Monday, February 11, 2013

मेरिटल रेप में पति को छूट क्यों?

 राजेश चौधरी, नवभारत टाइम्स | Feb 9, 2013, 05.30AM IST नई दिल्ली।। 
मेरिटल रेप के मामले में कानून में दी गई छूट के बदलाव को लेकर दाखिल याचिका पर हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता ने दलील दी कि यह महिलाओं के मूल अधिकार में दखल है। महिला (पत्नी) की उम्र चाहे कोई भी हो, उसकी मर्जी के खिलाफ उसके साथ संबंध नहीं बनाया जा सकता। कानून में मेरिटल रेप के मामले को अपवाद के तौर पर रखा गया है और ऐसे मामले में पति के खिलाफ मुकदमा नहीं चलता। इस कानूनी प्रावधान में बदलाव होना चाहिए। इस मामले की अगली सुनवाई 15 मार्च को होगी। याचिकाकर्ता के वकील अरविंद जैन ने बताया कि याचिकाकर्ता की साढ़े 15 साल की बेटी घर से गायब हो गई थी। वह एक लड़के के साथ भाग गई थी। लड़की के पिता ने पुलिस को शिकायत की। लड़की बाद में बरामद हुई और लड़का पकड़ा गया। लड़की जब बरामद हुई, तब वह गर्भवती थी लेकिन वह अपने पिता के साथ नहीं जाना चाहती थी। उसे नारी निकेतन भेजा गया और वहां उसने बच्चे को जन्म दिया। इस मामले में लड़की के पिता की ओर से याचिका दायर कर कहा गया कि 15 साल से ऊपर की उम्र में पत्नी के साथ बनाए गए शारीरिक संबंध को रेप की श्रेणी में लाया जाना चाहिए। हाई कोर्ट में अरविंद जैन ने दलील दी कि रेप की परिभाषा में धारा-375 के तहत बताया गया है कि अगर 12 से 15 साल की उम्र की पत्नी के साथ रेप करता है, तो ऐसे मामले में दो साल तक कैद की सजा का प्रावधान है। लेकिन अब कानून में बदलाव कर ऊपरी सीमा 16 साल कर दी गई है और सजा बढ़ा दी गई है। इस तरह 16 साल से ज्यादा उम्र की पत्नी के साथ अगर उसका पति जबर्दस्ती संबंध बनाता है, तो वह रेप नहीं माना जाएगा। जबकि लड़की अगर शादीशुदा न हो और उसकी उम्र 18 साल से कम हो, तो उसकी मर्जी से भी संबंध बनाने पर उसे रेप माना जाएगा। उन्होंने दलील दी कि कानून में इस तरह के विरोधाभास हैं। हालांकि इस दौरान अदालत ने कहा कि घरेलू हिंसा कानून के तहत महिलाओं को प्रोटेक्शन मिला हुआ है और इसके तहत मुआवजा पाने, मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना या फिर सेक्सुअल प्रताड़ना के मामले में उसे प्रोटेक्शन है। इस पर याचिकाकर्ता के वकील ने दलील दी कि महिला के संवैधानिक अधिकार का सवाल है। घरेलू हिंसा कानून के तहत प्रोटेक्शन काफी नहीं है।

Wednesday, October 17, 2012

यौन हिंसा की शिकार दलित कन्याएं

राष्ट्रीय सहारा, आधी दुनिया, १७.१०.२०१२

 हरियाणा के जिला जींद के सच्चा खेड़ा गांव में बीते हफ्ते, एक दलित परिवार की १६ वर्षीय किशोरी के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ. बर्बर दुर्घटना के बाद लड़की ने, खुद पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्मदाह कर लिया. बलात्कार की शिकार किशोरी के परिवार के ज़ख्मों पर मरहम लगाने पहुंची कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पत्रकारों से कहा कि इस तरह की घटनाएं बढ़ी हैं लेकिन ऐसा सिर्फ हरियाणा में नहीं, देश के सभी राज्यों में भी हैं। सोनिया ने दोषियों को सख्त सजा देने की बात कही मगर जिम्मेवारी कानून और न्यायपालिका के गले में बांध दी. सनद रहे कि 2010 में मिर्चपुर प्रकरण के बाद, राहुल गांधी पीड़ित परिवार को दिलासा देने पहुंचे थे.
 अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग के चेयरमैन पी.एल. पूनिया ने हरियाणा को 'बलात्कार प्रदेश' के नाम से नवाज़ा है किन्तु सगोत्र और प्रेम विवाहों पर तालिबानी फरमान जारी करनें वाली कुछ खाप पंचायतों ने बलात्कार रोकने के लिए सुझाव दिया है कि अगर लड़कियों कि शादी की उम्र १८ साल से घटाकर १६ साल और लड़कों की उम्र २१ से घटाकर १८ कर दी जाए, तो बलात्कार के मामलों में कमी हो सकती है. हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला ने भी खाप पंचायत के प्रस्ताव का समर्थन करते हुए कहा है कि "मुगलों के शासनकाल में भी हमलावरों से बेटियों को बचाने के लिए उनकी शादी छोटी उम्र में कर दी जाती थी. हमें भी इतिहास से सबक लेना चाहिए और खाप पंचायतों के इस अच्छे फैसले को मान लेना चाहिए".

 समझ नहीं आ रहा कि हरियाणा के सामजिक और राजनैतिक विवेक को आखिर हो क्या गया है? क्या आर्थिक समृधि की अफीम, राज्य की आत्मा तक को निगल गई है? चौटाला जी ! इस देश में ३ महीने कि बच्ची से लेकर ७० साल कि वृद्ध महिला तक से बलात्कार के मामले सामने आये हैं और आप हैं कि वोटों कि राजनीति के लिए ऐसे शर्मनाक बयान दे रहे हैं. शुक्र है कि आप हरियाणा के मुख्यमंत्री नहीं हैं(अब) वरना न जाने क्या करते-करवाते. सोनिया गांधी के जींद दौरे के अगले ही दिन, कैथल में एक और दलित लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार का समाचार आ खड़ा हुआ. राज्य में बीते पखवाड़े में ही 'यौन हिंसा' की यह 14वीं घटना है. इससे पहले हिसार, भिवानी,अम्बाला, पानीपत, यमुना नगर और न जाने कहाँ -कहाँ, हरियाणा के दबंगों ने दलित बालिकाओं के साथ शर्मनाक अपराधों को अंजाम दिया है.

जनवरी 2012 से लेकर अब तक हिसार में 94 ,करनाल में 92, रेवाड़ी में 89 , रोहतक में 87 गुड़गांव में 34, अंबाला में 31 और फरीदाबाद में 28 बलात्कार के मामले दर्ज हुए हैं. अधिकतर हादसे दलित महिलाओं के साथ ही हुए हैं.अगर बलात्कार के मामलों में सख्त कार्रवाई होती और कठोर सजा मिलती तो लड़कियां खुद को सुरक्षित महसूस कर सकती थी तो शायद ये गंभीर घटनाएं टल जाती मगर राज्य कि कानून व्वयस्था को लगता है कि लकवा ही मार गया है. उल्लेखनीय है कि अब तक दलित महिलाओं के साथ, बलात्कार के सब से ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश में और आदिवासी महिलाओं के साथ दुष्कर्म की घटनाएँ, मध्य प्रदेश में होती रही हैं. २०११ की रिपोर्ट के अनुसार नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कार के अधिकतम मामले (२६-२७%) मध्य प्रदेश में ही हुए. नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कार के मामलों में, पिछले कई सालों से मध्य प्रदेश प्रथम आता रहा है.

 दिल्‍ली से गुड़गांव, फरीदाबाद, रोहतक, करनाल और चंडीगढ़ तक, बहुमंजिला इमारतें दरअसल हरियाणा के विकास की भ्रामक छवि है. सच यह है कि सीमेंट के जंगल में राजनेताओं कि छत्र-छाया में पल रहे दबंगों की तादाद भी उतनी ही तेजी से बढ़ रही है. दलितों में लगातार बढ़ रही शिक्षा और जागरूकता के कारण, वो अपने कानूनी अधिकारों के प्रति पहले से अधिक सजग हुए है और समाज में बराबरी और सम्मान पूर्वक जीने की मांग करने लगे हैं जबकि तथाकथित उच्च जाती के लोग, दलित महिलाओं को बलात हवश का शिकार बना और मनोबल कुचल कर, गाँव-गाँव में उन्हें नीचा दिखने का प्रयास करते रहते हैं.. राज्य कि सत्ता भी उच्च जाती के राजनेताओं के हाथ में होने के कारण, राज्य में 'अछूत कि शिकायत' सुनने वाला कोई नहीं.

ज्यादातर दलित महिलाएं खेतों-खलियानों में या उनके घरों में काम करती हैं, इसलिए उनके बेख़ौफ़, आवारा और बेरोजगार युवकों की आसानी से शिकार बन जाती हैं. दलितों के साथ अत्याचार, उत्पीड़न, दमन और शोषण का इतिहास बहुत पुराना है परन्तु अब दलित समाज चुपचाप सहने और खामोश रहने को तैयार नहीं हैं. बेटिओं से आये दिन बलात्कार, अब नाकाबिले बर्दाशत होता जा रहा है.स्पस्ट है कि अगर समय रहते हरियाणा सरकार, विपक्ष और आम समाज ने मिलकर अबोध और विशेषकर दलित लड़कियों की सुरक्षा के समुचित समाधान नहीं ढूंढे तो महिलाएं अपनी आत्म रक्षा में खुद ही हथियार उठाने के लिए विवश होंगी और तब बलात्कारियों को सजा से कोई नहीं बचा पायेगा.

