Wednesday, September 29, 2010

बचपन से बलात्कार

“बच्चे राष्ट्र कि बहुमूल्य संपत्ति हैं, देश का भविष्य हैं, समाज के कर्णधार हैं”.........मगर. भारत में पिछले कुछ सालों से बच्चों के साथ दुष्कर्म, यौन शोषण और अमानवीय उत्पीड़न के मामलों में लगातार वृद्धि हुई (हो रही) है. जब परिवार के भीतर ही यौन शोषण की खतरनाक मानसिकता फल-फूल रही हो तो बाहर क्या उम्मीद की जा सकती है? बच्चे संबंधों (पिता से लेकर गुरु तक) की किसी भी विश्वास योग्य छत के नीचे सुरक्षित नहीं रह गए हैं. मीडिया में लगातार बढ़ते सेक्स और अश्लीलता ने समाज के बीमार दिमागों की यौन कुंठाओं को, निर्धन और अबोध बच्चों के यौन शोषण की ओर अग्रसर किया है. भारत में अभी तक बाल यौन शोषण के लिए सैंद्धांतिक रूप में कोई विशेष कानून नहीं है और जो प्रावधान हैं- वो नाकाफी हैं. ‘बाल यौन शोषण सम्बंधी’ विधेयक, विधि मंत्रालय में ना जाने कब से धुल चाट रहा है.
महिला एवं बाल कल्याण मंत्री कृष्णा तीरथ ने पिछले सत्र में लोकसभा में बताया था कि वर्ष में 2005-2006 और 2007 में बच्चों के साथ दुष्कर्म के मामलों की संख्या क्रमश: 4026, 4721 और 5045 रही। पिछले साल मध्य प्रदेश में सर्वाधिक 1043 मामले दर्ज किये गये। इसके बाद महाराष्ट्र में 615, उत्तर प्रदेश में 471, राजस्थान में 406, में 398, छत्तीसगढ़ में 368 और आंध्र प्रदेश में 363 ऐसे मामले दर्ज किये गये, जबकि अरुणाचल प्रदेश में एक, नगालैंड में दो, अंडमान निकोबार, दादरा नागर हवेली एवं पुडुचेरी में तीन-तीन और मणिपुर में चार मामले पंजीकृत किए गए। २००८ से २०१० तक के आंकड़े इससे बेहतर नहीं बल्कि निराशाजनक ही सिद्ध होंगे.

