गुजारीं। आखिरकार जब वह गर्भवती हो गई और जोर देने लगी- अब हमें जल्द से जल्द शादी कर लेनी चाहिए तो आरोपी ने उस पर गर्भपात कराने का दबाव डालकर बाद में शादी करने पर सहमति जताई। पीड़िता ने उसकी बात नहीं मानी और आरोपी अपने वादे से मुकर गया, यहां तक कि उसने पीड़िता के घर आना-जाना बंद कर दिया। इसका अर्थ यह है कि अगर बालिग लड़की शादी के वादे के आधार पर शारीरिक रिश्ते को राजी होती है और तब तक इस गतिविधि में लिप्त रहती है जब तक कि वह गर्भवती नहीं हो जाती, यह उसकी ओर से स्वच्छंद संभोग (प्रॉमिस्क्यूटी) के दायरे में आएगा। ऐसे में, तथ्यों की गलत इरादे से प्रेरित नहीं कही जा जाएंगी। आईपीसी की धारा-90 के तहत कुछ नहीं किया जा सकता, जब तक अदालत आश्वासन न दे दे कि रिश्ते बनाने के दौरान आरोपी का इरादा शादी करने का नहीं था। (1984 सीआरआई.एल.जे. 1535, हरि माझी बनाम राज्य : 1990 सीआरएल.एल.जे. 650 और अभ्ॉय प्रधान बनाम पश्चिम बंगाल राज्य : 1999 सीआरएल.एल.जे 3534)
शादी का झूठे वायदे को लेकर दिया गया सोचा-समझा पल्रोभन महज धोखाधड़ी बंबई हाईकोर्ट के न्यायाधीश बी. बी. भग्यानी ने कहा कि ऐसे मामले काफी कम ही ध्यानार्थ सामने आते हैं कि आईपीसी की धारा-415 के तहत धोखाधड़ी को अपराध के दायरे में परिभाषित किया गया है। याचिका को निरस्त करने के निर्णय के दौरान न्यायाधीश भग्यानी ने माराह चंद्र पॉल बनाम त्रिपुरा राज्य की सुनवाई (1997 सीआरआई 715) को ध्यान में रखा और इस पर कायम रहे कि पीड़िता को जानबूझ कर शादी के वादे के झांसे में रखकर शारीरिक रिश्ते बनाने के लिए उकसाया गया था। याचिकाकर्ता-अभियुक्त के कार्य निश्चित रूप से शरीर, मन और सम्मान को क्षति पहुंचाने की वजह हैं। शादी का झूठा वायदा कर जानबूझकर दिए गए पल्रोभन के बाद याचिकाकर्ता और आरोपी के शारीरिक रिश्ते 'धोखाधड़ी' की परिभाषा के तहत 'शरारत'
के दायरे में आते हैं, जैसा आईपीसी की धारा-415 के तहत परिभाषित किया गया है और जो आईपीसी की धारा-417 के तहत दंडनीय है। (आत्माराम महादू मोरे बनाम महाराष्ट्र राज्य (1998 (5) बीओएम सीआर 201 आदेश- दिनांक 13/11/1997) (शेष पेज 2 पर)
धोखाधड़ी
जयंती रानी पांडा मामले में पटना हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति राम नंदन प्रसाद ने कहा कि मामले से जुडे तथ्यों को देखते हुए पाया गया कि बलात्कार अपराध से अलग नहीं है। शादी के झूठे वायदे की आड़ में लड़का आरोपी को धोखे में रखकर लगातार शारीरिक रिश्ते बनाता रहा, लेकिन झूठे वादे की आड़ में वह शारीरिक रिश्ते कायम करने के लिए राजी नहीं थी। याचिकाकर्ता का दायरा, इसलिए आईपीसी की धारा-415 के तहत धोखाधड़ी के रूप में परिभाषित है और आईपीसी की धारा-417 के तहत प्रथम-दृष्ट्या अपराध सिद्ध होता है। धोखाधड़ी के इस कृत्य के अलावा, याचिकाकर्ता और दूसरे आरोपियों पर डराने-धमकाने में लिप्त रहने का आरोप लगाने और शिकायतकर्ता और उसके माता-पिता को डराने के मामला भी आईपीसी की धारा-506 और 323 के तहत अपराध है। (मीर वाली मोहम्मद उर्फ कालू बनाम बिहार सरकार (1991 (1) बीएलजेआर 247 आदेश दिनांक 2/7/1990)
परिवार की ओर से सच्चा दबाव