Monday, July 16, 2012

राष्ट्रीय सहारा (आधी दुनिया ) २०.६.२०१२ बाल विवाह बलात्कार का लाइसेन्स *अरविन्द जैन पिछले हफ्ते महिला संगठनों ने माननीय न्यायमूर्ति एस. राणोन्द्र भट्ट और एस. पी. गर्ग की दिल्ली हाईकोर्ट की बेंच द्वारा 15 वर्ष की मुस्लिम लड़की की शादी को जायज ठहराये जाने पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। कोर्ट ने कहा था कि यदि 15 साल की कोई मुस्लिम लड़की युवा हो चुकी है तो वह अपनी मर्जी से शादी कर सकती है। हालांकि बाल विवाह के मामले में कोर्ट का यह बयान न तो पहला है और न ही आखिरी, जबकि बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 धर्म को लेकर कोई भेदभाव नहीं करता है। 11 जनवरी, 2007 से भारतीय संसद ने इसे लागू किया है, जो जम्मू-कश्मीर के लोगों को छोड़कर देश की तमाम जनता पर लागू है। यहां तक कि यह कानून भारत में रहने वाले या बाहर रहने वाले सभी देशवासियों पर लागू होता है। भारतीय संसद द्वारा बाल विवाह को लेकर जो कानून बनाये गए हैं, उन पर गौर करने की जरूरत है। इसके प्रावधान इस कदर विरोधाभासी हैं और एक-दूसरे के प्रावधानों का परस्पर विरोध करते हैं कि कानून का कोई भी जानकार उलझन में पड़ सकता है। मैं यहां सिर्फ कानून के उन अनुभागों और उपवगरे की चर्चा कर रहा हूं जो मन में खटक रहे हैं। 1929 में किसी भी लड़की की शादी की उम्र 13 साल निर्धारित की गई थी जिसे 1949 में बढ़ाकर 15 साल किया गया। 1978 में जब बाल विवाह रोकथाम अधिनियम,1929 औ र हिन्दू मैरिज एक्ट, 1955 में संशोधन किया गया तो लड़की की शादी की उम्र बढ़ाकर 18 साल निर्धारित की गई। लेकिन देश के योग्य नौकरशाह और महान नेता भारतीय दंड संहिता की धाराओं में संशोधन करना भूल गए। पिछले महीने केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बच्चों के बचाव के लिए यौन अपराध विधेयक को मंजूरी दी, जिसके तहत उम्र के साथ सहमति का प्रस्ताव किया और 18 वर्ष से नीचे की आयु वालों (आईपीसी की धारा-375 के तहत सहमति की उम्र अभी 16 साल है) के साथ यौन संबंधों को बलात्कार की संज्ञा दी गई, चाहे वह सहमति से हुआ हो या बिना सहमति के। लेकिन आईपीसी की धारा-375 और 376 में संशोधन करने का कोई प्रस्ताव नहीं है। बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 की धारा-9 के मुताबिक, 18 साल से कम उम्र की लड़की की शादी 18 साल से कम उम्र के लड़के के साथ कराना दंडनीय अपराध है और ऐसा करने पर दो साल का सश्रम कारावास या एक लाख रुपये तक का आर्थिक दंड या फिर दोनों हो सकते हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि शादी के वक्त यदि लड़के की उम्र 18 साल से कम है और वह 18 साल से कम या उससे अधिक आयु की लड़की से शादी कर रहा है तो इसे अपराध नहीं माना जा सकता। पीसीएमए के मुताबिक, किसी भी लड़की की शादी की उम्र 18 साल है। हालांकि आईपीसी की धारा-375 के अपवाद में, यदि पत्नी 15 साल से कम ना हो और उसका पति उसके साथ शारीरिक संबंध बनाता है, तो यह बलात्कार नहीं है, जबकि आईपीसी की धारा-375 के छठे खंड के अनुसार, यदि को ई व्यक्ति सहमति या गैर-सहमति से 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ यौन संबंध स्थापित करता है तो उसे बलात्कार माना जाएगा। वर्तमान कानून के मुताबिक, बिना सहमति के किसी औरत के साथ संबंध स्थापित करना या 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ सहमति के साथ संबंध स्थापित करना बलात्कार की श्रेणी में आता है। हालांकि, 15 साल (नाबालिग लड़की जिसे बाल विवाह के लिए मजबूर किया जा रहा है) से अधिक की अपनी पत्नी के साथ जबर्दस्ती किया गया यौन संबंध बलात्कार नहीं है। वैवाहिक धरातल पर विवाहित और अविवाहित महिलाओं के बीच किसी भी तरह के अलग कानून नहीं बनाए गए हैं। का लाइस स ब्ा ल्ात्कार आईपीसी की धारा-375 के अपवादस्वरूप, यह पति को अपनी 15 साल उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार करने का लाइसेंस देता है, जो उस उम्र की बच्चियों के साथ मनमाना और विवाहित महिला के साथ भेदभावपूर्ण रवैया है, खासकर बाल वधू के साथ, जो मूलभूत अधिकारों का, मानवाधिकार का हनन है, खासकर व्यक्ति की गरिमा और संविधान के अनुच्छेद-21 में दिए गए विवाहित महिलाओं की गोपनीयता के अधिकार का हनन है । यहां यह नहीं माना जाता कि 15 से 18 साल के बीच की लड़की पत्नी नहीं बन सकती, जबकि यौन संबंध की सहमति उसे एक साल कम करती है जो दमनकारी, भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक कानून है। ऐसे में, बाल विवाह को रोकने और बच्चों के हित की रक्षा के मामले में उद्देश्यपूर्ण ढंग से कुछ भी प्राप्त नहीं किया जा सकता। शादीशुदा महिलाओं के पास चुपचाप सहन करने, बलात्कार की शिकार बनने या फिर मानसिक यातना के आधार पर पति से तलाक लेने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है लेकिन इन मामलों में पति की गलत इच्छाओं या फिर वैवाहिक मुकदमे में फं से रहने को आधार नहीं बनाया जा सकता है। बुद्धदेव कर्मास्कर बनाम पश्चिम बंगाल सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक, सेक्स वर्कर भी मनुष्य हैं और किसी को भी उन पर हमला करने या हत्या करने का अधिकार नहीं है। कोई भी महिला गरीबी के कारण सेक्स वर्कर बनती है ना कि सुख के लिए। सेक्स वर्कर के प्रति समाज को सहानुभूति रखनी चाहिए और उन्हें तिरस्कृत नहीं करना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत वे भी जिंदगी में गरिमा पाने की हकदार हैं। यहां तक कि सेक्स वर्कर को गोपनीयता और सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार है और किसी को भी इन अधिकारों को उनसे छीनने का अधिकार नहीं है। हालांकि, वैवाहिक जीवन में बलात्कार की सजा की छूट ने भारत की शादीशुदा महिलाओं की स्थिति ‘सेक्स वर्कर’ और ‘घरेलू दासियों’ से भी बदतर कर दी है क्योंकि सेक्स को ना कहने का जो अधिकार सेक्स वर्कर को उपलब्ध कराया गया है, वह भारत की शादीशुदा महिला को नहीं है। ब्रिटिश कालीन भारत में लॉर्ड मैकाले द्वारा तैयार भारतीय दंड सहिता को 1861 में लागू किया गया था। ‘ऑफ ऑफेंस इफेक्टिंग द ह्यूमन बॉडी’ नामक अध्याय में आईपीसी की धारा- 375 और 376 की चर्चा की गई है। हालांकि ब्रिटेन में यौन अपराध (संशोधन) अधिनियम 1976 के अंग्रेजी कानून को बदला गया, जिसके मुताबिक, बलात्कार बिना सहमति के किसी महिला के साथ किया गया यौन संबंध है। इसके बाद, 1997 में आर. बनाम आर. (रेप : वैवाहिक छूट) (1991 4 ¬थ्थ् कङ 481) मामले में हाउस ऑफ लॉर्डस ने जो फैसला सुनाया, उसके मुताबिक, ‘कोई भी पति अपनी पत्नी के साथ बिना सहमति के यौन संबंध बनाने पर अपराधी नहीं हो सकता। अब यह इंग्लैंड के कानून में नहीं है क्योंकि पति और पत्नी दोनों समान रूप से शादी के बाद जिम्मेदार होते हैं और इससे स्वीकार नहीं किया जा सकता कि शादी के बाद सभी परिस्थितियों में पत्नी यौन संबंध बनाने के लिए खुद को पेश करेगी या मौजूदा दौर की शादी के बाद सभी हालातों में पत्नी यौन संबंध बनाने के लिए राजी हो।’ इसके बाद, पीपुल्स बनाम लिब्रेटा (1984) मामले में न्यूयार्क की अपील कोर्ट ने कहा कि बलात्कार और वैवाहिक जीवन में बलात्कार के बीच अंतर करने का कोई औचित्य नहीं है और विवाह किसी पति को अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करने का लाइसेंस नहीं देता। कोर्ट ने न्यूयार्क के उस कानून को असंवैधानिक करार दिया जिसने वैवाहिक बलात्कार को अपराध ना मानने की छूट दे रखी थी।’ यह बेहद निंदनीय है कि भारत में वैवाहिक जीवन में अब भी बलात्कार को कानूनी मान्यता प्राप्त है जबकि छोटे से हमारे पड़ोसी देश नेपाल में काफी पहले से यह गैरकानूनी है। नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने घोषित कर रखा है कि यदि कोई पति अपनी पत्नी को सेक्स के लिए मजबूर करेगा तो उस पर बलात्कार का आरो प लगाया जा सकता है। पिछली मई में मील का पत्थर बनी यह घोषणा उस याचिका का परिणाम थी जिसे जुलाई, 2001 में नेपाल के महिला अधिकार संगठन ‘महिला, कानून और विकास फोरम’ ने दायर किया था। नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने घोषित किया कि पत्नी की सहमति के बिना वैवाहिक सेक्स बलात्कार के दायरे में आएगा। यह भी कहा गया कि धार्मिक ग्रंथों में भी पुरुषों द्वारा पत्नी के बलात्कार की अनदेखी नहीं की है। कोर्ट ने यह भी कहा कि हिन्दू धर्म में पति और पत्नी की आपसी समझ पर जोर दिया गया है। 19वीं सदी के शुरू में ‘सेकेंड सेक्स’ की दुनिया पुरुषों को अपनी पत्नी के साथ से क्स करने के लिए मजबूर करती रही है। अमेरिका में, 19वीं सदी में महिला अधिकार आंदोलन पति के खिलाफ विवाह के बाद यौन संबंध बनाने के अधिकार के विरुद्ध अभियान था। इसने सेक्स और सेक्सुअलिटी को लेकर उन्नीसवीं सदी के टैबू को खत्म कर उल्लेखनीय विकास कार्य किया। शादी के भीतर या बाहर के बलात्कार में कोई अंतर नहीं है। बलात्कार वह है, जिसमें कोई पुरुष किसी महिला के साथ जबर्दस्ती यौन संबंध बनाता है, चाहे उसे ऐसा करने के लिए शादी के कानून का लाइसेंस मिला हो या नहीं। 21वीं सदी में भारतीय महिलाओं के मूलभूत मानवाधिकार को 18वीं सदी के चश्मे से नहीं देखा जा सकता। 12 साल से अधिक उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार का मामला हो तो पुलिस मामले को दर्ज करने के अलावा कोई भी कार्रवाई नहीं करेगी और गरीब नाबालिग लड़की को खुद कोर्ट का दरवाजा खटखटाना होगा, जिसके तहत शिकायत मामले में उसे मुकदमे के दौरान काफी कठिन प्रक्रिया से गुजरना होता है। . भारतीय विधि आयोग ने अपनी 205वीं रिपोर्ट में कहा है, ‘भारतीय दंड संहिता 15 साल से कम उम्र की नाबालिग पत्नी के साथ यौन संबंध को बलात्कार मानता है। पिछली सदी में फुलमोनी मामले में बाल विवाह के खिलाफ लोगों ने सार्वजनिक तौर पर एकजुट होकर आवाज उठाई थी। इस मामले में 11 साल की लड़की की जननांग के फटने से मौत हो गई थी क्योंकि उसके पति ने उसे जबर्दस्ती सेक्स करने के लिए मजबूर किया था।’ यद्यपि, बाल विवाह का वर्तमान कानून फुलमोनी जैसे मामले को नहीं देखता। ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जिसमें बाल वधू को अपने पति से दूर रखने या दूसरे उत्पीड़न के साथ यौन उत्पीड़न को रोकने का प्रस्ताव हो। बाल विवाह अधिनियम वास्तव में, बाल विवाह की मान्यता को रद्द ना करके इस तरह के अपराध को आधार प्रदान करता है। शोध बताते हैं कि बाल वधुओं को गर्भावस्था से जुड़ी समस्याओं से अधिक जूझना पड़ता है। साथ ही, बाल विवाह मामलों में मातृ और शिशु मृत्यु दर अधिक है। बाल विवाह सभी बच्चियों को उनके मानव अधिकारों तथा स्वस्थ- प्राकृतिक वातावरण में विकसित होने से वंचित करता है। इसके साथ ही उनके शैक्षिक, शारीरिक और मानसिक विकास को भी रोकता है। यह उनको अपने वातावरण के साथ स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति और आंदोलन करने जैसे बुनियादी अधिकारों से दूर करता है। भारतीय विधि आयोग की 205वीं रिपोर्ट में यह भी पाया गया कि ‘हमलोग यह महसूस करते हैं कि छोटी-सी दुल्हन और अन्य नाबालिग लड़कियों के लिए यौन संबंध मामले में सहमति के लिए अलग उम्र तय करने का कोई औचित्य नहीं है। सहमति की उम्र के लिए न्यूनतम उम्र के पीछे मूल कारण यह है कि लड़की यौन संबंध के मामले में ज्यादा परिपक्व नहीं होती। बाल वधू और दूसरी नाबालिग लड़कियों के मामले में भी यही मूल वजह है।’ इसकी सिफारिश कुछ यूं है - (त्त्त्) ‘भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद को खत्म कर दिया जाना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि यौन संबंधों के लिए सहमति की उम्र सभी लड़कियों के लिए 16 साल होगी, चाहे वह शादीशुदा हो या ना हो।’ जब से मानवाधिकारों की अवधारणा विकसित हुई है, वैवाहिक अधिकार के तौर पर यौन संबंधों को लेकर सहमति की बात व्यापक तौर पर उठने लगी है। पति द्वारा बलात्कार की आपराधिक घटनाएं वैिक स्तर पर यौन अपराध के रूप में सामने आ रही हैं जो नैतिकता, परिवार, अच्छे संस्कार, सम्मान, सदाचार के साथ-साथ स्वतंत्रता, आत्मनिर्ण य और फिजिकल इंटीग्रिटी के खिलाफ अपराध है। परंपरा, संस्कृति, संस्कार, रीति-रिवाजों और रूढ़िवादियों व धर्मशास्त्रियों द्वारा बनाए गए नियमों के आधार पर वैवाहिक बलात्कार को कभी भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। कोई भी धर्म वैवाहिक बलात्कार का समर्थन नहीं करता। दुनिया के करीब 76 देशों में वैवाहिक बलात्कार दंडनीय अपराध के तौर पर घोषित हो चुका है जबकि भारत सहित पांच देशों में वैवाहिक बलात्कार को अपराध तब माना जाता है जब कानूनी तौर पर दोनों एक-दूसरे से अलग रह रहे हों। महिलाओं की सुरक्षा के लिए घरेलू हिंसा अधिनियम, 2006 बनाया गया लेकिन वैवाहिक बलात्कार को ‘अपराध’ घोषित नहीं किया गया। भारतीय दंड संहिता की धारा-275-सी के अपवादस्वरूप समय-समय पर भारत सरकार के द्वारा घोषित घोषणाओं और अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों का यह सरासर उल्लंघन है। यहां यह बताना आवश्यक है कि 20 दिसम्बर, 1993 में, जब संयुक्त राष्ट्र महासभा महिलाओं के खिलाफ हिंसा उन्मूलन की घोषणा करने में जुटी थी तब उन्होंने अनुच्छेद- 1 में पाया कि ‘महिलाओं के खिलाफ हिंसा’ का अर्थ है जेंडर आधारित किसी भी तरह की हिंसा या शारीरिक, यौनिक या मनोवैज्ञानिक तरीके से चो ट पहुंचाना या सार्वजनिक या निजी जीवन में ऐसे कृत्यों या बलात्कार या स्वतंत्रता के हनन की धमकी देना’। भारतीय दंड संहिता की धारा-375 की खामियां यहीं खत्म नहीं होती हैं। किसी दूसरी महिला के साथ बलात्कार करने वाले को आजीवन कारावास की सजा मुकर्रर की जा सकती है। कोई भी अदालत इस मामले में न्यूनतम सजा सात साल की जेल और जुर्माने की सजा सुना सकती है (धारा 376 (1)। लेकिन, यदि पति 15 साल से कम उम्र की अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करता है तो वह कोई अपराध नहीं करता। इसके अलावा, यदि वह 15 साल से कम है लेकिन 12 साल से अधिक है तो पति को बलात्कारी माना जा सकता है लेकिन उसे सजा के तौर पर काफी सहूलियत दी गई है। इस मामले में अधिकतर सजा दो साल की जेल या जुर्माना या दोनों हो सकती है। जबकि दूसरे मामलों में, बलात्कार सं™ोय और गैर जमानती अपराध है। 12 साल की उम्र से अधिक की पत्नी के साथ बलात्कार भी सं™ोय और गैर जमानती अपराध है (सीआरपीसी, अनुच्छेद-1)। इसका अर्थ यह हुआ कि सामान्य तौर पर बलात्कार की शिकायत मिलने पर बिना किसी सबूत के पुलिस आरोपित को गिरफ्तार कर सकती है और जांच कर सकती है। यदि 12 साल से अधिक उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार का मामला हो तो पुलिस मामले को दर्ज करने के अलावा कोई भी कार्रवाई नहीं करेगी और गरीब नाबालिग लड़की को खु द कोर्ट का दरवाजा खटखटाना होगा, जिसके तहत शिकायत मामले में उसे मुकदमे के दौरान काफी कठिन प्रक्रिया से गुजरना होता है। तब पति को गिरफ्तार किया जा सकता है। किसी नाबालिग के साथ शादी करने के बाद अपराध करने से हर किसी को यह छूट मिलती है। आईपीसी की धारा-375 के तहत, 15 साल से कम उम्र की अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध बनाना बलात्कार माना जाता है। ऐ से में, बलात्कारी (पति) को धारा- 376 आईपीसी के तहत अन्य बलात्कार के मामलों की तरह सजा दी जानी चाहिए। हालांकि, कानून ने उस पर खास रियायत बरतते हुए दो साल कारावास या जुर्माना या दोनों मुकर्रर किया है, जो आम तौर पर अनुचित, अतार्किक, अन्यायपूर्ण, दमनकारी, भेदभावपूर्ण और असंवैधानिक है। हिन्दू अल्पसंख्यक औ र संरक्षण अधिनियम, 1956 की धारा-6 सी, तो बाल विवाह को लेकर बहुत ही हास्यास्पद और चौंकाने वाला प्रावधान है। उप धारा (ए) के मुताबिक, किसी भी नाबालिग लड़के या अविवाहित लड़की के सामान्य तौर पर संरक्षक उसके पिता होते हैं और उसके बाद मां होती है। दूसरी ओर उपधारा-सी के मुताबिक, विवाहित लड़की (बड़ी हो या छोटी) का संरक्षक उसका पति होता है। यह उपधारा तब भी लागू होती है, जब पति और पत्नी दोनों नाबालिग हों। इसलिए इस कानून के मुताबिक, एक नाबालिग पति जो खुद ही अपने पिता या माता के संरक्षण में पल रहा है, वह नाबालिग पत्नी और बच्चों एवं संबंधित संपत्तियों का प्राकृतिक संरक्षक होगा। ऐसे में, व्यावहारिक तौर पर नाबालिग वधू अनाथ रह जाती है। क्या हम वास्तव में, इन कानूनों से ‘बाल विवाह’ को देश में समाप्त करना चाहते हैं या महिलाओं के शोषण और दमन के जरिए महान सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक परंपराओं के सहेजे रखना चाहते हैं? (लेखक सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील व स्त्रीवादी विचारक हैं)