आश्चर्येजनक है की हर साल मध्य प्रदेश बच्चों के साथ दुष्कर्म के मामलों में सर्वप्रथम रहता है. देश की राजधानी दिल्ली भी बच्चों के लिए सुरक्षित नहीं. बच्चों के यौन शोषण में बढ़ोतरी का (लगभग १२% अधिक) एक मुख्य कारण यह भी है की वे प्रतिरोध नहीं कर पाते. इधर किशोरों द्वारा भी बच्चों के विरुद्ध यौन अपराध के मामले बढ़ रहे हैं जो सचमुच चिंताजनक हैं.
इक्का दुक्के मामलों को छोड़ कर, बच्चियों से बलात्कार और हत्या के संगीन अपराधों में भी, सजाए मौत की बजाये उम्र कैद या दस साल तक कैद की ही सजा सुनाई गयी है. अधिकाँश अपराधी तो संदेह का लाभ पाकर बाइज्जत बरी हो या कर दिए जाते हैं. पुलिस से लेकर अदालत तक पूरी न्याय व्यवस्था अपराधियों के बचाव में ही खड़ी दिखाई देती है. सालों कोर्ट कचहरी करने के बाद पता चलता है की अभियुक्त को इस आधार पर या उस आधार पर छोड़ दिया गया है.कुछ मामलों में तो शाम तक कोर्ट में खड़ा रहने की सजा तक सुनाई गयी है.
नाबालिग लड़के द्वारा लड़की को बहला फुसला कर विवाह (अपहरण और बलात्कार) करने के एक मामले में पिछले दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति बी.डी. अहमद और वी. के. जैन ने फैसला सुनाया है कि बाल विवाह गैर कानूनी नहीं है, अपहरण और बलात्कार कि एफ. आई. आर रद्द कि जाती है और लड़का भले ही नाबालिग है मगर हिन्दू कानून के अनुसार अपनी पत्नी का प्राक्रतिक संरक्षक है सो नाबालिग पत्नी के संरक्षण का भार उसे ही दिया जाना चाहिए. यह ऐसा पहला और अंतिम निर्णय नहीं है. इससे पहले के केसों कि लम्बी-चोडी लिस्ट मौजूद है. हाई कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक.
दरअसल स्त्रियों और बच्चों की सुरक्षा सरकार की प्राथमिकता में कहीं दिखाई नहीं दे रही.समाज से संसद तक इन गंभीर मुद्दों पर चुप्पी का षड्यन्त्र पसरा हुआ हैं। बाल अधिकारों पर समुचित कानून बनाने से लेकर उनके क्रियान्वन तक कि फूलप्रूफ नीतियाँ और संस्थान स्थापित करने पर गंभीरता से विचार करना होगा. शिक्षा के संवैधानिक अधिकारों के नीचे पुख्ता जमीन तैयार किये बिना बाल यौन शोषण रोकना असंभव है. समय कि मांग है कि संसद शिघ्र ही भ्रूण हत्या से बाल विवाह कानून तक में आमूल-चूल संशोधन करे, इस से पहले कि बहुत देर हो जाये.

Friday, September 24, 2010

असहमति के अधिकार का हनन

प्रख्यात समाजशास्त्री और लेखक आशीष नंदी ने 8 जनवरी, 2008 को अंग्रेजी के एक राष्ट्रीय अखबार में गुजरात पर एक लेख लिखा। गुजरात की एक स्वयंसेवी संस्था ने उस लेख को आधार बनाकर आशीष नंदी के खिलाफ यह शिकायत दर्ज कराई कि उन्होंने गुजरात की गलत छवि पेश की है। इस शिकायत के आधार पर गुजरात सरकार ने आशीष नंदी के खिलाफ धारा 153 (ए) और 153 (बी) के तहत मुकदमा दायर कर दिया। लेकिन तब सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को आशीष नंदी को गिरफ्तार न करने का आदेश दिया। अब 1 सितंबर को दिल्ली हाईकोर्ट ने आशीष नंदी की गुजरात सरकार के उक्त मुकदमे को रोकने संबंधी याचिका खारिज कर दी है। प्रस्तुत है इस मसले और अभिव्यक्ति की आजादी पर एक टिप्पणी :

आजादी के पहले इस किस्म के मुकदमे गांधी, नेहरू, तिलक आदि नेताओं के खिलाफ भी हुए। ब्रिटिश हुकूमत अपनी राजसत्ता को बचाए रखने के लिए यह गुनाह कर रही थी। दुर्भाग्यवश आज भी हमारे देश में यह कानून है। किसी राजसत्ता से किसी के असहमति जताने का यह मतलब नहीं कि वह देशद्रोही है। लोकतंत्र में यदि असहमति को मान्यता नहीं मिलेगी तो फिर लोकतंत्र का क्या मतलब, जबकि देश में अलग-अलग मत, सिद्धांत, विचारधाराएं, नीतियां, रीति-रिवाज हैं।

संसद में, सरकार या किसी दल की नीतियों के विरोध को क्या अपराध कहा जाएगा? सार्वजनिक जीवन में रहकर कोई यह सोचे कि उसके खिलाफ कोई असहमति या विरोध ही न हो, ऐसा संभव नहीं है। लोकतंत्र की बुनियाद है असहमति। यदि आप असहमति का गला घोंट रहे हैं तो आप लोकतंत्र का भी गला घोंट रहे हैं। लोकतांत्रिक सरकार को विवेक से काम लेना चाहिए। जो सरकार अपने लेखकों, विद्वानों, कलाकारों का सम्मान नहीं करती, वह अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारती है। दरअसल यह सारा मामला राजसत्ता के विरोध में खड़े बुद्धिजीवियों की आवाज को कुचलने का है और यह काम भाजपा, कांग्रेस, वामपंथी, लालू, मुलायम, मायावती सभी सरकारों ने किया है।