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति पी. वेंकटरमन रेड्डी और पीपी नेवलेकर ने 03.11.2004 को फैसला सुनाया- 'हमें इसमें संदेह नहीं कि आरोपी ने लड़की से शादी का वायदा किया था और इसी प्रभाव से लड़की ने उसके साथ शारीरिक रिश्ते भी बना लिया। लड़की भी उससे शादी करने को उत्सुक थी, जैसाकि उसने खासतौर पर कहा भी। लेकिन हमारे पास बात के कोई सबूत नहीं हैं कि किसी ठोस संदेह के हम इस संदर्भ में यह कह दें कि आरोपी का शुरू से ही लड़की के साथ विवाह का कोई इरादा नहीं था और यह कि लड़के ने जो वायदा किया, वह उसकी जानकारी के मुताबिक झूठा था। इसके विपरीत, बाद में लड़की का यह बयान कि आरोपी उससे विवाह करने को तैयार हो गया था लेकिन उसके पिता और दूसरे लोगों ने उसे गांव से दूर ले गये। इससे संकेत मिलता है कि आरोपी असल में विवाह का इरादा तो रखता था लेकिन परिवार के बड़े-बुजुगरे के दबाव में ऐसा नहीं कर पाया। यह विवाह करने के वायदे को लेकर वायदा खिलाफी का मामला प्रतीत होता है, न कि विवाह के झूठे वायदे का मामला।' (दिलीप सिंह उर्फ दिलीप कुमार बनाम बिहार राज्य, 2005 (1) सुप्रीम कोर्ट 88)।
निंदनीय कृत्य के एवज में पचास हजार
न्यायमूर्तियों ने हालांकि, गौर किया कि याचिकाकर्ता ने अपने विरुद्ध लगे आरोप में संदेह का लाभ लेते हुए दंड कानून के दायरे से खुद को अलग कर लिया। लेकिन, हम उसके निंदनीय आचरण को अनदेखा नहीं कर सकते, क्योंकि उसने पीड़ित लड़की से विवाह का वायदा कर उसे शारीरिक रिश्ते बनाने के लिए फुसलाया, जिसके चलते वह गर्भवती हो गयी। आरोपी के इस कृत्य से लड़के को काफी दुख हुआ, यहां तक कि उसकी बदनामी हुई, जिससे वह सदमे में पहुंच गयी। आरोपी इस नुकसान का दोषी है और वह मुकदमा खत्म करने के लिए लड़की को पचास हजार रुपये खुशी-खुशी देने को राजी हो गया।
लड़की की कम उम्र ज्यादा संवेदनशील
विश्लेषण करने पर पता चला कि जिस समय यह सब हुआ, जयंती रानी पांडा की आयु 21- 22 साल थी, जबकि येदला श्रीनिवास राव के मामले में लड़की की आयु 15 से 16 साल के बीच थी। यह साक्ष्य का मामला है कि लड़की से झूठे वायदे करके उसकी सहमति या उसकी राय की गयी और आरोपित को पता था कि वह कभी अपने वायदे को पूरा करने का इरादा नहीं रखता। यदि आरोपी कम उम्र की लड़की को फुसलाकर उससे विवाह करने का वायदा कर ले, तो ऐसे में यह उसकी सहमति नहीं होती, बल्कि फुसलाकर किया गया कृत्य होता है और आरोपी शुरू से ही अपने वायदे को पूरा करने का इरादा नहीं रखता। ऐसी कपटपूर्ण सहमति को सहमति नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अपराध के लिए हामी भराना आरोपी का अपराध है।

पर्याप्त समझ, महत्व और नैतिक गुण
उदय बनाम कर्नाटक सरकार के मामले में 19.2.2003 को सुप्रीम कोर्ट ने दृढ़तापूर्वक कहा कि कोई कड़ा फामरूले नहीं रखा जा सकता कि पीड़िता ने स्वैच्छिक सहमति से ही रिश्ते बनाए हों या किसी गलत इरादे के अंतर्गत है लेकिन निम्नलिखित मामले सामने होते हैं : क) यदि लड़की की उम्र 19 साल है और उनमें इस करतूत के महत्व और नैतिक गुण की पर्याप्त समझ है, उसकी सहमति मानी जाएगी। ख) उसे मालूम है कि जाति के आधार पर उनकी शादी होने में परेशानी है। ग) याचिकाकर्ता के संज्ञान में यह आरोप लगाना काफी मुश्किल है कि उसके वायदे से पैदा हुई गलतफहमी के चलते पीड़िता राजी हुई थी और घ) इस मामले में साबित करने का कोई साक्ष्य नहीं है कि आरोपी का पीड़िता से शादी करने का कभी इरादा नहीं था।
भावनाओं और नाजुक पलों में जुनून से जुड़े मामले