Wednesday, August 10, 2011

आनर किल्लिंग:शादी की आज़ादी



आनर किल्लिंग:शादी की आज़ादी
अरविन्द जैन
(राष्ट्रीय सहारा आधी दुनिया १०.८.२०११)

अगर न्याय के पहरेदारों और कानून के बीच टकराहट होती रहेगी, तो जाति और धर्म के सांकल में जकड़ी शादियां आजाद कैसे हो पाएंगी? अराजक निजी कानूनों और न्यायिक व्याख्याओं में बदलावों के बिना अंतर्जातीय/अंतर्धार्मिक शादियों से जुड़े सामाजिक-आर्थिक-राजनीति का गतिविज्ञान तेजी से नहीं बदलेगा।

सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति मार्कडेय काटजू और न्यायमूर्ति ज्ञान सुधा मिश्रा ने 19 अप्रैल, 2011 को सभी राज्यों सरकारों को निर्देश दिया कि वे ऑनर किलिंग्स को सख्ती से दबा दें। कोर्ट ने अधिकारियों को आगाह किया कि इस प्रथा को रोक पाने में नाकाम अधिकारियों को दंडित किया जाएगा। पिछले साल गृह मंत्री पी. चिदम्बरम ने भी भरोसा जताया था कि ऐसी हत्याओं को रोकने के लिए वह संसद में विधेयक पेश कर उसमें विशिष्ट तौर पर सख्त दंड की व्यवस्था करेंगे।

सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायमूर्ति मार्कडेय काटजू और न्यायमूर्ति अशोक भान ने 2006 में व्यवस्था दी कि ‘ किसी देश के लिए जाति व्यवस्था अभिशाप है और बेहतरी के लिए शीघ्रता से इसे खत्म करना होगा। वास्तव में, यह ऐसे समय में देश को बांट रहा है कि जब देश एकजुट होकर कई तरह की चुनौतियों का सामना कर रहा है। राष्ट्रीय हित में अंतर्जातीय शादियां हकीकत बन चुकी हैं, क्योंकि ये जाति व्यवस्था को नष्ट करने का नतीजा है। हालांकि, देश के विभिन्न हिस्सों से दुखदायी खबरें आती रहती हैं कि अंतर्जातीय शादियां करने के बाद युवा पुरुष और महिलाओं को धमकियां, यातनाएं या फिर हिंसक हो उठने जैसी घटनाएं हो रही हैं।’ मेरे विचार से, हिंसा, यातना और धमकी संबंधी ऐसा कृत्य पूरी तरह गैरकानूनी है और जो भी इसमें लिप्त हैं, उन्हें कड़ी सजा दी जानी चाहिए। भारत स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश है, और कोई लड़का या लड़की अपने पसंद से शादी कर सकता है। यदि उनके अभिभावक अंतर्जातीय या अंतर्धार्मिक शादी को मंजूरी नहीं देते, तो ज्यादा से ज्यादा यह मुमकिन है कि उनसे सामाजिक रिश्ता तोड़ लिया जाता है, लेकिन उनके खिलाफ हिंसा या उसे धमकाया नहीं किया जा सकता। इसीलिए, हम निर्देश देते हैं कि समूचे देश के प्रशासन/पुलिस को देखना होगा कि अंतर्धार्मिक या अंतर्जातीय शादियां किये हुए लड़के या लड़की के खिलाफ कोई यातना, धमकी, हिंसा या इसके लिए उकसाने जैसी कार्रवाई न होने पाये। अगर कोई ऐसा करता पाया जाए तो पुलिस ऐसे लोगों के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई करे और कानून के तहत आगे कड़ी कार्रवाई संबंधी कदम उठाये। कभी- कभी, हम अंतर्धार्मिक या अंतर्जातीय शादियों को लेकर ऑनर किलिंग संबंधी घटनाओं के बारे सुनते हैं। ये शादियां अपनी मर्जी से की जाती हैं। ऐसे में, किसी तरह के मौत देने का कोई अच्छा मामला नहीं होता और वास्तव में, ऐसा कृत्य करने वाले बर्बर और शर्मनाक कृत्य कर बैठते हैं। यह बर्बर, सामंती मानसिकता के लोग हैं, जिन्हें कड़ा दंड दिये जाने की जरूरत है। सिर्फ ऐसा करके ही हम ऐसे बर्बरता संबंधी व्यवहार को खत्म कर सकते हैं। मां का नहीं पिता का नाम यह स्पष्ट नहीं है कि जाति व्यवस्था अभिशाप है, इसलिए जितनी जल्दी इसे खत्म कर दिया जाएगा, उतना ही बे हतर होगा क्योंकि इससे ऐसे समय में देश बंटता है, जब भारत को एक रखने के रास्ते में कई चुनौतियां हैं। इसलिए अंतर्जातीय शादियां राष्ट्रीय हित में हकीकत है। ऐसी शादियों के होते रहने से जाति व्यवस्था टूटेगी।

दूसरी ओर, सर्वोच्च अदालत ने कहा कि भारत में जाति व्यवस्था भारतीयों के दिमाग में रचा-बसा है। किसी कानूनी प्रावधान के न होने की सूरत में अंतर्जातीय शादियों होने पर कोई भी व्यक्ति अपने पिता की जाति का सहारा विरासत में लेता है, न कि मां का। (एआईआर सु. को. 2003, 5149 पैरा 27) सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एच. के. सीमा और डॉ. ए आर लक्ष्मणन ने अर्जन कुमार मामले में स्पष्ट कहा कि ‘यह मामला आदिवासी महिला की एक गैर आदिवासी पति से शादी करने का है। पति कायस्थ है, इसलिए वह अनुसूचित जनजाति के होने का दावा नहीं कर सकता।’ (एआईआर सु. को. 2006, 1177) एक भारतीय बच्चे की जाति उसके पिता से विरासत में मिलती है, न कि मां से। अगर वह बिन ब्याही है और बच्चे के पिता का नाम नहीं जानती, तो वह क्या करे? महिला अपने पिता की जाति से होगी और शादी के बाद पति की जाति की। आपकी जाति और धर्म आपके पिता के धर्म/ जाति से जुड़ी होती है। कोई अपना धर्म बदल सकता है लेकिन जाति नहीं।