आज किसी भी सरकार में अपनी आलोचना सुनने की हिम्मत नहीं है। इसीलिए आज राजसत्ता के विरोध का मतलब है तसलीमा को देशनिकाला, एमएफ हुसैन पर मुकदमेबाजी ताकि वे देश छोड़ने पर मजबूर हो जाएं और आशीष नंदी पर सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने का मुकदमा चलाकर जेल में बंद कर दो। यह आज आशीष नंदी के साथ हुआ है, कल मेधा पाटकर, महाश्वेता देवी आदि के साथ हो सकता है। डॉ. नंदी सारी उम्र अनेक विषयों पर जिस किस्म का लेखन करते रहे हैं, उन्हें पढ़ने के बाद यह सपने में भी नहीं सोचा जा सकता है कि लिखने के पीछे उनकी नीयत समाज में घृणा पैदा करना, दंगा-फसाद करवाना आदि होगा। यह हो ही नहीं सकता। सारा जीवन जिन्होंने समाज के लिए सामाजिक कल्याण के लिए न्योछावर कर दिया हो, उस पर इस किस्म का लांछन दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा।

हमारे सामने उनका जो विवादित लेख है, उस लेख को पूरा पढ़ा जाना चाहिए और उसकी पूरी पृष्ठभूमि के साथ पढ़ा जाना चाहिए। साथ ही उसमें जिन राजनीतिक स्थितियों का मूल्यांकन किया गया है, उसे भी समझने की जरूरत है। किसी लेख से दो लाइनें निकालकर उसके लेखक के खिलाफ मुकदमा दायर करना सही नहीं कहा जा सकता। भारतीय न्यायालयों के सामने इस तरह के बहुत सारे मामले पहले भी आए हैं (गुलाम सरवर, 1965, पटना हाईकोर्ट, ईश्वरी प्रसाद शर्मा, 1927, लाहौर हाईकोर्ट, ललाई सिंह यादव, 1971, इलाहाबाद हाईकोर्ट) जिनमें न्यायालय ने कहा है कि पूरे लेख या पूरी पुस्तक को पढ़कर ही निर्णय दिया जाना चाहिए।

यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने, अभिव्यक्ति का गला घोंटने और बुद्धिजीवियों को चुप कराने की कोशिश है। कानून को एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना गलत है। यह नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि जब हम अपनी सत्ता को बचाने के लिए कानून या राजसत्ता या अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हैं तो वह अपने आप में एक गैर-कानूनी और असंवैधानिक काम है।

मेरे हिसाब से यह कहना भी गड़बड़झाला है कि किसी लेखक को कह दिया जाए कि उसका लेख घृणा फैलाने वाला है और उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करवा दिया जाए। फिर न्यायिक व्यवस्था के तहत उसकी पुलिस जांच, गिरफ्तारी, कोर्ट-कचहरी की भागदौड़ आदि में सालों तक उलझा रहे लेखक। इतना ही नहीं, कानून की अपनी जअिलताएं हैं, जैसे कहां अपराध हुआ, कहां एफआईआर होगा, वगैरह। जिस राष्ट्रीय अखबार में लेख छपा, वह देश में दर्जनों जगहों से छपता है। देश में जहां-जहां भी वह पढ़ा गया, कानून के हिसाब से वहां-वहां एफआईआर होना चाहिए। अब लेखक एक ही लेख पर देश के हजारों शहरों में मुकदमे लड़ता रहे या फिर सुप्रीम कोर्ट में उन सारे मुकदमों को ट्रांसफर करवाए।