न्यायाधीश एन. संतोष हेगड़े और बी. पी. सिंह ने गंभीर संदेह जताया था कि शादी के वादे के चलते आरोपी पीड़िता पर शारीरिक रिश्ते बनाने के लिए दबाव डाल सकता है, क्योंकि वह जानती है कि जाति के आधार पर आरोपी के साथ उसकी शादी नहीं हो सकती और दोनों परिवारों के सदस्यों का विरोध झेलने के लिए मजबूर होंगे। वह पूरी तरह जानती है कि अपीलकर्ता द्वारा किये के बावजूद शादी नहीं हो सकती। हालांकि अपीलकर्ता के पास ऐसा विश्वास करने के कारण हैं क्योंकि जब भी वे मिलते हैं, एक-दूसरे को बहुत प्यार करते हैं, वह उस लड़के को काफी छूट देती है, जिससे वह बेहद प्यार करता है, सिर्फ उसी के लिए ऐसी छूट भी है। याचिकाकर्ता लड़की ने रात 12 बजे सुनसान जगह पर चुपचाप गयी। जब दो लोग जवान हों, तो आमतौर पर ये होता ही है कि वे सभी अहम बातों को भुलाकर जुनून में आकर प्यार कर बैठें, खासकर तब जब वे कमजोर क्षणों में अपनी भावनाओं पर काबू न कर पायें। ऐसे में, दोनों के बीच शारीरिक रिश्ते कायम हो ही जाते हैं। लड़की स्वेच्छा से लड़के के साथ रिश्ते कायम करती है, वह उस लड़के से बेहद प्यार करती है, इसलिए नहीं कि उस लड़के ने उससे शादी के वायदा किया था, बल्कि इसलिए कि लड़की ऐसा चाहती भी थी। (सुप्रीम कोर्ट 46 2003 (4))
शुरू से ही शादी का इरादा नहीं
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एके माथु र और अल्तमस कबीर ने 29.09.2006 को फैसला सुनाया- 'हम संतुष्ट हैं कि आरोपी ने उसे राजी करते हुए सबकुछ किया, लेकिन वह ऐ च्छिक भी नहीं था क्योंकि याची ने शादी करने जैसा वायदा करके उसे फुसलाया। कानून इसकी इजाजत नहीं देता। पीड़ित लड़की और गवाहों की गवाही से पूरी तरह स्पष्ट होता है कि गवाह पंचायत की तरह काम कर रहे थे। आरोपी ने पंचायत के समक्ष स्वीकार किया कि उसने लड़की के साथ शादी करने का वायदा कर उसके साथ शारीरिक रिश्ते बनाये लेकिन पंचायत के समक्ष वायदे करने के बावजूद वह पलट गया। इससे पता चलता है कि आरोपी का शुरू से ही लड़की से विवाह करने का कोई इरादा नहीं था और वह पीड़िता से शादी करेगा, इसका झांसा देकर उसने शारीरिक रिश्ते बनाये। अतएव, हम संतुष्ट हैं कि प्रतिवादी को सजा देना न्यायसंगत है। हमारे निष्कर्ष के मुताबिक, कोई मामला नहीं बनता। अपील खारिज की जाती है।' (यादला श्रीनिवास राव बनाम आंध्र प्रदेश राज्य, आपराधिक अपील 1369, 2004) माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे मामलों में लड़की की उम्र, उसकी शिक्षा और उसके सामाजिक स्तर और लड़के के मामले में भी इन्हीं सब पर गौर किया जाना जरूरी है। याची लड़की स्वयं इस कृत्य में बराबर की भागीदार है। वह इस मामले में प्रतिवादी को माफ करना चाहती है लेकिन एक गरीब लड़की के मामले में ऐसे हालात में जबकि उसके पिता की मौत हो गयी हो, तो वह समझ नहीं पा रही कि किन हालात के चलते वह ऐसे कृत्य में फंस गयी और जब आरोपी ने उससे शादी का वायदा किया, लेकिन शुरू से ही वह शादी करने का इरादा नहीं रखता था। ऐसे में, लड़की के हामी भरने की कोई अहमियत नहीं है। उससे गलतफहमी में हामी भरवाना धोखा है। इसे लड़की की मंजूरी नहीं माना जा सकता।
मासूम लड़की का शोषण
दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति वी के जैन ने 1 फरवरी, 2010 को आरोपी की जमानत याचिका खारिज करते हुए ऐसे आपराधिक कृत्य की निंदा करते हुए लिखा- 'इस पर गौर करने पर कि आरोपी ने शादी का झांसा देकर लड़की से शारीरिक रिश्ते बनाये, इस आशय से कि उससे विवाह का उसका कोई इरादा नहीं था, कोई बलात्कार का मामला नहीं बनता। यह न सिर्फ घोर निंदनीय कृत्य है बल्कि प्रकृति से भी आपराधिक है। यदि ऐसा हो ने रहने की अनुमति दी जाए, तो इससे इनसान अनैतिक और बे ई मानी बनेगा। जो भी इस इरादे से इस देश में आएगा, शादी का ढोंग रचाएगा और कमजोर वर्ग की लड़की से शारीरिक