दुर्भाग्य से, भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में विशेष विवाह कानून, 1954 के तहत अंतर्जातीय विवाह को संचालित करने वाले बुनियादी कानून प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इस कानून के तहत शादी के अंजाम संबंधी चौथे अध्याय में अंतर्जातीय विवाह को हतोत्साहित करते हैं। धारा-19 के मुताबिक, इस कानून के तहत शादी किसी अविभक्त हिंदू, बौद्ध, सिख या जैन अन्य धर्मावलंबी परिवार में आयोजित होती है, तो ऐसे परिवार से उन्हें अलग कर दिया जाएगा। कानून ऐसे हिंदू बौद्ध, सिख या जै न को आजादी देता है, जो अविभक्त परिवार के सदस्य हैं। ऐसे लोग अन्य धर्मो में शादी करते हैं तो शादी के दिन से उनके अपने परिवार के साथ रिश्ते अपने आप टूट जाएंगे। यह परोक्ष रूप से अवरोध निर्मित करता है और ऐलान करता है कि हम आपको गैर हिंदू पत्नी या पति को अपने परिवार में कबूल नहीं करेंगे। आप अपने विभक्त परिवार की संपत्ति में अपना हिस्सा, यदि कोई हो, लेते हैं तो परिवार से भी हाथ धोना पड़ेगा।

सुप्रीम कोर्ट ने इस बात की भी ताकीद कर दी है कि अगर लड़के या लड़की के माता-पिता ऐसी अंतर्जातीय या अंतर्धार्मिक शादी को मंजूरी नहीं देते, तो वे अपने पुत्र या पुत्री से सामाजिक रिश्ते तोड़ सकते हैं। कोर्ट ने ठीक ही आगाह किया है कि ऐसी शादियां कर चुके लोगों को घर वाले किसी तरह की न तो धमकी दे सकते हैं और न ही मारपीट कर सकते हैं। वे इन्हें यातना भी नहीं दे सकते। जाति व्यवस्था वाले ऐसे पारंपरिक समाज में, शादी के लिए चुनाव काफी अहम हो जाता है। ऐसे में, अपनी जाति या धर्म से हटकर शादी के बारे में सोच पाना नामुमकिन है। हालांकि, भारत में शादी के तरीके में आया हाल का बदलाव अंतर्जातीय शादियों, खासकर आर्थिक रूप से मजबूत दज्रे के चलते बढ़त दर्शा रहा है। पंजाब, हरियाणा, असम और महाराष्ट्र में फिर भी अंतर्धार्मिक शादियों को अब भी प्रोत्साहन नहीं दिया जाता। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और राजस्थान जैसे राज्यों में पारंपरिक और सामंती माइंडसेट में बदलाव काफी कम देखा गया है इसलिए हमें निदरेष युवा लड़के और लड़कियों को ऑनर किलिंग से बचाने के लिए एकजुट होने की जरूरत है। ये वे युवा हैं, जो जाति और वर्ग रंिहत समाज में जीने की इच्छा रखते हैं।

अगर न्यायिक व्याख्याएं लिंग न्याय को स्वीकार नहीं करतीं, तो वक्त बीतने के साथ सामाजिक न्याय के बीज कैसे अंकुरित होंगे?
http://www.shabdankan.com/2013/09/honor-killing.html#.U_WF7aMR4Zl