एक एनजीओ जब किसी लेखक के खिलाफ एफआईआर दर्ज करता है, तब उस पर जांच का आदेश देने से पहले सरकार का फर्ज नहीं बनता कि वह इस मामले की तहकीकात करे कि यह आपराधिक मामला बनता भी है या नहीं? काफी सोच-विचार के बाद ऐसा फैसला लिया जाना चाहिए। आशीष नंदी के इस लेख पर मुकदमा चलने की इजाजत देने से पहले क्या गुजरात सरकार ने किसी लीगल एक्सपर्ट से राय ली थी? मुकदमा चलाने के पहले उस लेख के पूरे आशय को पढ़ने की जरूरत थी।

अगर यह एफआईआर गलत दर्ज हुई है, कोई अपराध बनता है या नहीं, यह तो अदालत तय करेगी, लेकिन कानूनी प्रक्रिया से तो गुजरना ही पड़ेगा, जो बेहद तकलीफदेह हो सकती है। इसीलिए इस कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग के खिलाफ प्रेस और बुद्धिजीवियों को लड़ना पड़ेगा। इस लड़ाई का अंतिम फैसला सुप्रीम कोर्ट में होगा। हालांकि लेखकों को भी राजनीतिक टिप्पणियां करते समय भाषा का संयम बनाए रखना चाहिए ताकि कानूनी झमेला ना खड़ा हो। मैं समझता हूं कि आशीष नंदी के संपूर्ण लेखकीय योगदान और सामाजिक कार्यकलापों को देखते हुए इस मामले को उनकी पृष्ठभूमि, पूरे संदर्भ और खुली निगाह के साथ देखने की जरूरत है।(शनिवार,04 सितंबर, 2010 DAINIK BHASKAR)

Thursday, September 23, 2010

महिलाएं विवाह से बाहर निकलना चाहती हैं

महिलाएं विवाह से बाहर निकलना चाहती हैं
बदलते समय ने रिश्तों के मायने बदल कर रख दिए हैं। क्योंकि लोगों में हर स्तर पर जागरूकता बढ़ी है, इसलिए समाज में रिश्तों को लेकर भी नज़रिये में बदलाव साफ देखा गया है। आज की युवा पीढ़ी समाज के परंपरागत बंधनों को तोड़ रही है। क्योंकि जुडिशरी भी समाज का ही एक हिस्सा है इसलिए उसका निर्णय भी समाज से प्रभावित होता है।

हमारा समाज हमेशा से ही पुरुष प्रधान समाज रहा है और उसकी हर व्यवस्था पुरुष का ही समर्थन करती रही है। आज स्त्री समाज के बंधन तोड़ रही है और नई व्यवस्था का दामन थाम रही है। लड़कियां विवाह संस्था से बाहर निकलना चाहती हैं। स्त्रियां जैसे-जैसे शिक्षित होंगी वैसे-वैसे विवाह संस्था से दूर होती जाएंगी।

दरअसल महिला की देह पर कब्ज़े के लिए विवाह संस्था का गठन हुआ। पिछले दिनों माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हर बच्चा अपने पिता की जात से जाना जाएगा और वहीं दूसरे फैसले में कहा गया कि जात-पात को खत्म कर दिया जाए। न्यायपालिका में एक ही बात को लेकर विभिन्न मत हैं। दरअसल कानून की जटिल प्रक्रिया स्त्रियों की नई-नई समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार है। कानून ने स्त्रियों के साथ कोई बहुत अच्छा सुलूक नहीं किया है। बल्कि उनका मज़ाक ही बनाया है। कानूनों की बेहूदगी देखिए - 1975 में टर्मिनंसी ऑफ प्रेगनंन्सी ऐक्ट बना जिसमें कहा गया कि महिला पति की सहमति के बिना अपनी मर्जी से अबॉर्शन करा सकती है।