रिश्ते बनाने का दबाव डालकर उनका शोषण करेगा। उधर, लड़की को यकीन रहेगा कि वह उसके साथ शादी करेगा। उसे भी यही लगेगा कि जिससे भविष्य में शादी होनी है, वह पति बनेगा ही, कम से कम उससे शादी से रिश्ते रखने में कुछ भी गलत नहीं है। इस वायदे का हवाला देकर उसके साथ दुष्कर्म करके आरोपी आराम से जब चाहे, चलता बनेगा। ऐसे मौकापरस्त लोगों को लड़की की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने का लाइसेंस नहीं दे सकती। इस तरह तो शादी के पवित्र रिश्ते में भारतीय लड़की को डाल देना कोई दो दिलों का मेल नहीं है। बेसहारा लड़कियों का शोषण करने वाले ऐसे लोगों को बेखौफ बच निकलना हमारे ऐसे कानून का मकसद कभी नहीं हो सकता, जो इस घिनौने कृत्य के बाद ताउम्र जेल की सजा का हकदार है।' (निखिल पराशर बनाम राज्य)
बेसहारा या सेक्स-संबंधी असंतुष्टि
बंबई हाईकोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति बी. यू. वाहाने ने शिवाजी पुत्र श्रवण खैरनार बनाम महाराष्ट्र राज्य (1991) मामले में वयस्क लड़की द्वारा सहमति के हालात या शारीरिक रिश्ते बनाने में इच्छा से एक पार्टी बन जाने संबंधी दलील दी। विद्वान न्यायमूर्ति ने सामाजिक अनुभव के आधार पर स्पष्ट किया कि वयस्क लड़की से चालबाजी से उसकी सहमति ले ली जाए, वह भी तब जब वह बेसहारा और सेक्स को लेकर असंतुष्ट हो, उसे पैसे की जरूरत हो, इसलिए बहाने से उसे प्रभावित किया जाए या हामी भरने का हालात बनाये जाएं आदि में भारतीय औरतों की सोच को लेकर न्यायिक संदर्भ का हवाला दिया।
विवाह करने संबंधी वायदे के साथ सेक्स करना और गर्भवती होने पर पुलिस रिपोर्ट वर्ग, धर्म, क्षेत्र, आयु या सामाजिक स्तर संबंधी ज्यादातर मामले एक जैसे होने पर आदमी लड़की पर सेक्स के लिए दबाव बनाता है, विवाह करने का भरोसा देकर गर्भवती करता है, परिवार और पुलिस का रिपोर्ट के संदर्भ में बरी होने, संदेह का लाभ पाने या उच्च अदालत में सजा..अपील और इस तरह अंतिम न्याय मिलने में पांच से बीस साल लगना। ये वे मामले हैं, जो समूचे मामलों की नजीर भर हैं। (लम्बोदर बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य, 103 (2007) 399 सीएलटी और ज्योत्स्ना कोरा बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, 2008 के सीआरआर नं.2657)
कानूनी नजरिया उलझन भरा
इस खास संदर्भ में कानूनी राय और फैसले सीधे-सीधे बंटे हुए हैं और सहमति और तथ्यों के उलझाव में उलझे हुए हैं, क्योंकि कानून पूरी तरह पारदर्शी नहीं है और फैसले हर मामले के तथ्यों और हालातों के आधार पर होते हैं। न्यायिक राय को लेकर आमराय यही है कि विवाह का वायदा कर पीड़िता से शारीरिक रिश्ते की सहमति लेना कि भविष्य में वह विवाह करेगा, गलत तथ्यों के तहत ली गयी सहमति नहीं कही जा सकती। कुछ अदालतों का विचार है कि विवाह करने का झूठा वायदा करने को लेकर दी गयी कथित सहमति विवाह का राजीनामा नहीं है। इसके मुताबिक, विवाह के झूठे वायदे को लेकर पति-पत्नी जैसा शारीरिक रिश्ता बनाने संबंधी सहमति हासिल करना कानूनी नजरिये से सहमति ही नहीं है। ऐसे मामलों में सबसे कठिन काम यह साबित करना होता है कि आरोपी का शुरू से ही पीड़ित लड़की से विवाह करने का कोई इरादा नहीं था। वह कह सकता है कि मैं विवाह करना तो चाहता हूं लेकिन मेरा माता-पिता, धर्म, जाति, 'खाप' आदि इसके लिए अनुमति नहीं देते। औरत के खिलाफ अपराध संबंधी किंतु -परंतु को लेकर जब तक कानून में संशोधन नहीं होता, न्याय से जुड़े ऐसेकानूनी पेंच यूं ही कायम रहेंगे।