Wednesday, July 6, 2011

डिजर्ट ऑफ जस्टिस

राष्ट्रीय सहारा , आधी दुनिया 6.7.2011
डिजर्ट ऑफ जस्टिस
अरविंद जैन
“आखिर अजन्मी बच्ची आधुनिक समाज का मुकाबला कै से करेगी? ईर या मानवता को आधुनिक समाज के आतंकों से कैसे बच पाएगी? वह एक शिक्षित इंसान का किस तरह सामना करेगी और कैसे वह ईर या मानवता के इन खून चूसने वाले चमगादड़ों यानी आधुनिक समाज के चमगादड़ों से सुरक्षित करेगी.”
मंजू बनाम राज्य (2010 सीआरएल. एल. जे. 2307) केस में एक मां ने अपनी ही कन्या की भ्रूणहत्या जैसे दिल दहला देने वाला जुर्म किया। इसमें दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायमूर्ति प्रदीप नंद्रजोग और न्यायमूर्ति सुरेश कैत ने फैसले में सहानुभूतिपूर्वक लिखा, ‘वह नवजात कन्या थी और उसका इस धरती पर आना उनके लिए आफत थी। माता-पिता के लिए चिंता का सबसे बड़ा मुद्दा उसकी शादी थी। नवजात कन्या उनके लिए मजबूरी के सिवाय कुछ नहीं थी। उसकी शादी का ख्याल जैसे उन्हें बर्बाद करने के लिए काफी था। गरीब होना मामूली चीज थी। समाज ने भी पैदा होने से पहले ही उनकी मृत्यु को शोकपत्र पहले ही लिख डाला था। उसकी मां ने तो सिर्फ उसे जगजाहिर किया था। यह एक बेनाम नवजात की दास्तान है। संभवत: यह पहला फैसला है, जिसमें किसी पीड़ित को उसके नाम से संबोधित नहीं किया जा सकता है।’न्यायमूर्ति नंद्रजोग ईमानदारी से मानते हैं, ‘मानवता इंसानी जिंदगी से भी बढ़कर है, इसका हमें पता नहीं। मरने के बाद क्या होता है, इसका भी हमें कुछ नहीं पता पर यह मान्यता है और स्वीकृति भी कि मानवीय व्यक्तित्व इंसानी जाति के रूप में आगे तक जाती है। लेकिन कन्या के लिए तो यह भी अस्वीकार्य है।
कुछ तथ्य संक्षेप में
अपीलकर्ता मंजू (मां) लेडी हार्डिग मेडिकल कॉलेज के मैटर्निटी वॉर्ड में भर्ती थी। उसने 24 अगस्त 2007 को दोपहर करीब 12:10 बजे कन्या को जन्म दिया। उसी दिन वॉर्ड में बतौर असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट शकुंतला अरोड़ा थीं। वे कन्या के जन्म की गवाह थीं। अपीलकर्ता मंजू को लेबर रूम से निकालकर वॉर्ड में शिफ्ट किया गया। शाम करीब 4:30 बजे बच्ची को मैटर्निटी वॉर्ड में तैनात स्टाफ नर्स बिंदू जॉर्ज ने जच्चा को सौंप दिया। सायं लगभग साढ़े छह बजे बच्ची संबंधित खबर से अस्पताल में खलबली मच गई। नर्स संगीता रानी कहती है, मुझे डय़ूटी पर मौजूद इंटर्न डॉक्टर ने फोन पर बताया- ‘सिस्टर! जल्दी आओ, बच्ची बीमार है।’ पीएनसी इंटर्न ने दोषी मंजू की बच्ची को उठाया और जल्दी-जल्दी उसे ठीक करने में जुट गई। मैंने एक स्टूडेंट नर्स के जरिए सीनियर रेसिडेंट डॉ. निधि को भी बुलवाया। डॉक्टर ने बच्ची के गर्दन और नाक पर लाल व नीले रंग का निशान दिखाते हुए मुझे और सभी स्टाफ नर्स को दिखाया। उसके बाद डॉक्टर निधि ने पाया कि कन्या जीवित नहीं है। उसके बाद पुलिस को सूचना दी गई।
पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट
पुलिस को सूचना देने के बाद इंवेस्टिगेटिंग ऑफीसर ने कन्या के मृत शरीर को कब्जे में ले लिया और तहकीकात करने वाले दस्तावेजों को भरने के बाद हॉस्पिटल के मुर्दाघर में पोस्ट-मॉर्टम के लिए भेज दिया। डॉ. अभिषेक यादव ने 26 अगस्त, 2007 की सुबह कन्या के मृत शरीर का पोस्ट-मॉर्टम किया और रिपोर्ट तैयार की। डॉ. यादव ने कन्या के शरीर पर आठ बाहरी चोट का पोस्ट-मॉर्टम रिपोर्ट में उल्लेख किया। उसमें मस्तिष्क में भारी मात्रा में फ्लूड्स के जमाव से सूजन आने के साथ कंजस्टेड भी बताया गया। इसके अलावा गर्दन में खून का परिस्त्रवन (एक्स्ट्रावैशन), कारोटिडशेथ के आसपास सॉफ्ट टिशू और लैरिंक्स मसल्स भी क्षतिग्रस्त पाई गई। ास नली और ब्रॉन्की भी कंजस्टेड बतायी गयी। दोनों फेफड़े कंजस्टेड होने के साथ पैटेशियल हैमरेज इंटर लेबर सर्फेस पर पाया गया। पैटेशियल हैमरेज हार्ट के वेंट्रिकुलर सर्फेस में था। लिवर, स्प्लीन और किडनी भी कंजस्टेड थी और डॉक्टरों की राय थी कि इस तरह की मौत गला घोंटने (एस्फिक्सिया) से होती है।
सत्यमेव जयते बनाम यतो धर्मस्ततो जय:
न्यायमूर्ति नंद्रजोग और न्यायमूर्ति कैत को इस तथ्य का बखूबी पता था कि न्यायिक दायरे में ‘सत्यमेव जयते’ का बड़ा असर होता है और सुप्रीम कोर्ट अपने न्यायिक क्षेत्राधिकार के तहत ‘यतो धर्मस्ततो जयते’ यानी ‘सिर्फ सच्चाई ही टिकती है’ को मानकर काम करता है। न्यायाधीश नंद्रजोग ने फैसला लिखते हुए स्पष्ट किया कि हमारे न्यायिक अधिकार क्षेत्र के दूसरे शब्द नीति से जुड़े हैं और सुप्रीम कोर्ट का क्षेत्राधिकार ‘न्याय करने’ से जुड़ा है। इसलिए सिर्फ सुप्रीम कोर्ट को ही भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 142 के तहत संपूर्ण न्यायिक अधिकार प्राप्त हैं। इसलिए जहां तक माफी वाली एलिजाबेथ बुमिलर रचित पुस्तक है- ‘आप सौ बेटों की मां हो सकती हैं।’ दहेज, बहू जलाना, कन्या भ्रूणहत्या- निजी अनुभवों के आधार पर शोधपरक दस्तावेज होते हैं। वास्तव में, ये उत्तेजित करते और विचारों में हलचल पैदा करने वाली पुस्तक है। 1986 से 2001 के बीच 50 लाख कन्या भ्रूणहत्याएं हुई, क्योंकि ये सब लिंग परीक्षण संबंधी मेडिकल से जुड़े पेशेवरों के हाथ में था। 1994 में संसद ने पीएनडीटी (प्रीनेटल डायग्नोस्टिक टेक्नीक) कानून बनाया, जो पैदा होने से पहले परीक्षण तकनीकों के दुरुपयोग का जवाब था। बावजूद इसके, सुप्रीम कोर्ट ने मई, 2001 में सरकार को इसे लागू करने का निर्देश दिया। फिर भी हालात की पहले जैसे हैं। कितने अपराधियों को सजा मिली? कानून बेमानी साबित हुआ है।
कन्या का हत्यारा कौन?
आत्मा में झांकने के क्रम में न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने खुद से सवाल किया, ‘लेकिन, क्या अपील करने वाली मां एक ऐसे अपराध की जननी नहीं मानी जानी चाहिए, जिसे समाज ने निर्मित किया है। कन्या भ्रूणहत्या, मोहरे बनकर किया जाने वाली कृत्य है। क्या समाज के पापों का यही भुगतान है? क्योंकि, वह मां अनभिज्ञ है, गरीबी-रेखा से नीचे दयनीय माहौल में रह रही है। उसने अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा- 313 के तहत बांये हाथ के अंगूठे से अपनी निरक्षरता साबित की है। गरीबी-रेखा से नीचे बसर करती वह अपना झुग्गी-झोंपड़ी का पता बताती है। शायद ही वह अपनी आत्मा और शरीर को खंडित होने से बचा पायी हो या यह हकीकत साबित कर पायी हो कि उसका पति दैनिक वेतनभोगी है। हमारे सामने सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि यदि वह अपराध करने वाली नहीं है, तो समाज के पापों का वह भुगतान क्यों करे?’
भारतीय समाज में कानूनी, सामाजिक और नैतिक माहौल पर गौर करने के बाद न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने लाचार स्वर में कहा, ‘प्रतिक्रिया की प्रक्रिया खुद में इतनी अविवेकपूर्ण और एकतरफा है, जिसमें एक अनभिज्ञ और कमजोर के खिलाफ काफी कुछ हो जाता है।’ इस तरह एक अविवेकपूर्ण प्रक्रिया में कैसे एक अनभिज्ञ और कमजोर न्याय पर भरोसा और उससे उम्मीद करे?
खुद मां शिशु की हत्यारिन
अंतत: न्यायमूर्ति नंद्रजोग और न्यायमूर्ति कैत ने वकीलों के तर्क सुनने और गवाही से जुड़े सबूतों पर गौर करने के बाद नतीजा निकाला कि यहां शक की कोई वजह नहीं। कारण, दुर्भाग्य से कई उम्र की लड़कियों का गला दबाया जाता है और याचिकाकर्ता मां ने खुद कन्या भ्रूणहत्या संबंधी गुनाह किया और अपनी बच्ची की हत्या की।
पैदा होने से पहले प्रार्थना
ऐसे जटिल और उलझे हालात में शायद कुछ सांत्वना देने के लिए न्याय की बेड़ियों और जेल संबंधी उदाहरणों का उल्लेख करते हुए न्यायमूर्ति नंद्रजोग और न्यायमूर्ति कैत ने लुइस मैक्नीस की लिखी ‘प्रेयर बिफोर बर्थ’ कविता की तीन पंक्तियां सुनायीं- ‘मैं अभी तक जन्मा नहीं हूं, सांत्वना दीजिए; मैं डरा हुआ हूं क्योंकि मानव जाति मेरा आगे ऊंची दीवार चिना देगी, जिसमें काफी शक्तिशाली दवाएं होंगी, उनकी बुद्धिमानी मुझे ललचाने के लिए होगी। काले रंग की खूं टी मुझे कंपा रही है, मुझे खून से नहलाया जा रहा है।’
‘मैं अभी तक जन्मी नहीं हूं, दुनिया में आने का मैं पाप कर रही हूं, इसके लिए मुझे माफी कर दीजिए। मेरे लिए जो शब्द वे कहें, मेरे विचार जो मेरे लिए वे सोचते हैं, मे रा लिंग मेरे नियंतण्रसे बाहर है, उसके खिलाफ विासघाती हैं वे, मेरी जिंदगी जिसे वे मेरे हाथों से ही मार देंगे, मेरी मृत्यु होगी, उसी समय वे मेरे पास रहेंगे।’
‘मैं अभी तक जन्मी नहीं हूं। जब मैं खेलूं, तो मेरा अंग सहलाओ, जब मैं इशारा करूं तो बूढ़े आदमी की तरह मुझे सिखाओ, नौकरशाह मुझ पर धौंस दिखायें, पहाड़ बनकर मेरी रक्षा करो, प्रेमीजन मुझ पर हंसें, सफेद कॉलर वाले मुझे मूर्ख समझें और मुझे पराया कहें और भिखारी भेंट स्वरूप मुझे लेने से इंकार करें। यहां तक कि मेरे बच्चे अभिशाप कहकर दोष मढ़ें। दरअसल, समाज में रह रहा इंसान पापों को अंजाम देता है। दिल की गहराई से महसूस हुआ कि अजन्मी बच्ची की हालत संबंधी चिंता आत्मप्रवंचना है। आखिर वह आधुनिक समाज का मुकाबला कैसे करेगी? ईर या मानवता को आधुनिक समाज के आतंकों से कैसे बचाएगी? वह आधुनिक मानवता का किस तरह सामना करेगी और कैसे वह ईर या मानवता को इन खून चूसने वाले चमगादड़ों यानी आधुनिक समाज के चमगादड़ों से सुरक्षित करेगा या डंडा मारने वाले पिशाच से बचाएगा? इसी तरह के दूसरे भय समाज में हैं, इसी तरह के और अवरोधक समाज में ही हैं- ड्रग, झूठ, यातना और हिंसा इन्हीं की कई शक्लें हैं। अजन्मी बच्ची सुरक्षित होना चाहती है। धरती विकृत हो रही है और अजन्मी बच्ची ईर से प्रार्थना कर रही है कि वे उसे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से सेहतमंद रखें। अजन्मी बच्ची का महसूसना है कि आधुनिक समाज अपनी पहचान खो रहा है क्योंकि वहीं उसे पापों का पिटारा मिल रहा है। समाज ही मर्द और औरत में पाप उड़ेल रहा है। चूंकि बच्ची दुनिया का एक हिस्सा होगी, इसलिए उनके पाप कर्म में लिप्त होने की संभावना है। उसे जो भी पढ़ाया जाएगा, वही वह बोलेगी, उसे जिस तरह प्रशिक्षित किया जाएगा, वैसा ही सोचेगी और क्षमा भी वैसे ही मांगेगी। वास्तव में, एक मां की दलील भी वच्चे जैसी ही तो होती है। (बाकी पेज 2 पर)
जहां कन्या को मारना बड़ा पाप नहीं
न्यायाधीश नंद्रजोग ने साफ कहा कि भारत की जनता का नैतिक पतन होने का मतलब है कि भारत में सजा-संबंधी कानून कारगर नहीं है। इस तरह समझाने- बु झाने की नीति नाकाम हो चुकी है और कुशलता और काव्यमय ढंग से समझाया गया है कि दुनिया की उम्र काफी कम हो गयी है, इसके लिए महज आंकड़ों से इस तरह समझाया जा रहा है- दुनिया की आबादी बढ़ने में सिर्फ एक संख्या ही तो जोड़ी जाती है, दुनिया में औरत की आबादी में सिर्फ एक संख्या ही तो जोड़ने से काम चल जाता है, इस तरह एक संख्या कम करने से दुनिया की आबादी में वह कम हो जाती है, भारत में पुरुष-महिला के औसत आगे भी असंतुलित होना है, पैदा होने वालों के रजिस्टर में एक एंट्री भर ही तो हुई, इस तरह मृत्यु संबंधी रजिस्टर में एक ही तो कम हुआ! एक मुस्कराहट ही तो हमेशा के लिए छिन गयी!
अजन्मा बच्चा सुरक्षित होना चाहता है। धरती विकृत हो रही है और अजन्मा बच्चा ईर से प्रार्थना कर रहा है कि वे उसे शारीरिक, मानसिक और भावनत्मक रूप से सेहतमंद रखें
सामाजिक सोच के दुखद अक्स
न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने टिप्पणी की, ‘कोई तार्किक व्यक्ति कन्या भ्रूणहत्या की तरफदारी नहीं करेगा। यह न सिर्फ दंडनीय अपराध है बल्कि ईर के प्रति पाप भी है। जिंदगी रूपी तोहफा मानवता के प्रति ईर का महानतम उपहार है। बच्ची की पैदाइश जीवन की पैदाइश है, यह अभिभावकों की ओर से दिया गया जीवन नहीं है लेकिन अभिभावक द्वारा दिया गया जीवन अवश्य है। व्यापक रूप से सामाजिक तरंगों पर गौर करें तो आने वाली ज्यादातर याचिकाओं में कन्या के खिलाफ क्रूरता ज्यादा दिखती है। इससे पता चलता है कि पुरुष के खिलाफ काफी कम मामले हैं : औसतन औरतों का सेक्स जैविक रूप से ज्यादा सशक्त है, फिर भी वह अल्पसंख्यक है। आजादी के साठ साल बीतने के बाद भी तथाकथित आधुनिक समाज कन्याओं को लेकर अपना रवैया नहीं बदल पाया है। चाहे गांव हो या शहर, शिक्षित हो या बेपढ़ा, धनी हो या निर्धन, हर जगह कन्या को लेकर प्रतिकूल हालात हैं। 21 वीं सदी में भी सामाजिक सोच का यह दुखद पहलू है।’
आगे चलकर न्यायमूर्ति नंद्रजोग ने यह भी कहा, ‘इसका कारण कन्या की शादी के दौरान दहेज है। इसीलिए कन्या के साथ ऐसा बर्ताव होता है और पुत्र को इसीलिए पूंजी की तरह देखा जाता है। समाज भूल जाता है कि एक पुत्र तभी तक पुत्र है जब तक उसकी शादी नहीं हुई रहती लेकिन एक पुत्री ताउम्र पुत्री होती है।’
अगर ‘कन्या को लेकर आजादी के 60 साल की समयावधि में समाज का तथाकथित आधुनिकीकरण होने के बावजूद सामाजिक रवैये में बदलाव नहीं आया, तो फिर क्या रास्ता है?’ क्या न्यायिक तौरतरीकों में सामाजिक बर्ताव शामिल नहीं है? क्या न्याय दिलाने की संस्कृति में कोई अहम बदलाव आया है? इस अन्याय को होने से कैसे रोका जाए और वह भी तब, जब कानून के चीलों ने भी लाचारी से सवरेत्तम क्रिया-प्रतिक्रिया दी हो!
बहनों के प्रति दोयम बर्ताव
इस मोड़ पर आकर माननीय न्यायाधीशों को आश्चर्य हुआ कि ‘अपनी समस्त प्रतिभाओं के बावजूद इंडिया या भारत देशों के समुदाय के साथ कदम से कदम मिलाकर चल पाने में क्यों अक्षम है और वह भी तब, जब हमारा सिर बिल्कुल ऊंचा है? शायद इसका कारण यह है कि हम अपने 50 प्रतिशत नागरिकों के साथ ऐसा बर्ताव करते हैं, इनमें हमारी बहनें भी हैं जिन्हें दोयम दज्रे का और जूनियर पार्टनर माना जाता है, बिना यह सोचे कि कदमताल करने के दौरान अगर आपका सहयोगी थोड़ा पीछे रह गया है, तो आपकी ही प्रगति धीमी होगी।’
बाल विवाह प्रतिबंधित फिर भी कायम
माननीय न्यायमूर्तियों ने विश्लेषण किया कि अपीलकर्ता (मां) से संबंधित मेडिकल पेपर्स दर्शाते हैं कि उसके माता-पिता ने उसकी शादी मात्र 15 वर्ष की कच्ची उम्र में कर दी थी। इस अपरिपक्व उम्र में अपीलकर्ता (मां) बतौर गृहिणी और मां की भूमिका उसी सूरत में निभा सकती है, जब उसे कुछ सिखाया जाए और किसी दूसरे के कहे के अनुसार चला जाए। निस्संदेह, जब तक वह मां बनी होगी, कानून के मुताबिक वह वयस्कता की दहलीज पर पहुंच चुकी होगी। भले ही कहा जाए कि चाहे जिन भी परिस्थितियों में वह खुद के बारे में सोचने व आसपास के सामाजिक वातावरण से लड़ने के लिए परिपक्व हो गयी हो?ेनेशनल कैपिटल टेटीटरी ऑफ दिल्ली (एआईआर 2006 दिल्ली 37) के मनीष सिंह बनाम राज्य सरकार में दिल्ली हाई कोर्ट ने विवशतापूर्वक सुझाव दिया कि यह सिर्फ संसद के विमर्श के लिए है कि हिंदू विवाह कानून और बाल विवाह (निषेध) कानून के मौजूदा प्रावधान नाकाफी साबित हुए हैं या बाल विवाह को रोकने की कोशिश करने में नाकाम रहे हैं और उन्हें किसी उपचारात्मक या सुधारात्मक कदम उठाने की जरूरत है। सुशीला गोथाला बनाम राजस्थान सरकार (1995(1) डीएमसी 198) में राजस्थान हाईकोर्ट ने बाल विवाह (निषेध) संबंधी सलाह देते हुए कहा, ‘मेरे विचार से किसी भी सूरत में कानून के उल्लंघन के तहत तब तक बाल विवाह होने को रोका नहीं जा सकता, जब तक खुद समाज द्वारा इसे दूर न किया जाए और पुराने रिवाजों को जड़ से मिटा न दिया जाए। सर्वाधिक पीड़ादायक बात यह है कि सामाजिक बुराई के रूप में फैली इस प्रथा से इंकार करने के बजाय, समाज द्वारा इसे स्वीकृति मिली हुई है। इसमें भी कोई शक नहीं कि बाल विवाह के परिणाम कई रूपों में सामने आते हैं। जो बच्चे शादी का अर्थ नहीं समझते, उनकी कम उम्र में शादी कर दी जाती है। कितनी ही महिलाएं जिनकी शादी बचपन में हो चुकी है, वे अपने ही पति द्वारा निरक्षर होने या अन्य कारणों से वयस्क या बालिग होने पर छोड़ दी जाती हैं। इस सामाजिक बुराई की जमकर निन्दा करना बहुत जरूरी है। पर दुर्भाग्यपूर्ण है कि कोई भी सामाजिक संगठन बाल विवाह जैसे दोषों व बुराइयों के प्रति जनता को जागरूक करने के लिए आगे नहीं आते।
‘मनहूस’ कहने से बचें
माननीय न्यायमूर्तियों ने इस हकीकत को स्वीकार किया कि कन्या के खिलाफ होने वाले अपराध विकृत सामाजिक पैमाने और वीभत्स सामाजिक सोच की देन हैं और अपीलकर्ता जो न सिर्फ झुग्गी में रहती बेपढ़ी- गरीब है और जिसकी शादी मात्र 15 साल में हो गई, वह कभी भी कोई जुर्म करने की साजिश खुद से नहीं रच सकती। वह तो उस शख्स के हाथों की कठपुतली भर है, जिसने उसे यह सब करने का हुक्म सुनाया या रास्ता दिखाया। आपराधिक न्याय पण्राली के जरिये कोई नियम क्यों नहीं तैयार किया जाता? माननीय न्यायमूर्तियों ने तब जानबूझकर क्रिमिनल रूल्स ऑफ प्रैक्टिस, केरल-1982 के नियम संख्या-131 को स्पष्ट कि उन सभी मामलों में, जिसमें कोई औरत नवजात शिशु की हत्या की दोषी बताई गई हो, हाई कोर्ट के जरिए सरकार को बताया गया है कि यहां सजा को कम करने या उससे जुड़े मामलों में रिकॉर्ड के लिए संबंधित कॉपियां गत्थी की जाएंगी। पर एक बार फिर हैरानी हुई कि केंद्रशासित क्षेत्र दिल्ली में आपराधिक मामलों में न्यायिक व्यवस्था की प्रभारी राज्य सरकार के रूप में ऐसी सरकार नहीं है और इसीलिए हमने दिल्ली सरकार को नवजात कन्या की हत्या की गुनाह महिला को कम से कम केरल राज्य में बने नियमों के मुताबिक मानने संबंधी सलाह दी।
गंभीर अपराध, दोषी के प्रति सहानुभूति नहीं
किसी निष्कर्ष पर पहुंचने से पहले माननीय न्यायमूर्तियों ने एक बार दोहराया- ‘हमारे अनुरोध को बतौर मैनडमस के तौर पर नहीं लेना चाहिए..। हमने साफ कहाहै कि अपीलकर्ता के प्रति सहानुभूति जैसी चिंता दर्शाने का अर्थ हमारी ओर से यह नहीं है कि हम कन्या शिशुहत्या को मानते हैं न कि कोई संगीन जुर्म। हकीकत यह है कि यह संगीन जुर्म है और दोषी के प्रति किसी प्रकार की हमदर्दी नहीं दिखाई जा सकती, सिर्फ इस तथ्य पर गौर हो कि दोषी खुद ही अपने निरक्षर, गरीबी और सामाजिक वंचना के कारण समाज की उपेक्षा का शिकार थी।’ यदि यह कहना सही है कि ‘दोषी को सहानुभूति और दया की जरूरत नहीं तो क्यों, कैसे और किस आधार पर माननीय न्यायमूर्तियों ने अपने पूर्व के फैसलों में यह स्वीकारा कि ‘वह परित्यक्ता है, जो तकलीफदेह हालात में गरीबी रेखा के नीचे रहती है।’ धारा- 313 सीआर.पी.सी. के तहत उसके द्वारा दिए गए खुद के बयान में बाएं हाथ के अंगूठे की छाप ही उसके अनपढ़ होने का गवाह है। उसके पतेसे पता चलता है कि वह झुग्गी-झोंपड़ी में रहती है। माननीय न्यायमूर्तियों आगे साफ किया, ‘कन्या के प्रति अपराध विकृत सामाजिक दस्तूर और तंग नजरिये की ही देन हैं। इस तरह अशिक्षित, गरीब और झुग्गीवासी अपीलकर्ता की सिर्फ 15 वर्ष की उम्र में ही शादी हो गई हो, उसे अपराध को अंजाम देने जैसी भूमिका के लिए जिम्मेदारी नहीं ठहराया जा सकता।’