वहीं हिंदू मैरिज ऐक्ट मे कहा गया कि अगर पत्नी ऐसा करती है तो यह मेंटल क्रूअल्टि है और अगर पत्नी बिना बताए फैसला ले ले तो पति पत्नी को इस आधार पर तलाक दे सकता है। इस पर किसी कानूनविद ने बहस की ज़हमत तक नहीं उठाई कि इसकी आड़ में पति, पत्नी पर क्या क्या ज़ुल्म ढा सकता है।

इंडियन पीनल कोर्ट की धारा 497 में व्याभिचार के बारे में कानून है, जिसमें कहा गया है कि किसी दूसरे की पत्नी के साथ बिना उसके पति के सहमति से संबंध बनाना नाजायज़ है क्योंकि वह पति की संपत्ति है। वहीं दूसरी ओर लिखा गया है कि अगर विवाहित पुरुष किसी अविवाहिता या तलाकशुदा महिला से संबंध बनाता है तो वह सही है। अगर बात विवाह संबंधी कानूनों की करें तो 16 साल की लड़की अपनी मर्ज़ी से संबंध बना सकती है। अगर पत्नी 15 साल की है तो पति का उससे संबंध बनाना रेप नहीं माना जाएगा और अगर पत्नी 12 से 15 साल की है तो उससे संबंध बनाना बलात्कार माना जाएगा, जिसमें दो साल की सज़ा का प्रावधान है।

और वहीं किसी सामान्य लड़की के साथ रेप करने पर सज़ा का प्रावधान 7 साल रखा गया है, यानी एक ही जुर्म के लिए विवाह संस्था के तहत सज़ा का प्रावधान कम है।

विवाह संस्था के बने रहने से महिलाओं के खिलाफ अनेक अत्याचार हुए हैं। इसीलिए महिलाओं की रुचि विवाह संस्था में कम होती जा रही है। विवाह संस्था के टूटने का एक कारण यह है कि इसके तहत महिलाओं के खिलाफ हिंसा करने में पुरुषों को आसानी रहती है। क्योंकि घर की सारी ज़िम्मेदारियां महिलाओं के ज़िम्मे ही रहती हैं। लेकिन अब समीकरण बदल रहे है। महिलाओं ने अपने अधिकार मांगने शुरू कर दिए हैं। यही वजह है कि अब वह सामाजिक बंधनों का खुलकर विरोध कर रही हैं। और यहीं से एक नए समाज के गठन का रास्ता साफ होता है। यहीं से सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संरचना बदलेगी और पूंजी के समीकरण भी बदलेंगे और यह बदलाव ऐतिहासिक होगा। कानून को बदलते सामाजिक संदर्भ को ध्यान में रखकर खुली सोच से काम करने की ज़रूरत है।
बातचीत : शैलेन्द्र सिंह नेगी
(6 Jul 2008, 0000 hrs IST,नवभारत टाइम्स)
अब तो इस क़ानून की (परि)भाषा बदल दें!
१ सितम्बर 2010 को दिल्ली हाईकोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति एस. एन. ढींगरा ने एक केस का फैसला सुनाते हुए कहा कि किसी बेरोजगार व्यक्ति को अपनी परित्यक्ता पत्नी को गुजारा-भत्ता देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता है. कोर्ट ने कहा है कि लैंगिक समानता के मौजूदा युग में जब पत्नी भी सामान स्थिति में हो, किसी व्यक्ति को उसे गुजारा-भत्ता देने के लिए विवश नहीं किया जा सकता है. जस्टिस एस एन ढींगरा ने कहा है कि प्रचलित क़ानून के तहत एक पति को अपनी कमाई से परित्यक्ता पत्नी को गुजारा-भत्ता देना पड़ता है, लेकिन कोई क़ानून यह नहीं कहता है कि अलग रह रही पत्नी को पति तब भी गुजारा-भत्ता दे, जबकि वह कमाता भी नहीं हो. हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फ़ैसले को खारिज कर दिया, जिसमें एक बेरोजगार पति को अपनी परित्यक्ता पत्नी को हर महीने पांच हज़ार रुपये गुजारा भत्ते के तौर पर देने का आदेश दिया गया था.