Wednesday, June 8, 2011

कैस्ट्रेशन सेशन!

कैस्ट्रेशन सेशन!
(राष्ट्रीय सहारा आधी दुनिया ८.६.२०११)
अरविन्द जैन, वरिष्ठ अधिवक्ता सुप्रीम कोर्ट


बच्चियों के साथ आए दिन होने वाले बलात्कार की घटना पर अपना गुस्सा जाहिर करते हुए दिल्ली की निचली अदालत की जज ने कुछ दिनों पहले बलात्कारी का कैस्ट्रेशन (बंध्याकरण) करने की बात की थी। इस पर बहस शुरू हो गयी कि क्या कैस्ट्रेशन से मनचले डरेंगे और बलात्कारों पर अंकुश लगेगा
न्याय कानून के मुताबिक दिया जाना जरूरी है, न कि इस संकल्पना के आधार पर कि ऐसे घृणित अपराधों पर अंकुश के लिए। किसी कानून में ऐसी व्यवस्था नहीं है कि अगर बलात्कार के मामले में कोई खास आरोपी स्वेच्छा से केस्ट्रेशन कराता है, तो विधि के मुताबिक कोई भी अदालत कम से कम दंड दे सकती है
दिल्ली में यौन अपराध और बलात्कार संबंधी आए दिन हो रही घटनाओं की गंभीरता को देखते हुए आशंका है कि मीडिया में इसे लेकर जबर्दस्त बहस हो। लेकिन दिल्ली एडिशनल सेशन जज (रोहिणी) कामिनी लॉ ने कहा है कि कानून निर्माताओं को इस संभावना पर ध्यान देना चाहिए कि क्या बलात्कार से जुड़े मामलों में अभियुक्त को रासायनिक या ऑपरेशन के जरिये दंड के रूप से बंध्याकरण (कैस्ट्रेशन) कर दिया जाए। अभियुक्त दिनेश यादव को 15 साल की अपनी सौतेली बेटी के साथ चार साल तक बलात्कार के जुर्म में 10 साल जेल की कठोर सजा का फैसला सुनाते हुए कामिनी लॉ ने कहा कि बलात्कार संबंधी मामलों में वैकल्पिक सजा की व्यवस्था करना वक्त की मांग होनी चाहिए। सुश्री लॉ ने इस आदेश की कॉपी कानून और न्याय मंत्रालय के सचिव, राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष और दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष को भेजी। कई विकसित देशों में केमिकल बंध्याकरण के साथ ही लंबे समय तक जेल में बंद रखने जैसा वैकल्पिक उपाय है। भारत सरकार का इस मुद्दे पर रवैया लचर है। इसके विपरीत, हमारे सांसदों और विधायकों को सर्वाधिक गंभीर इस मसले पर ध्यान देते हुए कम उम्र की लड़कियों, रह-रह कर ऐसे अपराध करने वालों..या प्रोबेशन की शर्त पर या सौदेबाजी पर उतारू लोगों के मामले में वैकल्पिक दंड का प्रावधान करना चाहिए। अदालत ने स्पष्ट कहा कि समूची दुनिया के न्यायाधीश इस मामले में एक नजरिया यह रखते हैं कि रासायनिक बंध्याकरण को व्यभिचारियों, आए दिन बलात्कार करने वाली विकृत मानसिकता के लोगों और छेड़छाड़ करने वालों के लिए बाध्यकारी कर देना चाहिए।
1995 में दिल्ली हाईकोर्ट ने कैस्ट्रेशन नकारा
करीब 20 साल पहले अतिरिक्त सेशन जज एस.एम. अग्रवाल ने हाईकोर्ट और दूसरे मामलों को स्वीकार करते हुए साढ़े तीन साल की लड़की के मामले में स्वैच्छिक कैस्ट्रेशन का जिक्र कर कैस्ट्रेशन की बात कही थी। दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति पी.के. बाहरी और न्यायमूर्ति एस.डी. पंडित ने जगदीश प्रसाद शर्मा बनाम राज्य (57-1995-डीएलटी 761 डीबी) मामले में व्यवस्था दी- ‘इस मामले से अलग होने से पहले, हम विचार कर सकते हैं कि जानकार अतिरिक्त सेशन जज द्वारा अपील करने वाले का हाईकोर्ट के आदेश के आलोक में और शेष दंड की छूट को देखते हुए स्वैच्छिक कैस्ट्रेशन उचित नहीं है क्योंकि अतिरिक्त सेशन जज के आदेश का यह हिस्सा पूरी तरह गैरकानूनी है। कानून के मुताबिक, फैसला सुनाया जाना जरूरी है, न कि इस संकल्पना के आधार पर कि ऐसे घृणित अपराधों पर अंकुश के लिए। किसी कानून में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि यदि बलात्कार के मामलों में कोई खास आरोपी स्वेच्छा से कैस्ट्रेशन कराता है, तो कानून के मुताबिक कोई भी अदालत कम से कम दंड तो दे ही सकती है। जनप्रतिनिधियों द्वारा निर्धारित कानूनी आधार पर न्यूनतम दंड कोई भी अदालत दे सकती है। विधायिका द्वारा बनाए कानून के अंतर्गत दंड दिया जाता है। अतिरिक्त सेशन जज को स्वयं ऐसी किसी भी कार्रवाई का प्रस्ताव देने में संयम बरतते हुए खुद पर नियंतण्ररखना चाहिए।’
हाईकोर्ट या तो पूर्व के फैसलों को दोहराए या प्रस्ताव करे मंजूर
ऐसा लगता है कि निचली अदालत के न्यायाधीश ने फैसला सु नाने से पहले दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व में दिए फैसले पर गौर नहीं किया। हाईकोर्ट ने 1995 में दिए अपने फैसले में इस मामले में गंभीर और दूरगामी प्रस्तावों पर काफी कुछ रोशनी डाली थी। इस कारण यह कहना जरूरी नहीं रह जाता कि उक्त न्यायाधीश का आदेश गैरकानूनी घोषित किया जाता है और कानून के जानकार श्री अग्रवाल को सलाह दी जाती है कि ‘वे स्वयं किसी तरह की कार्रवाई का प्रस्ताव न करें। यह कानून के मुताबिक, औचित्यपूर्ण भी नहीं है।’
यदि सुश्री लॉ के आदेश के विरुद्ध कोई उच्च अदालतों में अपील करता है तो यह किसी के आकलन से परे होगा क्योंकि हाईकोर्ट के न्यायाधीश पूर्व में सुनाए गए फैसलों का अनुकरण करेंगे या सुझाए गए किसी मौलिक प्रस्ताव को मंजूर करेंगे।
बंध्याकरण असंवैधानिक
यह विचारणीय है कि कैरोलिना की सुप्रीम कोर्ट ने भी बलात्कार के मामले में भी बंध्यकरण पर खामोशी अपनायी। दक्षिण कैरोलिना के सुप्रीम कोर्ट ने हाल में व्यवस्था दी कि अंगभंग के रूप में बंध्यकरण असंवैधानिक है और इस तरह उसने तीन अेत दोषियों को दोबारा दंडित करते हुए उन्हें 30 साल कैद की सजा सुनायी। न्यायाधीशों ने व्यवस्था दी कि सर्किट जज विक्टर पायले द्वारा सुनाई गई सजा कुछ भी नहीं है क्योंकि बंध्याकरण ‘क्रूर और असामान्य दंड’ देने से राज्य के संविधान ने मना किया है।
बलात्कारियों का अपराध : नपुंसकता
झानू पीएफ के तेजतर्रार सांसद सदस्य माग्रेट डोंगो की दलील है कि बलात्कार के अपराधी को नपुंसक किए जाने के मामले को संविधान के नए प्रावधानों से जोड़ा जाना चाहिए। डोंगो का कहना है, ‘कानून का कोई भी रूप जो शरीयत की तरह दिखता है, हटाया जाना चाहिए ताकि अपराधियों और बर्बर परंपराओं को रोका जा सके जो बलात्कार के दायरे में आते हैं।’
‘मैं सभी महिलाओं का आह्वान करता हूं कि वे इस बात के लिए आस्त रहें कि नए संविधान में बलात्कारियों की सजा के तौर पर नपुंसकता का प्रावधान हो। शायद, इसी तरह से बलात्कारियों की गतिविधियों पर अंकुश लगाया जा सकता है, जिसने कई जख्म दिए हैं जिम्बाब्वे के कई परिवारों को गहरी सदमा दिया। इस जघन्य घटना के बाद बलात्कार की शिकार दोबारा कभी भी अपनी जिंदगी नहीं जी सकी, जो इंसान के लिए सबसे जघन्य अपराध की श्रेणी है।
मैं सभी सांसदों से प्रार्थना करता हूं कि वे बच्चियों के साथ-साथ महिलाओं के हितों की रक्षा करें। कानून में परंपरा के तौर पर बदले की भावना है, जिसमें ऐसा चलन है जो पुरुषों को बलात्कार के लिए उकसाता है। मौजूदा कानून निष्प्रभावी साबित हो चुका है। कड़े दंड के तौर पर बधिया कर देने से दिक्कत कम नहीं होगी। हमें पूर्व में देखना होगा कि गलती कहां हुई। बलात्कार हमारे समाज की अनकही पीड़ा का कारण है। इसके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए और इसे कभी भी स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए।’ यह कहते हुए डोंगो बेहद गुस्से में थे। नाबालिगों के साथ बढ़ रही बलात्कार-संबंधी घटनाओं को लेकर जिम्बाब्वे की महिलाएं अधिकार संगठन परेशान हैं, कहती हैं- ‘यह सोचना गलत नहीं है पुरुष इसे गलत ठहरा रहे हैं। इसका अर्थ बल प्रयोग, ताकत और नियंतण्रही नहीं है’ संगठन की प्रोग्राम मैनेजर बोंगी सिबांडा ने कहा। लड़कियों के अधिकार के लिए आवाज बुलंद करने वाले स्थानीय संगठन ‘गर्ल चाइल्ड नेटवर्क’ का कहना है, बलात्कार के करीब 95 फीसद मामले पुरुषों द्वारा युवा लड़कियों के मुकाबले छोटी बच्चियों के साथ के हैं। महिला, जेंडर और सामुदायिक विकास मामलों के मंत्री ओलिवा मुचेना हाल ही में बहस में बहस छेड़ी और कहा, ‘जो बच्चियों के साथ बलात्कार करते हैं, उनके कैस्ट्रेशन के विकल्प पर गंभीरता से ध्यान देने की जरूरत है, क्योंकि इस मामले में सजा के कई स्तर हैं और बच्चों के साथ बलात्कार करने वालों पर भी यही प्रावधान लागू होना चाहिए। आप किसी बच्चे के साथ बलात्कार कैसे कर सकते हैं? यह तो सरासर हत्या करने जैसा व्यवहार माना जाना चाहिए और इसके लिए कैस्ट्रेशन की सजा दी जानी चाहिए।’
सिबांडा ने कहा, ‘इसलिए मेरा विास है कि बलात्कारियों का कैस्ट्रेशन की हमें जोर-शोर से आवाज उठानी चाहिए जिससे बलात्कार जैसी घृणित हरकतें न करने का संदेश जाए। यह खेदजनक है कि ज्यादातर मामलों में बच्चियां ही यौन शोषण की शिकार होती हैं और रिश्तेदार ही उनके लिए दोषी होते हैं। नतीजा यह होता है कि ऐसे मामलों को दबा दिया जाता है औ र शायद, घर से निकाल दिए जाने की आशंका से पीड़ित बच्ची अपना मुंह कभी नहीं खोलती। पीड़ित बच्ची की जिंदगी पर एक भावनात्मक घाव लग जाता है। ऐसे में, कोई क्यों पूरी जिंदगी भावनात्मक घाव लिये गुजारे? इसीलिए मैं कोई वजह नहीं देखता कि किसी के ऐसे कुकृत्य से किसी बच्ची पूरी जिंदगी भावना रूप से सदमा लिये क्यों जिये, कभी-कभी शारीरिक रूप से चोटिल हो जाती हैं, जिसका नतीजा यह होता है कि समूची जिंदगी में उन्हें वैसा सदमा न लगे।’
इसमें शक नहीं कि बलात्कार के बढ़ते मामले समाज के ढीले रवैये से सीधे तौर पर जुड़े हैं। इनमें समाज का उदासीन रवैया, उनके प्रति क्रूरता के मुताबिक कार्रवाई में असमर्थता और बेहद सख्त दंड दिया जाना इसके निषेध के तौर पर कार्य करते हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट की दृष्टि से बलात्कारियों का कैस्ट्रेशन किया जाना गैरकानूनी, असंवैधानिक, निहायत कठोर, प्रतिशोधी और भारतीय संविधान के अनुच्छेद- 21 के तहत अभियुक्त के मूलभूत अधिकार का हनन है। कानून में निश्चित रूप इसकी भाषा, व्याख्या, दूरदृष्टि और नजरिये की सुरक्षा और समाज के भेड़ियों से असहाय बच्चों को बचाने के स्तर पर आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है लेकिन सवाल वही है- बिल्ली के गले में घंटी कौन, कब और कैसे बांधेगा?

Thursday, May 19, 2011

भेड़-भेड़िए कहानी

अरविन्द जैन

पता नहीं मुझे क्यों लगता है क़ि फ्रिज में रखा दूध फट गया होगा. डीपफ्रिज खोलते डर लगता है क़ि गले-सड़े संबंधों की लाशें बाहर निकल आएँगी. हर समय महसूस होता है कि रिश्तों क़ि तमाम पावनता-पवित्रता संदेह के घेरे में आ खड़ी हुई हैं. बाहर ही नहीं, दोस्तों या रिश्तेदारों से भी डर लगने लगा है कि कहीं कोई साजिश तो नहीं रच रहा. बड़े भाई ने जूस का गिलास लाकर दिया, तो दिमाग में संदेह के कीड़े कुलबुलाने लगे कि जरूर ज़हर मिला कर लाया होगा. आस्था और विश्वास- कांच के टुकड़ो की तरह, दिलो-दिमाग में बिखरे पड़े हैं और रह-रह कर चुभते रहते हैं. घर से दफ्तर के बीच का रास्ता, किसी सुनसान श्मशान सा लगता है. सारी रात सपने में कभी भूखा-प्यासा और लहूलुहान, दूर तक पसरे थार, बीहड़ जंगल या दुर्गम पहाड़ियों में चीखता-चिल्लाता घूमता रहता हूँ, कभी किसी तूफानी नदी में कागज़ कि किश्तियाँ चलाते-चलाते डूब जाता हूँ. मैं उस घटना-दुर्घटना को भूलना चाह कर भी, भूल ही नहीं पाता.
हमारा घर माणिक कि हवेली से थोड़ी ही दूर था , सो आना-जाना लगा ही रहता था. जन्मदिन की पार्टी से लेकर पिकनिक तक में अक्सर माणिक, हमारे साथ ही रहता. धीरे-धीरे माणिक, मधु के प्रेम के चक्कर में पड़ गया था. न जाने कब, क्यों और कैसे? संभवत मधु का सपना था, अपना एक 'ब्यूटी पार्लर' खोलना और माणिक ने उस सपने को हकीक़त में बदलने के,ख्वाब दिखाने शुरू कर दिए थे.
माणिक की हवेली, किसी आलिशान किले से कम न थी. हवेली के बाहर चमचमाती देशी-विदेशी मंहगी गाड़िया खड़ी रहती थी और बड़ी-बड़ी मूंछों वाले चौकीदार. हवेली के चारों तरफ हमेशा पेड़, पौधे और रंग-बिरंगे फूल खिले रहते थे. दो-तीन माली सुबह से शाम तक इनकी, बच्चों से भी ज्यादा देखभाल जो करते थे. हर कमरे में एयर कंडीशनर और फर्श पर ईरानी कालीन. दिवाली के दिन तो हवेली, दुल्हन सी सजी दिखाई देती थी.
आये दिन हवेली में कोई न कोई पार्टी या जश्न होता और मेहमान (युवा स्त्री-पुरुष) देर रात गए तक शराब पीते, मादक संगीत की धुनों पर नाचते-गाते, खूब मौज-मस्ती करते और सुबह होने से पहले ही गायब हो जाते. हर महीनें कबाड़ी आता तो अखबार, चिकने पन्नों वाली फ़िल्मी मैगज़ीन, अंग्रेजी नॉवेल और शराब की सैंकड़ों खाली बोतलें (टीचर, जॉनी वाकर, शिवास रिगल, ब्लैक डॉग) बोरी में भर कर ले जाता.

माणिक कोई बहुत बड़ा उद्योगपति या कारोबारी नहीं बल्कि 'प्रोपर्टी डीलर' था यानि दोनों तरफ से दो प्रतिशत कमिशन पर जमीन, कोठी, बंगले, फ्लैट खरीदवाने-बिकवाने का काम करता था. दरअसल उन दिनों गली-गली में 'प्रोपर्टी डीलर', 'ब्यूटी पार्लर' और 'एन. जी. ओ.' के बोर्ड लगने शुरू हो गए थे. देखते-देखते लोगों के लिए दलाली से अच्छा और कोई काम नहीं रह गया था. दलाली चाहे जमीन जायदाद की हो या किसी भी सरकारी खरीद की. यहाँ तक कि बहुत से लोग तो कोटा, परमिट, पेट्रोल पम्प का लायसेंस, चुनावी टिकेट और हवाई जहाज से लेकर तोपों कि खरीद तक कि दलाली करने लग गए थे. हिंग लगे न फिटकरी रंग चोखा ही चोखा. अदालतों की बाहरी दीवारों पर तो एक बड़ा सा बोर्ड टंगा रहता "दलाओं से सावधान, अपने वकील से सीधे संपर्क करें". दिन-रात दलालों कि गाड़ियाँ, लाल बत्ती वाली गाड़ियों के इलाके से लेकर एयर पोर्ट तक ही घूमती रहती थी.

दोनों के बीच चल रहे प्रेम-प्रसंगों की भनक लगी या शक होने लगा, तो मैंने अपना घर बेच हवेली से थोड़ी दूर जा बसा. लेकिन अक्सर मधु और माणिक गायब हो जाते और दो-तीन दिन घूम-घूमा कर वापिस आ जाते. माणिक और मधु के बीच पांच सितारा होटलों में होने वाली रंगरेलियों के बारे में, अनुमान लगाया जा सकता हैं.
मधु और माणिक के बीच अवैध संबंधों के हिंसक और जंगली घोड़े हिनहिनाने लगे, तो दूर-दूर तक अनहोनी ने भी अपने पाँव पसारने शुरू कर दिए. प्रेम के पागलपन में आवारा और उद्दाम आकाक्षाएं, निरंतर क्रूर और वहशी होने लगी. ऐसे में वासना की गोद में लेटी कामनाओं ने, सच के संभावित चशमदीद गवाहों को हमेशा के लिए चुप्प करने-कराने का षड़यंत्र रचा होगा.
उस दिन सात साला बेटा और चार साल की बेटी टूयशन पढने क्या गए, कि फिर लौट कर ही नहीं आये. रास्ते में ही माणिक ने बच्चों को उठाया, गाड़ी में बैठाया और शहर के सुनसान पहाड़ी जंगल में ले जाकर, जिन्दा जला दिया. बच्चों को बचाने कि तमाम कोशिशें, व्यर्थ साबित हुई.

उनके पास और भी तो विकल्प थे. बच्चों को छोड़ कर, भाग जाते देश-विदेश कहीं भी. कहते तो मैं खुद ही तलाक दे देता.पर कैसे भाग जाते? अनहोनी तो सिर पर, नंगी हो कर नाच रही थी. मन में अक्सर यह सवाल कोंधता है कि फूल से अबोध-निर्दोष बच्चों को पेट्रोल छिड़क कर जलाते समय, क्या माणिक कि आत्मा ने एक बार भी नहीं रोका-टोका होगा? ऐसे तो कोई जानवरों को भी नहीं मारता.