जस्टिस ढींगरा ने पति को राहत देते हुए कहा कि कोर्ट पति से यह नहीं कह सकता कि वह चाहे भीख मांगे, उधार ले या चोरी करे, लेकिन अपनी पत्नी को गुजारा-भत्ता देना ही पड़ेगा . वह भी तब जब पत्नी पढी-लिखी और कमाने में सक्षम है. हाईकोर्ट ने कहा है कि इस मामले में पत्नी अपने पति के सामान पढी-लिखी है और एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करती थी , इसलिए वह अपने पति से गुजारा-भत्ता नहीं मांग सकती है, जिसके पास कोई नौकरी भी नहीं है.

मेरा मानना है कि भले ही पति बेरोजगार हो, यह उसकी नैतिक जिम्मेदारी है कि वो अपनी पत्नी और बच्चों के जीवन यापन के लिए प्रबंध करे. पत्नी के शिक्षित और नौकरी करने की क्षमता से इस पर कोई फर्क नहीं पड़ता. अगर पत्नी के पास जीवन यापन के लिए समुचित साधन नहीं है तो उसे पति से गुजारा-भत्ता लेने का अधिकार है. पति गुजारा-भत्ता देने से इस आधार पर नहीं बच सकता कि वह बेरोजगार है. गुजारा भत्ते के कानूनी प्रावधान ख़ासकर अपराध दंड प्रक्रिया की धारा -125 के अनुसार पत्नी, बच्चे और माता-पिता के पास अगर जीवन यापन के समुचित साधन नहीं हैं तो वो अपने पति, पिता या पुत्र से गुजारा-भत्ता ले सकते हैं. गुजारा-भत्ता पति की आमदनी और पत्नी की बुनियादी जरूरत के अनुसार तय किया जा सकता है.
लाहौर हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट ने गुजारा भत्ते से संबंधित अभी तक जितने फ़ैसले सुनाए हैं उनके अनुसार, महत्वपूर्ण यह नहीं है कि पत्नी कमा सकती है या नहीं बल्कि देखने वाली बात यह है कि उसके पास अपने जीवन यापन के समुचित साधन है या नहीं. अगर न्यायमूर्ति एस. एन. ढींगरा की इस न्यायिक विवेचना को सही माना जाए कि पति-पत्नी दोनों शिक्षित हैं और बेरोजगार हैं तो पति को गुजारा-भत्ता देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है- तो ऐसी स्थिति में कमाऊ पति भी कल यह कहेगा कि उसकी पत्नी शिक्षित है और कमा सकती है, इसलिए गुजारा-भत्ता किस बात का? दूसरी बात यह है कि भारत में जहां अधिकाँश महिलाएं अनपढ़ और अशिक्षित हैं, और कोई नौकरी या रोजगार उनके पास नहीं है, उनका क्या होगा? क्या उनके पतियों को भी यह छूट मिल जाएगी कि वे बेरोजगार हैं इसलिए गुजारा-भत्ता नहीं दे सकेंगे.