कुछ ही महीने बाद, मधु को स्त्री होने और मुकदमें में सालों लगने कि वजह से, जमानत पर रिहा कर दिया गया और अन्तत: बरी भी हो गयी थी. न मालूम क्यों, मधु क़ी ज़मानत करवाने वाले वकील साब क़ी कुछ ही समय बाद दिन-दिहाड़े हुई हत्या भी मुझे आश्चर्यजनक सी लगती है. बार-बार शक़ होता है कि कहीं इसमें, मधु या माणिक या दोनों का हाथ तो नहीं.
इसके बाद तो मुझे हर जगह वह ही घूमती नज़र आने लगी. बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन से लेकर एयर पोर्ट तक. हस्पताल, बाज़ार, होटल, पुलिस स्टेशन और मंदिर से लेकर माल तक. मोटरसाइकिल पर पीछे बैठे दो बच्चे देखते ही सायरन सा बजता कि यह इन्हें पहाड़ी जंगल ले जाकर जिन्दा जला देगा. मैं जब तक चीखता, तब तक वह बहुत दूर जा चुका होता. रेलवे स्टेशन पर, लावारिस सा बैग देख कर लगता कि इसमें दोनों बच्चों कि लाश होगी. पेट्रोल पम्प पर किसी को प्लास्टिक क़ी बोतल में पेट्रोल लेते देखता, तो सोचता कि माणिक बच्चों को जलाने के लिए ले जा रहा है. सालों डाक्टरी इलाज़ के बाद, थोड़ा ठीक होने लगा था कि फिर से अखबार में छपी खबर 'माणिक को सजा-ए-मौत' पढ़ कर सारे शरीर में संदेह कि ज़हर बुझी सुइयां चुभने लगी. बच्चों कि अनसुनी चीखें अब भी अदालत के उन गलियारों में सुनाई पड़ती हैं, जहाँ मुकदमें कि सालों सुनवाई होती रही.

दस साल बाद अखबारों में समाचार छपा था कि तमाम गवाहों, तथ्यों-सत्यों को देखते हुए और दोनों पक्ष के विद्वान वकीलों कि बहस सुनने के बाद, सेशन जज ने माणिक को ‘सजा-ए-मौत’ का हुकुम दिया है, बशर्ते कि उच्च न्यायालय फैसले कि पुष्टि कर दे.
‘सजा-ए-मौत’ तो ठीक लगी, बहुत खुश भी हुआ मगर 'बशर्ते कि उच्च न्यायालय फैसले कि पुष्टि कर दे' को लेकर मन में सैंकड़ों सवाल उमड़ते-घुमड़ते रहते. उच्च न्यायालय ने पुष्टि नहीं कि तो? क्या बरी कर देगी....क्या उम्र कैद में बदल देगी? माणिक बच जायेगा, तो फिर से बच्चों को जलाएगा. नहीं...नहीं....नहीं....ऐसा नहीं हो सकता... अगर हुआ तो...तो..तो...मैं ??????
उच्च न्यायालय का फैसला आने तक, मेरी हालत पहले से भी ज्यादा खराब होने लगी. कभी कहीं बम्ब विस्फोट में बच्चे मारे जाते और कभी किसी ट्रेन में आग लगने-लगाने से. कभी स्कूल कि छत गिरने से मासूम बच्चों कि मौत तो कभी बस दुर्घटना से. कभी नाबालिग बच्चियों की बलात्कार के बाद, गला घोंट कर हत्या कर-करवा दी जाती तो कभी किसी गंदे नाले या नहर से किसी अनाम बच्चे या बच्ची क़ी सड़ी-गली लाश बरामद होती.
अब तो अखबारों से बहुत पहले, टी.वी. चैंनलों के कैमरा घटनास्थल पर पहुँच कर आँखों देखा हाल सुनाने लगते हैं. ऐसी खबरे पढने-सुनने के बाद तो सचमुच दिमाग भनाने लगता है और ऐसे महसूस होता है, जैसे हर जगह शिकारी गश्त लगा रहे हैं. मैं जब तक सारे अखबार फाड़-फाड़ कर कचरे का ढेर लगाता हूँ, तब तक नए अखबार ‘आज की ताजा खबर’ के साथ दरवाजे पर घंटी बजाने लगते हैं.

टी. वी. बंद ....अखबार बंद.....और दिमाग बंद कर हफ़्तों गुमसुम अपने कमरे में ही पड़ा-पड़ा, न जाने क्या-क्या सोचता-समझता रहता हूँ. सबने पागल कहना शुरू कर दिया है. कोई 'फिलास्फर' कहता है और कोई सिरफिरा या सनकी. ब्रेकिंग न्यूज़ यह है कि ‘देश और समाज के बारे में सोचने को, दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया है’. सूचना के अधिकार के तहत जो कोई भी सूचना मांगेगा, उसे गोली मार दी जाएगी.
मैं अपने आप को बहुत समझाता-बुझाता हूँ "कल से दफ्तर जाऊँगा, मन लगा कर काम करूंगा, कुछ भी उलटा-पुल्टा नहीं सोचूंगा, और...और.... कोई फिजूल पंगा नहीं.... परन्तु दोपहर होते-होते दिमाग में फिर से वही गर्मी और फितूर करवटें लेने लगता है. मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊं....किससे कहूं?

लगभग दो साल बाद वही हुआ, जिसकी आशंका थी. अखबारों में छोटी सी खबर थी कि उच्च न्यायालय की माननीय न्यायमूर्ति सुश्री (क्षमा करें याद नहीं आ रहा, न जाने क्या नाम था जजसाहिबा का) ने गंभीरतापूर्वक वरिष्ठ वकीलों कि बहस सुनने और तमाम मुद्दों पर विचार करने के बाद, सजा फांसी की बजाय, बीस साल उम्र कैद में बदलते हुए कहा है कि यह 'दुर्लभतम में दुर्लभ' मामला नहीं है.

खबर बहुत ही छोटी सी छपी या छापी गई थी मगर मेरे लिए तो यह किसी भयंकर भूकंप जैसी थी, जिसमें बहुत कुछ तहस-नहस हो गया या होने वाला था. खबर पढ़ते-पढ़ते ही दिमाग सुन्न सा हो गया.चाय का कप फर्श पर गिरा और टूट गया. चश्मा उतारने लगा, तो हाथ फूलदान से जा टकराया. ना चश्मा बचा और ना ही फूलदान. शाम तक शायद कुछ भी साबुत नहीं बच पाया. रही-सही आशा, उम्मीद और विश्वास को पिछले प्रांगन में दफ़न कर दिया. दिल,दिमाग और आत्मा किसी ऐसे गहरे अंधे कुंए में भटक रहे हैं, जिससे फिलहाल बाहर निकलने का कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा.

ऐसी ही मनः स्थिति में दिन...महीने....साल बीतते गए. निरंतर धर्म-ध्यान-योग-साधना-और चिंतन के बावजूद, ना कोई फायदा हुआ और ना होने कि कोई गुंजाइश दिखती है.
सुबह घर से दफ्तर जाते समय, राजघाट से लेकर राजपथ तक ट्रैफिक जाम था. रास्ते में देखा कि न्याय के सबसे बड़े मंदिर के सामने दुनिया भर के टी.वी. चैंनलों क़ी गाड़ियाँ खड़ी हैं और रोजाना क़ी अपेक्षा कुछ ज्यादा ही भीड़ है. भीड़ में आम आदमी कम, काले-काले लम्बे चोगे वाले अधिक दिखाई दे रहे हैं. मन में यह ख्याल भी आया कि माणिक के खिलाफ दायर, सरकार कि अपील पर क्या कोई निर्णय हुआ या नहीं? मैंने हमेशा कि तरह निराशावादी ढंग से अनुमान लगाया कि कुछ नहीं होगा.....कुछ भी नहीं होगा..... सिवा तारीख....तारीख.....तारीख.

रात को खाना खाने के बाद थोड़ी देर अमर्त्य सेन क़ी पुस्तक 'एन आईडिया ऑफ़ जस्टिस' के पन्ने पलटता रहा और ना जाने कब गहरी नींद सो गया. पिछले पुस्तक मेले में खरीदी इस किताब को, आज तक खोल कर भी नहीं देखा. सुबह-सवेरे आँख खुल गयी तो मन हुआ कि पहले कि तरह, आज से पार्क घूमने जरूर जाया करूंगा. उस दिन वैसे भी छुट्टी थी, सो चुपचाप कपडे और जूते पहन सैर करने निकल पड़ा.

पार्क में घंटा भर चक्कर काटने के बाद इच्छा हुई क़ि एक कप चाय पी जाये तो मज़ा आ जायेगा. चाय का आर्डर देकर मैं पास पड़े बेंच पर बैठ गया. सोचा जब तक चाय आती है, तब तक सामने पड़ा अखबार ही देख लेता हूँ. हाथ बढा अखबार उठाया और एक के बाद एक खबर पढने लगा.

पढ़ते-पढ़ते अचानक कानूनी पन्ना सामने था. सबसे नीचे एक कालम में मुश्किल से दस लाइनो का समाचार. सुप्रीम कोर्ट द्वारा माणिक केस में दायर, राज्य सरकार की याचिका खारिज.फैसले में कहा गया है ट्रायल कोर्ट ने प्रतिवादी को फांसी कि सजा सुनाई मगर हाई कोर्ट ने इसे २० साल कैद में बदल दिया. हाई कोर्ट के फैसले के विरुद्ध राज्य सरकार ने विशेष अनुमति याचिका दायर की, जिसे दो साल बाद सुनवाई के लिए स्वीकार कर लिया गया. स्वीकार करने के छः साल बाद, अब यह अपील अंतिम सुनवाई पर आई है. सभी पक्षों ने माना कि इस बीच बीस साल की सजा पूरी होने के कारण, माणिक को जेल से रिहा कर दिया गया है. इस हालात में अपील मंजूर करके, सजा-ए-मौत का आदेश देना सचमुच न्याय का मज़ाक उड़ाने के समान होगा. हालांकि हम ट्रायल कोर्ट के फैसले को सही मानते हैं, जिसमें कहा गया है कि प्रतिवादी द्वारा किया अपराध वास्तव में बेहद बर्बर है और किसी रहम के काबिल नहीं है.

माणिक जेल से कब रिहा हुआ....मुझे पता भी नहीं चला. उफ़....पता नहीं लड़का कब, चाय का कप रख कर चला गया और चाय रखी-रखी ठंडी हो गई या खबर पढ़ते-पढ़ते कब, कैसे और क्यों बेहोश हुआ और कोन मुझे उठा कर हस्पताल लाया. होश आया तो मैं किसी विशालकाय अदालत के खंडहरनुमा संग्राहलय में घुन्न या दीमग लगी मेज-कुर्सियों और किताबों के ढेर में आग लगा, जोर-जोर से बोलता जा रहा था 'आर्डर....आर्डर….जस्टिस........हाज़िर हों'.
आग कि रौशनी में सामने बनी मीनार के पत्थर पर बनी, सदियों पुरानी कोई कलाकृति दिखाई दी तो पास जाकर देखने लगा और देखता ही रह गया. किसी भेड़िएनुमा आदमी के एक हाथ में भारी सी तलवार थी और दूसरे में तराजू. उसके पीछे एक बड़े से पेड़ पर बैठे बन्दर अजीब-अजीब सा मुंह बना रहे थे और बेहद भयभीत नज़र आ रहे थे. दांई तरफ बाड़े में बंद भेड़ों के सिर पर, काली पट्टी बँधी थी. उसके ठीक सामने काठ का काफी मोटा सा लट्ठा रखा था, जिसपर खून से लथपथ कटी हुई भेड़ पड़ी थी. मुझे ऐसा लगा जैसे तराजू के एक पलड़े में भेड़ का मांस है और दूसरे में सोने-चांदी के सिक्के. भेड़िएनुमा आदमी के चेहरे पर रहस्यमयी सी मुस्कान और अपार संतोष नज़र आ रहा था.

दोस्तों! मुझे तो आज तक उस कलाकृति का सही-सही मतलब समझ नहीं आया. आपको कुछ समझ आये, तो मुझे जरूर बताना. मैं सचमुच आपका आभारी हूँगा.