सच यह है कि हज़ारों शादीशुदा नौजवान भारत में बेरोजगार हैं. क्या उनकी अपनी पत्नी और बाल-बच्चे को पालने-पोसने की कोई ज़िम्मेदारी नहीं? हो सकता है कि न्यायमूर्ति ढींगरा जी की यह सोच महानगरों के साधनसंपन्न वर्ग के लिए सही हो, लेकिन देश भर के उन पुरुष प्रधान परिवारों की करोड़ों स्त्रियों को भुलाया नहीं जा सकता जो आज भी निर्धन-रेखा के नीचे जी रही हैं. शहरों-महानगरों में लाखों महिलाएं शिक्षित होने के बावजूद आज भी घरेलू कामकाज ही देखती हैं. न्यायमूर्ति ढींगरा का यह कहना कि हम लैंगिक समानता के युग में जी रहे हैं और भारतीय संविधान यौन, जाती, धर्म आदि के बावजूद सामान व्यवहार का अधिकार प्रदान करता है. तो मैं पूछना चाहता हूँ के संवैधानिक समानता के बावजूद क्या हमारे समाज में भी स्त्री और पुरुष के बीच बराबरी के रिश्ते हैं? घर से लेकर संसद तक स्त्रियाँ आज भी हाशिए पर खड़ी हैं- इस बात को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता. मैं यह याद दिलाना चाहता हूँ कि आपराधिक दंड प्रक्रिया की धारा 125 भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 (3) के अंतर्गत बनायी गयी है. संविधान के 15 (3) के अनुसार राज्य महिलाओं और बच्चों के हित में विशेष क़ानून बना सकता हैं. इसी अनुच्छेद 15 (3) के तहत 125 भारतीय दंड संहिता की संवैधानिक वैधता को सही ठहराया गया है. अगर स्त्री और पुरुष के बीच सामान संवैधानिक अधिकार होते तो इस क़ानून को बनाने की कोई जरूरत ही नहीं थी.

भारतीय सन्दर्भ में विवाह संस्था और पारिवारिक संरचना में पुरुषों की भूमिका और स्त्री की अधीनता और घरेलू गुलामी को कैसे भुलाया जा सकता है. यह सही है कि हर वैवाहिक मुकदमेबाजी के पीछे 'दहेज़ की मांग' और 'घरेलू हिंसा' मुख्य कारण नहीं है, और भी कारण हो सकते हैं लेकिन देश में दहेज़ हत्या, घरेलू हिंसा और यौन हिंसा के आंकड़े लगातार बढ़ते जा रहे हैं- यह भी सच है. आश्चर्यजनक यह है कि आजतक भारत में एक भी दहेज़ हत्या के मामले में दहेज़ हत्यारों को फांसी की सजा नहीं मिली है. फांसी की सजा जहां-जहां हुई भी उसे माननीय उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट ने उम्र कैद में बदल दिया. 1986 के बाद तो क़ानून में ही संशोधन कर दिया गया. जहां १९८६ से पहले दहेज़ हत्या के मामले धारा 302 में दर्ज होते थे, अब धारा 304 (बी) में दर्ज होते हैं. पहले फांसी की सज़ा हो सकती थी, लेकिन अब वो भी संभव नहीं क्योंकि धारा 304 (बी) में यह प्रावधान कर दिया गया है कि दहेज़ हत्या की अधिकतम सजा उम्रकैद होगी.

यह सच है कि समय बदला है, समाज बदला है लेकिन क़ानून अभी भी स्त्री के विरुद्ध इतने हत्यारे अर्थों में खड़ा है कि उसका बयान करना मुश्किल है. ऐसे दहशतजदा माहौल में आख़िरी उम्मीद और विश्वास सिर्फ और सिर्फ न्यायपालिका पर टिका है. ऐसे में माननीय न्यायमूर्तियों से देश की आम जनता की यही अपेक्षा है कि वे मौजूदा समाज मैं स्त्री की समस्याओं की तह में जा कर न्याय के नए रास्तों का निर्माण करें. गंभीरता पूर्वक सकारात्मक रूप से तमाम कानूनों की भाषा पर पुनर्विचार की जरूरत है और अब तक की गई न्यायिक परिभाषाओं पर भी. ससम्मान असहमति के साथ मेरे विचार से जब तक मौजूदा क़ानून व्यवस्था और न्यायिक प्रक्रिया में क्रांतिकारी आमूलचूल बदलाव नहीं होगा, तब तक यह निर्णय अखबार की सुर्खियाँ तो बन सकते हैं, समाज का सही दिशा में दिशानिर्देशन नहीं कर सकते. (शशिकांत के साथ बातचीत पर आधारित)